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भगवान् महावीर
पुत्र के त्रास देने पर उसने आत्महत्या भी कर ली हो। पर भगवान महावीर के समवशरण तक मगध के राजसिंहासन पर श्रेणिक ही अधिष्ठित था यह बात निश्चित है । कुणिक के विषय में जैन-शाखों में इतना ही उल्लेख है कि उसने भगवान महावीर के दर्शन किये थे । पर क्या ताज्जुब वे दर्शन उस समय हुए हो जब भगवान का निवारण काल बिल्कुल समीप हो, भगवान महावीर बिम्बसार के समकालीन थे, उन्होंने विम्बसार को कई स्थानो पर उपदेश भी दिया है। और जब कि, विम्बसार का काल ५३० ई० पृ० में मानते हैं, तो भगवान महावीर का निर्वाण काल ५२७ ई० पू० मानने में कोई अडचन नही पड़ सकती। जैकोबी साहब का अन्तिम तर्फ अवश्य बहुत कुछ महत्व रखता है। हमचन्द्राचार्य ने अवश्य चन्द्रगुप्त काकाल महावीर निवाण मम्बत १५५ लिसा है और आज कल के ऐतिहासिकों ने बहुत ग्बोज के पश्चात् चन्द्रगुप्त का काल ३२२ ई० पूर्व सिद्ध कर दिया। इस हिसाब से जैकोबी साहब का मत पूर्णतयामाननीय हो सकता है। पर हाल ही में बंगाल के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता नगेन्द्रनाथ वसु महोदय ने अपने वैश्यकांड नामक अन्य में कई अकाट्य प्रमाणों में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि ई० पू० ३२२ में आजकल के इतिहासन जिस चन्द्रगुप्त का होना मानते हैं, वह वास्तव में चन्द्रगुप्त नहीं, प्रत्युत्त उसका पोत्र अशोकथा। असली चन्द्रगुप्त का काल ई० पू० ३७५ मे ठहरता है। इस बात को उन्होंने
बन महादय का म उपपत्ति और उनके प्रमाणों का विस्तृत विवेचन हमने अपने "मारत के हिन्दू मम्राट" नामक ग्रंथ में किया है। नो बनारस के दिन्दा मादित्य मन्दिर से प्रकाशित हुई है । लेखक