Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणभद्र विरचित आत्मानुशासन [प्रभाचन्द्राचार्यकृत संस्कृतटीकासहित ] 299999999 संपादक डॉ० आ० ने० उपाध्ये . डॉ० हीरालाल जैन डॉ० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री यस दत प भारत बारषद DOCOM ConcGOP भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मार्ग दिवाकर आचार्य विमलसागर जी महाराज की ८९वीं जन्म जयन्ती के उपलक्ष में गुणभद्रविरचितम् आत्मानुशासनम् [प्रभाचन्द्राचार्यकृत संस्कृतटीकासहितम् ] अनुवादक डॉ० आ० ने० उपाध्ये डॉ० हीरालाल जैन पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुष्प संख्या - ६१ आशीर्वाद निर्देशिका संयोजन ग्रन्थ प्रणेता सम्पादक सर्वाधिकार सुरक्षित संस्करण : मूल्य मुद्रक आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी ब्र० प्रभा पाटनी B.Sc.,L.L.B. : आत्मानुशासन : आचार्य गुणभद्र : डॉ० आ० ने० उपाध्ये डॉ० हीरालाल जैन पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री : भा० अ० वि० परि० : तृतीय वीर निर्वाण सं० २५३० सन् २००४ पुस्तक प्राप्ति स्थान : (१) आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज संघ (२) दिगम्बर जैन महासभा कार्यालय, ऐशबाग, लखनऊ (३) बीसपंथी कोठी श्री सम्मेदशिखरजी (४) अनेकान्त सिद्धांत समिति लोहारिया, जिला - बाँसवाड़ा (राजस्थान) ४०) रुपये वर्द्धमान मुद्रणालय जवाहरनगर कॉलोनी वाराणसी - १० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (समर्पण) परम पूज्य सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज के पड शिष्य मर्यादा-शिष्योत्तम ज्ञान-दिवाकर प्रशान्तमूर्ति वाणीभूषण भुवनभास्कर समतामूर्ति गुरुदेव परम पूज्य आचार्यश्री १०८ भरतसागर जी महाराज के कर कमलों में सादर समर्पित Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विमलसागरजी महाराज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री भरतसागरजी महाराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव देवता स्तवन दोहा . परमेष्ठी पाँचों नमूं, जिनवाणी उरलाय । जिन मारग को धारकर, चैत्य चैत्यालय ध्याय ।। (तर्ज - अहो जगत् गुरु देव सुनियो ........) अरिहन्त प्रभु का नाम, है जग में सुखदाई । घाति चतु क्षयकार, केवल ज्योति पाई ।। वीतराग सर्वज्ञ, हित उपदेशी कहाये । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित भक्ति सुध्यावे ।।१।। सिद्ध प्रभु गुणखान, सिद्धि के हो प्रदाता । कर्म आठ सब काट, · करते मुक्ति वासा ।। शुद्ध बुद्ध अविकार, शिव सुखकारी नाथा । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित नावे माथा ।।२।। आचारज गुणकार, पञ्चाचार को पाले। शिक्षा दीक्षा प्रधान, भविजन के दुख टाले ।। अनुग्रह निग्रह काज, मुक्ति मारग चलते । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो आचारज भजते ।।३।। ज्ञान ध्यान लवलीन, जिनवाणी रस पीते । अध्ययन शिक्षा प्रदान, संघ में जो नित करते ।। रत्नत्रय गुणधाम, उपदेशामृत देते । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो नित उवज्झाय भजते ।।४।। (१) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ज्ञान चारित्र, मुकती- मार्ग कहाये । तिनप्रति साधन रूप, साधु दिगम्बर भाये ।। विषयाशा को त्याग, निज आतम चित पागे । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित साधु ध्यावे ।।५।। तत्त्व द्रव्य गण सार, वीतराग मुख निकसी। गणधर ने गुणधार, जिनमाला इक गूंथी ।। 'स्याद्वाद' चिन्ह सार, वस्तु अनेकान्त गाई । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो जिनवाणी ध्याई ।।६।। सम्यक् श्रद्धा सार, देव शास्त्र गुरु भाई । सम्यक् तत्त्व विचार, सम्यक् ज्ञान कहाई ।। सम्यक होय आचार, सम्यक् चारित गाई। ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो जिन मारग धाई ।।७।। वीतराग जिनबिम्ब, मूरत · हो सुखदाई। दर्पण सम निजबिम्ब, दिखता जिसमें भाई ।। कर्म कलंक नशाय, जो नित दर्शन पाते । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो नित चैत्य को ध्याते ।।८।। वीतराग जिनबिम्ब, कृत्रिमाकृत्रिम जितने । शोभत हैं जिस देश, हैं चैत्यालय उतने । उन सबकी जो सार, भक्ती महिमा गावे । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो चैत्यालय ध्यावे ।।९।। . दोहा नव देवता को नित भजे, कर्म कलंक नशाय । भव सागर से पार हो, शिव सुख में रम जाय ।। नोट-प्रतिदिन प्रात: पाठ करने से जीवन सुख, शान्ति और समृद्धि को प्राप्त होता है । (२) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टियानुक्रमणिका प्रस्तावना प्राचीन प्रतियोंका परिचय ग्रन्थका स्वरूप व ग्रन्थकार ग्रन्थका रचनाकाल संस्कृत टीकाका स्वरूप . टीकाकार प्रभाचन्द्रका परिचय अन्य टीकायें विषयपरिचय आत्मानुशासनमें विशेष उदाहरण आत्मानुशासनपर पूर्ववर्ती भारतीय साहित्यका प्रभाव ( १ ) कुन्दकुन्द साहित्यका प्रभाव ( २ ) आत्मानुशासन और भगवती आराधना ( ३ ) आत्मानुशासन और समन्तभद्रसाहित्य ( ४ ) आत्मानुशासन और पूज्यपादसाहित्य ( ५ ) आत्मानुशासन पर श्वे. आगमोंका प्रभाव (६) आत्मानुशासन और सुभाषित-त्रिशती (७ ) आत्मानुशासन और आयुर्वेद आत्मानुशासनमें काव्यगुण २. मूल ग्रन्थकी विषय सूची ३. मूल ग्रन्थ, संस्कृत टीका और हिन्दी अनुवाद परिशिष्ट १. टीकान्तर्गत ग्रन्थान्तरोंके अवतरण २. टीकाकारके समक्ष विद्यमान ग्रन्थगत पाठभेद १३-१०० १३-१४ १४-१७ १७-१९ १९-२२ २३-३१ ३१-३३ ३४-६८ ६९-७२ ७२-९६ ७३-७६ ७६-७८ ७८-८२ ८२-८६ ८६-८८ ८८-९२ ९२-९६ ९६-१०० १०१-११२ १-२४६ २४७-२५७ २४७ २४८ Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्राचीन प्रतियोंका परिचय आत्मानुशासनका प्रस्तुत संस्करण निम्न प्रतियोंके आधारसे किया गया है- "1 ज - यह प्रति श्री आदिनाथ दि. जैन शेतवाल मंदिर शोलापुरकी है । इस प्रतिकी लम्बाई ११॥ इंच और चौडाई ५।। इंच है, पत्रसंख्या १-६२ है । प्रत्येक पत्रपर एक ओर ११ पंक्तियां और प्रतिपंक्ति में लगभग ३७-३९ अक्षर हैं । ग्रन्थका प्रारम्भ ।। ६० ।। ओं नमः सिद्धेभ्यः ।। " इस मंगलवाक्यको लिखकर किया गया है | ग्रन्थके अन्तमें "।। इति श्री पंडितप्रभाचन्द्रविरचितात्मानुशासन टीका समाप्ता ॥ " इस अन्तिम पुष्पिकावाक्यको लिखकर लेखकने निम्न प्रशस्ति लिखी है " ।। संवत् १८३४ का वर्षे कार्तिगमासे कृष्णपक्षे ९ नवमी सनिवारे लिषावितं पंडितजी श्री अरा ( णं ) दराम जी पठार्थ ( पठनार्थं ) सिष्य पंडित जी श्री श्री री ( खब ) चंद जी । दिषतं म्हात्मा गोबिंदरामेण ॥श्लोक । यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिषतं मया । यदि सुद्धमसुद्धं वा मम दोशो न दीयते || १ || लिषाप्यतं जयपुरमध्ये | श्री ।" इस लेखक प्रशस्तिके अनुसार उसका लेखनकाल कार्तिक कृष्ण ९ शनिवार संवत् १८३४ हैं । प्रति सुवाच्य व सुन्दर लिखी गई है । इसमें कहीं कहीं पर नीचे, ऊपर या हांशियेपर अर्थबोधक टिप्पण भी दिये गये हैं । इसमें प्राय: 'र्ग' के लिये 'ग्रे', 'क्ष्य' के लिये 'ष्य' और 'च्छ' के लिये 'छ' लिखा गया है । 1 1 स- यह प्रति भाण्डारेकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिटयूट पूनाकी है । पत्रको लम्बाई-चौडाई १२x६ इंच है । पत्रसंख्या १-५२ है । इसमें प्रत्येक पत्रकी एक ओर १३ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग ३५-४० अक्षर हैं । लिपि साधारण है । कहीं कहीं पर काटा भी गया है। और हांशियेपर लिखा गया है। इसमें 'ओ' के स्थान में 'उ' तथा 'च्छ' और 'त्थ' के लिये समान रूपसे 'त्थ' लिखा गया है । एकारकी मात्रा ) के लिये पीछे खड़ी लकीर (T) का भी उपयोग किया गया है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आत्मानुशासनम् पूर्व प्रतिके समान इसमें भी कहीं कहींपर अर्थबोधक टिप्पण दिये गये हैं। जैसा कि अन्तिम पुष्पिकासे ज्ञात होता है, इसका लेखनकाल कार्तिक शुक्ला ११ संवत् १७९१ है- " इति श्रीपण्डितप्रभाचन्द्रविरवितात्मानुशासनटीका समाप्ता । शुभमस्तु । श्रीः । संवत् १७९१ वर्षे काती सुदी ११ एकादश्यां रवौ इदं ग्रन्थ संपूर्ण जातम् । श्री सवाईजयपुरमध्ये । श्रीः॥ प-यह प्रति भी भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीटयूट पूना की है। परन्तु इसके प्रारम्भके सौ पत्र नहीं मिले। पत्र १०१-१२४ प्राप्त हैं। इसलिये इसके पाठभेदोंका संकेत (प) प्रस्तुत संस्करणमें प. ११४ के पूर्वमें नहीं किया जा सका है । लिपि सुन्दर और सुवाच्य है । इसके अन्तिम पुष्पिकावाक्य इस प्रकार हैं- "श्री नाभेयो जिनो भूयात् भूयसे श्रेयसे स वः । जगज्ज्ञानजले यस्य दधाति कमलाकृतिम् ।।१॥ इत्या शीर्वाद । इति पण्डितप्रभाचन्द्रविरचितात्मानुशासनटीका समाप्ता । शुभ भवतु । मिती ती कार्तिक मासे शुभे शुक्लपक्षे पूर्णावास्यां तिथौ गुरुवारे संवत् १९४६ का दसकत लादूरामका । शुभं" मु (नि)-उक्त तीन हस्तलिखित प्रतियोंके अतिरिक्त बम्बई निर्णयसागर प्रेससे “सनातन जैन ग्रन्थमाला" के नामसे जो प्रथम गुच्छक प्रकाशित (ई. सन् १९०५) हुआ है उसमें प्रस्तुत ग्रन्थका मूल मात्र समाविष्ट है। मु (ज)-स्थानीय विद्वान् श्री पं. बंशीधरजी शास्त्रीको हिन्दी टीकाके साथ इस ग्रन्थका एक संस्करण जैन ग्रन्थरत्नाकर बम्बईसे भी प्रकाशित (सन् १९१६) हुआ था। ग्रन्थ का स्वरूप और ग्रन्थकार .. प्रस्तुत ग्रन्थ आत्महितैषी जीवोंके लिये आत्माके यथार्थ स्वरूपकी शिक्षा देनेके विचारसे रचा गया है। इसीलिये ग्रन्थकारके द्वारा इसका 'आत्मानुशासन' यह सार्थक नाम निर्दिष्ट किया गया है। इसकी समस्त श्लोकसंख्या २६९ है और उनमें इन १५ छन्दोंका उपयोग किया गया है (देखिए परिशिष्ट पु.,२५७)-- Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना श्लोक छंदका लक्ष ग] क्रम छन्दनाम छन्दनाम [ लक्षण संख्या संख्या वृ. र. ३-६२४ r अनुष्ठुभ १०२ श्रुतबोध पृथ्वी (श्लोक) ९ स्रग्धरा शार्दूलवि ५७ वृत्तरत्नाकर १० । मन्दाक्रान्ता क्रीडित ३-१९६ | ११ | वंशस्थ वसंततिलका २६ व.र.३-९६ | १२ | उपेंद्रवज्रा आर्या २१ श्रुतबोध । १३ । वैतालीय ५ शिखरिणी १५ व र.३-१२३, १४ रथोद्धता हरिणी १४ । , ३-१२६/ १५ । गीति | मालिनी - ९ , ३-११० wwwnwin , ३-१२७ ३-५९ ३-४२ २-१२ mx Tur, २-८ इस ग्रन्थके रचयिता श्री गुणभद्राचार्य हैं। इन्होंने अपने जन्मसे किस नगरको विभूषित किया, माता -पिता उनके कौन थे, तथा वे गृहवासमें कबतक रहे; इत्यादि बातोंको जाननेके लिये कुछ भी सुलभ सामग्री नहीं है। इतना निश्चित है कि वे अपने समयके अपूर्व एवं बहुश्रुत विद्वान् थे। जैसा कि उन्होंने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं सूचित किया है, वे श्री जिनसेनाचार्य और श्री दशरथ गुरुके शिष्य थे१ । इन्होंने अपनी प्रतिभाके बलपर अपने गुरुके अपूर्ण कार्यका पूरा किया- श्री जिनसेनाचार्य के अधूरे महापुराणको सम्पूर्ण किया । वे गुरुके अतिशय भक्त थे। उनकी इस गुरुभक्तिका प्रमाण उस समय मिलता है जब वे अपने गुरुदेव श्री जिनसेन स्वामीका स्वर्गवास हो जानेपर उनकी रचनासे शेष रहे आदिपुराणके रचनाकार्यको अपने हाथों लेते हैं। वे कहते हैं- इस शेष महापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण) की रचनामें यदि मेरे वचन श्रोताजनोंको सुस्वादु (आनन्दजनक) प्रतीत हों तो यह गुरुओंका ही प्रभाव समझना चाहिये । कारण यह कि आम्र आदि फलोंमें जो सुस्वादुता देखी जाती है १. प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविश्वोपविद्यां गतः सिद्धान्तान्ध्यवसानयानजनितप्रागल्भ्यवृद्धीद्धधीः । नानानूनयप्रमाणनिपुणोऽगण्यैर्गुणैर्भूषितः शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोरासीजगद्विश्रुतः॥ उ.पु. प्रशस्ति १४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आत्मानुशासनम् उसके कारण भूत उक्त फलोंके उत्पादक वे वृक्ष ही होते हैं १ । इसके अतिरिक्त, मेरे ये वचन जिस हृदयसे निकलनेवाले हैं उस हृदयमें तो गुरु ओंका वास निरन्तर है, अत: वे उनको वहां संस्कारसे संयुक्त- रस, भाव व अलंकारादिसे विभूषित- करेंगे ही। इसीलिये मझे यहां कुछ भी परिश्रम नहीं करना पडेगा२ । आगे वे कहते हैं कि इस पुरा णरूप समुद्रका पार अतिशय दूरवर्ती है तथा वह गहरा भी अधिक है, इसका भय मुझे कुछ भी नहीं है। कारण यह कि जो श्रेष्ठ गुरु सर्वत्र दुर्लभ हैं वे इस पुराणरूप समुद्र के पार करनेमें मेरे आगे चल रहे हैं३ । जब जिनसेनका अनुसरण करनेवाले भव्य जीव प्राचीन मार्गको- रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गको-पाकर संसाररूप समुद्र के पार पहुंचना चाहते हैं तब इस पुराणको तो बात ही क्या है- उन जिनसेन गुरुका अनुसरण करके मैं इस पुराणको निःसन्देह पूरा करूंगा४ । इस कथनसे उन्होंने जिस प्रकार अपनी उत्कृष्ट गुरुभक्तिको सूचित किया है उसी प्रकार उन्होंने अपनी शालीनता (निरभिमानता) को भी प्रगट कर दिया है । ऐसे उत्कृष्ट महाकाव्योंकी रचनामें असाधारण प्रतिभा और उत्कृष्ट विद्वत्ता ही काम करती है। इस बातको वे मर्मज्ञ विद्वान् ही समझ सकते हैं, न कि इतर साधारण जन । इस सत्यको वे स्वयं ही इस प्रकारसे सूचित करते हैं- कविके काव्यविषयक परिश्रमको कवि ही समझ सकता है। ठीक है- जिस प्रकार वन्ध्या स्त्री कभी पुत्रप्रसूतिकी पीडाको नहीं समझ सकती है उसी प्रकार अकवि कविके काव्यरचनाविषयक परिश्रमको भी नहीं समझ सकते हैं५ । १. गरूणामेव माहात्म्यं यद्यपि स्वादु मद्वचः। ___ तरूणां हि प्रभावेण यत्फलं स्वादु जायते ॥ आ. पु. ४३-१७. २. निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः। ते तत्र संस्करिष्यन्ते तन मेऽत्र परिश्रमः ॥ आ. पु. ४३-१८. ३. सुदुरपार-गम्भीरमिति नात्र भयं मम ।। पुरोगा गुरवः सन्ति प्रष्ठाः सर्वत्र दुर्लभाः ॥ आ. पु. ४३-३८. ४. पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । ___ भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ आ. पु. ४३-०. ५. कविरेव कवेर्वेत्ति कामं काव्यपरिश्रमम् । वन्ध्या स्तनन्धयोत्पत्तिवेदनामिव नाकविः ॥ आ. पु. ४३-२४. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १७ गुरुभक्त होनेके साथ वे प्रखर तपस्वी भी थे । उन्होंने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं लिखा है - इसने (गुणभद्रने) पुण्य लक्ष्मीकी सुभगताके अभिमानको जीत लिया है,ऐसा सोचकर ही मानो मुक्तिरूप लक्ष्मीने उसके पास अतिशय निपुण दूतीके समान तपरूप लक्ष्मीको भेज दिया था। उसने भी आकर उत्तम गुणरूप धनके धारक उसका आश्रय बडे प्रेमसे स्वीकार किया है१ । प्रस्तुत ग्रंथ (आत्मानुशासन१४९-१६९) में उन्होंने जो समालोचनात्मक दृष्टिसे साधधर्मका विवेचन किया है उससे भी उनके महान् तपस्वी होनेका अनुमान होता है। उत्तरपुराणकी ही प्रशस्ति (४०, में उनके शिष्य लोकसेनने जो उनके लिये 'जितमदनविलासः' विशेषण दिया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे अखण्ड बालब्रह्मचारी थे। ग्रन्थका रचनाकाल प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता वे गुणभद्राचार्य कब हुए, इसका विचार करनेके लिये हम प्रथमतः उनके गुरु श्री जिनसेनाचार्य के समयका विचार करेंगे। जिनसेनाचायंने अपने गुरु श्री वीरसेनके द्वारा प्रारम्भ की गई तथा इस बीच उनका स्वर्गवास हो जानेसे अधूरी रह गई कसायपाहुडकी जयधवला टीकाको शके संवत् ७५९ में पूर्ण किया, यह निश्चित है२ । उस समय अमोघवर्षका राज्य था । इसके बादमें ही सम्भवतः उन्होंने १. पुण्यश्रियोऽयमजयत्सुभगत्वदर्यमित्याकलय्य परिशुद्धमतिस्तपश्रीः। मुक्तिश्रिया पटुतमा प्रहितेवदूती प्रोत्या महागुणधनं समशिश्रियद्यम् ॥ उ. पु. प्रशस्ति १५. २. इति श्रीवीरसेनीया टोका सूत्रार्थदर्शनी। वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥६॥ फाल्गुने मासि पूर्वाण्हे दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ एकान्तषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । समतीतेषु समाप्ता जयघवला प्रामृतव्याख्या ॥११॥ ज.ध. प्रशस्ति मा.प्र. २ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आत्मानुशासनम् महापुराणकी रचना प्रारम्भ की है। वह महापुराण आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो भागोमें विभक्त है । आदिपुरागमें सैंतालोस पर्व हैं । इनमें जिनसेनाचार्यके द्वारा४२पर्व ही रचे जा सके हैं । तत्पश्चात् उनका स्वर्गवास हो गया । तब उनकी इस अधूरी रचनाको इन्हीं गुणभद्राचार्यने पूरा किया है । उन ४२ पर्वोमें लगभग १०हजार श्लोक होंगे। उनकी रचनामें ५-६ वर्षका समय लग सकता है । इस प्रकार जिनसेनाचार्यका अस्तित्व लगभग शक सं ७५९+६ - ७६५ तक पाया जाता है। जैसा कि हरिवंशपुराणके कर्ता श्री जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणके प्रारम्भम उल्लेख किया है ११पार्वाभ्युदयकी रचना वे-गुण भद्रके गुरु जिनसेनाचार्यजयधवलाके पूर्व में ही कर चुके थे। कारण इसका यह है कि उक्त पार्वाधुदयका उल्लेख करनेवाले उस हरिवंशपुराणको श. सं. ७०५ में पुरा किया गया है। अब इस पाश्र्वाभ्युदयकी रचनाके समय यदि जिनसेन स्वामीकी अवस्था बीस वर्षके भी लगभग रही हो तो उनका जन्म श.सं. ६८५ के लगभग होना चाहिये । इस प्रकार श्री जिनसेनाचार्य श. सं. ६८५-७६५ तक करीब ८० वर्षको अवस्था तक विद्यमान रहते हैं२ । जिनसेनाचार्यका स्वर्गवास हो जानेपर उनके उस अधूरे आदिपुराण (४३-४७) को तथा समस्त उत्तरपुराणको श्री गुणभद्राचार्यने पूरा किया है३ । इसमें उन्होंने लगभग ९६२० (आ. पु. १६२०+उ. पु. ८०००) श्लोकोंकी रचना की है। इस कार्यको उन्होंने कब पूरा किया, इसका १. याऽमिताभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कोतिः संकीर्तयत्यसौ । ह. पु. १-४०. २. यह अनुमान स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमीने किया है ( जैन साहित्य और इतिहास पृ.१३९-४१)। लगभग ऐसा ही अनुमान कसायपाहुड भाग१के सम्पादकोंने भी उसकी प्रस्तावना (पृ.७५-७७) में किया है । ३. जिनसेनभगवतोक्तं मिथ्याकविवर्षदलनमतिललितम् । सिद्धान्तोपनिबन्धनका भर्ना विनेयानाम् ।। अतिविस्तरभीरुत्वादवशिष्टं संग्रहीतममलधिया । गुणभद्रसूरिणेदं प्रहोणकालानुरोधेन ॥ उ. पु. प्रशस्ति १९-२०. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना निर्देश उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें नहीं किया गया है । फिर भी यह अनुमान किया जा सकता है कि उन्होंने उसकी रचना जिनसेनाचार्यके स्वर्गस्थ होते ही प्रारम्भ कर दी होगी। इसमें उनका५-७ वर्षका समय लग सकता है । इस प्रकार गुणभद्राचार्यका समय श. सं. के अनुसार ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्व निश्चित होता है। उन्होंने अपने अस्तित्वसे इस महीमण्डलको ठीक कबसे कबतक मण्डित किया, इसके यथार्थ निश्चय करनेका कोई भी साधन उपलब्ध नहीं है । परंतु हां,उत्तरपुराणकी अंतिम प्रशस्तिसे-जो उसका अंश गुणभद्रके शिष्य लोकसेनके द्वारा रचा गया है-इतना अवश्य निश्चित होता है कि श.सं.८२० में अनेक भव्यों द्वारा महोत्सवपूर्वक उस महापुराणकी पूजा सम्पन्न की गई थी। इससे इतना तो निश्चित है कि श. सं. ८२० के पूर्वमें उक्त महापुराण पूर्ण हो चुका था । सम्भव है लोकसेनके तत्वावधानमें सम्पन्न हुआ उक्त महापुराणका वह पूजामहोत्सव गुणभद्राचार्यके स्वर्गवासके पश्चात किया गया हो। उनकी कृतिस्वरूप ग्रन्थोंमें उपर्युक्त उत्तरपुराण और प्रकृत आत्मानुशासके अतिरिक्त जिनदत्तचरित्र भी उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचा गया अन्य कोई ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता है । संस्कृत टीकाका स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थके साथ जो संस्कृत टीका प्रकाशित की जा रही है वह प्रभाचन्द्राचार्यके द्वारा रची गई है । यह संक्षित टीका ग्रन्थके मूल भागका ही अनुसरण करती है । उसमें प्रायः कहीं कुछ विशेष नहीं लिखा गया है-शब्दार्थ मात्र किया गया है । इतना ही नहीं,बल्कि कहीं १. शकम्पकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्वान्ते । मंगलमहार्थकारिणि पिङगलनामनि समस्तजनसुखदम् ।। श्रीपञ्चम्यां बुधार्द्रायुजि दिवसजे मन्त्रिवारे बुधांश पूर्वायां सिंहलग्ने धनुषि धरणिजे सैहिकेये तुलायाम् । सूर्ये शुक्रे कुलीरे गवि च सुरगुरौ निष्ठितं भव्यवर्षेः प्राप्तेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ॥ ____उ. पु. प्रशस्ति ३५-३६. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् कहीं तो मूल ग्रन्थ आशयको भी स्पष्ट नहीं किया गया है । यथा -- श्लोक १२-१४ में सम्यग्दर्शनके दस भेदोंके स्वरूपका निर्देश किया गया है । उनके स्वरूपका टीकामें विशेष स्पष्टीकरण होना चाहिये था, जो नहीं किया गया है । इससे आगेके १५वें श्लोक ( शमबोध... ) की टीकामें भी बहुत कुछ लिखा जा सकता था, परन्तु उसके भावको भी स्पष्ट नहीं किया गया है । श्लोक २५ में या तो टीकाकार के सामने कुछ पाठभेद रहा है, या लिपिकारोंकी असावधानीसे टीकागत पद कुछ इधरके उधर हुए हैं। इससे टीकाकारका अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता है । , श्लोक ३२ भर्तृहरिके नीतिशतकमें इसी रूपमें पाया जाता है। वहां मात्र ( यत्र ) के स्थानमें यस्य और ' वारण: 'के स्थानमें ' रावणः ' पाठभेद है | वहां 'रावणः का अर्थ टीकाकारने 'प्रधानहत्ती' किया है । आत्मानुशासन में इस श्लोककी टीका करते हुए प्रभाचंद्राचार्यने 'संगरे परैः भग्नः' का अर्थ 'रावणादि शत्रुओं द्वारा युद्ध में पराजित किया गया' ऐसा किया है जो संगत प्रतीत नहीं होता है । यहां इन्द्रसे अभिप्राय यथार्थ देवेंद्रका ही रहा है१, न कि इंद्र नामधारी विद्याधर मनुष्यविशेषका । अन्यथा, 'अनुग्रहः खलु हरे:' इस विशेषताकी कोई संगति नहीं बैठती । कारण कि उक्त इन्द्र नामक राजाने यद्यपि देवों आदिकी भी वैसी ही २० १. विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरणं ययुः । पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः ॥ वि. पु. १, ९, ३४. आसीद् धुन्धुरिति ख्यातः कश्यपस्यौरसः सुतः । दनुगर्भसमुद्भूतो महाबलपराक्रमः ॥ स समाराध्य वरदं ब्रह्माणं तपसासुरः । अवध्यत्वं सुरैः सर्वैः प्रार्थयत् स तु नारद । तद्वरं तस्य च प्रादात् तपसा पङ्कजोद्भवः । परितुष्टः स च बली निर्जगाम त्रिपिष्टपम् ॥ चतुर्थस्य कलेरादौ जित्वा देवान् सवासवान् । धुन्धुः शक्रत्वमकरोद् हिरण्यकशिपौ सति ।। तस्मिन् काले स बलवान् हिरण्यकशिपुस्ततः । चचार मन्दरगिरौ दैत्यं धुन्धुं समाश्रितः । ततोऽसुरा यथाकामं विहरन्ति त्रिपिष्टपे । ब्रह्मलोके च त्रिदशाः संस्थिता दुःखसंयुताः । वामने ७५ अध्यायः (शद्वकल्पद्रुमगत - वामन-शद्वतः ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कल्पना कर रक्खी थी (पद्मचरित्र ७, २३-३२), फिर भी उसके ऊपर किसी विष्णुके अनुग्रहका कहीं कोई प्रकरण देखने में नहीं आता । इस प्रकार उक्त श्लोककी पूरी परिस्थितीको देखते हुए वहां यथार्थ इन्द्रका ही अभिप्राय रहा है, ऐसा निश्चित प्रतीत होता है और तभी दैवकी पूरी प्रधानता एवं पुरुषार्थकी निरर्थकता भी सिद्ध होती है । इस श्लोकका प्रभाव पद्मनन्दिपञ्चविंशतिके निम्न श्लोक (३-३३) पर भी रहा दिखता है-- गीर्वाणा अणिमादिस्वस्थमनसः शक्ता किमत्रोच्यते ध्वस्तास्तेऽपि परं परेण स परस्तेभ्यः कियान् राक्षसः । रामाख्येन च मानुषेण निहतः प्रोल्लङ्घ्य सोऽप्यम्बुधिं रामोऽप्यन्तकगोचरः समभवत् कोऽन्यो बलीयान् विधेः ॥ यहां तो स्पष्टतया पद्मचरित्रके उक्त कथानकको आधार बनाकर यह कहा गया है कि जो देव अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियोंसे सम्पन्न व अतिशय शक्तिशाली थे वे भी जिस परके द्वारा-दूसरेके द्वारा- नष्ट किये गये हैं वह पर रावण राक्षस था जो उन देवोंसे कुछ विशेष बलवान् नहीं था। फिर वह भी एक राम नामक मनुष्यके द्वारा समुद्रको लांघकर मारा गया है, तथा अन्तमें उस रामको भी यमका ग्रास बनना ही पडा है । ठीक है- देवसे बलवान् अन्य कोई नहीं है । उस इन्द्र नामक विद्याधरने अपने सैनिकों आदिकी 'देव संज्ञा रख रक्खी थी। यहां उनके लिये समानार्थक गीर्वाण शब्दका प्रयोग किया गया है तथा उन्हें अणिमा-महिमा आदिसे स्वस्थ मनवाले कहा गया है, जिसकी कि विद्याधर होनेसे सम्भावना भी की जा सकती है। श्लोक १४९ में 'अर्थार्थ' का अर्थ 'अर्थनिमित्तम् ' तथा 'तपःस्थेषु मध्ये ' का अर्थ 'तपस्विषु मध्ये' तो किया गया है; किन्तु 'नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधुचरिताः' जैसे क्लिष्ट वाक्यके विषयमें कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया, जिसका कि स्पष्टीकरण आवश्यक था। