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भगवान महावीर
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धर्म के लिये टण्टा मचानेवालों-और धर्मपर अपना हक सावित करनेवालों को यह समझ रखना चाहिये कि धम किसी को मौरूसी जायदाद या सम्पत्ति नहीं है, यह तो वह विश्वव्यापी पदार्थ है जिसे प्रत्येक व्यक्ति धारण करके आत्म-कल्याण कर सकता है। धर्म का एक निश्चित स्वरूप आज तक दुनिया में कही आविष्कृत नहीं हुआ और न भविष्य में ही होने की आशा है। हमेशा अपेक्षाकृत दृष्टि ही में इसको लोग धारण करते आये हैं ! यह कभी हो नहीं सकता कि सभी लोगों की मनोवृत्तियाँ एक सी हो जाय और सब एक निश्चित स्वरूप को अङ्गीकार कर लें। स्वयं भगवान महावीर के शिष्यों में भी यत्र तत्र यह मत-भेद पाया जाता था। मत-भेद का होना बुरा नहीं है प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का प्राकृतिक अधिकार है कि वह अपने मतानुसार धर्माचरण करे, इस अधिकार पर
आक्षेप करने का किसी को अधिकार नहीं। पर अपने मत के लिए इस प्रकार हठ और दुराग्रह करना कि नही मरा ही मत सत्य है, इसी को भगवान महावीर ने कहा है, यही सर्वज्ञ कथित है और इसी से मोक्ष मिल सकता है-सर्वथा अनुचित, घातक और समाज का नाशक है। दिगम्बरी यदि नन्नता को पसन्द करे और यदि वे नग्न-साधु एवं नन्न मूर्ति की उपासना करे तो ऐसा करने का उन्हें अधिकार है, अपने सिद्धान्तों के अनुसार धर्माचरण करने का उन्हें पूरा हक है, इसके लिये श्वेताम्वरियो का यह कहना कि नहीं, कपड़ा पहने विना मुक्ति हो ही नहीं सकती, या दिगम्वरी मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते सर्वथा अनौचित्य पूर्ण है। इसी प्रकार यदि श्वेताम्बरी