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________________ अंगवान् महावीर २५८ 34 एक दिन मृगावती के हृदय में संसार के प्रति बड़ा वैराग्य हो आया, उसने सोचा कि यदि वीर प्रभु मेरे भाग्य से इधर पघार जांय तो मैं उनके समीप जाकर दीना ले लूँ । भगवान् महावीर ने ज्ञान के द्वारा मृगावती का यह संकल्प जान लिया और वे तत्काल उसकी मनोवांछा पूर्ण करने के निमित्त वहां पधारे । प्रभु के आने का समाचार सुन मृगावती तत्काल नगर का द्वार खोल भगवान् की वन्दना करने को समवशरण में गई ! राजा चण्डप्रद्योत भी वीर प्रभु का भक्त था, छतएव वह भी पारस्परिक शत्रुता को भूल कर प्रभु की वन्दना को गया । तब प्रभु ने अपना सार्वभाषिक उपदेश प्रारम्भ किया । उपदेश समाप्त होने पर मृगावती ने प्रभु को नमस्कार कर कहा कि—–चण्डप्रद्योत राजा की आज्ञा लेकर मै दीक्षा ग्रहण करूंगी। पश्चात् चण्डप्रद्योत के पास जाकर उसने कहा- यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं दीक्षा ग्रहण कर लू । क्योंकि मुझे संसार से अब घृणा हो गई है ।" प्रभु के प्रभाव से चण्डप्रद्योत का चैर तो शान्त हो ही गया था, इस लिए उसने मृगावती के पुत्र "उदयन" को तो कौशाम्बी का राजा बना दिया, और मृगावती को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी । मृगावती के साथ साथ चण्डप्रद्योत की अङ्गारवती आदि आठ रानियो ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । ' यहां से बिहार कर सुरासुरों से सेवित महावीर प्रभु वाणिजग्राम नामक प्रसिद्ध नगर में पधारे। उस नगर के पुतिपलाश नामक उद्यान मे देवताओ ने समवशरण की रचना की । उस नगर में पितृवत् प्रजा का पालन करने वाला जितशत्रु नामक
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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