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आत्मानुशासनम् इसी प्रकार ३९, ८७, १०८, १३४ और १३५ आदि कितने ही ऐसे श्लोक हैं जिनका भाव स्पष्ट नहीं हुआ है । कहीं कहीं अर्थको स्पष्ट करनेके लिये मूलकी अपेक्षा भी क्लिष्ट शब्दका उपयोग किया गया है । जैसे -- श्लोक १३२ में दण्डोलकरूप: ' (पगदण्डी ) । " , श्लोक २३९ में शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख इन छहका निर्देश करके उनमें प्रथम तीन (शुभ, पुण्य और सुख) को हितकारक व अनुष्ठेय बतलाया गया है तथा शेष तीनको अहितकारक - अननुष्ठेय ( परित्याज्य ) - बतलाया गया है । यहां टीकाकारने ' शेष - त्रयमथाहितम् ' इस चतुर्थ चरणका कोई अर्थ नहीं किया । आगेका श्लोक ( २४० ) इसी से सम्बंध रखता है । उसमें तत्राप्याद्यं परित्याज्यं' कहकर ' तत्र अपि से उन अहितकारक शेष तीन ( अशुभ, पाप और दुःख) को ग्रहण करके उनमें भी प्रथम (अशुभ) को ही परित्याज्य बतलाया है, क्योंकि उसका परित्याग कर देने पर शेष दोनों (पाप व दुख ) स्वयमेव नहीं रहेंगे । इसके पश्चात् ( उत्तरार्ध में ) पूर्व श्लोक में जिस शुभको अनुष्ठेय ( आचरणीय) बतलाया था उसे भी शुद्धोपयोगके आश्रयपूर्वक छोड देनेकी प्रेरणा करके अन्तमें उत्कृष्ठ पद (मोक्ष) की प्राप्तिकी सूचना की गई है । यह वस्तुस्थिति है । परन्तु उसका अर्थ स्पष्ट करते हुए टीकाकारने 'तत्र अपि' से उन ( परित्याज्य) शेष तीनको न लेकर उन अनुष्ठेय शुभादि तीनको ही लिया है और उनमें से आद्यको - शुभको - परित्याज्य बतलाया है । परन्तु इस प्रकारसे 'शुभं च शुद्धे त्यक्त्वा' इस तृतीय चरणकी सार्थकता नहीं रहती है - वह निरर्थक हो जाता है, क्योंकि, उस अवस्था में उसके त्यागकी प्रेरणा तो प्रथम चरण ( तत्राप्याद्यं परित्याज्यं ) में ही की जा चुकी है । अतएव यह तृतीय चरण पुनरुक्त हो जाता है । इस कारण टीकाकारका यह अर्थ और इसी अर्थको लक्ष्यमें रखकर लिखी गई उसकी उत्थानिका ( शुभादित्रयेऽपि त्यागक्रमं दर्शयन्नाह ) भी संगत नहीं प्रतीत होती । मेरी समझ से उसकी उत्थानिका इस प्रकार होना चाहिये - अथाहिते शेषत्रये त्यागक्रमं दर्शयन्नाह । ' Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ टीकाकार प्रभाचन्द्रका परिचय जेसा कि श्रद्धेय पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने सटीक रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनामें (पृ. ५७-६६) लिखा है, प्रभाचन्द्र नामके अनेक आचार्य हो गये हैं। उनमें से यह आत्मानुशासनकी टीका किस प्रभाचन्द्रके द्वारा लिखी गई है, यह विचारणीय है। मेरी समझसे जिनके द्वारा रत्नकरण्डश्रावकाचारको टोका लिखी गई है उन्हीं प्रभाचन्द्रके द्वारा आत्मानुशासनको भी यह टीका लिखी गई है। समाधिशतक के ऊपर भी जो संस्कृत टीका प्रमाचन्द्रकी पायी जाती है वह भी इन्हीं प्रभाचन्द्र के द्वारा लिखी गई है। कारण यह कि इन तीनों ही टीकाओंकी रचनापद्धति समान है, उनमें सर्वत्र खण्डान्वयपूर्वक ही श्लोकोंकी व्याख्या की गई है । इसके अतिरिक्त उन सभी में प्रायः मूल पदोंके ही स्पष्टीकरणका प्रयत्न किया गया है, उससे अधिक कुछ नहीं लिखा गया है। साथ ही उनके मंगलात्मक प्रयम पद्य, प्रस्तावनावाक्य और अन्तिम पद्य तो बहुत अधिक समानता रखते हैं। यथा-- सिद्धं जिनेन्द्रममलप्रतिमप्रबोधं निर्वाणमार्यममलं विबुधेन्द्रवन्धम् । संसारसागरस उत्तरणप्रपोतं वक्ष्ये समाधिशतकं प्रणिपत्य वीरम् । समाधिशतक समन्तभद्रं निखिलात्मबोधनं जिनं प्रणम्याखिलकर्मशोधनम् । निबन्धनं स्नकरण्डके परं करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरम् ।। रत्नकरण्ड वीरं प्रणम्य भववारिनिधिप्रपोतमुयोतिताखिलपदार्थमनल्पपुण्यम् । निर्वाणमार्गमनवद्यगुणप्रबन्धमात्मानुशासनपदं प्रवरं प्रवक्ष्ये ।। आत्मानुशासन इन तीनों ही मंगलपद्योंमें समान रूपसे इष्ट देव (वीर जिनेन्द्र, जिन और वीर जिनेन्द्र) को नमस्कार करके विवक्षित ग्रन्थ (समाधिशतक, रत्नकरण्डक और आत्मानुशासन) की व्याख्या करनेकी प्रतिज्ञा की मई Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् है। समाधिशतक और आत्मानुशासनविषयक मंगलपद्योंका तो छन्द (वसन्ततिलका) भी समान है । तीनोंके प्रस्तावनावाक्य निम्न प्रकार है-- श्रीपूज्यपादस्वामी मुमुक्षूणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूपं चोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वाणो येनात्मेत्याह-- (समाधिशतक) श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नत: शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह (रत्नकरण्ड) बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य १ विषयव्यामुग्धबुद्धे : संबोधनव्याजेन सर्वसत्त्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो लक्ष्मीत्याद्याह (आत्मानुशासन) इन तीनों ही प्रस्तावनावाक्योंमें समानरूपसे अपने अपने ग्रन्थको रचनाके इच्छुक तीनों ही आचार्यों (पूज्यपाद, समन्तभद्र और गुणभद्र) का नामनिर्देश करके उन्हें निर्विघ्नतापूर्वक शास्त्रसमाप्ति आदिकी अभि १. यहां लोकसेनको गुणभद्रका बडा धर्मभ्राता निर्दिष्ट किया गया है। परन्तु वह प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता । कारण इसका यह है कि उत्तरपुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें-- जहांसे उसे स्वयं लोकसेन प्रारम्भ करते हैं-यह स्पष्ट बतलाया गया है कि लोकसेन उन गुणभद्राचार्यके मुख्य शिष्य थे, बहत् धर्मभ्राता नहीं। साथ ही वहां जो उनके लिये 'अविकलवृत्तः' और 'मुनीशः' विशेषण दिये गये हैं उससे उनकी बुद्धि विषयोंमें व्यामुग्ध थी, वह भी संदेहास्पद ही दिखता है । प्रशस्तिका वह श्लोक निम्न प्रकार है विदितसकलशास्त्रो लोकसेनो मुनीशः कविरविकलवृत्तस्तस्य शिष्येषु मुख्यः । ___ सततमिह पुराणे प्रार्थ्य साहाय्यमुच्च- गुरुविनयमनैषीन्मान्यतां स्वस्य सद्भिः ॥२८॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २५ लावासे इष्ट देवके नमस्कार में उद्यत बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त ' निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो (नमस्कुर्वन् ) 'इतना वाक्यांश तो तीनों में ही शद्वशः समान है। उक्त तीनों टीकाओंके अन्तमें जो पद्य पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं येनात्मा बहिरन्तरुत्तमभिदा त्रेधा विवृत्योदितो मोक्षोऽनन्तचतुष्टयामलवपुः सद्ध्यानतः कीर्तितः । जीयात् सोऽत्र जिनः समस्तविषयः श्रीपूज्यपादोऽमलो भव्यानन्दकरः समाधिशतक श्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः । समाधि. येनाज्ञानतमो विनाश्य निखिलं भव्यात्मचेतोगतं सम्यग्ज्ञानमहांशुभिः प्रकटितः सग्गारमार्गोऽखिलः । स श्रीरत्नकरण्डकामलरविः संसृत्सरिच्छोषको जीयादेष समन्तभद्रमुनिपः श्रीमान् प्रभेन्दुर्जिनः ॥ रत्नकरण्ड मोक्षोपायमनत्यपुण्य ममलज्ञानोदयं निर्मलं भव्यार्थं परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नः पदैः । व्याख्यानं[तं] वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदतः सूक्तार्थेषु कृतादरैरहरहरचेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥ आत्मानुशासन " इन तीनों पद्योंमें टीकाकार श्री प्रभाचन्द्र प्रभेन्दु' पद अपना नामनिर्देश किया है । तीनोंका ही छन्द शार्दूलविक्रीडित है । टीकाकारका समय इस प्रकार उक्त तीनों टीकाओंके इस स्वाभाविक सादृश्यको देखते हुए वे तीनों टीकायें एक ही व्यक्तिके द्वारा रची गई हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं रहता । अब, उनके रचयिता कौन-से प्रभाचन्द्र हैं और वे कब हुए हैं, इसका निर्णय करने के लिये जब हम उन टीकाओंका अन्तःपरीक्षण करते हैं तो हमें वहां सोमदेव सूरि द्वारा विरचित यशस्तिलकके अनेक पद्य देखनेको मिलते हैं । जैसे Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् आत्मानुशासन श्लोक ९ की टीकामें 'सर्वदोषरहितः' का स्पष्टी करण करते हुए वहां टीकामें निम्न श्लोक उद्धृत किये गये हैं-- विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ।। एतैर्दोषैविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । ये श्लोक यशस्तिलकचम्पू (उत्तरार्ध)पृ. २७४ पर पाये जाते हैं। इसी प्रकार स्लोक १० को टोकामें ' मूढत्रयं मदावाष्टौ' आदि, श्लोक २६५ की टीकामें 'दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचित२ आदि तथा श्लोक २६६ की टीकामें ' अकर्ता निर्गुणः शद्धः ' आदि जो श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे भी उस यशस्तिलक (उत्तर खण्ड) में क्रमशः ३२४, २७० और २५२ पर पाये जाते हैं। इसी प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचारमें भी श्लोक ४-२३ को टीकामें जो 'श्रद्धा तुष्टिर्भक्ति-' आदि श्लोक उद्धृत किया गया है वह यशरितलक (उ. खण्ड) में पृ. ४०४ पर पाया जाता है । सोमदेव सूरिके द्वारा विरचित यह यशस्तिलक शक संवत् ८८१ में बनकर समाप्त हुआ है४। इससे इतना तो निश्चित हो १. इसके पूर्व में जो यहां 'क्षुधा तृषा भयं दोषों' आदि श्लोक उद्धृत है वह यशस्तिलकमें 'क्षुत्-पिपासा भयं द्वेषश्चिन्तनं' आदिके रूपमें कुछ भिन्न उपलब्ध हेता है। २. ये श्लोक सौंदरनन्द काव्य (१६,२८-२९) में इस रूपमें पाये जाते हैं. दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ एनं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांवित स्नेहक्षयात केवलमेति शान्तिम् ।। ३. वहां 'सत्य' के स्थानमें 'शक्तिः ' और ' यस्यते' के स्थानमें 'यत्रते ' मात्र पाठभेद पाया जाता है। ४. शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेवाशीत्यधिकेषु (अङ्कतः ८८१ सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमास-मदनत्रयोदश्यां... ... ... दि निर्मापितमिदं काव्यमिति । यशस्तिलक (उ. खण्ड) पृ. ४१९. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्रस्तावना जाता है उक्त तीनों ग्रंथोंके टीकाकार श्री प्रभाचन्द्र श. सं. ८८१ ( ८८१ + १३५ = वि. सं. १०१६ ) के बाद किसी समय में हुए हैं । उन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ४ - १८ की टीकामें निम्न दो श्लोक उद्धृत किये हैं अध्रुवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च । अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवास्रवसंवरौ ॥ निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपंगुवैः ॥ ये दोनों श्लोक पद्मनन्दिपञ्चविंशति (६, ४३–४४) के हैं । इसके रचयिता श्री मुनि पद्मनन्दि पं. आशाधरजीके पूर्वमें हो गये हैं । कारण यह कि पं.अशाधरजी ने अपने अनगारधर्मामृत में 'आचेलक्यौद्देशिक आदि श्लोक ( ९-८० ) की स्वोपज्ञ टीकामें 'अत एव श्रीपद्मनन्दिपा - दैरपि सचेलतादूषणं दिङ्मात्रमिदमधिजगे' लिखकर पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिका ' म्लाने क्षालनतः कुतः आदि श्लोक ( १ - ४१) उद्धृत किया है १ । यह टीका उन्होंने वि. सं. १३०० में समाप्त कीं है २ । इससे यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि श्री पद्मनन्दि मुनि पं. आशाधरजी के पूर्ववर्ती विद्वान् हैं। श्रद्धेय पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने मुनि पद्मनन्दीको जिन शुभचन्द्राचार्यका शिष्य बतलाया है उनका देहावसान शक १. इसके अतिरिक्त विना नामोल्लेखके तो उन्होने पद्मनन्दिपञ्चविशतिके कितने ही श्लोकोंको इस अनगारधर्मामृतकी स्वोपज्ञ टीकामें उद्धृत किया है । यथा-८-२१की टीकामें 'यज्जानन्न पि' आदि ( प. १०-१), ८- २३को टीकामें 'मुक्त इत्यपि आदि (प. १०-१८), 'यद्यदेव' आदि ( प. १०-१६) तथा 'अन्तवङगबहिङगयोगतः' आदि ( प. १०-४४), ९-९३ की टीका में 'यावन्मे स्थितभोजने' आदि ( प. १-४३ ) और९ - ९७की टीकामें ' का किया अपि संग्रहो' आदि ( प. १ - ४२ ) इत्यादि । इसी प्रकार इष्टोपदेश श्लोक ३५ की टीकामें ' वत्रे पतत्यपि ' आदि ( प. १- ६३ ) श्लोकको उधृत किया है । २. नलकच्छपुरे श्रीमन्नमिचैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमाब्दशतेष्वेवा त्रयोदशसु कार्तिके ॥ अ. ध. प्रशस्ति ३१. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आत्मानुशासनम् सं. १०४५ (वि. सं. ११८०) में हुआ है१ । इससे श्री पद्मनन्दी मुनि १२वीं शताद्वीके उत्तरार्धवर्ती विद्वान् प्रतीत होते हैं। अब चूंकि प्रभाचंद्रने रत्नकरंडकी टीकाम उक्त मुनि पद्मनंदीके उपर्युक्त दो श्लोकोंको उद्धृत किया है, अत एव वे पद्मनंदीके भी उत्तरकालीन विद्वान् सिद्ध होते है । इस उत्तरकालकी अवधिका विचार करते हुए हमें उपर्युक्त पं. आशाधरजीकी अनगारधर्मामतको टाकामें ही इन प्रभाचन्द्रका स्पष्टतया नामनिर्देश उपलब्ध होता है । यथा यथाहुस्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेदुपादा रत्नकरण्डकटीकायां चतुरावर्तत्रितय इत्यादिसूत्रे द्विनिषद्य इत्यस्य व्याख्याने -देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति२। इस उल्लेखसे ऐसा प्रतीत होता है कि समाधिशतक, रत्नकरण्डश्रावकाचार और आत्मानुशासन इन तीनों ग्रन्थोंके ऊपर टीका लिखनेवाले वे प्रभाचन्द्र पं. आशाधरजीके समसमयवर्ती रहे हैं। कारण कि हम यह ऊपर लिख ही चुके हैं कि उक्त अनगार धर्मामृतको टीका वि. सं. १३०० में बनकर समाप्त हुई है। जैनसिद्धान्त भास्करकी चतुर्थ किरणमें प्रकाशित शभचन्द्रकी गुर्वावलीके आधारसे जैसा कि मुख्तार सा. ने लिखा है, ये प्रभाचन्द्र उन शुभकीर्तिके पट्टशिष्य थे जो वनवासी आम्नायके थे तथा वे (प्रभाचन्द्र)विक्रमकी १३वीं और१४वीं शताबीके विद्वान् थे३ । इस गुर्वावलीके . एक पद्यसे ४ ज्ञात होता है कि पूज्यपादके शास्त्र (समाधिशतक) को १. देखिये सटीक रत्नकरण्डकी प्रस्तावना पृ. ७५ २. देखिये अनगारधर्मामृतकी टीका श्लोक ८-९३ तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका श्लोक ५-१८.. ३. र. श्रा. की प्रस्तावना पृ. ६३-६५, ४. पट्टे श्रीरत्नकीर्तेरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रव्याख्याविख्यातकोतिर्गुणगणनिधिपः सत्क्रियाचारुचञ्चुः । श्रीमानानन्दधामा प्रतिबुधनुतमा मानसंदायिवादो जीयादाचन्द्रतारं नरपतिविदितः श्रीप्रभाचन्द्रदेवः ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २९ व्याख्या करनेसे - उसके ऊपर टीका रचनेसे- इन प्रभाचन्द्रकी कीर्तिका विस्तार हुआ था। उन शुभकीतिके एक दूसरे भी धर्मभूषण नामके शिष्य थे। उपर्युक्त जैन सिद्धान्तभास्करकी चतुर्थ किरणमें प्रकाशित नन्दिसंघकी पट्टावलीके आचार्योंकी नामावलीमें प्रभाचन्द्रके पट्टारोहणका काल वि. सं. १३१० दिया गया है । इसके पश्चात् उनके होनेकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, कारंजाके बलात्कारगण मंदिरमें जो शास्त्र-भण्डार है उसमें उपर्युक्त प्रभाचन्द्रके द्वारा विरचित रत्नकरण्डश्रावकाचारकी टीकाकी एक प्रति वि. सं. १४१५ की मौजूद है२ । कितने ही विद्वान् यह समझते हैं कि रत्नकरण्डश्रावकाचारके ऊपर टीका लिखनेवाले प्रभाचन्द्र वे ही प्रभाचन्द्र हैं कि जिन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे टीकाग्रन्थोंको रचा है । इसके लिये वे यह हेतु देते हैं कि उन्होंने उक्त ग्रन्थके 'क्षुत्पिपासा' आदि श्लोककी टीकामें केवलीके कवलाहरका खण्डन करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें उक्त विषयकी विशेष प्ररूपणा करनेका निम्न प्रकारसे निर्देश किया है तदलमतिप्रसंगेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रपञ्चतः प्ररूपणात् । परन्तु इस वाक्यके द्वारा वहां केवल यह भाव दिखलाया गया है कि इस विषयका विशेष विवरण उक्त दोनों ग्रन्थोंमें किया गया है, अतः विशेष जिज्ञासुओंको उसे वहां देखना चाहिये । उक्त वाक्य में ऐसा कोई पद ('मया' या 'अस्माभिः' आदि) नहीं है जिससे कि यह निश्चय किया जा सके कि वह प्ररूपणा वहां इन्हीं प्रभाचन्द्रने की है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासनमें कुछ श्लोक (१७१-७४, २६५-६६) ऐसे आये हैं कि जिनके ऊपर टीका करते हुए तर्कणाको शैलीसे बहुत कुछ लिखा जा सकता था। परन्तु वहां विशेष कुछ भी १. र. पा. की प्रस्तावना पृ. ६३-६५. २. र. पा. को प्रस्तावना पृ. ६७. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आत्मानुशासनम् ' नहीं लिखा गया है । इतना ही नहीं, बल्कि किसी किसी श्लोकका तो पूरा अर्थ भी स्पष्ट नहीं हुआ है ( देखिये श्लोक १७१) । प्रभाचन्द्र जैसे उच्च कोटिके तार्किक विद्वान्से यह सम्भावना नहीं की जाती कि उनके सामने तदेव तदतद्रूपं, एकमेकक्षणे सिद्धं ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकम् न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं नाभावमप्रतिहत प्रतिभासरोधात्, गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते' जैसे विशेष वर्णनीय विषयके रहते हुए भी वे उसके ऊपर विशेष कुछ भी न लिखें। इन विषयोंकी प्ररूपणा उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थों में प्रकरण के अनुसार विस्तारसे की है । " आत्मानुशासन श्लोक २६५ की टीकामे यह श्लोक उद्धृत किया गया है -- दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ यही श्लोक प्रमेयकमलमार्तण्ड ( ६ - ७४ ) में इस रूपमें उद्धृत किया गया है - दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ यह श्लोक सौन्दनन्द काव्य में इसी स्वरूपमें पाया जाता है। इसके साथ ही प्रमेयकमलमार्तण्ड में ' जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो' आदि दूसरा श्लोक भी उद्धृत किया गया है जो इस श्लोक सम्बन्ध रखता है । एक ही लेखक किसी अन्य ग्रन्थकारके वाक्यको एक स्थानपर एक रूपमें और दूसरे स्थानमें अन्य स्वरूपसे उद्धृत करे, यह सम्भव नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं, ये दोनों श्लोक यशस्तिलक (उ. खण्ड पृ. २७० ) में ' दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्' आदिके रूपमें उद्धृत किये गये हैं । वहांसे ही सम्भवतः आत्मानुशासनके टीकाकार उन प्रभाचन्द्रने उक्त श्लोकको आत्मानुशासनकी टीकामें उद्धृत किया है । इससे इन दोनों प्रभाचन्द्रों में भिन्नता सिद्ध होती है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसके अतिरिक्त प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिकी रचनाशैली और इन टीकाओंकी रचनाशैलीको जब हम तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तो हमें उन दोनोंमें स्पष्ट भेद भी दिखाई देता है। इससे हम तो इसी निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि समाधिशतक, रत्नकरण्डश्रावकाचार और आत्मानुशासन इन तीनों ग्रन्थोंपर टीका लिखनेवाले प्रभाचन्द्र उन प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्रसे भिन्न हैं, तथा उनका रचनाकाल विक्रमको १३ वीं शतीका अन्तिम भाग अनुमान किया जाता है। अन्य टोकायें इस संस्कृत टीकाके अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्यके ऊपर अन्य निम्न टीकायें भी उपलब्ध हैं १. गोम्मटसार आदि अनेक ग्रन्थोंके ऊपर ढूंढारी हिन्दी भाषामें विद्वत्तापूर्ण टीका लिखनेवाले तथा मोक्षमार्गप्रकाशकके मूल लेखक सुप्रसिद्ध पं. टोडरमलजीके द्वारा एक विस्तृत हिन्दी टीका आत्मानुशासनपर भी लिखी गई है जो प्रकाशित भी हो चुकी है । इस टोकामें प्रथमतः उन्होंने मूल श्लोकके अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है और तत्पश्चात् प्रत्येक श्लोकके ऊपर भावार्थ लिखकर उसके अभिप्रायको स्पष्ट किया है । मूल ग्रन्थमें जहां अन्य वैदिक आदि ग्रन्थोंके उदाहरण दिये गये हैं वहां उन्होंने उनके सम्बन्धमें या तो कुछ लिखा ही नहीं है या कुछ काल्पनिक ही लिखा है । यथा - 'नेता यत्र बृहस्पतिः' आदि श्लोक (३२) की टीकामें 'अनुग्रहः खलु हरेः' का अर्थ विष्णुका अनुग्रह' न करके यह अर्थ किया है- अर हरि जो ईश्वर ताका अनुग्रह सहाय। साथ ही भावार्थमें यह लिख दिया है-- तहां वैष्णव मत अपेक्षा उदाहरण कह्या, देवतानिका इ.द्र बलवान् है सो तो भी दैत्यनिकरि संग्रामविर्षे हार्या । अथवा याहीका जैनमत अपेक्षा अर्थ कीजिये तो इन्द्रनामा विद्याधर भया, वाने मंत्री आदिकका बृहस्पति आदि नाम धर्या है सो बहुत पुरुषार्थकरि संयुक्त भया, सो भी रावणकरि हार्या। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् 'चित्तस्थमप्यनवबुध्य हरेण जाडय़ात् ' आदि श्लोक ( २१६ ) का अर्थ इस प्रकार लिखा है- देषौ काम तौ चित्तविषै हुता, बाह्य ण हुता, अर काहू क्रोधकरि काम जानि कोउ बाह्य पदार्थ भस्म किया, सो काम न मुवा । कामके योगते सराग अवस्थाकूं प्राप्त भया । कामकी करी घोर वेदना सही। इस अर्थ में उन्होंने ' हरेण' का अर्थ सीधा महादेव न करके 'काहूने' के रूपमें किया है तथा भावार्थ में भी इसी शब्द का उपयोग किया है । ३२ " यशो मारीचीयं' आदि श्लोक ( २२० ) के अर्थमें उन्होंने 'स कृष्णः कृष्णोऽभूत् कपटबटुवेषेण नितराम्' इस तृतीय चरणका अर्थ सर्वथा छोड दिया है । भावार्थ में भी उन्होंने केवल इतना ही लिखा है- मायाचार महादुराचार है । मारीच मंत्री लघुताको प्राप्त भया, राजा युधिष्ठिर सरिषा 'अश्वत्थामा हतः' या वचन कहिवेकरि लज्याकौ प्राप्त भये । यहां इतना स्मरण रखना चाहिये कि पं. टोडरमलजी अपनी पद्धति के अनुसार यथासम्भव प्रत्येक श्लोकके भावको पूर्णतया स्पष्ट करते हैं । परन्तु यहां वह स्पष्ट नहीं किया गया है। इसका कारण उनकी इन कथानकोंसे असहमतिके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं प्रतीत होता । मारीचकी कथाका वह प्रसंग श्री रविषेणाचार्यविरचित पद्मपुराणसे सर्वथा भिन्न है । ऐसे कुछ स्थलोंको छोडकर अन्य सर्वत्र यह टीका ग्रन्थके भावको हृदयंगम करने में पर्याप्त सहायता करती है । २. दूसरी टीका शोलापुरकें प्रसिद्ध विद्वान् स्व. पं. बंशीधरजी शास्त्रीके द्वारा लिखी गई है। यह टीका प्रायः भावप्रधान व कु छ विस्तृत भी है । परन्तु उससे मूल ग्रन्थका शाब्दिक अर्थ शीघ्रता से अवगत नहीं होता । यह टीका जैन ग्रन्थरत्नाकर बम्बईसे प्रकाशित ( फर्वरी १९१६ ) हो चुकीं है । लिखते समय इस टीकाकी पुस्तक न रहनेसे उसके सम्बन्ध में विशेष नहीं लिखा जा सका है । ३. उपर्युक्त दो हिन्दी टीकाओं के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थपर एक मराठी टीका भी उपलब्ध है । यह टीका स्थानीय जैन संस्कृति संरक्षक संघ - जिसके द्वारा यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है- संस्थापक स्व. ब्र. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३३ जीवराज गौतमचन्द जी दोशीके द्वारा पं. टोडरमल जी की टीकाके आधारसे लिखी गई है और वह प्रकाशित (वीर नि. सं. २४३५) भी हो चुकी है। पं. टोडरमल जी की टीकाके समान इस टीकामें भी श्लोक ३२ के 'अनुग्रहः खलु हरेः' का अर्थ 'व ज्यास हरि म्हणजे परमेश्वराचा अनुग्रह म्हणजे सहाय' किया गया है तथा भावार्थमें यह सूचित कर दिया है" या ठिकाणी वैष्णव मताच्या अपेक्षेने दृष्टांत मांगितला आहे की सर्व देवांमधे इन्द्र हा बलवान आहे. त्यांच्या युद्धांत दैत्यांनी पराभव केला. तेव्हां देवापुढे कोणाचा इलाज नाहीं । आतां याच श्लोकाचा आमच्या आम्नायाप्रमाणे अर्थ केला तर इन्द्र हे नांव विद्याधरालाहि आहे. त्या विद्याधराने आपल्या मंत्र्याचे नांव बृहस्पति वगैरे ठेवले होते व तो अतिशय पराक्रमी होता. परन्तु रावणाने त्याचा पराजय केला." यह पं. टोडरमल जी के भावार्थका ही प्रायः अनुवाद है। श्लोक २१६ की टीकामें यहां 'हरेण' का अर्थ 'शंकराने ' ही किया है । परन्तु नीचे टिप्पणमें यह सूचना अवश्य कर दी है- या ठिकाणी गुणभद्र स्वामींनी वैष्णवमताचा दृष्टांत घेऊन क्रोध अकल्याणकारी आहे असे सिद्ध केले आहे. म्हणून कोणी शंका घेण्याचे कारण नाही. कारण कवींचा अभिप्राय आपले प्रयोजन सिद्ध करण्याकडे असल्यामुळे असा दृष्टांत दिला आहे. यांत फक्त क्रोधाने कशी हानि होते एवढ्यावरच दृष्टि ठेवावी. श्लोक २२० की टीकामें यहां भी पं. टोडरमल जी की टीकाके समान ‘स कृष्णः कृष्णोऽभूत् कपटबटुवेषेण नितराम् ' का अर्थ छोड दिया गया व भावार्थ भी लगभग वैसा ही लिखा गया है। . इस प्रकार यह टीका पं. टोडरमल जी की टीकाका प्रायः मराठी अनुवाद मात्र है। आ. प्र.३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय- परिचय अभीष्ट प्रयोजन Sitara सब ही प्राणी चूंकि दुःखसे डरते है और सुखकी अभिलाषा करते हैं, इसीलिये इस आत्मानुशासन ग्रन्थके द्वारा उन्हें उक्त प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये आत्मस्वरूपकी शिक्षा दी गई है (श्लोक २ ) । इसमें आचार्य गुणभद्रने सर्वप्रथम यह निर्देश कर दिया है कि यहां जो उपदेश दिया जावेगा वह यद्यपि सुनने के समय कटु लग सकता है, परन्तु वह परिणाममें कडुवी औषधिके समान हितकर ही होगा । इसलिये सुखाभिलाषी भव्य जीवोंको उससे भयभीत नहीं होना चाहिये (३) । यह है भी ठीक, क्योंकि, ' हितं मनोहरि च दुर्लभं वच: ' इस प्रसिद्ध नीतिके अनुसार जो हितोपदेश होते हैं उनके वचन प्रायः श्रोता जनोंको मनोहर नहीं प्रतीत होते हैं । और इसके विपरीत जिनके वचनोंमें मधुरता . दिखती है वे प्रायः हितोपदेशक नहीं होते हैं । अतएव ग्रन्थ के प्रारम्भमें उसके कर्ता द्वारा श्रोता जनोंको उक्त प्रकारसे सावधान कर देना उचित ही है । आगे वे उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट कर देते हैं, जिस प्रकार जलसे रिक्त होकर गर्जना करनेवाले बादल बहुत, किन्तु उक्त जलसे परिपूर्ण होकर वर्षा करनेवाले वे बहुत ही थोडे देखे जाते हैं; उसी प्रकार निरर्थक या कुटिलतापूर्वक बकवाद करनेवाले चापलूस मनुष्य तो बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं, किन्तु जगत्का कल्याण करनेवाले यथार्थ वक्ता बहुत ही अल्प मात्रामें उपलब्ध होते हैं (४) । आगे चलकर वक्ता और श्रोता इन दोनों के ही कुछ आवश्यक गुणों का उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि जब यह भली भाँति प्रसिद्ध है कि पापसे प्राणीको दुख और धर्मसे सुख प्राप्त होता है तब सुखाभिलाषी मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह उस दुखदायक पापको छोडकर सुखप्रद धर्मका ही आचरण करे ( ८ ) । स्वामी समन्तभद्राचार्यने धर्मका यही स्वरूप बतलाया है कि जो ज्ञानावरणादि कर्मोंको निर्मूल करता हुआ प्राणियोंको जन्म-मरणादिरूप संसारके महान् दुखसे छुडाकर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उन्हें निराकुल एवं निर्बाध शाश्वतिक सुखको प्राप्त करा देता है वही वास्तवमें धर्म कहा जाता है१। कारण यह कि वस्तुस्वभावका नाम धर्म है । सो यहां अन्य वस्तुओंकी विवक्षा न होकर एक मात्र मात्मा अपेक्षित है । अतएव उसके स्वभावभूत जो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय है उसे धर्म समझना चाहिये । यही मोक्षका मार्ग है। इसके विपरीत जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं ने अधर्म होनेसे मोक्षके मार्ग न होकर संसारके ही कारण होते हैं । सुख-दुखविवेक अब यहां हमें यह विचार करना चाहिये कि वास्तविक सुख क्या है और वास्तविक दुख क्या है । सातावेदनीय कर्मके उदयसे प्राणीको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभवन होता है वह यथार्थमें सुख नहीं है, किंतु सुखका आभास है । कारण यह है कि इन्द्रियविषयोंसे जो प्राणीको सुख प्राप्त होता है वह बिजलीके प्रकाशके समान विनश्वर होकर उत्तरोत्तर उस विषयतृष्णाको ही बढाता है जो कि एक महान्याधिस्वरूप है । यह विषयतृष्णा प्राणीको निरंतर संतप्त करती है । इसलिये वह उस सन्तापको दूर करनेके लिये उन उन अभीष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें लगकर घोर परिश्रम करता है व स्वयं दुखी होता है। श्री कुन्दकुंदाचार्य भी इस इन्द्रियजन्य विषयसुखको दुख ही बतलाते हैं । वे कहते हैं कि इन्द्रियोंसे जो सुख उपलब्ध होता है वह पर द्रव्योंकी अपेक्षा रखनेके कारण पराधीन, भूख-प्यास बादिकी अनेक बाधाओंसे सहित, प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त होनेसे विनश्वर, भोगकांक्षा आदिके दुर्ध्यानसे पापका बन्धक, १. