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भगवान् महावीर
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उसके सब साधारण उपासक पीछे ब्राह्मण धर्म मे सम्मिलित हो गये ।
बौद्ध-धर्म के इस विनाश के समय में भी जैन-धर्म अपनी शान्त और मन्थर गति से भारत की भूमि पर चलता रहा । शङ्कराचार्य के भयङ्कर हमले का भी उसकी नीव पर कोई 'असर' न हुआ । उसके पश्चात मुसलमानो के भयङ्कर आक्र मणों और समय प्रवाह के अन्य अन्य भीषण तूफानो के बीच में भी वह अटल बना रहा । इतना अवश्य हुआ कि, समय की भयङ्कर चोटों से उसकी असलियत में बहुत कुछ विकृति आ गई। वह अपने असली स्वरूप को बहुत कुछ भूल गया जैसा कि आज हम देख रहे हैं। पर इतने पर भी उसकी जड़ कालचक्र के सिद्धान्तों को उलाहना देती हुई आज भी मौजूद है।
बौद्ध धर्म के विनाश का एक कारण और हमे प्रत्यक्ष मालूम होता है । वह यह है कि सजय के अज्ञेयवाद के विरुद्ध जैनाचाप्यों ने जिस प्रकार "स्याद्वाद" दर्शन की व्युत्पति की, उस प्रकार बौद्धाचाय्यों ने कुछ भी न किया । उलटे सजय के कई सिद्धान्तों को उन्होंने स्वयं स्वीकार कर लिया । बुद्ध ने अपने "निर्वाण" विषयक सिद्धान्तों में “अज्ञेयवाद" का पूरा पूरा अनुकरण किया । मृत्यु के पश्चात् तथागत का अस्तित्व रहता है या नहीं, इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने में बुद्ध बिल्कुल इन्कार करते थे । निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में किया हुआ बुद्ध का मौन, सम्भव है उस काल में बुद्धिमानी पूर्ण गिनाता होगा पर यह तो निश्चय है कि इस
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