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिबहणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥र. श्रा. २. २. सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥ र. श्रा. ३३, शतहृदोन्मेषचलं हि सौख्यं तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । वृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजलं तापस्तदायासयतोत्यवादीः॥स्व.स्तो.३,३. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मात्मानुशासनम् तथा अतृप्तिका कारण अथवा हानि-वृद्धिसे सहित होनेके कारण विषम है १। स्वामी समन्तभद्र भी निष्कांक्षित अंगके लक्षणमें कहते हैं कि वह विषयजन्य सुख प्रथम तो कर्माधीन है-जब सातावेदनीय आदि पुण्य कर्मोका उदय होगा तब ही वह उपलब्ध हो सकता है, न कि अन्यथा। दूसरे कर्माधीन होकर भी वह स्थिर रह सकता हो, सो भी नहीं है-- वह नियमसे नष्ट होनेवाला है। तीसरे,उसकी उत्पत्ति दुःखोंसे अन्तरित हैबीच बीचमें अनेक दुख भी अवश्य प्राप्त होनेवाले हैं। कारण कि सुख और दुखका यह क्रम चक्रके समान निरंतर चालू रहता है। कहा भी है . सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् । द्वयमेतद्धि जन्तूनामलंघ्यं दिन-रात्रिवत् ॥ अर्थात् जिस प्रकार दिनके बाद रात और फिर रातके बाद दिनका प्रादुर्भाव नियमसे हुआ करता है उसी प्रकार सुखके बाद दुख और फिर दुखके बाद सुख भी नियमसे उत्पन्न होता ही रहता है । इस प्रकृतिके नियमका कभी उल्लंघन नहीं होता है। इसके अतिरिक्त वह संसारकी परंपराके बढानेवाले पापबन्धका भी कारण है । अत एव ऐसे विनश्वर सुखमें नित्यत्वके दुरभिनिवेशको छोडकर उसकी अभिलाषा न करना, यह सम्यग्दर्शनका निष्कांक्षित अंग माना गया है। ___ भगवान् कुंथुनाथ जिनेंद्र तीर्थंकर तो थे ही,साथ ही वे चक्रवर्ती भी थे। उनके पास विषय-भोगोंकी कमी नहीं थी। फिर भी उन्होंने जन्म, जरा एवं मरणके दुःखसे छुटकारा पानेके लिये-निराकुल एवं निर्बाध स्वाधीन सुख (मोक्षसुख)की प्राप्तिकी इच्छासे-उस अपरिमित विभूतिको छोडकर दैगम्बरी दीक्षा ही स्वीकार की थी। उनकी स्तुतिमें स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि विषयतृष्णारूप अग्निकी ज्वालायें प्राणीको १. सपरं बाधासहि विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंविएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तधा ॥ प्र. सा. १, ७६. २. कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्थाश्रदाऽनाकांक्षणा स्मृता ॥ र. श्रा. १२. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना निरन्तर जला रही हैं । उनकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रियविषयोंको विभूतिसे सम्भव नहीं है, उससे तो वे उत्तरोत्तर वृद्धिको ही प्राप्त होनेवाली हैं; क्योंकि, ऐसी स्थिति है- जैसे जैसे वे विषयभोग प्राप्त होते जाते हैं वैसे ही वैसे प्राणीको तद्विषयक इच्छा भी, घीकी आहतियोंसे अग्निके समान, उत्तरोत्तर बढती ही जाती है । उक्त इन्द्रियविषय कुछ समयके लिये केवल शरीरके संतापको ही दूर कर सकते हैं- वे उन तष्णाज्वालाओंको कभी शान्त नहीं कर सकते हैं। इसी कारण हे जितेन्द्रिय कुन्थुजिनेन्द्र ! आप उस विषयजनित सुखसे विमुख हुए हैं- आपने उस स्वाधीन सुखको प्राप्त करने के लिये चक्रवतिके विभूतिको भी तुच्छ तृणके समान छोड दिया है १ । उक्त सुख-दुखका विवेक न होनेसे प्राणीमात्रके चाहनेपर भी वह सुख सबको नहीं प्राप्त हो पाता। इसके लिये यह बतलाया है कि जिस समीचीन सुखको सब ही शीघ्रतासे प्राप्त करना चाहते हैं वह सब कर्मोंका-द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका-क्षय हो जानेपर उपलब्ध होता है। और वह सब कर्मों का क्षय जिस सम्यकचारित्रके ऊपर निर्भर है वह सम्यग्ज्ञानका अविनाभावी है। यह सम्यग्ज्ञान रागादि समस्त दोषोंसे रहित हुए आप्तके द्वारा प्ररूपित परमागमके सुननेसे प्राप्त होता है। अतएव परम्परासे उस सुखका मूल कारण जो आप्त है उसका ही युक्तिपूर्वक विचार करके आश्रय लेना चाहिये- उसका ही आराधन करना चाहिये (९)२ । सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपके भेदसें आराधना १.तष्णाचिषः परिवहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् स्व. स्तो. १७, २. २. इसी आशयका एक पुरातन पद्य श्री आचार्य विद्यानन्दने श्लोकवातिकके प्रारम्भमें भी उद्धृत किया हैअमिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति॥ श्लो. वा. पृ. २. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् चार प्रकारकी है । प्रकृत ग्रन्थ में प्रकारान्तरसे इन चारों आराधनाओंका विवेचन किया गया है। उनमें प्रथम आराधनारूप सम्यग्दर्शनका विवेचन करते हए उसे अचल-प्रासाद (मोक्ष-महल) के ऊपर चढनेवाले भव्य जीवोंके लिये प्रथम पायरी (सीढी) के समान बतलाया गया है। सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थोके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है। वह निसर्गज और अधिमगज अथवा सराग और वीतरागके भेदसे दो प्रकारका औपशमिकादिके भेदसे तीन प्रकारका तथा आज्ञासम्यक्त्व आदिके भेदसे दस प्रकारका भी माना गया है । जबतक यह सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता है तबतक मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते- वे मिथ्यारूप ही रहते हैं। किन्तु जैसे ही प्राणोके वह सम्यग्दर्शन प्रादुर्भूत होता है वैसे ही उक्त तीनों ज्ञान सम्यग्रूपताको प्राप्त कर लेते हैं । वह मूढता आदि पच्चीस दोषोंसे रहित तथा संवेग आदि१ गुणोंसे वृद्धिंगत होना चाहिये (१०)। इस सम्यग्दर्शनका स्वरूप ग्रन्थांतरोंमें विभिन्न प्रकारसे पाया जाता है। यथा-श्री कुन्दकुन्दाचार्यने दर्शनप्राभूतमें छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है । आगे इसी ग्रन्थमें उन्होंने जिनेन्द्रप्ररूपित जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन और आत्मा (आत्मनिश्चय) को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है३ । वे ही मोक्षप्राभृतमें कहते हैं कि हिंसासे रहित धर्म, अठारह दोषोंसे रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और प्रवचन (आगम) के विषय में जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्दर्शन है४ । १. संवेओ णिवेओ णिदण गरहा य उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अगुकंपा अठ्ठ गुणा हुंति सम्मते ॥ वसु. श्रा. ४९. २. छद्दन्व णव पयत्या पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुगेयव्यो । द. प्रा. १९. ३. जीवादीसदहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णतं ।। __ ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ द. प्रा. २०. ४. हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होई सम्मत्तं ॥ मो. प्रा. ९०. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३९ तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता भगवान् उमास्वामीने तत्त्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है। स्वामी समन्तभद्र परमार्थ आप्त, आगम और तपस्वी के तीन मूढता व आठ मदोंसे रहित तथा आठ अंगोंसे सहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है१। इसी प्रकार अमृतचन्द्राचार्यने भी जीवाजीवादि तत्त्वार्थों के विपरीत अभिप्रायसे रहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहकर उसे आत्माका स्वरूप बतलाया है२ | पंचाध्यायीकार कहते हैं कि इस प्रकार जो तत्त्वका ज्ञाता होकर स्वकीय आत्माको देखता है वह सम्यग्दृष्टि है और वह विषयजन्य सुख तथा ज्ञानके विषयमें राग-द्वेषको छोड देता है३ । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के उपर्युक्त लक्षणों में भेदके दिखनेपर भी अभिप्राय सबका एक ही है । इन लक्षणोंमें जो आप्त, आगम और गुरु अथवा जीवादि तत्त्वों के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया गया है उसे समयग्दर्शन न समझकर उसका कारण समझना चाहिये। पंचाध्यायीकार कहते हैं कि श्रद्धा, रुचि और प्रतीति आदि ये सम्यग्दृष्टि के बाह्य लक्षण हैं, किन्तु वे स्वयं सम्यक्त्व नहीं हैं; क्योंकि वे सब ज्ञानकी पर्यायें हैं। यहां तक कि वे तो स्वानुभूतिको भी उस सम्यक्त्वका बाह्य ही लक्षण मानते हैं, क्योंकि, वह स्वानुति भी तो ज्ञानकी पर्याय होनेसे ज्ञान के ही अन्तर्गत है४ । हां, यह अवश्य है कि यदि उक्त श्रद्धा आदि स्वानुभूति से संयुक्त हैं तब तो वे गुण हो सकते हैं; अन्यथा गुण न होकर १. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभूताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। र. श्रा. ४. २. जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। पुरु. २२. ३. इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ॥ पंचाध्यायी २-३७१. ४. श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः । न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ अपि स्वात्मानुभूतिस्तु ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेत् बाह्यलक्षणम् ॥ पंचाध्यायी २, ३८६-८७. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . आत्मानुशासनम् वे गुणाभास ही रहेंगे । अभिप्राय यह हुआ कि वे सब श्रद्धा आदि गुण स्वानुभूतिके संयुक्त होनेपर सम्यक्त्वरूप और उसके विना मिथ्या श्रद्धा आदिके समान वे सम्यक्त्व न होकर तदाभास ही होते हैं १ । स्वानुभूतिके विना जो श्रुतमात्रके आलम्बनसे श्रद्धा होती है वह तत्त्वार्थसे सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि, वहां तत्त्वार्थकी उपलब्धि नहीं है। इसका भी कारण यह है कि वह लब्धि पागल पुरुषकी लब्धिके समान सत् और असत् पदार्थों में विशेषतासे रहित होती है। अतएव वह पदार्थक अभावमें होनेवाली अर्थोपलब्धिके ही समान वस्तुतः उपलब्धि नहीं है। इसीलिये श्रद्धाको जो सम्यक्त्वका लक्षण निर्दिष्ट किया जाता है उसे पंकज (कीचडसे उत्पन्न कमल) आदिके समान यौगिक रूढिके वश समझना चाहिये । इस कारण स्वानुभूतिसे संयुक्त श्रद्धाको जो सम्यक्त्व कहा गया है वह उचित ही है२ । यह सम्यग्दर्शन, संज्ञी, पंचेन्द्रिय व पर्याप्त जीवोंमें किसी भी जीवके हो सकता है- उसके लिये कुल एवं जाति आदिका कोई बन्धन नहीं है। यही कारण है जो स्वामी समन्तभद्राचार्यने सम्यग्दर्शनसे सहित चाण्डालको भी आराधनीय बतलाया है३ । सम्यक्त्वकी महिमा विलक्षण १. स्वानुभूतिसनाथाश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः । स्वानुभूतिविनाभासा नार्थाच्छुद्धादयो गुणाः ॥ तत्स्याच्छद्धादय सर्वे सम्यक्त्वं स्वानुभूतिमत् । । न सम्यक्त्वं तदाभासा मिथ्याश्रद्धादिवत् स्वतः ॥ . पंचाध्यायी २, ४१५-१६ २. विना स्वात्मानुभूति तु या श्रद्धा श्रुतमात्रतः । तत्त्वार्थानुगताप्यर्थाच्छ्रद्धा नानुपलब्धितः ॥ लब्धिः स्यादविशेषाद्वा सदसतोरुन्मत्तवत । नोपलब्धिरिहार्थात् सा तच्छेषानुपलब्धिवत् ॥ ततोऽस्ति यौगिकी रूढिः श्रद्धा सम्यक्त्वलक्षणम् । अर्थाद प्यविरुद्धं स्यात् सूक्तं स्वात्मानुभूतिमत् ॥ पंचाध्यायी २, ४२९-२३. ३. सम्यग्दर्शनसंपन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥ र. श्रा. २८. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ है उसके होनेपर यदि चारित्र न भी हो तो भी प्राणी मोक्षके मार्गमें स्थित हो जाता है । किंतु उसके विना बाह्य महाव्रतादिरूप चारित्रके होनेपर भी जीव मोक्षमार्ग में स्थित नहीं हो पाता है। इसी कारण ऐसे महाव्रतीकी अपेक्षा उस व्रतहीन सम्यग्दृष्टि गृहस्थको ही श्रेष्ठ बतलाया गया है १ । वह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट माना जाता है । कारण यह है कि जिस प्रकार बीजके विना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अवस्थित रहता है, न बढता है; और न फलोंको भी उत्पन्न कर सकता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते हैं, न अवस्थित रह सकते हैं, न बढ सकते हैं और न मोक्षरूप फलको भी उत्पन्न कर सकते हैं२ । इसलिये मोक्षकी प्राप्तिका मूल कारण इस सम्यग्दर्शनको ही समझना चाहिये । उस सम्यग्दर्शनके यहां ये दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्व और परमावगाढसम्यक्त्व ३ । प्रस्तावना दैवकी प्रबलता धर्मका असली प्रयोजन तो निराकुल मोक्षसुखकी प्राप्ति है । साथ ही प्राणियोंको जो इन्द्रियजनित सुख प्राप्त होता है वह भी उस धर्म के १. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥ र. श्री. ३३. २. विद्यावृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।। र. श्री. ३२. ३. इनका स्वरूप श्लोक १२-१४ में देखिये । आचार्य गुणभद्रने सम्यक्त्वके इन १० भेदोंका उल्लेख अपने उत्तरपुराण (७४, ४३९ - ४९ ) में भी किया है । यह आत्मानुशासनका श्लोक (११) श्री सोमदेव सूरिके द्वारा अपने यशस्तिलक ( उत्तर खण्ड पृ. ३२३) में उद्धृत किया गया है। वहां उन्होंने संक्षेपमें उक्त १० भेदोंके स्वरूपका भी निर्देश किया है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आत्मानुशासनम् विना सम्भव नहीं है । कारण यह कि उक्त विषयसुख जिस पुण्यके ऊपर निर्भर है वह विना धर्माचरणके नहीं होता है। इसीलिये तो तत्त्वार्थसूत्र (६-३) में शुभयोगको पुण्यका आस्रव और अशुभयोगको पापका आस्रव बतलाया गया है । यह शुभयोग अहिंसा,सत्य एवं अचौर्य आदि स्वरूप है और इसीका नाम धर्माचरण है । इसके विपरीत हिंसा,असत्य एवं चोरी आदि स्वरूप अशुभयोग है जो पापबंधका कारण है। इस पुण्य पापको ही यहां दैव कहा गया है (२६२) । उस धर्मकी महिमाको प्रकट करते हुए यहां यह निर्दिष्ट किया गया हैं कि जब वे सब इन्द्रिय विषय धर्मरूप वृक्षके ही फल हैं तब जिस प्रकार फलोंकी अभिलाषा रखनेवाले उपभोक्ता जन उस वृक्षका संरक्षण करते हुए ही उसके फलोंका उपभोग किया करते हैं उसी प्रकार सुखाभिलाषी विवेकी जन भी उक्त धर्मका परिपालन करते हुए ही क्यों न उस विषयसुखका उपभोग करें [१९॥ , यहां देवके उपर बल देकर इंद्रका उदाहरण देते हुए यह बत गया कि जिस इन्द्रका मंत्री तो बृहस्पति, शस्त्र वज्र,सैनिक देव,किला स्वर्ग और हाथी ऐरावत था तथा जिसके ऊपर साक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी था; वह इस आश्चर्यजनक बलसे संयुक्त इंद्र भी जब शत्रुओंके द्वारा पराजित किया गया है तब अन्य साधारण जनकी तो बात ही क्या हैं? इससे जाना जाता है कि जीवोंका रक्षक एक मात्र दैव ही है, उसके आगे पौरुषका कुछ वश नहीं चलता (३२) । यदि पूर्वोपार्जित पुण्य शेष है तो प्राणोके लिये आयु, धन-सम्पत्ति एवं शरीर आदि रूप सब ही अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है और यदि वह (पुण्य) शेष नहीं है तो फिर प्राणी उसको प्राप्तिके लिये कितना भी परिश्रम क्यों न करे, परंतु वह कदाचित् भी उसे प्राप्त नहीं हो सकती है । दुष्ट देवकी प्रबलताको दिखलाते हुए यहां (११८-१९) ग्रन्थकारने भगवान् आदिनाथका उदाहरण देकर यह बतलाया है कि जिन ऋषभ जिनेंद्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ जानकर छोड दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था. वे ही भगवान् क्षुधित होकर दीनकी तरह दूसरोंके घरोंपर घूमे, परंतु उन्हें भोजन प्राप्त नहीं हुआ। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना देखो,जब वे गर्भमें आनेवाले थे तब उसके छह महिने पूर्व से ही इंद्र हाथ जाडकर दासके समान सेवामें संलग्न रहा । उधर उनका पुत्र भरत चक्रवर्ती चौदह रत्न और नौ निधियोंका भी स्वामी था । तथा युगके आदिमें वे स्वयं सृष्टिके स्रष्टा थे । फिर भी उन्हें क्षुधा के वश होकर छह महिने पृथिवीपर घूमना पडा । यह उस दैवकी प्रबलता नहीं तो क्या है ? 11 ४३ यह सब जानता हुआ भी प्राणी आशारूप पिशाचके वशीभूत होकर कभी खेती में प्रवृत्त होता है तो कभी राजाओंकी सेवा करता है, और कभी समुद्र आदिके मार्ग से देश-विदेश में परिभ्रमण भी करता है । परंतु जिस प्रकार बालुसे कभी तेल नहीं निकल सकता है तथा विषभक्ष से जीवित नहीं रह सकता है उसी प्रकार इस विषयतृष्णा से प्राणीको कभी सुखका लाभ भी नहीं हो सकता है । वह केवल मोहवश व्यर्थका परिश्रम करता हुआ दुखी ही रहता है । सच्चा सुख तो उसे उस आशा के निराकारणसे ही प्राप्त हो सकता है (४२) | किसीने यह ठीक ही कहा है जहां चाह तहां दाह है हुईये वेपरवाह । चाह जिन्होंकी मिट गई वे शाहन के शाह || यह आशा एक प्रकारकी नदी है- जिस प्रकार नदी प्रवाहम पडकर प्राणी दूर तक बहता ही चला जाता है और अन्तमें समुद्र में जाकर वहां भयानक जलजन्तुओं का ग्रास बन जाता है उसी प्रकार यह प्राणी भी उस आशा के वशीभूत होकर निरंतर अभीष्ट विषयसामग्रीको प्राप्त करनेके लिये परिश्रम करता है और अन्तमें मृत्युका ग्रास बनकर धर्मसे विमुख होनेके कारण संसार समुद्रमें दीर्घ काल तक गोता खाता है (४९) कवि भूधरदासजीने यह ठीक ही कहा है G चाहत है धन होय किसी विध तो सब काज सरें जियराजी | गेह चिनाय करूं गहना कछु व्याह सुता-सुत बांटिय भाजी ॥ चितत यो दिन जाहिं चले जम आन अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारी गये हि जाय रुपी सतरंजकी बाजी । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आत्मानुशासनम् आशाको यद्यपि अग्निकी उपमा दी जाती है,परन्तु वह उससे भी भयानक है । कारण यह कि अग्नि तो तबतक ही जलती है जबतक कि उसे ईंधन प्राप्त होता रहता है-ईंधनके विना वह स्वयमेव शांत हो जाती है। परन्तु आश्चर्य है कि वह आशारूप अग्नि ईंधन (इष्ट सामग्री) की प्राप्ति और अप्राप्ति दोनों ही अवस्थाओंमें जलती है-जबतक अभीष्ट विषयसामग्री प्राप्त नहीं होती है तबतक तो प्राणी उसकी अप्राप्तिमें संतप्त रहता है और जब वह प्राप्त हो जाती है तब वह उसकी उत्तरोतर बढती हुई तृष्णाके वश होकर संतप्त रहता है । जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्य के तापसे पीडित कोई दुबल बैल उत्पन्न हुई प्यासकी वेदनाको शांत करनेके लिये किसी जलाशयके किनारे जाता है और वहां गहरे की चडमें फंसकर दुखी होता है उसी प्रकार यह अज्ञानी प्रागो सूर्यके समान संतापजनक इन्द्रियोंके वशीभूत होकर उत्पन्न हुई विषयतृष्णाको शांत करने के लिये उन उन विषयोंका प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । परंतु वैसा पुण्य शेष न रहनेसे वे विषय उसे प्राप्त नहीं होते । तब वह केवल उस परिश्रमजनित दुखका ही अनुभव करता है (५५-५६) । इसका कारण यह है कि मूढ प्राणी आत्मा और शरीरमें भेद नहीं समझता । वह शरीरको ही आत्मा समझता है। परन्तु वह विनश्वर एवं जड शरीर आत्मा नहीं है । वह तो उससे भिन्न ज्ञायकस्वभाव,चेतन व नित्य है । यद्यपि वह स्वभावतः अमूर्तिक होकर भी कर्मवश अनादि कालसे उस मूर्तिक शरीरमें एकक्षेत्रावगाह स्वरूपसे स्थित है,तो भी वे दोनों दूधमें मिले हुए पानीके समान स्वरूपतः भिन्न ही हैं । जिस प्रकार अन्यके लिये सम्भव न होनेपर भी हंस दूधमें मिले हुए पानीको पृथक करके उसमेंसे केवल दूधको ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार विवेकी जन (अंतरात्मा) दोनोंके एक क्षेत्रावगाह स्वरूपसे स्थित रहनेपर भी उस परम ज्योतिस्वरूप आत्माको म्यानमें स्थित खड्गके समान उस शरीरसे पृथक् ही ग्रहण किया करते हैं। इसीलिये वे शरीरके निमित्तसे होनेवाले दुखका भी कभी अनुभव नहीं करते । किसीने यह ठीक ही कहा है-- Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अज्ञस्य दुःखौघमयं ज्ञस्यानन्दमयं जगत् । अन्धं भुवनमन्धस्य प्रकाशं तु सचक्षुषः ।। जिस प्रकार अन्धा मनुष्य विश्वको अन्धकारमय तथा निर्मल नेत्रोंसे संयुक्त मनुष्य उसे प्रकाशमय ही देखता है उसी प्रकार अज्ञानी जन जगतको दुखरूप तथा ज्ञानीजन उसे आनन्दमय ही मानते हैं- विवेकी जन विपत्तिके समयमें भी कभी खिन्न नहीं होते हैं । जिस शरीरके आश्रयसे प्राणी विषयोंमें प्रवृत्त होता है वह ठीक कारागृह (जेल) के समान है- कारागार यदि मोटे गोटे लकडीके शहतीरोंसे या लोहमय गाटरोंके आश्रित होता है तो यह शरीर भी स्थूल हड्डियों के आश्रित है, कारागार जैसे रस्सियोंसे सम्बद्ध होता है वैसे ही शरीर भी शिरा व स्नायुयोंसे सम्बद्ध है; कारागार जहां कबेल आदिसे आच्छादित होता है वहां यह शरीर चमडेसे आच्छादित है, कारागारका संरक्षण यदि पहारेदार करते हैं तो इस शरीरका संरक्षण कर्म करते हैं, तथा कारागारका द्वार सांकलोंसे बन्द रहनेके कारण जिस प्रकार कैदी उसमेंसे बाहर नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार आयु कर्मका उदय रहनेसे प्राणी भी उस शरीरसे नहीं निकल सकते हैं (५९) । इस प्रकार उस शरीरकी कारागारके साथ समानता होनेपर भी आश्चर्य इस बातका है कि प्राणी उस कारागृहमें तो नहीं रहना चाहता है, किन्तु इस शरीररूप कारागारमें स्थित रहते हुए वह आनन्द भी मानता है । जो एरण्डकी पोली लकडी दोनों ओर अग्निसे जल रही हो उसके भीतर स्थित कीडा जिस प्रकार अतिशय दुखी होता है उसी प्रकार जन्म और मरणसे व्याप्त इस शरीरमें स्थित प्राणी भी अतिशय दुखी रहता है (६३) । सत्साधुप्रशंसा यहां तपस्वियोंकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि यह जो उनका स्वेच्छापूर्वक विहार (गमनागमन), दीनतासे रहित भिक्षाभोजन, गुणी जनोंकी संगति, रागादिके उपशमरूप शास्त्राभ्यासका फल और बाह्य पर पदार्थो मनकी मन्द प्रवृत्ति है ; उसके विषयमें बहुत कालसे विचार करने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आत्मानुशासनम् पर भी नहीं मालूम होता कि यह कौन-से महान् तपका फल है । विषयोंसे विरक्ति शास्त्रका परिशीलन, दया, दुराग्रहको नष्ट करनेवाली अने. कान्तबुद्धि, तथा अन्तमें विधिपूर्वक समाधिमरण; यह सब वास्तवमें महान तपके प्रभावसे ही महापुरुषों को उपलब्ध होता है (६७-६८) मरण अनिवार्य है जन्म और मरण दोनोंमें अविनाभाव है। जिस प्रकार अरहटकी घटिकायें एक एक करके प्रतिसमय जलसे रहित होती जाती हैं उसी प्रकार प्राणीको आयु भी प्रतिसमय क्षीण होती जाती है। और जिस क्रमसे आयु क्षीण होती जाती है उसी क्रमसे शरीर भी दुर्बल होता जाता है । परन्तु जिस प्रकार चलती हुई नावके ऊपर बैठा हुआ मनुष्य नावके साथ चलते रहनेपर भी भ्रान्तिवश अपनेको स्थिर मानता है उसी प्रकार अज्ञानी प्राणी आयु एवं शरीरके प्रतिसमय क्षीण होनेपर भी भ्रान्तिसे अपनेको स्थिर मानता है (७२) । अनादिनिधन लोक रचनाके अनुसार नीचे नारक बिल, ऊपर स्वर्ग तथा मध्यमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंसे वेष्टित अढाई द्वीपमें मनुष्योंका निवास है। और अन्तमें वह सारा लोक तीन वातवलयोंसे भी घिरा हआ है। इसपर ग्रन्थकार कल्पना करते हैं कि विचारशील ब्रह्मदेवने यद्यपि मनुष्यों के संरक्षण का इतना भारी प्रयत्न किया है, किन्तु फिर भी वह उन्हें मृत्युसे नहीं बचा सका- मृत्यु होती है (७५) । वह मृत्यु कब, कहां और किस प्रकारसे प्राप्त होगी; इसका जब निश्चय नहीं किया जा सकता है तब विवेकी जनोंको निरन्तर आत्महितमें निरत रहना चाहिये - संयमादिका परिपालन करते हुए उस मृत्युके संचारसे रहित क्षेत्र (मोक्ष) को प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये (७८-७९) । मनुष्य पर्याय और तप आराधना यहां मनुष्य पर्यायकी काने गन्नेसे तुलना करते हुए यह बतलाया है कि जिस प्रकार गन्ना अनेक पोरोंसे संयुक्त होता है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय भी अनेक आपदाओंसे व्याप्त होती है, गन्ना यदि अन्तिम भागमें रससे हीन होता है तो मनुष्य पर्याय भी अन्तिम अवस्था (बुढापा) में न.रस-विषयोपभोगादिके आनन्दसे रहित होती है, जैसे गन्ना मूल भागमें Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चूसनेके अयोग्य होता है वैसे ही मनुष्य पर्याय भी मूलमें- बाल्यावस्थामेंविषयोपभोगके अयोग्य रहती है; तथा मध्य भागमें जहां गन्ना कीडोंके द्वारा भक्षित होकर अनेक छेदोंसे युक्त हो जाता है वहां वह मनुष्य पर्याय भी मध्यम अवस्थामें भूख, प्यास, फोडा-फुसी, कोढ एवं जलोदर आदि भयानक अनेक रोगोंसे व्याप्त होती है । इस प्रकार गन्नेकी समानता होनेपर जिस प्रकार किसान उस निःसार गन्ने की गांठोंको सुरक्षित रखकर उनका बीजके रूपमें उपयोग करता हुवा उस निःसारको भी सारभूत किया करता है उसी प्रकार सत्पुरुषोंको इस मनुष्य पर्यायको भी परलोकका बीज बनाकर-परलोकमें स्वर्ग-मोक्षके अभ्युदयको प्राप्त्यर्थ जो तप-संयमादि अन्य पर्यायमें दुर्लभ हैं उन्हें धारण कर- सारभूत (सफल) करना चाहिये (८१) । आगे बाल्यादि अवस्थाओंका स्वरूप दिखलाते हुए जन्मके दुखका जो दिग्दर्शन कराया गया है वह स्मरणीय है (९८-९९) । इस प्रकार यद्यपि वह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध, दु.खोंसे परिपूर्ण, मरणज्ञानसे रहित एवं देवादिकी अपेक्षा अतिशय स्तोक आयुसे संयुक्त है; तथापि चूंकि वह तपश्चरणका अद्वितीय साधन है और तरके विना कदाचित् भी मुक्ति सम्भव नहीं है; अतएव उस दुर्लभ मनुष्य पर्यायको पाकर जन्ममरणके दुःसह दुखसे सर्वथा छटकारा पानेके लिये तपश्चरण करना चाहिये (१११)। इस प्रकारसे यहां तप आराधनामें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा की गई है। ज्ञानाराधना सम्यग्दर्शन, सम्यक् वारित्र, और तपरूप शेष तीन आराधनायें चूंकि सम्यग्ज्ञानकी प्रेरणा पा करके ही अभीष्ट प्रयोजनकी साधक होती हैं, अतएव दर्शन आराधनाके पश्चात् ज्ञानाराधनाके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए संयमी पुरुषकी दीपकसे तुलना की गई है-- जिस प्रकार दीपकके पूर्वमें केवल प्रकाशकी प्रधानता होती है उसी प्रकार संयमी साधके भी पूर्वमें स्व-परप्रकाशक ज्ञानकी प्रधानता होती है । तत्पश्चात् वह सूर्यके समान ताप और प्रकाश दोनोंसे संयुक्त होकर शोभायमान होता हैज्ञानके साथ ही तप और चारित्रके अनुष्ठान (ताप) से भी संयुक्त हो जाता है। तथा जिस प्रकार दीपक प्रकाश और आतापसे संयुक्त होकर स्व एवं 1 . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आत्मानुशासनम् अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है तथा कज्जलको उगलता भी है उसी प्रकार संयमी साधु भी ज्ञान और चारित्रसे समुज्वल होकर स्व एवं अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है तथा कज्जलके समान कलुषताको उत्पन्न करनेवाले कर्मकी निर्जरा भी करता है । इस प्रकार वह आगमजनित सम्यग्ज्ञान के प्रभावसे अशुभ परिणतिको छोडकर शुभका आश्रय लेता है और अन्तमें फिर अपने शुद्ध स्वरूपको भी पा लेता है । कारण यह है कि जिस प्रकार सूर्य जबतक प्रभात समयरूप सन्ध्याकालको नहीं प्राप्त कर लेता है तबतक वह रात्रिके अन्धकारको नहीं हटा सकता है। इसी प्रकार संयमी साधु भी जबतक अशुभको छोडकर शुभका आश्रय नहीं ले लेता है तबतक वह कर्मरूप कालिमाको हटाकर शुद्ध स्वरूपको नहीं प्राप्त हो सकता है (१२०-२२) । यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आराधक जब शुभ परिणतिको स्वीकार करके तप व श्रुतमें अनुराग करता है तब उसके रागजनित कर्मका बन्ध न होकर मुक्ति कसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार सूर्य रात्रिके अन्धकारसे निकलकर जब प्रभात समयमें सन्ध्यारागको - प्रभातकालीन लालिमाको- धारण करता है तब उसका यह राग अभिवृद्धि (उदय) का कारण होता है। किन्तु इसके विपरीत जब वही सूर्य दिनके प्रकाशको छोडकर रात्रिके अन्धकारको आगे करता हुआ रागको- दिनान्तमें होनेवाली लालिमाको- धारण करता है तब उसका वह राग अधःपतनकाअस्तगमनका- कारण होता है। ठीक इसी प्रकारसे मिथ्याज्ञानसे रहित हुए विवेकी साधुके जो तप एवं श्रुतविषयक अनुराग होता है वह उसके अभ्युदय (स्वर्ग-मोक्ष) का कारण होता है तथा इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवके तो तद्विषयक अनुराग होता है वह उसके अधःपतनका- नरकादि दुर्गतिका- कारण होता है (१२३-२४) । जो यात्री किसी दूरवर्ती अभीष्ट स्थानको जाना चाहता है उसके साथ यदि योग्य मार्गदर्शक है, मित्र निरन्तर पासमें रहनेवाला है, नाश्ता भरपूर है, योग्य सवारी है, बीचमें ठहरनेके स्थान (पडाव) निरुपद्रव है, रक्षक साथमें है, मार्ग सरल व शीतल जलसे परिपूर्ण है, तथा सर्वत्र सघन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४९ छाया भी विद्यमान है; तो वह यात्री सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर निय प्रसे उस स्थानको जा पहुंचेगा । ठीक इसी प्रकारसे जो भव्य जीव मुक्ति-पुरीको जाना चाहता है उसके पास यदि सम्य - रज्ञानके समान मार्गदर्शक है, मित्रके समान पाप प्रवृत्तिसे बचानेवाली लज्जा निरन्तर पासमें स्थित है, नाश्ताका काम करनेवाला तप है, चारित्र सवारीके समान है, बीचमें ठहरनेका स्थान स्वर्ग है, उत्तम क्षमा आदि गुण रक्षकोंका काम करनेवाले हैं,रत्नत्रयस्वरूप मार्ग सरल (कुटिलतासे रहित) व कषायोपशमरूप जलसे परिपूर्ण है, तथा दयाभावना छायाका काम करती है, तो वह मुक्तिका पथिक भी नियमसे उस मुक्तिपुरीको प्राप्त कर लेनेवाला है। उसकी इस यात्रामें कोई भी विघ्न-बाधायें उपस्थित नहीं हो सकती हैं (१२५) । स्त्रीनिन्दा प्रस्तुत प्रकरणमें पूर्वोक्त मुक्तिपथिककी यात्रामें बाधक होनेकी सम्भावनासे कुछ श्लोकों (१२६-१३६) द्वारा स्त्रीजातिकी निन्दा करते हुए उन्हें दृष्टिविष सर्पसे भी भयानक विषैली, निरौषध विषवाली,परलोकविध्वंसक, क्रोध और प्रसन्नता इन दोनों ही अवस्थाओंमें प्राणसंहारक, ईर्ष्यालु,बाह्यमें ही रमणीय, मनुष्योंरूप मृगोंके वधका स्थान, तथा दूषित शरीरको धारण करनेवाली बतलाया है। उद्देश इसका यह रहा है कि जिस साधुने विषयोंसे विमुख होकर बाह्य व अभ्यंतर परिग्रहको छोडते हुए मुनिधर्मको स्वीकार कर लिया है वह कदाचित् उन स्त्रियोंकी वेषभूषादिको देखकर विचलित न हो जाय। इसीलिये उन्हें उक्त प्रकारसे घृणास्पद बतलाकर उनकी ओरसे साधुको सावधान मात्र किया है जो उचित ही है । यही कारण है जो इसी प्रकरणमें १२८ एक ओर मुक्तिललना और दूसरी ओर अस्थिचर्ममय शरीरवाली लोकप्रसिद्ध ललनाको दिखलाकर उनमेंसे किसी एक(मुक्ति-ललनाको)ही स्वीकार करनेकी प्रेरणा की गई है,क्योंकि, दोनोंका एक ही हृदयमें स्थान पाना संभव नहीं है। कल्पना कीजिये कि कोई एक आर्यिकाओंका संघ है । अब उनमें जो प्रमुख आर्यिका है वह यदि अन्य आर्यिकाओंको स्वीकृत व्रतोंके आ. प्र.४ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् परिपालनमें दृढ करना चाहती है तो आखिर वह भी तो उन्हें यही उपदेश देगी कि पुरुषोंको तुम भयानक विषके समान समझो । वे तुम्हें अनेक प्रलोभनों द्वारा मार्गभ्रष्ट करके इस लोक और परलोकके सुखसे वंचित करनेका प्रयत्न करेंगे। उनका कभी विश्वास नहीं किया जा सकता है-वे जिसे विश्वास देकर स्वीकार करते हैं उसका परित्याग करते हुए भी देखे जाते हैं। पुराणों में दक्ष राजा आदि कितने ही ऐसे भी अधम पुरुषोंके उदाहरण देखे जाते हैं कि जिन्होंने कामुकताके वशीभत होकर निजपूत्री आदिको भी पत्नीके रूप में ग्रहण किया है । अत एव उन्हें घृणास्पद समझकर उनकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिये । अन्यथा, तुम इस लोकके सुखो तो स्वयं स्वेच्छापूर्वक वंचित हो ही चुकी हो, फिर वैसी अवस्थामें परलोकके सुखसे-स्वर्ग-मोक्ष के अभ्युदयसे-भी वंचित रहोगी। ___ तात्पर्य यह है कि स्त्रियोंकी निंदा करते हुए भी अभिप्राय उनको निंदाका नहीं रहा है, किंतु साधुओं को अपने स्वीकृत व्रतोंमें दृढ करने का ही एक मात्र ग्रन्थकारका उद्देश रहा हैं। कारण यह है कि स्वभावसे न तो सर्वथा स्त्री ही निंदनीय है और न सर्वथा पुरुष भी। किंतु जो स्त्री या पुरुष पापाचरणमें निरत हो वही वस्तुतः निन्दाका पात्र हो सकता है, न कि स्त्रीमात्र या पुरुषमात्र । स्त्रियों में ऐसी उत्तम स्त्रियां भी संभव हैं जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं अन्य चरमशरीरी महापुरुषोंको भी उत्पन्न करती हैं२ । फिर भला वे स्त्रीपर्यायके धारण करने मात्रसे कैसे निंदनीय हो सकती हैं ? सती सीता एवं अंजना आदि अनेक स्त्रियोंने उस स्त्रीजातिको समुज्ज्वल किया है । इसी प्रकरणमें आगे श्री गुणभद्राचार्यने अपनी अनुपम प्रतिभाको प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि स्त्रीके विषय में जो अनुराग होता है १. हरिवंशपुराण १७, ३-१५. । २. स्त्रीतः सर्वज्ञनाथः सुरनतचरणो जायतेऽबाधवोधस्तस्मात्तीयं श्रुताल्यं जनहितकथकं मोक्षमार्गावबोधः । तस्मात्तस्माद्विनाशो भवदुरितततः सौख्यमस्माद्विबाधं बुद्ध्ववं स्त्री पवित्रां शिवसुखकरणों सज्जनः स्वीकरोति ॥ सुभाषितरत्नसंदोह ९-११. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वह मनके आश्रयसे ही होता है । परंतु आश्चर्य इस बातका है कि वह मन प्रियाको भोगनेके लिये अधीर तो बहुत होता है,पर स्वयं उसे भोग नहीं सकता है । वह तो केवल दूसरोंको-स्पर्शन आदि इंद्रियोंको-भोगते हुए देखकर आनन्दका अनुभव करता है । उक्त मन निश्चयतः न केवल शदसे ही-व्याकरणकी दृष्टिसे ही-नपुंसक है, किंतु अर्थसे भी-प्रियाको न भोग सकनेके कारण भी-नपुंसक है । फिर भला जो पुरुष शब्द और अर्थ दोनो ही प्रकारसे पुरुष है - व्याकरणसे पुल्लिग तथा पुरुषाथसे प्रियाके भोगनेमें समर्थ भी है-वह उस नपुंसक मनके द्वारा कैसे जीता जाता है,यह विचारणीय है ( १३७) अभिप्राय यह है कि पुरुषको स्वयं मनका दास न बनकर उसे ही अपना दास बनाते हुए स्वाधीन करना चाहिये। समीचीन गुरु कौन ? जो गुरु शिष्यके दोषोंको देखता हुआ भी अविवेकतासे उन्हें प्रकाशित नहीं करता है वह वास्तव में गुरु नहीं है । कारण यह कि यदि उन दोषोंके विद्यमान रहते हुए शिष्यका मरण हो जाता है तो फिर वह गुरु उसका उद्धार कैसे कर सकता है ? इससे तो वह दुर्जन ही अच्छा, जो भले ही दुष्टबुद्धिसे भी क्यों न हो,क्षुद्र भी दोषोंको निरंतर बढा चढा कर कहता है १ (१४२) । इस कारण समीचीन गुरु उसको ही समझना चाहिये जो कि शिष्यके दोषोंको प्रगट करके उसे उनसे रहित करना चाहता है । ऐसा करते हुए गुरुको उस शिष्यके असंतुष्ट हो जानेकी भी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, जिस प्रकार तीव्र भी सूर्यको किरणें कमलकलिकाको प्रफुल्लित ही किया करती हैं उसी प्रकार गुरुके कठोर भी वचन सुयोग्य शिष्यके मनको प्रमुदित ही किया करते हैं (१४१)। जो बुद्धिमान् शिष्य आत्महितके इच्छुक होते हैं वे उक्त प्रकारसे दिखलाये गये दोषोंको छोडकर उनके स्थानमें सद्गुणोंको ग्रहण किया करते हैं। लोकमें श्रेष्ठ विद्वान् वही माना जाता है जो कारणांतरोंकी अपेक्षा न करके १. गुणान् यथैवोपदिशन् प्रशंसया गुरुत्वबुद्धया सुजनो नमस्यते । तथैव दोषान् दिशतःप्रणिन्दया कृतः खलस्यापि मयायमञ्जलिः॥च.च.१-९ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आत्मानुशासनम् । एक मात्र गुणके कारण वस्तुको ग्रहण करता है तथा केवल दोषके कारण ही उसका परित्याग करता है१ (१४५) । परंतु यह तब ही संभव है जब कि उसे गुण-दोषोंका परिज्ञान हो चुका हो । इसलिये जो दोषों और गुणोंको जानकर तथा उनके कारणोंको खोजकर दोषोंके परित्यागपूर्वक गुणोंको ग्रहण कर लेता है वह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमर्गका पथिक होकर सुख और यश दोनोंका भाजन होता है (१४७) । साधुओंकी असाधता भोगभूमिकालमें न अपराध होते हैं और न इसीलिये उनके परिमार्जनके लिये कोई दण्डव्यवस्था भी नियत रहती है। किंतु उस भोग भूमिकालके अंतमें जब कल्पवृक्षोंसे उपलब्ध होनेवाली सामग्री उत्तरोत्तर क्षीण होने लगती है तब क्रमशः अपराधोंका भी प्रादुर्भाव होने लगता है। इसके लिये समयानुसार कुलकर क्रमसे हा, हा-मा और हा-मा-धिक् इन तीन दंडोंको नियत करते हैं । तत्पश्चात् कर्मभूमिके प्रारंभमें जब अपराध बढने लगते हैं तब राजाओंके द्वारा शारीरिक और आर्थिक दंड भी निर्धारित किये जाते हैं। वर्तमान कलिकालमें - पंचमकालमें - एक दण्डनीति ही प्रधान है जो राजाओंके स्वाधीन है । सो वे उसका उपयोग केवल आर्थिक लाभकी दृष्टिसे किया करते हैं। चूंकि वनवासी दिगंबर साधुओंसे उक्त अर्थलाभ की संभावना है नहीं,अतएव दोषोंको देखते हुए भी राजा लोग तो उनकी ओर ध्यान देते नहीं हैं। अब रही आचार्योंकी बात,सो वे नमस्कारके प्रेमी हैं। यदि वे संघके अन्य साधुओंके दोषोंको देखकर उनके १. हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुण-दोषप्रतिते।। स्यातामादान-हाने चेत्तद्धि सौजन्यलक्षणम् ॥ क्ष. चू. ५-१९. २. तत्राद्यः पञ्चभिर्नृणां कुलद्भिः कृतागसाम् । हा-कारलक्षणो वण्डः समबस्थापितस्तदा ॥ हा-माकारश्च दण्डोऽन्यः पञ्चभिः संत्रवर्तितः । पञ्चमिस्तु ततः शेषा-मा-धिक्कारलक्षणः ॥ शरीरदण्डनं चैव वध-बन्धादिलक्षणम् । नृणां प्रबलोषाणां भरतेन नियोजितम् ॥ आ. पु. ३, २१४-१६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना निराकरणार्य उन्हें दण्डित करते हैं तो नमस्कार करना तो दूर रहा, वे तो उस अवस्थामें उनके संघको छोडकर स्वतन्त्रतासे पृथक् रहना ही पसंद करते हैं। इसका प्रत्यक्ष अनुभव वर्तमान साधुओंकी प्रवृत्तियोंसे सबको हो ही रहा है । आचार्योंकी इस कमजोरीका लाभ उठाकर साधुओंकी स्वेच्छाचारिता बढ जाती है । यह स्थिति ग्रन्थकार श्री गणभद्राचार्यके सामने निर्मित हो चुकी थीं। इसीलिये उन्हें यहां यह कहना पडा कि-- तपःस्थेष श्रीमन्मणय इव जाता: प्रविरलाः (१४९) । अर्थात् जैसे मणियोंके मध्य में कान्तिमान् मणि विरले ही पाये जाते हैं वैसे ही आजके साधुओंमें समीचीन संयमका परिपालन करनेवाले साधु विरले ही रह गये हैं। ___ आगे तो वे यहांतक कहते हैं कि अपनेको मुनि माननेवाले ये साधु स्त्रियोंके कटाक्षोंके वशीभूत होकर ऐसे व्याकुल हो रहे हैं जैसे कि व्याधके बाणसे विद्ध होकर हिरण व्याकुल होते हैं। इसलिये उन्होंने समीचीन साधुओंको सावधान करते हुए उनके संसर्गसे बचनेका उपदेश दिया है (१५०) । तपका अन्तिम फल निर्बाध मोक्षसुखकी प्राप्ति है। अतः उसकी प्राप्तिकी इच्छासे यदि छह खण्डोंका अधिपति चक्रवर्ती अपनी समस्त विभूतिको छोडकर उस तपका स्वीकार करता है तो यह कुछ आश्चर्यजनक बात नहीं है। आश्चर्य तो उसके ऊपर होता है कि जो बुद्धिमान् इन्द्रियविषयोंको विषके समान घातक जानकर प्रथम तो उनका परित्याग करता हुआ तपको स्वीकार करता है और फिर तत्पश्चात् वह उच्छिष्टके समान छोडे हुए उन्हीं विषयोंको पुन: भोगनेकी इच्छासे उस गृहीत तपको भी छोड़ देता है । ऐसा करते हुए वह अधम यह नहीं सोचता कि जो तप समस्त ही दुराचरणको शुद्ध करनेवाला है, उसे ही मैं मलिन क्यों करूं। देखो, पलंग आदि किसी ऊंचे स्थानपर स्थित अल्पवयस्क अज्ञानी बालक तो उसके ऊपरसे गिर जानेकी शंकासे भयभीत होता है, किन्तु तीनों लोकोंके शिखरस्वरूप उस तपके ऊपर स्थित वह विचारशील साधु अपने अधःपतनसे भयभीत नहीं होता है। यह खेदकी बात है (१६४-६६) । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ . आत्मानुशासनम् ऐसे वेषधारी साधु विषयपोषणके लिये कुछ भी बहाना बनाकर गृहस्थोंसे दीनतापूर्वक धनको याचना भी करते हैं। श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति यह कहता है कि संसारमें परमाणुसे हीन तथा आकाशसे महान् कोई भी वस्तु नहीं है, उसने इन दीन और स्वाभिमानी मनुष्योंको नहीं देखा है- दीन याचक तो परमाणुसे भी तुच्छ तथा इस याचनासे रहित स्वाभिमानी मनुष्य उस अनन्त आकाशसे भी महान् है (१५१-५२) । किसीने यह ठीक ही कहा है देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्चदेवताः । मुखान्निर्गत्य गच्छन्ति श्री-ही-धी-धृति-कीर्तयः ।। अर्थात् 'देहि- मुझे कुछ दो' इस वाक्यको सुनकर श्री (कान्ति), लज्जा, बुद्धि, धीरता और कीर्ति ये पांचों शरीरस्थ देवता (गुण) उक्त ‘देहि' पदके साथ ही मुखसे निकलकर भाग जाते हैं। तात्पर्य यह कि याचक मनुष्यके मुखकी कान्ति नष्ट हो जाती हैउसका चेहरा फीका पड जाता है, लज्जा जातो रहती है- वह निर्लज्ज बन जाता है, साथ ही वह अपनी विवेकबुद्धि, धैर्य और यशको भी खो देता है। यहां आचार्यने तराजूका उदाहरण देकर इस बातको पुष्ट किया है कि तराजूके जिस पलडेपर कोई वस्तु रखी जाती है वह स्वभावतः नीचे तथा जिस दूसरे पलडेपर कुछ नहीं रखा जाता है वह स्वभावतः ऊंचेकी ओर जाता है। इसी प्रकार जो याचक दातासे कुछ ग्रहण करता है उसकी अधोगति तथा जो दाता कुछ ग्रहण न करके देता ही है उसकी ऊर्ध्वगति होती है (१५४)। ____ आगे वे समीचीन साधुको लक्ष्य करके कहते हैं कि जो महात्मा शरीरको स्थिर रखने की इच्छासे तपकी वृद्धिपूर्वक श्रावकके द्वारा नवधा भक्तिसे दिये गये आहारको यदा कदा ही परिमित मात्रामें ग्रहण किया करता है, साथ ही जो इसके लिये अतिशय लज्जाका भी अनुभव करता है; वह क्या कभी उक्त भोजनको छोडकर अन्य धनादिको भी ग्रहण कर सकता है ? कभी नहीं - जो इस प्रकारकी अन्य वस्तुओंको ग्रहण करते हैं वे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दुरात्मा साधु कहे जानेके योग्य नहीं हैं । ऐसे असाधु 'अमुक दाताने उत्तम भोजन दिया तथा अमुक दाताने निष्कृष्ट भोजन दिया' इत्यादि प्रकारसे दाताकी प्रशंसा और निन्दा भी किया करते हैं तथा कभी कभी वे अपने योग्य व्यवस्थाके न बननेसे उस दाताके ऊपर रुष्ट भी हो जाते हैं। उनकी इस दुष्प्रवृत्तिको आचार्यने कलिकालका प्रभाव बतलाया है (१५८-५९) । मनका नियन्त्रण संयमरूप राज्यके संरक्षणार्थ जिस प्रकार बाह्य शत्रुओंको जीतना आवश्यक है उसी प्रकार अन्तरंग शत्रुओंको भी जीतना अत्यावश्यक है। जिस प्रकार बुद्धिमान् राजा अपने राज्यके विरुद्ध आचरण करनेवाले बाह्य शत्रुस्यरूप अन्य राजाओं आदिको वशमें रखता है उसी प्रकार वह उसके अन्तरंग शत्रुस्वरूप काम-क्रोधादिको भी अवश्य वशमें रखता है, क्योंकि, इसके विना उसका राज्य कभी स्थिर नहीं रह सकता है। इसी प्रकार विवेकी साधु भी अपने संयमको सुरक्षित रखने के लिये जैसे बाह्य शत्रुस्वरूप आरम्भपरिग्रहादिको नष्ट करता है वैसे ही वह अन्तरंग शत्रुस्वरूप राग - द्वेषादिको भी अवश्य नष्ट करता है। कारण यह कि इसके विना उसका संयम कभी सुरक्षित नहीं रह सकता है (१६९) । परन्तु यह तब ही सम्भव है जब कि वह अपने मनको आत्मनियन्त्रणमें कर लेता है। ___ यह मन बन्दरके समान चपल है । अतएव उसे आत्मनियन्त्रणमें रखनेके लिये श्रुतरूप वृक्षके ऊपर रमाना चाहिये। कारण कि जिस प्रकार बन्दर अनेक शाखाओंसे संयुक्त व फल-फूलोंसे परिपूर्ण किसी वृक्षको पाकर वहींपर मैं डामें रत हो जाता है और उपद्रव करना छोड देता है इसी प्रकार इस मनको भी यदि अनेक नयोंके आश्रयसे अनेकान्तात्मक बस्तुस्वरूपका विवेचन करनेवाले आगमके चिन्तनमें लगाया जाता है तो वह भी उसमें निरत होकर दुनिको छोड देता है (१७०) । यहां प्रसंग पाकर श्री गुणभद्राचार्यने उस आगमोक्त वस्तुतत्त्वका भी कुछ विवेचन किया है । वे सांख्य, बौद्ध, विज्ञानाद्वैतवादी और शून्यकान्तवादियोंके द्वारा परिकल्पित वस्तुस्वरूपको ध्यानमें रखकर कहते हैं कि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् . संसारमें कोई भी वस्तु न कूरस्थ नित्य है, न प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली है, न एक मात्र ज्ञानस्वरूप ही है, और न सर्वथा अभावस्वरूप भी है : क्योंकि, वैसा प्रतिभास नहीं होता है । किन्तु वह जैसे द्रव्यको अपेक्षा नित्य है- अपने त्रिकालवर्ती ध्रौव्य स्वभावको नहीं छोडती है, वैसे ही वह पर्यायकी प्रधानतासे अनित्य भी है- प्रतिक्षण नवीन नवीन अवस्थामें परिणत भी होती रहती है। इस प्रकारसे वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है । जीवका अन्तिम ध्येय अविनश्वर मुक्तिसुखकी प्राप्ति है। इसके लिये उसका लक्ष्य सदा अन्य बाह्य पदार्थोंकी ओरसे विमुख होकर एक मात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी ओर ही रहता है। इस अध्यात्म तत्त्वकी प्रधानतासे वस्तुतत्त्व ज्ञानमात्र ही है- उसको छोडकर तब अन्य कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता है । अतएव जगत्को ज्ञानमात्र कहा जाता है । किन्तु व्यवहारी जन ज्ञानके अतिरिक्त अन्य घट-पटादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखते हैं और अपनी अपनी रुचिके अनुसार उनका निरन्तर उपयोग भी करते हैं। इस दष्टिसे यदि ज्ञानके अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थको स्वं कार न किया जाय तो इस दृश्यमान समस्त व्यवहारका ही लोप हो जावेगा। इसलिये यह मानना चाहिये कि वस्तु जहां अध्यात्मकी प्रधानतासे कथंचित् ज्ञानमात्र है वहींपर वह व्यवहारकी प्रधानतासे कथंचित् चेतनअचेतन आदि विभिन्न वस्तुओंरूप भी है । उपर्युक्त अध्यात्म तत्त्वके पराकाष्ठाको प्राप्त होनेपर जब निर्विकल्पक दशा प्रगट होती है तब योगीकी दृष्टिमें चेतन-अचेतन कोई भी पदार्थ नहीं रहता है । यहांतक कि उस अवस्थामें तो ज्ञान-दर्शन आदिका भी विकल्प नहीं रहता है । इस दृष्टिकी मुख्यतासे ही विश्वको अभावस्वरूप कहा जाता है। वस्तुतः वह व्यवहारकी मुख्यतासे घट-पटादि अनेक भावोंस्वरूप ही है । इस प्रकार वस्तु कथंचित् भावस्वरूप और कथंचित् अभावस्वरूप (शून्य) भी है । इससे सिद्ध है कि कि विवक्षाभेदके अनुसार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, ६. हा जीव प्रताल देखी जाती है (१७१-७३) । इस प्रकारसे आगमके परिशीलनमें निमग्न हुआ भव्य जीव ऐसा विशद्ध हो जाता है जैसा कि अग्निमें पडा हआ मणि उसके तापसे विशद्ध Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५७ हो जाता है इसके विपरीत उक्त आगमरूप अग्निमें निमग्न होकर प्रदीप्त हुआ अभव्य जीव अंगारके समान या तो काला कोयला बनता है या फिर भस्म बनता है- जैसे अंगार बुझकर कोयला अथवा राख बन जाता है उसी प्रकार अभव्य जीव भी श्रुतका अभ्यास करके या तो मिथ्याज्ञानके प्रभावसे कदाग्रही होकर एकान्तवादका पोषक होता है या फिर तत्त्वज्ञानसे शून्य ही रहता है ( १७६) । इस श्रुतभावनाका फल प्रशस्त व अविनश्वर ज्ञानकी - अनन्तज्ञानकी प्राप्ति ही है । परन्तु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि उस श्रुतभावनाका फल लाभ - पूजादिरूप खोजा करता है, यह उसके मोहका ही माहात्म्य है (१७५) । जिस प्रकार बीजसे मूल और अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार इस मोहरूप बीजसे कर्मबन्धके कारण भूत राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । यह मोहबीज उस ज्ञानरूप अग्निके द्वारा ही भस्मसात् किया जाता हैज्ञानको छोडकर उसके नष्ट करनेका अन्य कोई उपाय सम्भव नहीं है ( १८२ ) । जैसे मथानी में लिपटी हुई रस्सीको जबतक एक ओरसे ढीली करके दूसरी ओरसे खींचते रहते हैं तबतक वह मथानी दहीकी मटकीमें घूमती ही रहती है । इसके विपरीत यदि उसे दोनों ही ओरसे ढीला कर दिया जाता है तो फिर उस रस्सीको बन्धने और उकलने रूप क्रियाके समाप्त हो जानेसे उस मथानीका घूमना भी सर्वथा बन्द हो जाता है । ठीक इसी प्रकारसे जीवकी जबतक एक वस्तुसे रागबुद्धि और दूसरीसे द्वेषबुद्धि रहती है तबतक कर्मका बन्ध और निर्जरा ( सविपाक ) इन दोनोंके निरंतर चालू रहनेसे उसका संसारमें परिभ्रमण होता ही रहता है । किंतु जैसे ही उसके उक्त राग और द्वेष दोनों उपशान्त हो जाते हैं वैसे ही बन्ध और उस निर्जराके समाप्त हो जानेसे उसका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है ( १७८-७९) । वास्तविक शत्रु कौन है ? जन्म और मरणका नाम संसार है । सो ये दोनों शरीरसे संबद्ध हैं । प्रथमतः शरीर उत्पन्न होता है, उससे संबद्ध इंद्रियां होती हैं, वे इष्ट विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय परिश्रम, अपमान, भय एवं पापको Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् उत्पन्न करते । इस प्रकार समस्त अर्थपरंपराका मूल कारण यह शरीर ही ठहरता है । अतएव इस शरीरको ही यथार्थ शत्रु समझकर जबतक वह नष्ट नहीं होता है तबतक उसका शत्रुके समान ही अनशनादिके द्वारा शोषण करना चाहिये, जब किसोका शत्रु उसके हाथ लग जाता है तो वह उसको भूख-प्यास आदिकी बाधा पहुंचाकर निर्बल करता है, इसी प्रकार शत्रुस्वरूप जब यह दुर्लभ मनुष्य शरीर हाथ लग गया है तब बुद्धिमान् मनुष्योंको अनशनादि तपोंका आचरण करके उसके द्वारा आत्मप्रयोजनको सिद्ध कर लेना चाहिये ( १९४-९५)। कारण यह है कि चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही ऐसी है कि जहां तपश्चरण आदि द्वारा कर्मको निर्मूल करके मोक्षसुख को प्राप्त किया जा सकता है । यही कारण है जो इस शरीर के स्वभावतः अपवित्र होनेपर भी उसे रत्नत्रयकी प्राप्तिका कारण होनेसे अनुरागका विषय निर्दिष्ट किया गया है १ | अन्यथा वह प्रीतियोग्य सर्वथा नहीं है | शरीरका स्वभाव आत्म से सर्वथा भिन्न है - आत्मा जहां ज्ञान दर्शनका पिण्ड होकर चेतन है वहां वह शरीर उक्त ज्ञान-दर्शनसे रहित होकर जड है, आत्मा यदि रूप-रसादिसे रहित होकर अमूर्तिक है तो वह पुद्गलमय शरीर उक्त रूपादिसे सम्बद्ध होता हुआ मूर्तिक है, आत्मा जब स्वभावतः कर्ममलते निर्लिप्त होता हुआ कमलपत्र के समान निरंतर शुद्ध है तब वह शरीर मूल-मूत्र एवं रुधिरादिका स्थान होकर सदा ही अपवित्र रहता है, तथा आत्मा 1. जहां अस्त्र-शस्त्रादिसे कभी छेदा भेदा नहीं जा सकता है वहां वह शरीर उक्त अस्त्रादिसे छेदा भेदा भी जाता है ( २०२ ) । इस प्रकार जब वह शरीर आत्मासे सर्वथा भिन्न स्वभाववाला है तब उसकी एकता आत्मा के साथ कैसे हो सकती है ? और जब शरीरमें स्थित रहनेपर भी अक्त आत्माकी उस शरीरके साथ ही एकता सम्भव नहीं है तब फिर प्रत्यक्षमें ही उससे भिन्न दिखनेवाले पुत्र कलत्रादिके साथ तो उसकी एकता ५८ १. स्वभावतोऽशुचौ कार्य रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता । र श्रा. १३. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हो ही कैसे सकती है?? इस स्थितिके होनेपर भी मिथ्यादृिष्टि बहिरात्मा उस आत्मज्ञानसे विमुख होकर अपने शरीरको ही आत्मा मानता हैं-वह मुर्ख यदि आत्मा मनुष्यके शरीरमें स्थित है तो उसे मनुष्य, यदि तिर्यचके शरीरमें स्थित है तो तिर्यंच, यदि देवके शरीरमें स्थित हैं तो देव, तथा यदि वह नारको के शरीरमें स्थित है तो वह उसे नारकी मानता है। परंतु यथार्थमें वैसा नहीं है-तत्त्वतः वह उपर्युक्त चारों गतियोंसे रहित होकर अनन्तानन्त ज्ञानशक्तिका धारक स्वसंवेद्य व स्थिर स्वभाववाला है२ । इस प्रकार शरीरको ही आत्मा समझनेबाला वह बहिगत्मा पुनः पुनः उस शरीरसे ही संगत होता है । किन्तु इसके विपरीत जो विवेको अन्तरात्मा शरीरसे भिन्न आत्माको ही आत्मा मानता है वह विदेह हो जाता है-शरीरको छोडकर परमात्मा हो जाता है३ ।। इस प्रकार जिस विवेकी साधुको यह दृढ श्रद्धान हो जाता है कि आत्मा और शरीर ये दोनों स्वरूपसे भिन्न हैं वह उस शरीरके रोगादिसे संयुक्त होनेपर भी कभी व्याकुल नहीं होता । हां, यह अवश्य है कि वह यथासंभव उस रोगादिका प्रतीकार तो करता है,परंतु जब वह अशक्यप्रतीकार हो जाता है तो वह उद्विग्न न होकर संयमके संरक्षणार्थ सल्लेखनापूर्वक उस शरीरको ही छोड देता है४ (२०७)। सो है भो यह ठीक-जब घर में आग लग जाती है तब उसमें रहनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य प्रथम तो यथाशक्ति उस अग्निके बुझानेका ही प्रयत्न करता है, किन्तु जब उसका बुझना असम्भव हो जाता है तब फिर वह आत्मरक्षार्थ उस घरको ही छोड देता है५ (२०५)। १. यस्यास्ति नक्यं वपुषापि साधं तस्यास्ति कि पुत्र-कलत्रमित्रः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठिन्ति शरीरमध्ये ॥ द्वात्रिंशतिका २७. २. समाधि. ७-९. ३. समाधि ७४ ४. उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ र. श्रा. १२२. ५. मरणस्य अनिष्टत्वात्॥८॥ यथा वणिजः विविधपण्यादानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः । तद्विनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् संसारी जीव तीन भागोंरूप हैं । उनमें प्रथम भागरस- रुधिरादिरूप शरीर, द्वितीय भाग ज्ञानावरणादि कर्म तथा तृतीय भाग ज्ञानदर्शनादिरूप है । जबतक आत्मा इन तीन भागोंरूप रहता है तबतक उसके कर्मबन्ध होता रहता है । जो बुद्धिमान् इन तीन भागोंरूप आत्माको प्रथम दो भागों से- शरीर एवं ज्ञानावरणादि कर्मोंसे - पृथक करना जानता है वही वास्तव में तत्त्वज्ञ कहा जाता है (२१०-११) । कषायविजय ६० उपर्युक्त दो भागों उस आत्माको पृथक् करनेके लिये तपश्चरकी आवश्यकता होती है । जिस प्रकार सुवर्गपाषाण तीव्र अग्नि के संयोगसे पाषाणस्वरूपको छोडकर कांतिमान् शुद्ध सुवर्णकी अवस्थाको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार तपश्चरण व ध्यानके आश्रयसे भव्य जीव भी शीघ्र ही उस सप्तधातुमय शरीरको छोडकर परमात्माकी अवस्थाको पा लेता हैं ? । घोरतपश्चरणजन्य क्लेशको न सह सकने की अवस्था में यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो जीव बहुत समय तक घोर तपश्चरणको नहीं कर सकता है उसे अपने मनको वश में करके कषायोंरूप शत्रुओंके ऊपर तो विजय प्राप्त करना ही चाहिये । कारण यह कि जिस प्रकार स्वच्छ जलसे परिपूर्ण भी किसी तालाब में यदि मगर-मत्स्यादि हिंस्र जलजन्तु विद्यमान हैं तो जनसमुदाय निःशंक होकर उसमें स्नान आदि नहीं कर सकता है, इसी प्रकार प्राणी के हृदयमें जबतक क्रोधादि कषायें स्थित हैं तबतक वहां क्षमा मार्दवादि उत्तम गुण नहीं रह सकते हैं । इसलिये उसे उन क्रोधादि कषायोंके जीतने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये (२१२-१३) | दुष्परिहरे च पण्याविनाशो न यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रत-शील-संचयप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमभिवाञ्छति, तदुब्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति, दुष्परिहरे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ? त.वा. ७, २२. १. ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलाडुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ कल्याणमन्दिर १५. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६१ जो जन स्वर्ग - मोक्षादिरूप पारलौकिकी सिद्धिकी अभिलाषा करते हैं तथा उसके साधनभूत शान्त मनकी स्वयं प्रशंसा भी करते हैं, किन्तु अन्तरंग से स्वयं उन कोधादि कषायोंको दूर नहीं करते हैं, उनके इन दोनों कार्यों में बिल्ली और चूहेके समान परस्पर जातिविरोध दिखलाकर यहां निन्दा की गई है तथा इसे कलिकालका प्रभाव भी प्रगट किया गया है ( २१४ ) । उन क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर प्राणी किस प्रकारसे अपना अहित करते हैं, एतदर्थ यहां क्रोधके लिये महादेव, मानके लिये बाहुबली, मायाके लिये मरीचि, युधिष्ठिर एवं कृष्ण; तथा लोभके लिये चमर मृगका उदाहरण दिया गया है (२१६-२३ ) । इस प्रकार कषायनिग्रहके लिये प्रेरणा करते हुए साधुको लक्ष्य करके यहांतक कहा गया है कि जब प्राणी रमणीय स्त्री आदि चेतन-अचेतन पदार्थोंसे मोहको छोडकर मुनिधर्मको अंगीकार करता है तब फिर उसे संयम के साधन भूत पींछी कमण्डलु आदिके विषय में क्यों मुग्ध होना चाहिये । यह मोह तो उसका ऐसा हुआ जैसे कि कोई रोगके भयसे भोजनका तो परित्याग करता है, किन्तु साथ ही रोग के परिहारार्थ औषधिको अधिक मात्रामें लेकर अज्ञानतासे उस रोगको और भी अधिक वृद्धिंगत करता है ( २२८ ) । आत्मा और उसको कर्मबद्ध अवस्था आत्मा अस्तित्वको स्वीकार नहीं करते तथा सांख्य आत्माके अस्तित्वको तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उसे सर्वथा और सर्वदा हीं शुद्ध ( कर्ममल से रहित ) मानते हैं । इन दोनों मतोंपर दृष्टि रखकर ग्रन्थकर्ता श्री गुणभद्राचार्यने ' अस्त्यात्मास्तमितादिबन्धनगतः ' इत्यादि श्लोक (२४१) के द्वारा उस आत्मा के अस्तित्वका निर्देश करते हुए उसे अनादिबन्धनबद्ध बतलाया है । प्रत्येक प्राणीको जो 'अहम् अहम्' अर्थात् मैं चलता हूं, मैं भोजन करता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुखी हूं, मैं बालक हूं, मैं युवा हूं, मैं वृद्ध हूं तथा मैं रोगग्रस्त हूं; इत्यादि प्रकारका जो स्वसंवेदन होता है उससे आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है १ । कारण यह कि उक्त १. स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यन्तसौख्य वानात्मा लोकालोकविलोकन । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आत्मानुशासनम् प्रत्यय में ' अहम्' पदके द्वारा जिसका बोध होता है वह शरीर तो कुछ हो नहीं सकता है, क्योंकि, जब शरीरमेंसे वह अदृश्य शक्ति (चेतना) निकल जाती है तब वह निष्क्रिय हो जाता है । उस समय फिर किसी भी प्रकारका बोध नहीं होता । तथा बालक और युवावस्था के अनुसार जो उसमें हीनाधिकता होती थी उसका होना तो दूर ही रहा, वह स्वयं सड-गलकर विकृत हो जाता है । इससे सिद्ध है कि उक्त शरीर के भीतर जो पूर्वोक्त प्रवृत्तियोंकी कारणभूत विशिष्ट शक्ति विद्यमान रहती है उसीका इस 'अहम्' पदके द्वारा बोध होता है और उसे ही आत्मा या जीव आदि शब्दोंसे कहा जाता है । 1 वह आत्मा अनादि कालसे कर्मसे सम्बद्ध रहता है । जिस प्रकार बीजसे अंकुर और उससे फिर बीज, इस प्रकार बीज और अंकुरकी परम्परा अनादि कालसे चली आ रही है उसी प्रकार रागद्वेषादि परिणामोंसे कर्मबन्ध और उस कर्मबन्धसे पुनः राग-द्वेषादि, इस प्रकार वह बन्धकी परम्परा भी अनादि कालसे चली आ रही है । इस तरह वह आत्मा स्वभावतः शुद्ध होकर भी संसार अवस्था में पर्यायी अपेक्षा मलिन हो रहा है । जिस प्रकार कोई कपडा स्वभावतः ( शक्तिकी अपेक्षा) स्वच्छ होकर भी यदि वर्तमानमें मलिन हो रहा है तो उसे सोडा - साबुन आदिके द्वारा स्वच्छ किया जाता है; इसी प्रकार आत्मा शक्तिकी अपेक्षा शुद्ध होकर भी चूंकि वर्तमान में शरीरादिसे संयुक्त होकर मलिन हो रहा है, इसीलिये उसे तपश्चरण आदिके द्वारा उक्त कर्ममलसे रहित करके शुद्ध किया जाता है । इसीका नाम मुक्ति है । यदि कोई मलिन भी कपडेको सर्वथा ( शक्ति के समान व्यक्ति से भी ) स्वच्छ ही समझता है तो फिर उसे स्वच्छ करने का वह प्रयत्न भी क्यों करेगा? नहीं करेगा। इसी प्रकार आत्माको सर्वथा ही शुद्ध माननेपर उसकी मुक्ति के लिये किया जानेवाला प्रयत्न - तप-संयमादि - व्यर्थ ठहरता है । अतएव जहां वह द्रव्यकी अपेक्षा शुद्ध है वहां वर्तमान अवस्थाकी अपेक्षा वह अशुद्ध भी है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । मिथ्यात्व अविति, प्रमाद कषाय और योग; ये उसके बन्धके कारण तथा इनके विपरीत Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद (दक्षता), अकषाय (कालुष्याभाव) और अयोग; ये उसकी मुक्ति के कारण हैं। यह बन्ध और निर्जराकी प्रक्रिया भी अपने अपने परिणामोंके अनुसार हीनाधिक स्वरूपसे चला करता है । जैसे- मिथ्यात्वके रहनेपर चूंकि अविरति आदि शेष चार कारण भी अवश्य रहते हैं, अतएव मिथ्यादृष्टि जवके अधिक बन्ध होता है। उस मिथ्यात्वके अभावमें सम्यग्दृष्टि जीवके अविरति आदिके द्वारा उक्त मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा कुछ हीन कर्मबन्ध होता है। संयत जीवके मिथ्यात्व और अविरतिके अभाव में प्रमादादिनिमित्तक और भी कम बन्ध होता है । इसकी अपेक्षा अप्रमत्त अवस्थामें कषाय व योगनिमित्तक उससे भी कम बन्ध होता है। आगे अकषाय (उपशान्तमोह, क्षीणमोह व सयोगकेवली) अवस्थामें केवल एक योगनिमित्तक अतिशय अल्प मात्रामें प्रकृति और प्रदेशरूप ही बन्ध होता है। इसी प्रकार निर्जराके भी हीनाधिक क्रमको समझना चाहिये ( २४५) । इतना स्मरण रखना चाहिये कि वह निर्जरा सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकार होती है। उनमें सविपाक निर्जरा (फल देकर कर्मपुद्गलोंका पृथक् होना) तो सर्वसाधारणके हुआ करती है जो निरुपयोगी है। किन्तु जिसके पुण्य और पापरूष दोनों ही प्रकारके कर्मपुद्गल निष्फल होकर- अविपाक निर्जरा द्वारा- स्वयं निर्जीर्ण होते हैं उसे यहां योगी कहा गया है। वह सब प्रकारके आस्रवसे रहित होकर निर्वाण प्राप्त करता है (२४६) । यथार्थ तपस्वी ____उक्त आस्रवनिरोध (संवर) के कारण गुप्ति, समिति एवं धर्म आदि हैं। किन्तु इच्छानिरोधस्वरूप तप संवर और निर्जरा दोनोंकाही कारण है ११ जिस प्रकार जलसे परिपूर्ण तालाबका बांध यदि कहींपर थोडा-सा भी टूट जाता है तो बुद्धिमान् अधिकारी मनुष्य उसे उसी समय दुरुस्त करा देता है । कारण यह कि वह जानता है कि यदि उसे शीघ्र ही दुरुस्त नहीं १. स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परिषहजय-चारित्रः। तपसा निर्जरा च । त. सू. ९, २-३. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आत्मानुशासनम् कराया जायगा तो थोडे ही समयमे वह पूरा ही बांध काटकर नष्ट हो जावेगा और इस प्रकारसे संचित सब जल यों ही निकल जावेगा । ठीक इसी प्रकार गुणरूप जलसे परिपूर्ण इस तपरूप तालाबके प्रतिज्ञारूप बांधमें यदि कहीं थोडी-सी भी क्षति (दोष) होती है तो विवेकी साधु उसकी उपेक्षा नहीं करता है- वह योग्य प्रायश्चित्त आदिके द्वारा उसे शीघ्र ही ठीक कर लेता है । इसके विपरीत अविवेकी साधु दुर्धर तपके द्वारा जिन दोषोंको नष्ट करना चाहते हैं उन्हें ही वे परनिन्दा आदिक द्वारा और भी पुष्ट किया करते हैं। उस समय वे यह विचार नहीं करते कि अनेक उत्तमोत्तम गणोंसे विभूषित किसी महात्मामें यदि दैववश कोई एक आध क्षुद्र दोष दिखता है तो उसे तो उसकी गुणाधिकताके कारण कोई भी देख सकता है। पर इससे क्या उसकी निन्दा करके कोई उसके उस उच्च स्थानको पा सकता है ? कभी नहीं। उदाहरणस्वरूप चन्द्रमाके भीतर स्थित लांछन उसकी ही चांदनीके द्वारा देखा जाता है। परन्तु उसे देखकर यदि कोई कलंकी कहकर उस चन्द्रकी निन्दा करे तो इससे क्या वह उस चन्द्र के स्थानको पा लेगा? कभी नहीं। (२५०) । जिस प्रकार सज्जन पुरुषोंको गुणग्रहणके विना शान्ति नहीं प्राप्त होती उसी प्रकार दुर्जनोंको भी दोषनिरूपणके विना शान्ति नहीं प्राप्त होती । इसका कारण उनका उस जातिका चिरकालीन अभ्यास ही है१ । इसीलिये सच्चे साधु परके दोषोंको न देखकर सदा अपने ही दोषोंको देखा करते हैं । आत्माका उद्धार भी वस्तुतः इसीमें है । यही कारण है जो आत्मदोषद्रष्टाको शरीरसे संयुक्त होनेपर भी सिद्धसमान बतलाया गया है । __ कर्मोदयवश यदि कदाचित् किसी प्रकारका कष्ट भी प्राप्त होता है तो भी सच्चा साधु उससे खेदका अनुभव नहीं करता। बल्कि वह यह विचार करता है कि भविष्यमें उदय आनेके योग्य जिन कर्मनिषकोंकों में १. गुणानगृहन् सुजनो न निवृति प्रयाति दोषानवदन् न दुर्जनः । चिरन्तनाभ्यासनिबन्धनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः।। च.च.१-७ २. अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता। कः समः खलु मुक्तोयं युक्तः कायेन चेदपि ।। क्ष. चू. १-८३. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तपके द्वारा अपकर्षण कर वर्तमानमें उदयमें लाना चाहता था वे निषेक यदि स्वयं ही उदय में आ रहे हैं तो इससे मुझे खेद क्यों होना चाहिये? जैसे कोई विजिगीषु जिस शत्रुके देशमें जाकर आक्रमण करना चाहता था वह शत्रु यदि स्वयं उसके ही देशमें आ जाता है तो फिर भला वह विजिगीषु उसके साथ युद्ध करनेमें क्यों भयभीत होगा ? नहीं होगावह तो इस अनुकूलताको पाकर अतिशय प्रसन्न ही होगा (२५७) । जिन तपस्वियोंने सब कुछ सह सकनेके योग्य आत्मबलको प्राप्त करके अकेले ही रहनेकी दृढ प्रतिज्ञा कर ली है तथा जो अपने कार्यमें संलग्न होकर पर्वतीय भयानक गुफाओंमें स्थित होते हुए ध्यानमें मग्न रहते हैं वे ही तपस्वी कर्म-मलको निर्मल करके अविनश्वर आत्मीक सुखको प्राप्त करते हैं (२५८)। ऐसे महातपस्वी सुख और दुखके समयमें यह विचार करते हैं कि यह सुख और दुख अपने पूर्वकृत कर्मके उदयसे प्राप्त होता है, उसको छोडकर अन्य कोई भी उस सुख और दुखके देने में समर्थ नहीं है। अतएव इसमें हर्ष-विषाद करना व्यर्थ है। ऐसा विचार करते हुए वे प्राप्त सुख-दुखमे उदासीन भावको धारण करते हैं। इस प्रकार राग-द्वेषसे रहित हो जानेके कारण ही उन्हे अपने शरीरमें लगी हुई धूलि (मैल) भूषणके समान प्रतीत होती है । वे जहां कहीं भी शिला आदिके ऊपर आसन जमाकर ध्यानस्थ हो जाते हैं । उन्हें कठोर व कंकरीली पृथिवीपर निद्रा लेते हुए कोई कष्ट नहीं होता । तथा जहां सिंहादि हिंस्र जन्तुओंका सतत निवास होता है ऐसे भयानक पर्वतकी गुफाओंको वे महलसे बढकर मानते हैं और वहां सिंहके समान निर्भयतापूर्वक रहते हैं (२५९) । ऐसे ही राग-द्वेषविहीन मुनिको लक्ष्य करके कवि भर्तृहरि कहते हैं (वै. श. ९४)कि जिसकी शय्या (पलंग) पृथिवी है, जिसकी भुजा ही तकियाका काम करती है,आकाश जिसका चंदोबा (उढौना) है, अनुकूल वायु जिसे पंखेकी पवनसे भी बढकर प्रतीत होती है, शरद् ऋतुका १. निजाजितं कर्म विहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददतीति विमुञ्च शेमुषीमाद्वात्रिंशतिका३१ आ. प्र. ५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् चन्द्रमा जिसे दीपकके समान प्रकाश देता है, तथा विरति (सर्वसंगपरि. त्याग ) रूप वनिताका संगम जिसे निरन्तर प्रमुदित किया करता है ; वह मुनि अपरिमित वैभवके धारक राजा के समान सुखी एवं शान्त होकर सोता है-इस प्रकार इस स्वाभाविक सामग्री का उपभोग करनवाला वह साधु अपरिमित विभूतिका उपभोग करनेवाले किसी भी राजा आदिकी अपेक्षा अतिशय सुखका अनुभव करता है। आगे (वै. श. ९९)वे कहते हैं-जिनके भोजनका पात्र अपना ही हाथ है,जो घूमते हुए भिक्षावृत्तिसे प्राप्त अविनश्वर अन्नका उपभोग करते हैं १,दस दिशायें जिनके वस्त्रका काम करती हैं-जो नग्न दिगम्बर रहते हैं, अपरिमित पृथिवी ही जिनकी स्थिर शय्या है, तथा जो सर्वसंगके परित्यागको स्वीकार करनेकी दढताको प्राप्त हए मनसे सदा संतुष्ट रहते है ; वे योगीश्वर धन्य हैं। ऐसे ही योगी दीनताको उत्पन्न करनेवाली-याचनावृत्तिसे प्राप्त होनेवालीसमस्त सामग्रीसे रहित होकर कर्मके नष्ट करने में समर्थ होते हैं । इस प्रकारके निःस्पृह साधुओंके पूर्वसंचित कर्मोंकी निर्जरा और नवीन कर्मोंका निरोध (संवर)होता है । उस समय उनके शरीरमेंसे वह निर्मल ज्योति (केवलज्ञान) प्रकट होती है जो समस्त पदार्थों के प्रकाशित करने में समर्थ होती है । फिर यह ज्योति उस शरीरके नष्ट हो जानेपर भी- सिद्धत्व अवस्थाको प्राप्त कर लेनेपर भी- इस प्रकारसे प्रदीप्त रहती है जिस प्रकार कि काष्ठमसे प्रगट हुई अग्न उस काष्ठको भस्म कर देनेके बाद भी अंगार अवस्थाम प्रदीप्त रहती है (२६४) । वैशेषिक इस मुक्तावस्थामें बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म,अधर्म और संस्कार इन नौ विशेष गुणोंका विनाश मानते हैं उनको लक्ष्य करके यहां (२६५) यह संकेत किया है कि जब गुणी (द्रव्य १. इस विशेषणका ऐसा भाव प्रतीत होता है- जिनके द्वारा भोजन ग्रहण करनेपर दाताके ग्रहका अन्न अक्षय हो जाता है । २.नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः। प्रश.भा.(व्योमवती) पु.६३८.xxx नवानात्मात्मगुणानां बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माधर्म-संस्काराणां निर्मुलोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः, तावदात्यन्तिको दुःखव्यावृत्तिविकल्पते ॥ न्यायम. पृ. ५.०८. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आत्मा ) गुणमय होता है-अपने उन गुणोंसे अभिन्न होता है-तब गुणोंका नाश माननेपर उन गुणोंसे अपृथग्भूत आत्माका भी विनाश अवश्य मानना पडेगा । और तब ऐसी अवस्थामें वैशेषिकसम्मत उस मुक्तिका अभाव होकर बौद्धोंके द्वारा कल्पित मुक्तिका प्रसंग दुर्निवार होगा । कारण यह कि मुक्तिके विषयमें बौद्ध इस प्रकारकी कल्पना करते हैं कि जिस प्रकार तेलके समाप्त हो जानेपर दीपक बुझ जाता है-वह बुझकर न पृथिवीमें प्रविष्ट होता है,न आकाशमें जाता है, न किसी दिशामें जाता है,और न किसी विदिशामें भी जाता है ; किन्तु केवल स्नेह (तेल) के विनष्ट हो जानेसे शांतिको प्राप्त करता है । उसी प्रकार मुक्तिको प्राप्त हआ जीव भी न पृथिवीमें प्रविष्ट होता है,न आकाशमें जाता है, न किसी दिशामें जाता है, और न किसी विदिशामें; किंतु केवल स्नेह (राग) के नष्ट हो जानेसे शांतिको प्र.प्त करता है१ । उनके मतानुसार जिस पदमें न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु है, न रोग है,न अनिष्ट संयोग है, न इष्टवियोग है, न इच्छा है, और न विपत्ति है; वहीं कल्याणकारक नैष्ठिक पद कहा जाता है । वस्तुतः जन्मसे रहित (अनादि), अविनश्वर (अनिधन),अमूर्तरूप-रसादिसे रहित,कर्ता-शुभाशुभ भावों अथवा आत्मपरिणमनका कर्ता, आत्मकृत कर्मोंके फलका भोक्ता,सुखस्वरूप,ज्ञानमय और प्राप्त शरीरके बराबर आत्मा कर्म-मलसे रहित होकर स्वभावतः ऊपर चला जाता है और वहींपर सर्वशक्तिमान् होकर स्थिर सो जाता है-गमनागमनसे रहित हो जाता है (२६६)। वैसे तो इन विशेषणोंमें सब ही महत्त्वके हैं, फिर भी कर्ता, भोवता,सुखी और बुध (ज्ञानमय)ये विशेषण सांख्यसिद्धांतकी अपेक्षा विशेष महत्त्वके हैं । सांख्योंका अभिमत है कि प्रवृत्ति की और पुरुष कमलपत्रके समान निर्लेप है । वह केवल बुद्धिसे अध्यवसित अर्थका अनुभवन करता है-भोक्ता मात्र है । ज्ञान और सुख प्रकृतिके धर्म हैं,न कि पुरुष आत्मा के। इसी अभिप्रायको लक्ष्यमें रखकर उक्त विशेषणों द्वारा यह प्रगट किया है कि वही आत्मा कर्ता है और वही भोक्ता भी है-कर्ता १. षट्खण्डागम पु. ६, ९, १३३. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् एक और भोक्ता दूसरा नहीं हो सकता है । साथ ही वे सुख व ज्ञानस्वरूप भी है, अन्यथा उसको जड मानना पडेगा। इस प्रकार अन्तमें सिद्धोंके स्वरूप और उनके स्वाधीन सुखकी प्ररूपणा करके प्रस्तुत ग्रन्थको समाप्त किया गया है । आत्मानुशासनमें विशेष उदाहरण किसी भी विषयका वर्णन यदि उदाहरणपूर्वक किया जाता है तो वह सरलतासे समझने में आ जाता है। जैसे - कहा भी गया है ‘दृष्टान्ते हि स्फुटायते मतिः' अर्थात् दृष्टान्त मिलनेपर बुद्धि स्पष्ट हो जाती है । तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में भी विषयको विशद करने के लिये कुछ विशेष उदाहरण दिये गये हैं । यथा--- १. श्लोक ३२ में पुरुषार्थको व्यर्थताको प्रगट करनेके लिये युद्ध में शत्रुओं द्वारा पराजित इन्द्रका उदाहरण दिया गया है । इस संबंधका विष्णपुराण । अंश १, अध्याय ९) में निम्न कथानक उपलब्ध होता है - किसी समय शंकरके अंशभूत दुर्वासा ऋषि पृथिवीपर विचरण कर रहे थे । उस समय उन्हें एक विद्याधरीके हाथमें एक दिव्य माला दिखायी दी। उस सुन्दर मालाको देखकर उन्होंने उक्त विद्याधरीसे उसे मांग लिया । तदनुसार विद्याधरीने भी वह उन्हें प्रणामपूर्वक दे दी । उसे लेकर ऋषिने अपने शिरके ऊार डाल लिया और फिर पृथिवीपर विचरण करने लये। इस बीच उन्होंने ऐरावत हाथीपर चढकर देवोंके साथ आते हुए तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्रको देखा । तब उक्त दुर्वासा ऋषिने उस मालाको अपने शिरपरसे निकालकर इन्द्रके ऊपर फेंक दी । इन्द्रने भी उसे लेकर ऐरावतके शिरपर डाल दिया । । उस हाथीने भी उसे सूंढसे सूंघकर पृथिवीतलपर डाल दिया । यह देख ऋषिराजको इन्द्रपर बहुत क्रोध हुआ । वे बोले- अरे दुष्ट इन्द्र ! तू ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हुआ है । इसीलिये तूने मेरी दी हुई मालाको लेकर आभार मानना तो दूर ही रहा, उसको तिरस्कृत भी किया है। इससे तेरी वह तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जावेगी । हे इन्द्र ! तू मुझे अन्य ब्राह्मणोंके सदृश ही समझता है । इसीलिये तूने मेरा अपमान किया । चूंकि तूने मेरी मालाको योंही फेंक दिया है, इसीलिये Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तेरे तीनों लोक श्रीहीन हो जावेंगे। यह सुनकर इन्द्र तुरन्त हाथीपरसे उतरा और ऋषिसे प्रार्थना करने लगा। तब ऋषि प्रणामपूर्वक प्रार्थना करनेवाले उस इन्द्रसे बोले कि मेरे हृदयमें न दया है और न क्षमा भी है, वे क्षमा करनेवाले ऋषि दूसरे हैं । मुझे तू दुर्वासा समझ । हे इन्द्र ! मैं क्षमा नहीं करूंगा। इस प्रकार कहकर ऋषि चले गये। तब वह इन्द्र भी ऐरावतपर चढकर अमरावतीको चला गया। ___ उसी समयसे इन्द्र और उसके तीनों लोकोंकी वह श्री (शोभा) नष्ट होने लगी। औषधियां और लतायें सूख गई। यज्ञोंको प्रवृत्ति बंद हो गई । तपस्वियोंने तप करना छोड दिया। मनुष्योंका चित्त दानादि सत्कार्योसे विमुख हो गया। तथा सब ही प्राणी लोभादिके वशीभूत होकर बलहीन हो गये और क्षुद्र वस्तुओंकी भी अभिलाषा करने लगे। बल चूंकि लक्ष्मीका अनुसरण करता है, अतः लक्ष्मीके न रहनेसे उनका वह बल नष्ट हो गया तथा बलके नष्ट हो जानेसे गुण भी जाते रहे । इस प्रकार तीनों लोकोंके निःश्रीक, निर्बल एवं गुणहीन हो जानेसे दैत्य और दानवोंने देवोंके ऊपर आक्रमण कर दिया। उन्होंने लोभके वश होकर देवोंके साथ खूब युद्ध किया । अन्तमें देव हार गये । तब वे सब अग्निदेवको आगे करके ब्रह्माज की शरणमें पहुंचे। उन्होंने ब्रह्माजीसे सब घटना कह दी। उसे सुनकर ब्रह्माजी बोले कि तुम सब विष्णु भगवान्की शरणमें जाओ। वे ही उन दैत्योंको दलित कर सकते हैं। यह कहकर उन देवोंके साथ वे स्वयं भी क्षीरसमुद्रके उत्तर किनारेपर जा पहुंचे । वहां जाकर उन्होंने देवोंके साथ विष्णु भगवान्की स्तुति की । इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें दर्शन दिया और वे प्रसन्न होकर बोले कि हे देवगण ! मैं तुम्हारे उस तेजको वृद्धिंगत करूंमा । तुम लोग दैत्य और दानवोंके साथ सब औषधियोंको लाकर अमृतके लिये क्षीरसमुद्रमें डालो तथा मन्दर पर्वतको मथानी और वासुकि सर्पको नेती (रस्सी)बनाकर दैत्योंके साथ समुद्रका मन्थन करो। सहायताके लिये में स्वयं वहां उपस्थित रहुंगा । उससे जो अमृत निकलेगा उसके Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ . आत्मानुशासनम् - पीनेसे तुम लोग बलवान और अमर हो जाओगे। मैं उस समय ऐसा करूंगा कि वह अमृत दैत्योंको न प्राप्त होकर तुम लोगोंको ही प्राप्त होगा। तदनुसार दैत्योंके साथ मेल-जोल करके समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत निकला उसका पान करनेसे वे सब पूर्वके समान सत्त्वशाली व तेजस्वी हो गये। २- श्लोक ९६ में टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने निर्दिष्ट किया है कि वहां कृष्णराजके निधानस्थान (खजाना) के बहाने धर्मके स्वरूप और उसके मार्गको बतलाया गया है। ऐतिहासिक दृष्टिसे यह कृष्णराज और उसका द्वितीय मंत्री सर्वार्थ कौन है, यह अन्वेषणीय है। यदि मूल ग्रन्थकारके समयका विचार किया जाय तो ये राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज द्वितीय होना चाहिये जिनका राजकाल ई. ८७८ से ९१२ तक पाया जाता है। ३. श्लोक ११८ और ११९ में भगवान् आदि जिनेन्द्रका उदाहरण देकर यह बतलाया है कि आत्मप्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये महान् पुरुषोंको भी कष्ट सहना पडता है। कारण कि पूर्वमें जिस अशुभ कर्मका उपार्जन किया गया है उसका फल भोगना ही पडता है, उसका उल्लंघन करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है । ( इससे सम्बद्ध कथानक ११८ वें श्लोकके विशेषार्थमें देखिये) ४. श्लोक १३५ में शंकरका उदाहरण देकर स्त्रियोंको विषसे भी भयानक बतलाया गया है । यह कथानक कवि कालिदासविरचित कुमारसंभव (सर्ग १-३) में इस प्रकार पाया जाता है-- किसी समय हिमालयकी पुत्री पार्वती अपने पिताके समीप बैठी हुई थी। उस समय स्वेच्छापूर्वक विचरण करनेवाले नारद ऋषिने उसे देखकर कहा कि यह भविष्यमें महादेवकी अर्धांगहारिणी अद्वितीय पत्नी होगी। यह सुनकर पिता हिमालयने उसे युवती देखकर भी अन्य वरकी इच्छा नहीं की। उधर प्रार्थनाभंग होनेके भयसे वह इसके लिये महादेवको भी नहीं बुला सका । कारण यह कि पार्वतीने पूर्व जन्ममें जब दक्षके क्रोधसे शरीरको छोडा था तबसे महादेवने विषयासक्तिसे रहित होकर किसी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७१ अन्य स्त्रीको ग्रहण नहीं किया था। प्रत्युत इसके वे हिमालयके शिखरपर बैठकर किसी फल की इच्छासे वहां तप करने लगे थे। उस समय हिमालयने जलादिसे उनकी स्वयं पूजा को तथा उनकी आराधनाके लिये जया और विजया सखियोंके साथ अपनी पुत्री पार्वतीको भी आज्ञा दी। यद्यपि स्त्री तपमें विघ्नकारक मानी जाती है, किन्तु फिर भी महादेवने उसे शुश्रूषाकी अनुमति दे दी। तब वह वेदीको झाड-बुहारकर पूजाके लिये पुष्प एवं जलादि सामग्रीको लाती हुई प्रतिदिन महादेवकी शुश्रूषा करने लगी। इसी समय वज्रणख के पुत्र तारक नामके असुरने देवोंको पीडित किया। इससे वे इन्द्रको आगे करके ब्रह्मलोकमें गये । वहां जाकर उन सबने ब्रह्माजीकी स्तुति की। उससे प्रसन्न होते हुएं ब्रह्मदेवने उनके कान्तिहीन मुख आदिको देखकर आनेका कारण पूछा। तब इन्द्रका संकेत पाकर बृहस्पतिने निवेदन किया कि प्रभो! आप अन्तर्यामी होकर सब कुछ जानते हैं। आपका वर पाकर महान् असुर तारक हम लोगोंको बहुत पीडा दे रहा है । उसके प्रतीकारके लिये हम लोगोंने कितने ही प्रयत्न किये, किन्तु वे सब व्यर्थ हुए। अतएव हम किसी ऐसे सेनानीकी सृष्टि चाहते हैं जिसके बलपर हम विजय प्राप्त कर सकें । इसपर ब्रह्मदेवने कहा कि तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा, किन्तु इसके लिये कुछ कालकी प्रताक्षा करनी पडेगी। चंकि मैंने उसे वर दिया है, अतः उसको नष्ट करनेके लिये मैं स्वयं सेनानीको उत्पन्न न करूंगा। महादेवके वीर्यांशके विना उक्त असुरका पराभव करनेके लिये अन्य कोई भी समर्थ नहीं है । इसलिये तुम पार्वतीक सौन्दर्यद्वारा उनके मनको विचलित करनेका प्रयत्न करो। तदनुसार इन्द्रने इसके लिये कामदेवको नियुक्त किया। तब कामदेव रतिके साथ जाकर वसन्त आदिकी रचना करते हुए उनके मनको आकृष्ट करनेका प्रयत्न करने लगा। इस बीच पार्वती पूजासामग्री लेकर महादेवके पास पहुंची। उसने उन्हें अपने हाथसे पद्मबीजोंकी जपमाला दी । इसी समय वह कामदेव अपने धनुष्यके ऊपर संमोहन नामक बाणको रखकर उसके छोडनेमें उद्यत हुआ । उसको महादेवने देख लिया । इससे उन्हें उसके ऊपर बहुत क्रोध हुआ। तब उनके तृतीय नेत्रसे जो अग्निकी ज्वाला प्रगट Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आत्मानुशासनम् हुई उसे देखकर आकाशमें देवोंने प्रार्थना की कि हे प्रभो ! क्रोधको शान्त कोजिये। किन्तु इसके पूर्व ही उसे उक्त अग्निज्वालाने भस्म कर दिया। तत्पश्चात् यथावसर जब महादेव के लिये पार्वतीको देना निश्चित हो गया तब हिमालयने तपस्वियोंसे विवाहकी तिथि पूछी। इसके उत्तरमें उन्होंने तीन दिनके पश्चात् चतुर्थ दिन निर्दिष्ट किया । परन्तु तब उन्हीं तपस्वी महादेवने पार्वतीके समागममें उत्सुक होकर इन तीन दिनोंको भी कष्टपूर्वक बिताया। ५. श्लोक २१६ में महादेवका उदाहरण देकर क्रोधके निमित्तसे होनेवाली कार्यकी हानिको दिखलाया गया है । कथानक वही पूर्वोक्त है। ६. श्लोक २१७ में बाहुबलीका उदाहरण देकर मान कषायके निमित्तसे होनेवाली महती हानिको प्रदर्शित किया गया है । (कथानक उक्त श्लोकके विशेषार्थ में देखिये) ७. श्लोक २२० में मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्णका उदाहरण देकर थोडे-से भी मायाचारको विषके समान भयानक बतलाया गया है। (इन तीनों कथानकोंको उक्त श्लोकके विशेषार्थ में देखिये) आत्मानुशासनपर पूर्ववर्ती अन्य भारतीय साहित्यका प्रभाव कोई भी अध्ययनशील विद्वान् जब कुछ स्वतन्त्र मौलिक साहित्यकी रचना करता है तब उसकी कृतिपर अपनेसे पूर्ववर्ती साहित्यका प्रभाव १. स दक्षिगापाङ्गनिविष्टमुष्टि नतांसमाकुञ्चितसव्यपादम् । ददर्श चक्रीकृतचारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मयोनिम् ॥ तपःपरामर्शविवृद्धमन्योधूमङ्गदुष्प्रेक्ष्यमुखस्य तस्य । स्फुरन्नुचिः सहसा तृतीयादक्ष्णः कृशानुः किल निष्पपात ॥ क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति । तावत्स वन्हि वनेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार ॥कु.सं.३,७०-७२. २ः वैवाहिकी तिथि पृष्टास्तत्क्षणं हरबन्धुना। ते त्र्यहादूर्ध्वमाल्याय चेरुश्चीरपरिग्रहाः ॥ पशुपतिरपि तान्यहानि कृच्छादगमयदद्रिसुतासमागमोत्कः । कमपरमवशं न विप्रकुर्युविभुमपि तं यदमी स्पशन्ति भावाः ।। कु. सं. ६-९३, ९५. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७३ किसी न किसी रूपमें पडता ही है । तदनुसार प्रकृत आत्मानुशासनके ऊपर भी पूर्ववर्ती भारतीय साहित्यका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उसके कर्ता श्री गुण भद्राचार्य बहुश्रुत विद्वान् थे, उन्होंने पूर्ववर्ती जैन अजैन साहित्यका खूब परिशीलन किया था। वे सिद्धांत, न्याय, व्याकरण एवं आयुर्वेद आदि अनेक विषयोंके पारंगत थे। अतएव यदि उनकी इस कृतिपर अन्य साहित्यका प्रभाव रहा है तो यह कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । प्रस्तुत ग्रंथपर आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द, यतिवृषभ, शिवार्य, समन्तभद्र और पूज्यपादके साहित्यके अतिरिक्त योगी भर्तृहरिके शतकत्रयका भी प्रभाव पडा दिखाई देता है । कुन्दकुन्द-साहित्यका प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थके १९५वें श्लोकमें शरीरको समस्त अनर्थपरम्पराका मूल कारण बतलाते हुए यह कहा है कि प्रारम्भमे शरीर उत्पन्न होता है, उसमें दुष्ट इन्द्रियां होती हैं, वे विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय मानहानि, प्रयास पाप एवं दुर्गतिके देनेवाले होते हैं१ । ____ लगभग इसी अभिप्रायको प्रगट करनेवाली निम्न गाथायें श्री कुंदकुंदाचार्यके पंचास्तिकाय (१२८-३०) में उपलब्ध होती हैं जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो हवदि गदिसु गदी । गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ अभिप्राय इतका यह है कि संसारी जीव अशुद्ध (राग और द्वेष) १. इसी आशयको पण्डितप्रवर आशाधरजी ने भी निम्न श्लोकमें इस प्रकारसे प्रगट किया है बन्धाद्देहोऽत्र करणान्यतैश्च विषयग्रहः । बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहाराम्यहम् ॥ सा. घ. ६-३१. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आत्मानुशासनम् परिणामोंसे संयुक्त होनेके कारण नवीन कर्मबन्धको करता है, उससे नरकादि गतियोंमें गमन होता है, गतिको प्राप्त हुए जीवके शरीर होता है, शरीरमें सम्बद्ध इन्द्रियां होती हैं, उनके द्वारा विषयग्रहण होता है, और उससे फिर राग एवं द्वेष भाव उत्पन्न होता है। इस प्रकारसे गाडीके पहियेके समान संसाररूप समुद्रमें परिभ्रमण करनेवाले संसारी जीवकी अवस्था है । उक्त संसारपरिभ्रमण अभव्य जीवका अनादिअनिधन तथा भव्य जीवका अनादि-सान्त होता है, ऐमा जिनेन्द्र देवके द्वारा कहा गया है। ___श्लोक २१७ में बाहुबलीका उदाहरण देकर यह बतलाया गया है कि भरतके द्वारा छोडा गया चक्र जब उनका घात न करके उन्हींकी दाहिनी भुजामें आकर स्थित हो गया तब उन्होंने विरक्त होते हुए उस चक्र-रत्नसे मोह छोडकर उसी समय दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उन्हें यद्यपि उसी समय मुक्त हो जाना चाहिये था, पर वे मुक्त न होकर चिर काल तक क्लेशको प्राप्त हुए हैं । सो ठीक भी है-थोडा-सा भी मान महती हानिको किया करता है । ___ उक्त बाहुबलीका उदाहरण कुन्दकुन्दाचार्यने भावप्राभृत (गा.४४) में इस प्रकार दिया है ?-- देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर। अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ अर्थात् शरीरको आदि लेकर समस्त परिग्रहका त्याग करके भी मान कषायसे कलुषित रहनेके कारण बाहुबलीको कितने ही काल आतापनयोगसे स्थित रहने पडा-कायोत्सर्गके स्थित होते हुए भी उन्हें एक वर्ष तक मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। श्लोक ९९ में गर्भ और जन्मके दुखको दिखलाते हुए बतलाया है कि प्राणी माताके उदररूप विष्ठागृहमें स्थित रहकर भूख-प्याससे १. इस गाथाको टोकामें श्री श्रुतसागर सूरिने आत्मानुशासनके इस (उपर्युक्त) श्लोकको 'तथा चोक्तं' कहकर उद्धृत भी किया है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७५ पीडित होता हुआ माताके द्वारा खाये हुए इष्ट उच्छिष्ट भोजनकी प्रतीक्षा किया करता है। वहां कीडोंके साथ रहता हुआ वह स्थानके संकुचित होनेसे हाथ-पैर आदिको हिला-डुला भी नहीं सकता है । इस अभिप्रायको कुन्दकुन्दाचार्यने भावप्राभृतकी निम्न गाथा (४०) में व्यक्त किया है१ - ___ दियसंगठ्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णंते । छद्दि-खरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए॥ अर्थात प्राणी दातोंके संगमें स्थित भोजनको- माताके द्वारा दांतोंसे चवाये गये उच्छिष्ट अन्नको-खाकर माताके उदरमें उसी भक्षित अन्नके मध्यमें तथा छदि (उच्छिष्ट) और खरिस (रक्तमिश्रित अपक्व मल) के मध्यमें निवास किया करता है। लोक ८९ और ९० में यह बतलाया है कि बाल्यावस्थामें जीव हित व अहितको कुछ भी नहीं समझता है । उसने जो इस अवस्थामें कर्मके परवश होकर घृणित कार्य किया है वह स्मरण करनेके भी योग्य नहीं है । उपर्युक्त अभिप्राय भावप्राभृतकी इस गाथामें निहित है - सिसुकाले य अयाणो असुईमज्झम्मि लोलिओ सि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण३ ॥४१॥ १. कृमिसमूहका निर्देश भावप्राभृतको पिछली गाथा३९में किया गया है। २. इस गाथाको टीका करते हुए श्री श्रुतसागर सूरिने वहां आत्मानुशासनके इस श्लोकको उद्धृत भी किया है। यहां यह स्मरण रखनकी बात है कि जीवको संबोधित करके जैसे भावप्राभूतमें 'वसिओ सिं मध्यम पुरुषका प्रयोग किया गया है वैसे ही आत्मानुशासनके उस श्लोकमें भी 'बिभेषि' मध्यम पुरुषका ही प्रयोग हुवा है। ३. इसकी टीका करते हुए श्री श्रुतसागर सूरिने आत्मानुशासनके ८९वें श्लोकको उद्धृत भी किया है । ऐसी ही एक गाथा तिलोयपण्णत्तीमें भी उपलब्ध होती है बालत्तणम्मि गुरुगं दुक्खं पत्तो यजाणमाणेण । जोव्वणकाले मज्मे इत्थीपासम्मि संसत्तो ॥ ति.प. ४. ६२६. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् अभिप्राय यह है कि प्राणी बाल्यावस्थाको प्राप्त होकर अज्ञानतासे परिपूर्ण उस शैशवकालमें अशुचि (विष्ठा आदि) पदार्थके मध्यमें लोटता है-खेलता है और उसी अपवित्र पदार्थको बहुत वार खाया भी करता है१। आत्मानुशासन और भगवती-आराधना हम यह ऊपर लिख चुके हैं कि आत्मानुशासनके श्लोक८८और८९ में बाल्यावस्थाकी अज्ञानतापूर्ण प्रवृत्तिका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । उसका विशेष वर्णन भगवती-आराधनाकी निम्न गाथाओंमें उपलब्ध होता है-- बालो विहिंसणिज्जाणि कुणदि तह चेव लज्जणिज्जाणि । मेज्झामेज्झं कज्जाकज्जं किंचि वि अयाणंतो । १०२२ । अण्णस्स अप्पणो वा सिंहाणय-खेल-मुत्त-पुरिसाणि । चम्मठ्ठि-वसा-पूयादीणि य तुडे सगे छुभदि ।। १०२३ ॥ जं किंचि खादि जं किंचि जं किंचि जंपदि अलज्जो। जं किंचि जत्थ तत्थ व वोसरदि अयाणगो बालो ।। १०२४।। बालत्तणे कदं सव्वमेव जि णाम संभरिज्ज तदो। अप्पाणम्मि दु गच्छे णिव्वेदं किं पुण परम्मि ।। १०२५ । अर्थात् पवित्र-अपवित्र और कार्य-अकार्यका कुछ भी विवेक न रखनेवाला अल्पवयस्क बालक हिंसा एवं लज्जाको उत्पन्न करनेवाले अनेक कार्योंको किया करता है । वह दूसरेके और स्वयं अपने भी नासिकामल,कफ,मूत्र,मल,चमडा, हड्डी, चर्बी और पीव आदिको अपने मुंहमें डाला करता है । वह अज्ञान बालक लज्जारहित होकर कुछ भी खाता है, कुछ भी करता है, कुछ भी बोलता है, तथा जहां कहीं भी मल-मूत्र आदिको भी किया करता है । उस बाल्यावस्थामें जो कुछ भी किया गया है उसका स्मरण मात्र भी विरक्तिको उत्पन्न करनेवाला है। १. इनके अतिरिक्त श्लोक ११० मोक्षप्राभृतको १२वीं, श्लोक १६१ मोक्षप्राभूतको २०वीं, श्लोक, १६७ मोक्षप्राभूतको ७८वीं तथा श्लोक १९३ मोक्षप्राभूतको ५वी गाथासे प्रभावित प्रतीत होते हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ৩৬ यहां श्लोक ९० का प्रथम चरण (बाल्येऽस्मिन् यदनेन ते विरचितं स्मर्तुं च तन्नोचितम्) विशेष ध्यान देने योग्य है। वह भगवती आराधनाकी १०२५ वीं गाथासे विशेष प्रभावित दिखता है । आत्मानुशासन (१२६-१३६) में सत्पुरुषोंको विरक्त करानेकी इच्छासे स्त्रियोंके कुछ दोष दिखलाते हुए उन्हें दृष्टिविष सर्पसे भी भयानक, क्रोधी,प्राणघातक,निरौषधविष,ईर्ष्यालु,बाह्यमें ही रमणीय,विषयानुरागको उत्पन्न करनेवाली तथा दूषित शरीरकी धारक बतलाया है। ऐसे ही उनके अनेक दोष उक्त भगवती आराधना (गा. ९३८-९०) में भी दिखलाये गये हैं । विशेषता यह पायी जाती है कि आगे चलकर वहां यह स्पष्ट कह दिया है कि स्त्रियोंके इन निर्दिष्ट तथा अन्य अनिर्दिष्ट भी दोषोंका विचार करनेसेउन्हें विष व अग्निके समान संतापजनक जानकर-पुरुषका चित्त उद्वेगको प्राप्त होता है । तब वह जैसे व्याघ्रादिके दोषोंको जानकर उनका परित्याग करता है बेसे ही वह महिलाओंके दोषोंको देखकर उनका भी परित्याग करता है१ । इसके पश्चात् वहां यह भी निर्देश कर दिया है कि जो दोष महिलाओंके सम्भव हैं वे तथा उनकी अपेक्षा और भी कुछ अधिक दोष उन नीच पुरुषोंके भी हो सकते हैं, क्योंकि, वे उनकी अपेक्षा अधिक बल एवं शक्तिसे संयुक्त होते हैं । जिस प्रकार अपने शीलका संरक्षण करनेवाले पुरुषोंके लिये स्त्रियां निन्दित हैं उसी प्रकार अपने उस शीलकी रक्षा करनेवाली स्त्रियोंके लिये पुरुष भी निन्दित हैं। कारण यह कि जिनकी कीर्ति दिशाओं में विस्तृत है तथा जो अनेक गुणोंसे विभषित हैं ऐसे भी स्त्रियां लोकमें सम्भव हैं। वे मनुष्यलोककी देवता हैं, उसकी बन्दना स्वयं देव भी आकर किया करते हैं । उत्तम देव-मनुष्योंसे पूजित वे १. एए अण्णे य बहु (हू) शोसे महिलाको विचितयदो। महिलाहितो वि चितं उम्वियदि विसग्गि-सर (रि) सोहि । । वग्यादीणं दोसे णच्चा परिहरदि ते जहा पुरिसो। सह महिलाणं दोसे बटुं महिलाओ परिहा ॥ भ. ९ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् महिलायें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलदेव और गणधर जैसे पुरुष रत्नोंको उत्पन्न करनेवाली हैं १ । आत्मानुशासन और समन्तभद्र - साहित्य ७८ प्रस्तुत ग्रन्थके ऊपर समन्तभद्राचार्य के ग्रन्थोंका भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जैसे- श्लोक ५८ में संसारके स्वरूपको दिखलाते हुए बतलाया है कि प्राणीको मृत्युसे भय रहता है, परन्तु वह निरन्तर होती अवश्य है ( मृतेः प्रतिभयं शरवन्मृतिश्च ध्रुवम् ) । इसदर स्वयंभू स्तोत्रके निम्न पद्य (३४) का प्रभाव स्पष्ट दिखता है- बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । तथापि बालो भय - कामवश्यो वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥ श्लोक १०७ में भव्य जीवको प्रेरणा देते हुए यह कहा है कि तू दया, दम, त्याग एवं समाधिके मार्गमें- जैन मतमें- जानेका सरलतापूर्वक प्रयत्न कर । इससे तू अनिर्वचनीय एवं निर्विकल्प उस परम पदको अवश्य पा लेगा । यहां 'दयादमत्यागसमाधिसंततेः ' का आधार युक्त्यनुशासनका निम्न श्लोक रहा है- दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ ६ ॥ १. महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं पि हुंति णीचाणं । तत्तो अहिवरा वा तसि बल- सत्तिजुत्ताणं ।। जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिदिंदाओ महिलाओ । तह सीलरक्खयाणं महिलाणं णिदिदा पुरिसा ॥ किं पुण गुणसहिदाओ इत्थीओ अस्थि वित्थडजसाओ । णरलोगदेवदाओ देवेहि वि वंदणिज्जाओ || तित्थयर- चक्कधर - बासुदेव - बलदेव - गणधरवराणं । जणीओ महिलाओ सुर-णरवरेहिं महियाओ ॥ म. ९९३-९६. इस प्रकार उनकी प्रशंसा वहां आगे भी गा. १००२ तक की गई है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७९ श्लोक १७१ में बतलाया है कि जीवादि प्रत्येक पदार्थ स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा तत्स्वरूप- विवक्षित जीव आदि स्वरूप - भी हैं तथा परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वह अतत्स्वरूप • अजीव आदि स्वरूप- भी है । इस प्रकार उत्तरोत्तर सूक्ष्मतासे विचार करनेपर उसका अन्त नहीं आता इस विषयकी विशेष प्ररूपणा स्वामी समन्तभद्रने देवागमस्तोत्रमें विस्तारसे को है । यथा-- कथंचित् ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १४ ॥ सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥ अर्थात् हे भगवन् ! आपको जीव आदि विवक्षित पदार्थ कथंचित् सत् ही इष्ट है, कथंचित् असत् ही इष्ट है, कथंचित् उभय (सत्असत्) ही इष्ट है, और कथंचित् अबक्तव्य ही इष्ट है। यह सब आपको नयके सम्बन्धसे ही इष्ट है, न कि सर्वथा । कारण कि ऐसा कौन-सा बुद्धिमान् है जो स्वरूपचतुष्टयसे- अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा- वस्तुको सत् ही न माने तथा इसके विपरीत पररूपचतुष्टयसेदूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा- उसे असत् ही न माने । यदि ऐसा नहीं मानता है तो फिर वह वस्तुस्वरूपकी व्यवस्था भी नहीं कर सकता है- ऐसा माननेके विना चेतन व अचेतन आदि पदार्थोंकी पृथक् पृथक् व्यवस्था नहीं बन सकती है । क्रमसे विवक्षित स्ववतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा वह वस्तु उभय (सत्-असत्) ही है । कारण कि शब्दके द्वारा जब कभी भी वस्तुका कथन किया जाता है तब वह १. इसका विशेष विवेचन तत्त्वार्थवातिक (१, ६, ५. और ४, ४२, १५.) आदिमें भी किया गया है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् क्रमसे ही किया जाता है । स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा युगपत् विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य ही है, क्योंकि स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा एकसाथ शब्दके द्वारा वस्तुका कथन करना अशक्य है । ये चार भंग हुए । इस अवक्तव्य भंगके साथ अपने अपने हेतुसे शेष तीन भंग और भी संभव हैं। जैसे -- स्वचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर एक साथ चूंकि वस्तुका कथन नहीं किया जा सकता है अतएव वह कथंचित् सत् अवक्तव्य ही है । परचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर चूंकि उसे कहा नहीं जा सकता है अतएव वह कथंचित् असत् अवक्तव्य ही है । क्रमसे स्व- परचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर चूंकि एकसाथ उसे नहीं कहा जा सकता है अतएव वह कथंचित् सत् असत् अवक्तव्य ही है । आत्मानुशासनके उपर्युक्त श्लोकमें इसी सप्तभंगीकी सूचना की गई है । ८० इसके आगे १७२ वें श्लोकके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय में उत्पाद, व्यय और धौव्य ( सत्) स्वरूप है; क्योंकि, इसके विना उसमें एकसाथ जो भेद और अभेदका निर्बाध ज्ञान होता है वह संगत नहीं हो सकता है । उपर्युक्त विवेचनकी आधारभूत देवागमकी निम्न कारिकायें रहीं प्रतीत होती हैं न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात् ते सहैकत्रोदयादि सत् ।। ५७ ।। कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात् पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८ ॥ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पाद- स्थितिष्वयम् । शोक- प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ५९ ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ६० ॥ आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके मतम कोई भी वस्तु सामान्य स्वरूपसे - द्रव्यकी अपेक्षा - न तो उत्पन्न होती है Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८१ और न नष्ट भी होती है, क्योंकि, उन दोनों ही अवस्थाओंमें स्पष्टतया सामान्य स्वरूपका अन्वय देखा जाता है-सुवर्णघटको नष्ट करके उससे बनाये गये मुकुटमें भी उस सुवर्णका अस्तित्व पाया जाता है। [ इससे वस्तुमें ध्रौव्य या नित्यताकी सिद्धि होती है। ] वस्तु जो नष्ट और उत्पन्न होती है वह विशेष (पर्याय) की अपेक्षा ही होती है । इस प्रकार एक ही वस्तुमें एक साथ ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय इन तीनोंके रहनेका नाम सत् या द्रव्य है १ । हेतु (उपादान कारण) के नाशका नाम ही कार्यकी उत्पत्ति है, क्योंकि, उन दोनोंके एक हेतुताका नियम है- जो दण्ड घटके विनाशका हेतु होता है वही ठीकरोंकी उत्पत्तिका भी हेतु हुआ करता है । परन्तु अपने अपने असाधारण लक्षणकी अपेक्षा वे दोनों- विनष्ट घट और उत्पन्न ठीकरे- भिन्न ही होते हैं। इस प्रकार लक्षणसे भिन्न होनेपर भी वे दोनों सर्वथा भिन्न नहीं हैं- कथंचित् अभिन्न भी हैं,क्योंकि,उनमें मिट्टी या सुवर्णत्व जाति आदिका अवस्थान देखा जाता है । ये तीनों परस्पर सापेक्ष होकर ही वस्तुमें रहते हैं, अन्यथा उनका आकाशकुसुमके समान सद्भाव ही नहीं रह सकेगा। इसको स्पष्ट करनेके लिये वहां ये दो उदाहरण दिये गये हैं १. क्रमसे घट, मुकुट और सुवर्णमात्रके अभिलाषी तीन व्यक्ति किसी सुनारके यहां जाते हैं । उस समय उन्हें सुनार घटको तोडकर मुकुटको बनाता हुआ दिखता है । यह देखकर घटका अभिलाषी खिन्न और मुकुटका अभिलाषी हर्षित होता है। परन्तु सुवर्णसामान्यका अभिलाषी व्यक्ति न तो खिन्न होता है और न हर्षित भी, वह मध्यस्थ रहता है । यह अवस्था उनकी निर्हेतुक नहीं है। इससे प्रगट है कि घट और मुकुटमें जैसे पर्यायकी अपेक्षा भेद है वैसे द्रव्य (सुवर्ण की अपेक्षा भेद नहीं है-सुवर्णसामान्यकी अपेक्षा वे दोनों अभिन्न हैं । २. जिस व्यक्तिने यह नियम किया है कि मैं आज दूधको ही ग्रहण करूंगा वह दहीको नहीं खाता है, जिसने यह नियम किया है १. सद्रव्यलक्षणम् । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । त.सू.५.२९-३० आ.प्र.६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् . कि मैं आज दहीको ही लूंगा वह दूधको नहीं लेता है, तथा जिसने यह नियम लिया है कि मै आज गोरसको ग्रहण नहीं करूंगा वह दूध और दही दोनोंको ही नहीं ग्रहण करता है । इस प्रकार गोरस (सामान्य) स्वरूपसे अभिन्नं होनेपर भी जब दूध और दही ये दोनों अवस्थाविशेषसे भिन्न समझे जाते हैं तभी उक्त तीनों व्यक्तियोंका वैसा आचरण संगत होता है। इससे सिद्ध है कि वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों स्वरूप है । इसके पश्चात् १७३ वें श्लोकमें यह कहा गया है कि वस्तु न नित्य है, न क्षणनश्वर (क्षणिक) है, न ज्ञानमात्र है और न अभाव स्वरूप (शून्य) भी है; क्योंकि, वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है, जैसी कि निर्बाध प्रतीति होती है तदनुसार वस्तु कथंचित् नित्यानित्यादिस्वरूप ही सिद्ध होती है। यह अवस्था जैसे एक वस्तुकी है वैसे ही वह अनादिअनन्त समस्त वस्तुओंकी ही समझना चाहिये । इस संक्षिप्त विवेचनका आधार भी वह देवागमस्तोत्र रहा है । वहां ३७-५४ कारिकाओंमें नित्यत्व और अनित्यत्व एकान्तवादोंका निराकरण करके ५६वीं कारिका द्वारा कथंचित् नित्यानित्यत्वको सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार२४-२७कारिकाओंमें सामान्य अद्वैतवादका निराकरण करके ७९-८० कारिकाओंके द्वारा विज्ञानाद्वैतका तथा १२ वो कारिकाके द्वारा अभावरूपता (शून्यकान्त)का भी निषेध किया है । आत्मानुशासन व पूज्यपादसाहित्य इष्टोपदेश और समाधिशतक ये दो ग्रंथ आध्यात्मिक हैं जो पूज्यपाद स्वामीके द्वारा रचे गये हैं । इन दोनों ही ग्रंथोका प्रभाव आत्मानुशासनपर दृष्टिगोचर होता है यथा-- आत्मानुशासनके ४५वें श्लोकमें यह बतलाया है कि जिस प्रकार नदियां कभी शुद्ध जलसे परिपूर्ण नहीं होती है, किन्तु नालियों आदिके १. स्वामी समन्तभद्रविरचित युक्त्यनुशासनमें भी श्लोक १८-२४ में विज्ञानाद्वैतका, ८-९ श्लोकोंमें नित्यत्वका,११-१७श्लोकोंमें. क्षणिकत्वका तथा २५वें श्लोकमें अभावकान्त (शून्यवाद) का विचार किया गया है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गंद पानीसे ही वे परिपूर्ण होती हैं; उसी प्रकार शुद्ध धनसे कभी सत्पुरुषोंके भी सम्पत्ति नहीं बढती है, किन्तु वह अन्यायोपार्जित धनसे ही बढती है जो सत्पुरुषोंको इष्ट नहीं है । इस अन्यायोपार्जित धनकी निन्दा इष्टोपदेशमें इस प्रकार से की गई है त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलिम्पति १ ॥ १६ ॥ ८३ अभिप्राय यह है कि जो निर्धन व्यक्ति यह सोचकर धनका संचय करता है कि मैं उससे पुण्यवर्धक दानादि सत्कार्यों को करूंगा उसका ऐसा करना उस मूर्खके समान है जो यह सोचकर कि में स्नान करूंगा, अपने निर्मल शरीरको कीचडसे लिप्त करता है । कारण यह कि धनका संचय कभी न्याय्य वृत्तिसे नहीं हुआ करता है । श्लोक ५० में जीवको संबोधित करके यह कहा गया है कि जिस विषयसुखको विषयी जनोंने भोगकर विरक्त होते हुए छोड दिया है उसीको तू उच्छिष्ट (वान्ति) के समान फिर भी भोगना चाहता है । इसमें तुझे ग्लानि नहीं होती ? जबतक तू उस विषयतृष्णाको नष्ट नहीं करता है तबतक तुझे शान्ति प्राप्त नाहीं हो सकती है । यह भाव प्रकारान्तरसे इष्टोपदेशके निम्न श्लोकमें भी निहित है भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ||३०|| आशय इसका यह कि अनादि कालसे संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने सब पुद्गलोंको वार वार भोगकर छोड दिया है । फिर जब आज वह विवेक उत्पन्न हो चुका है तब उच्छिष्टके समान उन्हीं पुद्गलों को फिर से भोगने की इच्छा मुझे क्यों करना चाहिये ? नहीं करना चाहिये । १. इस श्लोककी टीका करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजीने वहां आत्मानुशासन के उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आत्मानुशासनम् श्लोक ११० में १ यह उपदेश दिया गया है कि हे भव्य ! तू यह समझ कि यहां संसारमें मेरा कुछ भी नहीं है । यदि तू इस प्रकार से रहता है तो शीघ्र ही तीनों लोकोंका स्वामी ( परमात्मा ) हो जावेगा । वह वह परमात्माका रहस्य है जिसे केवल योगी ही जानते हैं, अन्य कोई भी नहीं जानता । इस प्रकार यहां निर्ममत्व भावको मोक्षका कारण बतलाकर उसे स्वीकार करनेका प्रेरणा की गई है। अब इष्टोपदेश के निम्न पद्यको देखिये कितनी समानता है बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निममत्वं विचिन्तयेत् २ ||२६| इसमें भी यही बतलाया गया है कि समम जीव - शरीर एवं अन्य बाह्य पदार्थों में ममत्वबुद्धि रखनेवाला प्राणी - कर्मबंधको प्राप्त होता है। तथा इसके विपरीत निर्मम जीव- मेरा यहां कुछ भी नहीं और न मैं भी किसीका हूं, इस प्रकारकी ममत्वबुद्धिसे रहित हुआ भव्य जीव-. मुक्तिको प्राप्त होता है । इसीलिये प्रयत्नपूर्वक उस निर्ममत्वभावका - अकिंचनताका--चिन्तन करना चाहिये । यही बात समाधिशतकके निम्न श्लोक में भी कही गई है परत्राहंमतिः स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नमतिरच्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ||४३ ॥ अर्थात् शरीरादि परपदार्थोंमें 'अहं' बुद्धिको रखनेवाला अज्ञानी प्राणी तो निश्चयतः कर्मको बांधता है तथा आत्मामें आत्मबुद्धि रखनेकाला विवेकी जीव नियमतः उस कर्मसे छुटकारा पाता है । १७५ वें श्लोकमें यह बतलाया है कि ज्ञानभावनाके चिन्तनका फल प्रशस्त अविनश्वर ज्ञान (केवलज्ञान ) की प्राप्ति है परन्तु अज्ञानी जन मोहके प्रभाव से उसका फल लाभ-पूजादिमें खोजते हैं । इसपर इष्टोपदेशके निम्न पद्यका प्रभाव स्पष्ट दिखता है । १. इसके अतिरिक्त १८०-१८१ और २४३-४४ श्लोकोंको भी देखिये, उनमें भी यही भाव निहित है । २. इसकी टीकामें पं. आशाधरजीने उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः । ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः१ ॥ २३ ॥ अर्थात् अज्ञान एवं अज्ञानी जनकी उपासना अज्ञानको तथा ज्ञानमय निज आत्मा और ज्ञानी गुरु आदिको उपासना ज्ञानको देती है । ठीक है- जो जिसके पास होता है उसे ही वह देता है, यह एक प्रसिद्ध उक्ति है। ___श्लोक १७८-७९ में जीवको मथानी तथा उसमें लपेटी जानेवाली रस्सी (नेती) के दोनों छोरोंको राग-द्वेषके समान बतलाकर यह कहा गया है कि जिस प्रकार मथानीमें लिपटी हुई रस्सीको जबतक एक ओरसे खींचते तया दूसरी ओरसे ढीली करते रहते हैं तबतक वह रस्सी बंधती व उकलती रहती है तथा मथानी भी तबतक घूमती ही रहती है। उसी प्रकार जीव जबतक एकसे, राग और दूसरेसे द्वेष करता है तबतक रस्सी के समान उसका कर्म बंधता और उकलता (सविपाक निर्जरासे निर्जीर्ण होता) रहता है तथा जीव भी तबतक संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करता ही रहता है। परन्तु जब उस रस्सीको एक ओरसे ढीली करके दूसरी ओरसे पूरा खींच लिया जाता है तब जिस प्रकार उसका बंधना व उकलना तथा मथानीका घूमना भी बंद हो जाता है उसी प्रकार राग-द्वषको छोड देनेसे कर्मका बंधना और फल देकर निर्जीर्ण होना तथा जीवका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है । यह विवेचन इष्टोपदेशके निम्न श्लोकसे कितना अधिक प्रभावित है, यह ध्यान देनेके योग्य है राग-द्वेषद्वयी-दीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात् सुचिरं जीवः संसाराब्धी भ्रमत्यसौ ॥११॥ यहां उसी मथानीका दृष्टान्त देकर राग-द्वेषरूप लंबी रस्सीके खींचनेसे जीव संसार-समुद्र में अपनी अज्ञानताके वश चिर कालतक परिभ्रमण किया करता है, यही भाव दिखलाया गया है। १. इसकी.टोकामें पं. आशाधरजीने उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् । श्लोक १८२ में कहा गया है कि जिस प्रकार बीजसे मल और अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोहरूप बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । इसीलिये जो उनको नष्ट करना चाहता है उस मोहबीजको ज्ञानरूप अग्निके द्वारा जला देना चाहिये। अब इसे मिलता-जुलता यह समाधि-शतकका श्लोक देखिये-- यदा मोहात् प्रजायते राग-द्वेषौ तपस्विनः । तथैव भावयेत् स्वस्थमात्मानं शा (सा)म्यतः क्षणात् ॥ ३९ ॥ श्लोक २३९-४० में बतल:या है कि शुभ, पुण्य और सुख ये तीन हितकारक होनेसे अनुष्ठेय तथा अशुभ, पाप और दुख ये तीन अहितकारक होनेसे हेय हैं । इन तीनों हेयोंमेंसे प्रथम अशुभका त्याग कर देने से शेष दो- पाप और दुख- स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि, वे दोनों उस अशुभके अविनाभावी हैं। अन्तमें फिर योगी शुद्धके निमित्त उस शुभको भी छोडकर परम पदको प्राप्त हो जाता है। यह भाव समाधिशतकके निम्न दो श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है-- अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ ८३ ।। अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ॥ अर्थात् अव्रतोंसे- हिंसादिरूप अशुभ प्रवृत्तिसे- पाप तथा व्रतोंसे- अहिंसादिरूप शुभ आचरणसे- पुण्य होता है। उक्त दोनों (पाप-पुण्य) के अभावका नाम मोक्ष है। इसलिये मुमुक्षु जीवको अव्रतोंके समान व्रतोंको भी छोड देना चाहिये । वह अब्रतोंको छोडकर व्रतोंमें निष्ठित होवे और तत्पश्चात् अपने परम पदको प्राप्त होकर उन व्रतोंको भी छोड दे। आत्मानुशासनपर श्वे. आगमोंका प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थके भीतर श्लोक १० में सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेदोंका निर्देश मात्र करके उसके गुण और दोषोंको दिखलाते हुए उसे संसारनाशक बतलाया गया है । इसके आगे श्लोक ११ में पूर्वनिर्दिष्ट Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८७ उन दस भेदोंका नामनिर्देश करके श्लोक १२-१४ द्वारा उनका पृथक् पृथक् स्वरूप भी बतलाया गया है । ये दस भेद आत्मानुशासन के पूर्ववर्ती दिगम्बर ग्रन्थोंमें कहां और किस प्रकारसे पाये जाते हैं, इसके खोजनेका मैंने यथासम्भव कुछ प्रयत्न किया है । परन्तु वे मुझे उपलब्ध नहीं हो सके । ये दस भेद लगभग इसी रूपसे 'पन्नवणासुत ' आदि आगम ग्रन्थोंमें अवश्य पाये जाते हैं । यथा-निसग्गुबएस रुई आणरुई सुत्त - बीयरुइमेव । अभिगम वित्थाररुई किरिया - संखेव धम्मरुई १ ।। पन्नवणा १, ७४ (सुत्तागमे २, पृ. २८६ ) इस गाथा के अनुसार वे दस भेद ये हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । इस प्रकार आज्ञासम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व और विस्तारसम्यक्त्व ये छह सम्यक्त्वभेद तो दोनों ग्रन्थोंमें समानरूपसे पाये जाते हैं । किन्तु पन्त्रवणामें मार्गसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व इन चार भेदोंके स्थान में निसर्गरुचि, अभिगमरुचि, क्रियारुचि और धर्मरुचि ये चार भेद पाये जाते हैं । श्रावकप्रज्ञप्तिमें भी कहा गया है कि इस सम्यक्त्वको उपाधिभेदसे दस प्रकारका भी आगममें बतलाया है । परन्तु सामान्यरूपसे वह दस प्रकारका भी सम्यक्त्व इन भेदोंसे - पूर्वोक्त औपशमादि भेदोंसे - अभिन्नस्वरूपं है२ । १. आत्मानुशासनमें रुचिके समानार्थक विरुचित, श्रद्धा, दृष्टि और उस रुचि शब्दका भी प्रयोग हुआ है । २. किं चेहवाहि मेया दसहावीमं परूवयं समए । ओहेण तपिस भेयाणमभिन्नरूवं तु ॥ श्रा. प्र. ५२. इसकी टीकामें श्री हरिभद्रसूरिने 'यथोक्तं प्रज्ञापनायाम्' लिखकर पद्मवणाकी उक्त गाथाको उद्धृत किया है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आत्मानुशासनम् . ... श्री गुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनके समान उत्तरपुराणमें भी इन दस सम्यक्त्वके भेदोंकी प्ररूपणा की है१ । इसके उतरकालीन ग्रन्थोंमें ये दस भेद प्राय: आत्मानुशासनके उक्त १० वें श्लोकको उद्धृत करके प्ररूपित हुए देखे जाते हैं२ । आत्मानुशासन और सुभाषितत्रिशती योगिराज श्री भर्तृहरिने सुभाषितरूपसे शतकत्रयकी रचना की है। इनमें प्रथम सौ श्लोकोंमें नीति, आगे सौ श्लोकोंमें शृंगार तथा अन्तिम सौ श्लोकोंमें वैराग्यका वर्णन किया है । रचना प्रौढ, अलंकारोंसे अलंकृत एवं आकर्षक है । आत्मानुशासनकी रचनामें श्री गुणभद्राचार्यने इसका उपयोग किया है, ऐसा ग्रन्थके अन्तःपरीक्षणसे प्रतीत होता है । यथा-- ___ आत्मानुशासनम जो 'नेता यत्र३ बृहस्पतिः' इत्यादि श्लोक (३२) आया है वह तथा 'यदेतत् स्वच्छन्द' आदि श्लोक (६७) भी उपर्युक्त सुभाषितत्रिशतीमें (नी. श. ८१ और वै. श. ८२) जैसाका तैसा उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही श्लोकों में शब्द, अर्थ अथवा दोनोंसे भी समानता पायी जाती है । जैसे श्लोक १२७ मे स्त्रीस्वभावका वर्णन करते हुए उन्हें सर्पसे भी भयानक बतलाया है । हेतु यह दिया है कि सर्प तो क्रुद्ध होकर किसी विशेष समयमें ही काटता है तथा उसके विषकी विनाशक औषधियां भी बहुत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त उसके काट लेनेपर एकमात्र इसी जन्ममें कष्ट होता है। परन्तु स्त्रियां क्रोध और प्रसन्नता दोनों ही अवस्थाओं १. उत्तरपुराण ७४, ४३९-४९. २. यशस्तिलक (उत्तर खण्ड) पृ. ३२३, श्रुतसागरसूरिविरचित तत्वार्थवृत्ति १-७.; एवं दर्शनप्रामृतटीका गा. १२.; पण्डितप्रवर श्री आशाधरजीने एक स्वतन्त्र श्लोकके द्वारा इन दस भेदोंका उल्लेख किया है आज्ञा-मार्गोपदेशार्थ-बीज-संक्षेप-सूत्रजाः । विस्तारजावगाढासौ परमा वशति दृक् ॥ अ. घ. २, ६२. ३. नि. सा. द्वारा मुद्रित प्रथम गुच्छक, 'यस्य' पाठ है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना में काटती हैं-प्राणियोंको संतप्त करती हैं, तथा उनके विषकी विनाशक कोई औषधि भी नहीं है। इसके अतिरिक्त उनके काटनेपर इस लोक और पर लोक दोनोंमें ही प्राणियोंको संताप होता है । दूसरे, वे उन महान् ऋषियोंको१ भी काटती हैं-मोहित करती हैं- कि जिनसे सर्प भी भयभीत रहा करते हैं । अब शृंगारशतकका यह श्लोक भी देखिये अपसर सखे दूरादस्मात् कटाक्ष-विषानलात् प्रकृतिविषमाद्योषित्साद्विलास-फणाभृतः । इतरफणिना दष्टः शक्यश्चिकित्सितुमौषधैश्चतुरवनिता-भोगिग्रस्तं त्यजन्ति हि मन्त्रिणः ॥५२॥ इसमें भी स्त्रीको सर्पके समान बतलाकर उसे स्वभावतः कुटिल, कटाक्षरूप विषाग्निकी ज्वालासे संयुक्त और विलासरूप फणको धारण करनेवाली कहा है । साथमें यह भी बतलाया है कि लोक प्रसिद्ध सर्पके द्वारा काटे गये प्राणीकी औषधियोंके द्वारा चिकित्सा भी की जा सकती है,परन्तु चतुर स्त्रीरूप सर्पके द्वारा काटे गये प्राणीको असाध्य समझकर मान्त्रिक जन भी छोड देते हैं । इसलिए हे मित्र ! तू उक्त स्त्रीरूप सर्पसे दूर रह । श्लोक १२९ में स्त्रियोंको सरोवरके समान निर्दिष्ट करके उन्हे हास्यसे निर्मल एवं तरंगोंके समान अस्थिर सुखको उत्पन्न करनेवाले जलसे परिपूर्ण तथा मुखरूप कमलोंसे बाह्यमें रमणीय बतलाया है । साथ ही यह भी सूचना कर दी है कि वहां पानी पीनेकी इच्छा करनेवाले बहुत-से अज्ञानी जन किनारेपर ही भयानक विषयोंरूप मगरमत्स्योंके ग्रास बनकर नष्ट हो चुके हैं और फिर वहांसे नहीं निकले हैं। यह आशय प्रायः शृंगार-शतकके निम्न श्लोकमें देखा जाता है १, विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो वाताम्बु-पर्णाशनास्तेपि स्त्रीमुख-पङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यः प्लवेत् सागरे ॥g .श. ८.. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् उन्मीलत्त्रिवली तरंगनिलया प्रोत्तुङगपीनस्तनद्वन्द्वेनोद्गतचक्रवाकयुगला वक्त्राम्बुजोद्भासिनी । कान्ताकारधरा नदीयमभितः क्रूरात्र नापेक्ष्यते संसारार्णवमज्जनं यदि तदा दूरेण संत्यज्यताम् ||४९|| अर्थात् स्त्रीके आकारको धारण करनेवाली यह क्रूर नदी उत्तन होनेवाली त्रिवलीरूप तरंगोंसे सहित, स्तनोंरूप चक्रवाक पक्षियुगलसे संयुक्त और मुखरूप कमलसे शोभायमान है । इसलिये यदि संसाररूप समुद्र में निमग्न होनेकी इच्छा नहीं है तो उसे दूरसे ही छोड़ देना चाहिये आगे १३०वें श्लोकमें बतलाया है कि दुष्ट इन्द्रियरूप शिकारियोंके द्वारा मनुष्यरूप मृगादिकों के निवासस्थानके चारों ओर प्रज्वलित की गई रागरूप अग्निसे संतप्त होकर ये मनुष्यरूप मृगरक्षाकी इच्छा से स्त्री मिषसे बनाये गये कामरूप व्याधके घातस्थानको प्राप्त होते हैं । इसके सदृश श्रृंगारशतकमें यह श्लोक उपलब्ध होता है-विस्तारितं मकरकेतनधींवरेण स्त्रीसंज्ञितं बडिरामत्र भवाम्बुराशौ । येनाचिरात्तदधरामिषलोलमर्त्य-मत्स्यान् विकृष्य विपचत्यनुरागवन्हौ । ५३ । इसका अभिप्राय यह है कि कामरूप धीवरने मनुष्योंरूप मत्स्योंको फंसाने के लिये इस संसाररूप समुद्रमें स्त्रीनामधारी कांटेको विस्तृत किया। उसके द्वारा वह स्त्रीरूप कांटेको अधरोष्ठरूप मांसखंडके लोलुपी मनुष्योंरूप मछलियोंको शीघ्र ही पकड़कर उन्हें अनुरागरूप अग्नि में पकाता है । Po इन दोनों श्लोकों के तात्पर्यमें कोई भेद नहीं है । विशेषता यदि है तो वह इतनी हीं है कि जहां आत्मानुशासन में स्त्रीको कामरूप व्याधके द्वारा निर्मित मनुष्यरूप मृगोंका घातस्थान बतलाया गया हैं वहां श्रृंगारशतकमें उसे कामरूप धीवर के द्वारा विस्तारित ऐसा मनुष्यरूप मछलियोंको फसानेवाला कांटा बतलाया गया है । आत्मानुशासनके उपर्युक्त श्लोकमें इन्द्रियोंको रागरूप अग्निको जलाकर मनुष्योंको सन्तप्त करनेवाले शिकारियोंके समान बतलाया है । वे इन्द्रियां किस प्रकारसे रागको उत्पन्न करती हैं, इसके लिये श्रृंगारशतकका यह श्लोक - देखिये -- Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं स्फुरित परिमलोऽसौ स्पर्श एष स्तनानाम् । इति हतपरमार्थरिन्द्रियैर्धाम्यमाणः स्वहितकरणधूर्तेः पञ्चभिर्वञ्चितोऽस्मि ।। ५६ ॥ अर्थात् स्त्रियोंमें कानोंको सुखप्रद मधुरगीत, नेत्रोंको मुग्ध करनेवाला यह नृत्य, जिव्हाको सन्तुष्ट करनेवाला यह रस (अधरामृत) नासिकाको मुदित करनेवाला वह कर्पूरादिके लेपनका सुन्दर गन्ध और यह स्पर्शन इन्द्रियको हर्षित करनेवाला स्तनोंका स्पर्श है । इस प्रकार मानकर परमार्थसे पराङ्मुख हुई इन धूर्त पांचों इन्द्रियोंके द्वारा भ्रमणको प्राप्त अपने अपने विषययें आसक्त-कराया जानेवाला मैं ठगा गया हूं। श्लोक १५१ में साधुको लक्ष्य करके यह कहा गया है कि तेरे पास गृहके स्थानमें रहनेके लिये गुफायें विद्यमान हैं, पहिननेके लिये दिशारूप वस्त्र है,इष्ट भोजन तपकी वृद्धि है,अर्थ [धन के स्थानमें आगमका अर्थ (रहस्य ) है,तथा कलत्रके स्थानमें उत्तमोत्तम गुण हैं। इस प्रकार तेरे लिये मांगनेके कुछ भी शेष नहीं है । अतएव तू व्यर्थमें याचनाको प्राप्त न हो। इसकी तुलना वैराग्यशतकके इस श्लोकसे कीजिये-- पाणिः पात्रं पवित्रं नमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी । येषां निःसंगताङगीकरणपरिणतस्वान्तसंतोषिणस्ते धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ॥९९।। यहां भी यही बतलाया है कि जिन साधुओंके पास अपना हाथ ही पवित्र पात्र है, भ्रमणसे प्राप्त हुआ भैक्ष भोजन है, विस्तृत दश दिशायें वस्त्र हैं, तथा पृथिवी ही स्थिर व विशाल शय्या है; इस प्रकार जो अपरिग्रह व्रतको स्वीकार करनेसे परिपक्व अवस्थाको प्राप्त हुए अपने मनसे सन्तुष्ट रहते हैं और इसीलिये जिन्होने दीनताको उत्पन्न करनेवाले व्यतिकरका परित्याग कर दिया है ऐसे वे साधू धन्य हैं और वे ही कर्मका निर्मूलन करतें हैं। --....... Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मानुशासनम् श्लोक २६० में कहा गया है कि जो साधु अतिशय वृद्धिंगत तपके प्रभावसे प्राप्त हुई ज्ञान-ज्योतिके द्वारा अन्तस्तत्त्वको जानकर प्रसन्नताको प्राप्त हैं तथा वनके भीतर ध्यानावस्थामें हरिणियों के द्वारा विश्वासपूर्वक देखे जाते है वे साधु धन्य हैं । ऐसे ही धीर साधु अपने अलौकिक आचरणके द्वारा चिरकाल तक दिनोंको बिताया करते हैं । अब वैराग्यशतकके इस श्लोकको भी देखिये गङगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य । किं तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशङ्काः कण्डूयन्ते जरठहरिणाः स्वाङ्गमङ्गे मदीये ॥९८॥ यहां योगी विचार करता है कि गंगा नदीके किनारे हिमालय पर्वतकी शिलाके ऊपर पद्मासनसे स्थित होकर आत्मध्यानके अभ्यासकी विधिसे योगनिद्राको प्राप्त हुए मेरे क्या वे उत्तम दिन कभी नहीं होंगे कि जिनमें वृद्ध हिरण निर्भय होकर मेरे शरीरसे अपने शरीरको खुजलावेंगे । उपर्युक्त दोनों ही श्लोकमें ध्यानको वह उत्कृष्ट अवस्था निर्दिष्ट की गई है कि जिसमें निर्भय एवं निरीह योगीके स्थिर शरीरको देखकर हिरण हिरणियोंको यह कल्पना भी नहीं होती है कि यह कोई मनुष्य है। इसीलिए वे निर्भय होकर अपने शरीरको उसके शरीरसे रगडने लगते हैं । इसी प्रकार आत्मानुशासनके २५९वें श्लोकमें जिस निर्ममत्व एवं समताभावको अंकित किया गया है वह वैराग्यशतकके ९१ और ९४-९६ श्लोकोंमें दृष्टिगोचर होता है। आत्मानुशासन और आयुर्वेद प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता श्री गुणभद्राचार्य केवल सिद्धान्त एवं न्यायव्याकरणादि विषयों में ही पारंगत नहीं थे,बल्कि वे आयुर्वेदके भी अच्छे ज्ञाता थे; यह उनके इसी ग्रन्थसे सिद्ध होता है । उन्होंने ग्रंथके प्रारंभमें यह कह दिया है कि यहां जो उपदेश दिया जा रहा है वह यद्यपि सुनके समय कुछ कटुक प्रतीत होगा, तो भी उसका फल मधुर होगा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसलिये जिस प्रकार रोगी मनुष्य तीक्ष्ण (अतिशय कडवी) औषधिसे भयभीत नहीं होता है उसी प्रकार आत्महितैषी भव्य जीवोंको इससे भयभीत नहीं होना चाहिये। __आगे श्लोक १६.१७ में मिथ्यात्वरूप घातक व्याधिसे पीडित भव्य जीवकी अज्ञान बालकके समान सुकुमार क्रिया करनेका निर्देश करके यह बतलाया है कि जिस प्रकार विषम भोजनसे उत्पन्न हुए ज्वरसे पीडित एवं तीव्र प्यासका अनुभव करनेवाले क्षीणशक्ति रोगीके लिये सुपाच्य पेय (दूध व फलोंका रस आदि) आदिकी व्यवस्था हितकर होती है उसी प्रकार विषयसेवनसे उत्पन्न मोहसे संयुक्त होकर तीव्र विषयतृष्णाजनित संतापको प्राप्त हुए तेरे लिये पेयादिके समान अणुव्रतादिका आचरण ही हितकर होगा। __ श्लोक १०८ में कहा गया है कि परिग्रहका त्याग विवेकबुद्धिसे मोहके नष्ट करनेवाले जीवको इस प्रकारसे अजर-अमर कर देता है जिस प्रकार कि कुटीप्रवेश क्रिया शरीरको विशुद्ध करके प्राण को अजर-अमर (दीर्घायु) कर देती है। ___ यह कुटीप्रवेश क्रिया क्या है, इसके लिये आयुर्वेद ग्रन्थोंमें कहा गया है कि रसायनोंका प्रयोग दो प्रकारका होता है कुटीप्रावेशिक और वातातपिक । इनमें कुटीप्रावेशिक मुख्य हैं । कुटीका अर्थ झोपडी होता है । तदनुसार आयुर्वेदिक उपकरणोंकी सुलभता युक्त नगरके भीतर किसी ऐसे भवनमें, जहां न वायुका संचार हो और न भयके कारण भी विद्यमान हों, उत्तरदिशागत उत्तम स्थानमें एकके भीतर दूसरी और दूसरीके भीतर तीसरी इस प्रकार तीन कोठरियोंवाली कुटीकी रचना करना चाहिये। यह कुटी छोटे गवाक्षों (झरोखों) से सहित; धुआँ, धूप, धूलि, सर्प, स्त्री 'एवं मूर्ख जन आदिसे रहित; वैद्यके उपकरणों (औषधियां आदि) से सुसज्जित तथा साफ-सूथरी होना चाहिये । जो व्यक्ति उस क्रिया करानेका इच्छुक है उसे किसी शुभ दिनमें पूज्य गुरुजनोंकी पूजा करके उस कुटीके भीतर प्रवेश करना चाहिये । उक्त रसायनके अभिलाषी व्यक्तिको पवित्र, सुखी, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् बलवान् ब्रह्मचारी, धैर्यशाली, श्रद्धालु, जितेन्द्रिय एवं दानादि धर्मकार्यो मे तत्पर होना चाहिये । साथ ही उसका औषधिमें अनुराग भी होना चाहिये १ । रसायन प्रारम्भ करानेके पूर्व में हरीतकी ( हरड ) आदिके विरेचनद्वारा मलस्थितिके अनुसार तीन, पांच अथवा सात दिन तक उसको कोष्ठशुद्धि कराना चाहिये तत्पश्चात् प्रारम्भ कराना चाहिये | रसायनका अर्थ होता है श्रेष्ठ रस- रुधिरादिककी प्राप्तिका उपाय | इस रसायन के उपयोगसे मनुष्यको दीर्घ आयु, स्मृति, मेघा, आरोग्य, तारुण्य एवं तेज आदिकी प्राप्ति होती है२ । ९४ 1 प्रकृत रसायनोंमें अनेक प्रकारके लेह आदि योगोंकी विधि, उनके उपयोग और उससे प्राप्त होनेवाले फलका पृथक् पृथक् विवेचन आयुर्वेद ग्रन्थोंमें उपलब्ध होता है ३ । श्लोक १८३ में मोंहको व्रणके समान बतलाकर यह कहा गया है। कि जिस प्रकार पुराना, शनि आदि गहके दोष से उत्पन्न, गहरा, गतियुक्तशरीर के भीतर जाकर फैलनेवाला और सरुज् ४ ( पीडाप्रद ) फोडा जात्यादि १. रसायनानां द्विविधं प्रयोगमृषयो विदुः । कुटीप्रावेशिकं मुख्यं वातात पिकमन्यथा ॥ निर्वाते निर्भये हर्म्ये प्राप्योपकरणे पुरे । दिश्युदीच्यां । शुभे देशे त्रिगर्भा सूक्ष्मलोचनाम् ॥ धूमातप- रजोव्यालस्त्री मूर्खाद्यविलङ्घिताम् । सज्जवैद्योपकरणां सुमृष्टां कारयेत् कुटी ॥ अथ पुण्येहि संपूज्य पूज्यांस्तां प्रविशेच्छुचिः । तत्र संशोधनैः शुद्धः सुखी जातवलः पुनः ॥ ब्रह्मचारी धृतियुतः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः दान. शील- दयासत्य- व्रत- धर्मपरायणः ॥ देवतानुस्मृतौ युक्तो युक्तस्वप्न- प्रजागरः । प्रियौषधः पेशलबाक् प्रारभेत रसायनम् ।। अष्टाङ्गहृदय ३९, ५-१०. २. दीर्घमायुः स्मृति मेघमारोग्यं तरुणं वयः । प्रभा- वर्ण-स्वरौदायं देहेन्द्रियबलोदयम् ।। वासिद्धि कृषतां कान्तिमवाप्नोति रसायनात् । लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् ॥ अ.हृ. ३९, १-२. ३. इन रसायनोंका वर्णन वाग्भटविरचित अष्टाङ्गहृदय ( अ. ३९ ) में श्लोक १५-१४४ में पाया जाता है। -- ४. सरुज् व्रणका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया हैश्यामं सशोफं पिटिकान्वितं च मुहुर्मुहुः शोणितबाहितं च । मृद्गतं बुद्बुदृतुल्यमासं व्रणं सशल्यं सरुजं वदन्ति ॥ योगरत्नाकर २, पृ. २९६. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ९५ घृत अथवा तेलसे शुद्ध होकर भर जाता है उसी प्रकार चिरकालीन, परिग्रहकी ममता से उत्पन्न, महान्, नरकादि गतियोंसे संयुक्त और पीडा. प्रद मोह भी परिग्रहपरित्यागसे शुद्ध होता है । यहां निर्दिष्ट किये गये जात्यादि घृतका विधान आयुर्वेद में इस प्रकार उपलब्ध होता है-जाती पत्र-पटोल- निम्बकटका दार्वी निशा सारिवामञ्जिष्ठामथ तुत्थ- सिक्थ- मधुकैर्न क्ताण्हबीजा न्वितैः । सपि.सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः स्राविणो गम्भीराः १ सरुजो व्रणाः सगतिकाः शुद्धयन्ति रोहन्ति च ॥ ( योगरत्नाकर (मराठी अनुवाद सहित ) २, पृ. २९२. अर्थात् जाती के पत्ते, कटु परवल, कटु नीमकी छाल, कुटकी, दारु, हलदी, सरिवन, मंजीठा, हरड, तृतीया, मैन, मुलहठी और कंजी के बीज; इन सबसे सिद्ध किये गये घृतसे सूक्ष्म मुख ( छेद ) वाले, मर्मपर उत्पन्न हुए, बहनेवाले, गहरे घाववाले, ठाकनेवाले और भीतर फैलनेवाले व्रण ( घाव ) शुद्ध होकर भर जाते हैं । इस घृतकी उपर्युक्त औषधियों में चूंकि सर्वप्रथम जातीके पत्तोंका उल्लेख किया गया है, अतएव इसे जात्यादिघृत कहा जाता है । इन्हीं औषधियोंमें कुछ कुष्ठ आदि अन्य औषधियोंको मिलाकर उन्हें तेल में पकानेपर नात्यादितेल बनता है जो विषव्रज, फोडा, खुजली, कण्डू, विसर्प तथा कीडेके काटने, शस्त्रप्रहार एवं जलने आदिसे उत्पन्न हुए कितने ही प्रकार के घावोंमें उपयोगी होता है २ । १. यह अन्तिम चरण विशेष ध्यान देने योग्य है । इसकी समानता आत्मानुशासनके उक्त इलोकसे देखिये पुराणो ग्रहदोषोत्थो गम्भीरः सगतिः सरुक् । त्यागजात्यादिना मोह-व्रणः शुद्धयति रोहति ॥ १८३ ॥ २. जाती- निम्ब- पटोलानां नवतमालस्य पल्लवाः । सिक्थकं मधुकं कुष्टं द्वे निशे कटुरोहिणी ।। मञ्जिष्ठा पद्मकं लोध्रमभया नीलमुत्पलम् । तुत्थकं सारिवाबीजं नक्तमालस्य च क्षिपेत् ॥ एतानि समभागानि पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् । विषव्रणसमुत्पत्तौ स्फोटेषु च सकच्छुषु ।। कण्डू-विसर्परोगेषु कीटदष्टेषु सर्वथा । सद्यः शस्त्रप्रहातेषु दग्ध - विद्ध-क्षतेषु च ॥ नख दन्तक्षते देहे दुष्टमांसावघर्षणे । क्षणार्थमिदं दैलं हितं शोधन-रोपणम् ॥ योगरत्नाकर २, पृ. ३०१. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE आत्मानुशासनम् . श्लोक. १३३ में नारीके जघनरन्ध्रको कामदेवके आयुध (बाण) जन्य नाडीव्रणके समान निर्दिष्ट किया गया है। इस नाडीव्रणका स्वरूप आयुर्वेदमें इस प्रकार पाया जाता है-. यः शोफमाममतिपक्वमुपेक्षतेऽज्ञो यो वा व्रणं प्रचूरपूयमसाधुवृत्तः । अभ्यन्तरं प्रविशति प्रविदार्य तस्य स्थानानि पूर्वविहितानि ततः स पूयः।। तस्यातिमात्रगमनाद्गतिरिष्यते तु नाडीव यद्वहति तेन मता तु नाडी। ___ योगरत्नाकर २, पृ. ३१३. इसका अभिप्राय यह है कि जो अज्ञानी एवं असाधु आचरण करनेवाला वैद्य अतिशय पके हुए सूजनयुक्त फोडोको बच्चा समझकर उपेक्षा करता है तथा बहुत पीववाले घावकी भी उपेक्षा करता है उसकी पीव चूंकि पूर्वोक्त स्थानों (त्वचा, मांस, शिरा, स्नायु, सन्धि, हड्डी और मर्म) में अतिशय मात्रामें गति करती है- जाती हैइसलिये उसे गति माना जाता है तथा चूंकि वह नाडीके समान बहता है इसलिये उक्त व्रणको नाडी भी माना जाता है। , इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत उपर्युक्त स्थलोंको देखते हुए यह भली भांति सिद्ध होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता श्री गुणभद्राचार्य आयुर्वेदके भी अच्छे ज्ञाता थे और उसका प्रभाव उनके इस ग्रन्थपर भी पर्याप्त मात्रामें पड़ा है। आत्मानुशासनके काव्यगुण किंवदन्ती है कि जब आचार्य जिनसेन स्वामीको अपने स्वर्गवासका समय निकट आता दिखा तब उन्हें अपने प्रारम्भ किये हुए महापुराणके पूर्ण होनेकी चिन्ता हुई। उस समय उन्होंने अपने योग्य दो शिष्योंको बुलाकर उनकी योग्यताको परीक्षा करते हुए उन्हें संस्कृतमें अनूदित करनेके लिये यह वाक्य दिया- सूखा वृक्ष सामने है। इसका अनुवाद एकने 'शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे' तथा दूसरेने ‘नीरसतरुरिह विलसति पुरतः' इस रूपसे किया । दूसरा अनुवाद प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता श्री गुणभद्राचार्यका था जो सरस एवं ललित पदयुक्त होनेसे आकर्षक था। उसे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना देखकर जिनसेंनाचार्यको यह विश्वास हो गया कि मेरा यह सुयोग्य शिष्य अपनी प्रतिभा के बलपर इस महापुराणको अवश्य पूरा करेगा । तदनुसार उन्होंने उसे पूरा किया भी है । उपर्युक्त लोकश्रुति में कदाचित् ऐतिहासिक दृष्टिसे सत्यांश भले ही सम्भव न हो, परन्तु इस सत्यमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है कि प्रस्तुत ग्रन्थके निर्माता गुणभद्र उच्च कोटिके प्रतिभासम्पन्न कवि थे । उनकी यह कृति आध्यात्मिक होकर भी उत्कृष्ट काव्यके अन्तर्गत है । कवि सम्प्रदाय में काव्यका लक्षण यह किया जाता है साधुशब्दार्थसंदर्भ गुणालंकार भूषितम् । स्फुटरीति- रसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥ ९७ रहित शब्दोंकी अर्थात् जिस रचना में अनर्थकत्व आदि दोषसे तथा देशविरुद्धत्व आदि दोषसे रहित अर्थकी योजना की गई हो, जो औदार्य आदि गुणों एवं अनुप्रासादिरूप शब्दालंकारो और उपमा-रूपकादिस्वरूप अर्थालंकारोंसे अलंकृत हो, तथा प्रगट रीति व रसों से सुशोभित हो वह काव्य कहलाता है और वही कविकी. कमनीयकीर्तिको दिगदिगन्तमें विस्तृत करता है । : आ. प्र. ७ काव्यका यह लक्षण प्रकृत आत्मानुशासन में सर्वथा घटित होता है । उसमें की गई शब्द और अर्थकी योजना निर्दोष है । वह गुणोंसे भी शून्य नहीं है - वहां विविध स्थलोंमें औदार्य, प्रसत्ति एवं ओज आदि गुण भी पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त वह अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतप्रशंसा, श्लेष, विभावना एवं अर्थान्तरन्यास आदि अनेक अलंकारोंसे अलंकृत एवं रीति और रससे भी संयुक्त है । तथा उसमें जहां तहां विविध प्रकारके उपर्युक्त छन्दोंका भी उपयोग उत्तम रीतिसे किया गया है । उदाहरणस्वरूप इस श्लोक को देखिये - यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ आत्मानुशासनम् विहित हितमिताशी क्लेशजालं समूलं दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।। २२५ ॥ इसमें सरस अर्थ और पदोंकी योजना की गई है, अतएव यह माधुर्य गुणसे विभूषित है । साथ ही वह यम-नियम, नितान्त शान्त अन्तरात्म, विहित-हित- मिताशी, जालं समूलं, तथा दहति निहत इत्यादि समान श्रुतिवाले अक्षरोंकी पुनरावृत्तिसे सहित होने के कारण अनुप्रासालंकारसे अलंकृत है । यह अनुप्रासालंकार तो प्रायः समस्त ग्रन्थ में ही देखा जाता है । यह उन गुणभद्रकी भद्र वाणीकी विशेषता है। इस अनुप्रासका यह दूसरा भी स्थल देखिये -- प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ ५ ॥ इस श्लोक में प्रायः प्रत्येक विशेषण के प्रारम्भ में 'प्र' का प्रयोग ast सुन्दरता के साथ किया गया है । इस शब्द कौशल्य के साथ अर्थकी विशेषता भी अतिशय ग्राह्य है १ । उपमालंकारका उदाहरण देखिये -- व्यापत्पर्वममं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं विश्वक् क्षुत्क्षतपातकुष्ठकुथिताद्युग्रामयैश्छिद्रितम् । मानुष्यं घुण भक्षितेक्षुसदृशं नाम्नैकरम्यं पुनः निः सारं परलोकबीजमाचरात् कृत्वेह सारीकुरु ॥। ८१ ।। यहां मनुष्य पर्यायको घुणभक्षित इक्षुकी उपमाको ऐसे श्लेषात्मक विशेषणपदोंके द्वारा पुष्ट किया गया है जो दोनों ओर घटित होते हैं२ । १. अनुप्रास शब्दालंकारके उदाहरणस्वरूप अन्य भी मित्र निम्न श्लोक देखे जा सकते हैं -- ५७,६१,८९,९१,१०१ आदि । २. उपलंकारसे विभूषित निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य हैं—६३,७७ १२०,१२१,१२३,१२९, १७८ आदि । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह अतिशयोक्तिसे अनुप्राणित अर्थान्तरन्यास अलंकारका उदाहरण है-- क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनस्त्रिभिः परिवृतमतः खेनाधस्तात् खलासुरनारकान् । उपरिदिविजान् मध्ये कृत्वा नरान् विधिमन्त्रिणा पतिरपि नृणां त्राता नको ह्यलयतमोऽन्तकः ॥ ७५ ॥ यहां विधि-मन्त्रीके द्वारा मनुष्योंके संरक्षणके लिए उक्त सामग्रीकी योजनाकी कल्पना असम्बन्ध सम्बन्धरूप अतिशयोक्ति अलंकार है और उसीके द्वारा ' ह्यलयतमोऽन्तक: ' उक्तिकी सिद्धि की गई है, जिससे यहां अर्थान्तरन्यास अलंकार १ बना है। जन्म-तालद्रुमाज्जन्तु-फलानि प्रच्युतान्यधः । अप्राप्य मृत्यु-भूमागमन्तरे स्युः कियच्चिरम् ॥ ७४ ।। यह रूपकालंकारसे अलंकृत है२ । पलितच्छलेन देहान्निर्गच्छति शुद्धिरेव तव बुद्धः । कथमिव परलोकार्थ जरी वराकस्तदा स्मरति ॥ ८६ ॥ यहां पलितको छल कहकर बुद्धिके नेमल्यकी कल्पना की जानेसे अपन्हुति अलंकार समझना चाहिये३ ।। पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि । पश्चात् पादोऽपि नास्प्राक्षीत् किं न कुर्याद् गुणक्षतिः॥१३९।। यहां अप्रकृत पुष्पोंकी गुणहीनताको दिखलाकर तपोभ्रष्ट साधुओंकी निन्दा की गई है,अतएव यह अप्रस्तुतप्रशंसालंकारसे अलंकृत है।। १. अर्थान्तिरन्यासके ये उदाहरण भी देखे जा सकते हैं- ४४, ७६,९३,११८,११९,१३६,१३९ आदि । २. रूपकालंकारके अन्य भी उदाहरण सुलभ हैं । यथा-८७, . १३२,१७०,१८३ आदि । ३. अपन्हुतिके उदाहरण स्वरूप १२६ आदि अन्य भी श्लोक देखने योग्य हैं। ४. इसके श्लोक १४० आदि अन्य भी उदाहरण हैं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आत्मानुशासनम् यह विभावनालंकारका उदाहरण देखियेअभुक्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमाशितं । येन चित्रं नमस्तस्मै कौमारब्रह्मचारिणे ।। १०९ । यहां भोजनरूप कारणके विना भी उच्छिष्टरूप कार्यके दिखला नेसे विभावना अलंकार समझना चाहिये। यहां श्लेषालंकारका भी चमत्कार है । यह श्लेषालंकारका भी उदाहरण देखिये --- यस्मिन्नस्ति स भूभृतो धृतमहावंशाः प्रदेशः परः प्रज्ञापारमिता धृतोन्नतिधना मूर्ध्ना धियन्ते श्रियै । भूयांस्तस्य भुजंगदुर्गमतमो मार्गों निराशस्ततो व्यक्तं वक्तुमयुक्तमार्यमहर्ता सर्वार्थसाक्षात्कृतः ॥ ९६ ॥ यहां श्लेषरूपसे भाण्डागार और धर्म इन दोनोंका स्वरूप दिखलाया गया है। इस प्रकारसे यह आत्मानुशासनरूप कृति अनेक उत्तमोत्तम अलंकारोंसे अलंकृत होनेसे अतिशय मनोहर है । % Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ v विषय-सूची विषय श्लोक मंगलपूर्वक आत्मानुशासनके कथनकी प्रतिज्ञा दुखसे भयभीत प्रागियोंके लिये दुःखापहारी शिक्षा देनेकी सूचना २ यदि इस शिक्षामें तत्काल कटुता भी प्रतीत हो तो भी उससे भयभीत न होनेकी प्रेरणा संसारसे उद्धार करानेवाले उपदेशकोंकी दुर्लभता बक्ताका स्वरूप श्रोताका स्वरूप पाप-पुण्यका फल सुखके मूल कारणभूत आप्तके आश्रयणकी आवश्यकता सम्यग्दर्शनका स्वरूप व उसके भेदादि सम्यग्दर्शनके १० भेद और उनका स्वरूप सम्यग्दर्शनके विना शमादिकोंकी निरर्थकता हिताहितप्राप्ति-परिहारसे अनभिज्ञ शिष्यके लिये बालकके __ समान सुकुमार क्रिया करनेकी सूचना उक्त सुकुमार क्रियाका स्पष्टीकरण . सुख व दुख दोनों ही अवस्थाओंमें धर्मकी आवश्यकता इन्द्रियसुखके लिये भी धर्मका संरक्षण आवश्यक धर्म सुखका विघातक है, इस शंकाका निराकरण किसानके समान धर्मरूपी बीजका संरक्षण करते हुए ही - भोगोंका अनुभव करना चाहिये कल्पवृक्ष आदिकी अपेक्षा धर्मकी उत्कृष्टता पुण्य-पापके कारण निज परिणाम ही हैं धर्मका विघात करके विषयसुखका भोगना वृक्षकी जडोंको उखाडकर उसके फलग्रहणके समान है मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिमें वह धर्म कृत, कारित और अनुमोदनासे सरलतापूर्वक संग्राह्य है धर्मके विना पिता-पुत्र भी एक दूसरेका घात करते देखे जाते हैं २६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आत्मानुशासनम् पापका कारण सुखानुभव नहीं, किन्तु धर्मविघातक आरम्भ है मृगया (शिकार) आदिको सुखप्रद न मानकर धर्माचरणको ही सुखप्रद समझना चाहिये मृगयामें कठोरताका दिग्दर्शन पिशुनता ( परनिन्दा) व दीनता आदि उभय लोकोंमें अहितकारक हैं पुण्य निरुपद्रव वैभवका कारण है पुरुषार्थ की निरर्थकतामें इन्द्रका उदाहरण निःस्वार्थ पुण्यकार्यो के कर्ता कितने ही आज भी विद्यमान हैं क्षुद्र इन्द्रियसुख के पीछे पिता-पुत्र भी एक दूसरेको धोखा देते हैं, किन्तु वे अनिवार्य मृत्युको नहीं देखते विषयान्धताकी सदोषता प्राणीकी इच्छापूर्ति असम्भव है विवेकी जन इष्ट सामग्रीका कारण पुण्यको मानकर परभवके सुधारनेका प्रयत्न करते हैं विषयाधीन प्राणीकी विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है प्राणीकी भोगशक्तिके परिमित होनेसे ही यह विश्व बचा हुआ है, अन्यथा तृष्णा तो उसकी अपरिमित है ग्रहण करनेके पूर्व ही परिग्रहका परित्याग श्रेयस्कर है गृहस्थाश्रम हितकर नहीं है यथार्थ सुख तृष्णाका निग्रह करनेपर ही प्राप्त होता है तृष्णायुक्त प्राणीका सुख सुखाभास ही है दैवकी प्रबलताका उदाहरण न्यायपूर्वक धनका संचय संभव नहीं है यथार्थ धर्म, सुख व ज्ञानका स्वरूप धनसंचयकी कष्टसाध्यता अभ्यन्तर शान्तिका कारण राग-द्वेषका परित्याग ही है यदि प्राणी आत्मशक्तिका अनुभव करे तो शीघ्र ही उस तृष्णा नदी के पार हो सकता है २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पापशान्तिकें विना अभ्यन्तर शान्ति असंभव है कामी पुरुष क्या क्या निन्द्य कार्य करता है विषयभोगोंकी अस्थिरता स्त्रियोंके वशीभूत होनेपर जो कष्ट होता है वह स्मरणीय है। संसारी प्राणीकी स्थिति तृष्णायुक्त प्राणीकी तृष्णा तो शान्त नहीं होती, केवल वह संक्लेशको ही प्राप्त होता है गृह, बन्धु, स्त्री, पुत्र और धन ये सब विपत्तिके कारण हैं लक्ष्मीकी अस्थिरता शरीर जन्म-मरणसे सम्बद्ध है जीव इन्द्रियोंका दास न बनकर जब उन्हें ही दास बना लेता है तभी सुखी होता है इच्छानुसार विषयों की प्राप्ति में तृष्णा उत्तरोत्तर बढती हीं है मोहकृत निद्रा के वशीभूत होकर प्राणी यमके भयानक बाजों के शब्दको भी नहीं सुनता है ५७ उक्त मोहनिद्राके वश प्राणी संसारमें रहता हुआ क्या क्या सहता है ५८ शरीर बन्दीगृह के समान है ५९ ६०-१ ६२ ६३ धनी व निर्धन कोई भी सुखी नहीं है सुखी तपस्वी ही हैं तपस्विप्रशंसा शरीरसंरक्षण असम्भव है इन नश्वर आयु एवं शरीरादिकोंके द्वारा अविनश्वर पद प्राप्त किया जा सकता है १०३ दुर्बुद्धि प्राणी नश्वर आयु व शरीरके आश्रित रहकर भी भ्रान्तिवश अपनेको अविनश्वर मानता है ५० ५१ ५२. ५३ ५४ ५५ ५६ ६४ ६५ ६६ ६७-८ ६९ ७० ७१-२ ७४ दुःखरूप उच्छ्वास ही जीवन, और उसका विनाश ही मरण है ७३ जीव जन्म व मरणके मध्यमें कितने काल रह सकता है ब्रह्मदेव के द्वारा मनुष्योंके रक्षणका पूरा प्रबन्ध कर देनेपर भी उनकी रक्षा सम्भव नहीं ७५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आत्मानुशासनम् ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८३-४ विधिसे बलवान् कोई नहीं है जब विधि ही प्राणीको उत्पन्न करके स्वयं उसे नष्ट करता है तब उसकी रक्षा अन्य कौन कर सकता है यमराजका स्थान व काल आदि नियत नहीं है जीवोंकों मृत्युसे रहित स्थानादि देखकर वहां ही निश्चिन्ततापूर्वक रहना चाहिये स्त्रीशरीर प्रीतिके योग्य नहीं है मनुष्य पर्याय काने गन्नेके समान है शरीर में स्थिति बहुत कालतक सम्भव नहीं है बन्धुजनोंसे आत्महितकर कार्य सम्भव नहीं है धनरूप ईंधनसे तृष्णारूपी आग भडकती ही है, किन्तु अज्ञानी उसे उससे शान्त मानता है वृद्धावस्थामें धवल बालोंके मिषसे मानो उसकी बुद्धिकी निर्मलता ही निकलती है भयानक संसाररूप समुद्र में पडकर मोहरूप मगर-मत्स्यादिसे संरक्षण सम्भव नहीं है घोर तपश्चरणमें प्रवृत्त होनेपर जब शरीरको हरिणियां स्थल कमलिनी समझने लगें तब ही अपनेको धन्य समझना चाहिये ८८ बाल्यादि तीनों ही अवस्थाओंमें धर्मकी असम्भावना व कर्मकी क्रूरता ८९-९० घृणित वृद्धावस्थामें भी प्राणी निश्चिन्त रहकर आत्महितका विचार नहीं करता विषयी प्राणी 'अति परिचितमे तिरस्कार व नवीनमें अनुराग हुआ करता है' इस लोकोक्तिको भी असत्य प्रमाणित करना चाहता है व्यसनी जन भ्रमरके समान अविवेकी होते हैं बद्धिको पा करके प्रमाद करना योग्य नहीं है पनी व निर्धन अपने कर्मानुसार होते हैं, यह जानकर भी जो धनिकोंकी सेवा करते हैं उनपर खेदप्रकाशन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ विचार-सूची कृष्णराजके भाण्डागारके समान धर्मका स्वरूप सबको गम्य नहीं है परोपकारी यतिजन सदुपदेशों द्वारा भव्य जीवोंको शरीरादिसे विरक्त किया करते हैं ९७-८ गर्भावस्थामें स्थित प्राणीकी शोचनीय अवस्था आत्मघातक कायाको करनेवाले संसारी मिथ्यादृष्टि जीवोंको जो सुख प्राप्त होता है वह अन्धकवर्तकीय न्यायसे प्राप्त होता है कामकृत दुरवस्था तीन प्रकारके लक्ष्मीत्यागियोंमें तरतमता विरक्तिसे सम्पत्तिकें परित्यागमें आश्चर्य नहीं है, इसके लिये दृष्टान्त १०३ लक्ष्मीके परित्यागमें जहां अज्ञानीको शोक और पुरुषार्थीको विशिष्ट गर्व होता है वहा तत्त्वज्ञके वे दोनों ही नहीं होते १०४ विवेकी जन दुष्ट संगतिके समान शरीरके परित्यागमें __ खेदका अनुभव नहीं करते १०५ मिथ्याज्ञान एवं रागादि जनित प्रवृत्ति तथा तद्विपरीत प्रवृत्ति के फलका दिग्दर्शन दया-दम आदिके मार्ग में प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा सोदाहरण विवेकपूर्वक किये गये परित्यागका फल कौमार ब्रह्मचारीके नमस्कार । योगिगम्य परमात्माके रहस्यका निरूपण ११० तप व मोक्षकी प्राप्ति मनुष्य पर्यायमें ही सम्भव है समाधिकी सुलभता तपको छोडकर दूसरा कोई मनोरथका साधक नहीं है मनुष्य तापके संहारक तपमें क्यों नहीं रमता है. तपश्चरणपूर्वक शरीरको छोडनेवाले संन्यासीकी प्रशंसा वैराग्यके कारणभूत ज्ञानकी प्रशंसा - ११६-१७ कष्टसहनमें आदिनाथ जिनेन्द्रका उदाहरण ११८-१९ १०६ १०७ १०८ १०९ ११३ ११४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आत्मानुशासनम् संयमीके लिये दीपकका उदाहरण १२०-२१ आगमज्ञानसे जीव अशुभको छोडकर शुभमें प्रवृत्त होता हुआ शुद्ध हो जाता है, इसके लिये सूर्यका उदाहरण १२२ तप व श्रुतमें अनुराग रखता हुआ ज्ञानी जीव कैसे मुक्त हो सकता है, इसका उत्तर १२३-२४ मुक्तिपथिककी सामग्री १२५ इस मुक्तियात्रामें बाधक समझकर स्त्रीविषयक दोषोंका प्रदर्शन १२६-३० तपस्यासे घृणित अवस्थाको प्राप्त हुए शरीरके धारक साधु को स्त्रीविषयक अनुरागके छोडनेकी प्रेरणा स्त्रीके जघनरन्ध्रकी घृणित अवस्थाको दिखलाकर उसकी ओर आकृष्ट होनेवाले तपस्वियोंकी निन्दा १३२-३४ महादेवका उदाहरण देकर स्त्रीकी विषसे भी भयानकता का प्रदर्शन चन्द्र आदिकी समानताको धारण करनेवाले स्त्रीशरीरकी .अपेक्षा तो उन चन्द्र आदिसे ही अनुराग करना अच्छा है १३६ नपुंसक मन पुरुषको कैसे जीतता है १३७ राज्यकी अपेक्षा तप विशेष पूज्य है १३८ पुष्पोंको लक्ष्य करके तपोगुणसे भ्रष्ट हुए साधुओंकी निन्दा १३९ चन्द्रको लक्ष्य करके अनेक गुणयुक्त साधुके विद्यमान एक आध दोषकी निन्दा १४० दोषोंको आच्छादित करनेवाले गुरुको अपेक्षा तो उन्हें बढा चढाकर प्रगट करनेवाला दुर्जन ही श्रेष्ठ है १४१ गुरुके कठोर वचन भी भव्य जीवके मनको प्रफुल्लित करते हैं वर्तमानमें धर्मका आचरण तो दूर रहा, उसका उपदेश करनेवाले और सुननेवाले भी दुर्लभ हो गये हैं १४३ विवेकी जनके द्वारा प्रदर्शित दोष प्रीतिजनक तथा अविवेकी जनके द्वारा की गई स्तुति भी अप्रीतिकर होती है १४४ १४२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ १५२ विषय-सूची १०७ विद्वान् गुणकी अपेक्षासे वस्तुको ग्रहण और दोषकी अपेक्षासे उसका त्याग किया करते हैं दुर्बुद्धि और सुबुद्धि प्राणियोंकी विशेषता १४६ विना जाने गुणोंका ग्रहण और दोषोंका परित्याग नहीं होता १४७ बुद्धिमान और निर्बुद्धि कौन कहलाता है। १४८ वर्तमानमें तपस्वियोंमें समीचीन आचरण करनेवाले विरले ही रह गये हैं १४९ अपनेको मुनि माननेवाले वेषधारी साधुओंके संसर्गसे बचना चाहिये १५० मुनिके पास स्वाभाविक सामग्रोके रहनेपर उसे याचनाकी आवश्यकता नहीं है। १५१ याचक-अयाचककी निन्दा-प्रशंसा याचककी लघुता और दाताकी गुरुताका प्रदर्शन १५३-४ जो धन समस्त अर्थी जनको सन्तुष्ट नहीं कर सकता है उसकी अपेक्षा तो निर्धनता ही श्रेष्ठ है । १५५ आशारूपी खान- मानरूपी धनसे ही परिपूर्ण होती है १५६-७ आहारको भी लज्जापूर्वक ग्रहण करनेवाला तपस्वी अन्य परिग्रहको कैसे ग्रहण कर सकता है १५८ यदि साधु राग-द्वेषके वशीभूत होते हैं तो यह इस कलिकालका ही प्रभाव समझना चाहिये कर्मकृत दुरवस्था १६० यदि भोगोंमें ही तृष्णा है तो कुछ प्रतीक्षा करके स्वर्गको प्राप्त करना चाहिये निर्धनताको धन और मृत्युको ही जीवन समझनेवाले निःस्पृह तपस्वीका देव कुछ नहीं कर सकता है १६२-३ तपके लिये चक्ररत्नको छोडनेवाला महात्मा जैसे अतिशय प्रशंसाका पात्र है वैसे ही विषयसुखके लिये तपको छोडनेवाला दुरात्मा अतिशय निन्दाका पात्र है १६४-५ तपसे पतित होनेवाला अधर्म साधु बालकसे भी गया बीता है १६६-७ १५९ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आत्मानुशासनम् पुनः उसको संयमको छोडनेवाला साधु अमृत पीकर वमन करनेवाले मूर्खके समान है आरम्भादि बाह्य शत्रुओंके समान रागद्वेषादि अभ्यन्तर शत्रुओं को भी नष्ट करना चाहिये उन राग-द्वेषादिको जीतनेके लिये मनको आगमाभ्यास में लगाना चाहिये आगमाभ्यास में मनको लगाकर कैसा विचार करना चाहिये आत्माका स्वरूप दिखलाकर ज्ञानभवनाके चिन्तनकी प्रेरणा ज्ञानभावनाका फल ज्ञान ( केवलज्ञान ) ही है, उसका अन्य फल खोजना अज्ञानता है इस शास्त्ररूप अग्निमें पडकर भव्य तो मणिके समान विशुद्ध हो जाता है और अभव्य मलिन कोयला या भस्मके समान हो जाता है ध्यान में पदार्थों के यथार्थ स्वरूपका विचार करते हुए रागद्वेषका परित्याग करना चाहिये जीवके संसारपरिभ्रमण और मुक्तिप्राप्तिमें मथानीका उदाहरण राग-द्वेषसे कर्मबन्ध और उनके अभावसे मोक्ष होता है राग-द्वेषका बीजभूत मोह व्रणके समान है मित्र आदिके मरनेपर शोक करना योग्य नहीं है हानिके निमित्तसे होनेवाला शोक दुखका कारण है यथार्थ सुख व दुखका स्वरूप जन्म मरणका अविनाभावी है तप और श्रुतका फल राग-द्वेषकी निवृत्ति है, न कि लाभ - पूजादि स्वल्प भी विषयाभिलाषा अनर्थको उत्पन्न करनेवाली है, फिर उसका सेवन क्यों वार वार करता है बहिरात्माको छोडकर अन्तरात्मा और परमात्मा बन जानेकी प्रेरणा १६८ १६९ १७० १७१-३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८-७९ १८० - १ १८२-३ १८४-५ १८६ १८७ १८८ १८९-९० १९१-२ १९३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ विषय-सूची १०९ शरीरकै स्वरूपको दिखलाकर उसके नष्ट होनेके पूर्व उससे आत्मप्रयोजन सिद्ध कर लेनेकी प्रेरणा . १९४-५ शरीरको पुष्ट करके विषयसेवन करना विषभक्षण करके जीवित रहनेकी इच्छाके समान है कलिकालमें वनको छोडकर गांवके समीप रहनेवाले __ मुनियोंके ऊपर खेद व्यक्त करना १९७ स्त्रीकटाक्षोंके वशीभूत हुए तपस्वीसे तो मृहस्थ अवस्था ही कहीं अच्छी है १९८ शरीरके होनेपर ही मनुष्य अपमानपूर्वक स्त्रीको प्राप्त करता है १९९ मूर्त शरीर और अमूर्त आत्मामें अभेद सम्भव नहीं है २०० शरीरका कुटुम्ब - २०१ आत्मा और शरीरका स्वरूप दिखलाकर शुद्ध आत्माको अशुद्ध करनेवाले उक्त शरीरकी निन्दा २०२ शरीरको अपवित्र जानकर उसका परित्याग करना बडे साहसका काम है रोगादिके उपस्थित होनेपर भी यति खेदको प्राप्त नहीं होता तथा उसके अप्रतीकार्य होनेपर वह शरीरको ही छोड देता है २०४-५ रोगादिके प्रतीकारमें कल्पित सुखका उदाहरण २०६ अप्रतीकार्य रोगादिका प्रतीकार अनुद्वेग है २०७ शरीरग्रहणका नाम संसार और उससे छुटकारा पानेका . नाम ही मुक्ति है . २०८ आत्माको अस्पृश्य बनानेवाले सरीरकी निन्दा संसारी प्राणीके तीन भागोंका निर्देश करके तत्त्वज्ञका स्वरूपनिरूपण २१०-१ तपश्चरणके अभावमें ज्ञानी जीवके लिये कषाय-शत्रुओंको ___ तो जीतना ही चाहिये २१२ कषायजयके विना उत्तमक्षमा आदि गुणोंकी प्राप्ति । असम्भव है २०९ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् . २१४ २१६ २१७ ... २१८ २२० जो स्वयं कषायोंके वशीभूत हो करके भी अपने शान्त मनकी प्रशंसा करते हैं उनके लिये चूहे-बिल्लीका उदाहरण तपश्चरण आदिमें उद्युक्त होनेके साथ दुर्जय मात्सर्यभावको भी छोडना चाहिये २१५ क्रोधसे होनेवाली कार्यहानिके लिये महादेवका उदाहरण मानके कारण बाहुबली क्लेशको प्राप्त हुए वर्तमानमें गुणोंका लेश भी न होनेपर प्राणी अभिमानको प्राप्त होता है संसारमें उत्तरोत्तर एक दूसरेसे गुणाधिक देखे जानेपर मान करना योग्य नहीं है मायासे होनेवाली हानिके लिये मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्णका उदाहरण मायासे भयभीत रहनेकी प्रेरणा मायावी समझता है कि मेरे कपटव्यवहारको कोई नहीं जानता, परन्तु वह प्रगट हो ही जाता है २२२ लोभके वश होकर प्राण देनेवाले चमर मृगका उदाहरण २२३ विषयविरति आदि गुण निकट भव्यको ही प्राप्त होते हैं २२४ क्लेशजालको समल कौन नष्ट करता है २२५ मुक्तिके भाजन कौन होते हैं रत्नत्रयके धारक साधुको इन्द्रिय-चोरोंसे सदा सावधान रहना चाहिये । २२७ संयमके साधनभूत पीछी-कमण्डलु आदिसे भी मोह छोडनेका उपदेश धीरबुद्धि तपस्वी अपनेको कृतार्थ कब मानता है। ज्ञानके अभिमान आशा-शत्रुकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये २३० रागी जीव ज्ञान-चारित्रसे संयुक्त होनेपर भी प्रतिष्ठाको प्राप्त नहीं होता जबतक जीव रागको छोडकर द्वेष और फिर उसे छोडकर २२६ २२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ विषय-सूची १११ पुनः रागको प्राप्त होता रहेगा तब तक वह कष्ट ही पाता रहेगा २३२ जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता तब तक जीव दुखी ही रहता है मोक्षप्राप्तिके लिये सम्यक्त्वके साथ ज्ञान व चारित्रकी आवश्यकता मोक्षार्थी जीवको अभोग्य व भोंग्य रूप विकल्पबुद्धिसे ., जब तक निवृत्य अर्थ है तबतक निवृत्तिका अभ्यास करना चाहिये २३५-३६ प्रवृत्ति और निवृत्तिका स्वरूप २३७ पूर्वमें अभावित भावनाओंका चिन्तन श्रेयस्कर है २३८ शुभादि तीन और अशुभादि तीनमें हेय अशुभकी अपेक्षा यद्यपि शुभ अनुष्ठेय है, फिर भी शुद्धका आश्रय लेनेके लिये वह शुभ भी त्याज्य ही है। २३९-४० आत्माके अस्तित्व और उसकी बद्ध अवस्थाको दिखलाकर बन्ध व मोक्षके कारणोंकी प्ररूपणा २४१ ममेदभाव इतिके समान अनिष्टकर है भवभ्रमणका कारण २४३ बाह्य पदार्थोंमें अनुरक्त रहनेसे बन्ध तथा उनमें विरक्त होनेसे मोक्ष प्राप्त होता है २४४ बन्ध व निर्जराकी हीनाधिकता २४५ योगीका स्वरूप २४६ गुणयुक्त तपमें उत्पन्न साधारण-सी भी क्षतिकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये २४७ यतिको गृहकी उपमा देकर रागादिरूप सॉंसे सावधान रहनेकी प्रेरणा २४८ परनिन्दासे राग-द्वेषादि पुष्ट होते हैं दोषदर्शी दुर्जन किसी एक आध दोषसे संयुक्त अनेक गुणयुक्त महात्माके स्थानको नहीं पाता है २४२ ०४९ २५० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आत्मानुशासनम् योगीको अपना पूर्व आचरण अज्ञानतापूर्ण प्रतीत होता है . २५१ शरीरमें भी ममत्वबुद्धि रहने से तपस्वियोंकी भी आशा पुष्ट होती है २५२ अभेदस्वरूपसे स्थित भी शरीर और आत्मामें भेद है, __ इसके लिये उदाहरण २५३ मोक्षाकांक्षियोंने सन्तापका कारण जानकर शरीरको छोडा है और आत्यन्तिक सुख प्राप्त किया है २५४ जिन्होंने मोहको नष्ट कर दिया उन्हींका परलोक विशुद्ध होता है २५५ साधु आपत्तिके ससय भी सदा सुखी रहते हैं . २५६-५७ वे साधु सिंहके समान निर्भय होकर भयानक पर्वतकी. गुफाओंमें ध्यान करते हैं २५८ मोक्षार्थी निःस्पृह साधुओंकी प्रशंसा २५९-६२ सुख और दुखमें उदासीनता संवर और निर्जराकी कारण है २६३ यतिका आचार आश्चर्यजनक है । २६४ मुक्ति अवस्थामें ज्ञानादि गुणोंका अभाव हो जाता है, इस वैशेषिक मतमें दूषण २६५ जीवका स्वरूप २६६ सिद्धोंका सुख २६७ आत्मानुशासनके चिन्तनका फल २६८ ग्रन्थकर्ता द्वारा गुरुके नामस्मरणपूर्वक आत्मानुशासनके कारूपसे निजनामका प्रकाशन २६९ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। गुणभद्र-देव-विरचितं आत्मानुशासनम् प्रभाचन्द्राचार्यकृत संस्कृतटीकासहितम् लक्ष्मीनिवासनिलयं विलीनविलयं निधाय हृदि वीरम् । आत्मानुशासनमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ॥ १॥ वीरं प्रणम्य भववारिनिधिप्रपोत मुद्योतिताखिलपदार्थमनरुपपुण्यम् । निर्वाणमार्गमनववगुणप्रबन्ध मात्मानुशासनपदं प्रवरं प्रदक्ष्ये ।। वृहद्धर्मभ्रातुलौकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धेः संबोधनव्याजेन सर्वसत्त्वोपकारक मन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो लक्ष्मीत्याद्याह- अहं वक्ष्ये कथयिष्ये । कि तत् । आत्मानुशासनम् आत्मनः शिक्षादायक शास्त्रम् । किं कृत्वा । निधाय धृत्वा पत्र । हृदि हृदये। । कम् । वीरं विशिष्टाम् इन्द्राद्यसंभविनीम् ईम् अन्तरङगां बहिरङगां2 समवसरणानन्तचतुष्टयलक्षणां लक्ष्मी राति आदत्त इति वीरः अन्तिमतीर्थंकरः तीर्थंकरसमुदायो वा तम् । कथंभूतम् । लक्ष्मीनिवासनिलयं __ जो वीर जिनेंद्र लक्ष्मीके निवासस्थानस्वरूप हैं तथा जिनका पाप कर्म नष्ट हो चुका है उन्हें हृदयमें धारण करके मैं भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत आत्मानुशासन अर्थात् आत्मस्वरूपकी शिक्षा देनेवाले इस ग्रंथको कहूंगा ॥ विशेषार्थ-- यहां प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता श्री गुणभद्राचार्यने ग्रन्थके प्रारम्भमें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेंद्रका स्मरण करके उस आत्मानुशासन ग्रन्थके रचनेकी प्रतिज्ञा की है जो भव्य जीवोंको आत्माके यथार्थ स्वरूपकी शिक्षा देकर उन्हें मोक्षकी प्राप्ति करा सके । यहां श्लोकमें मंगलस्वरूपसे जिसवीर'शब्दका प्रयोग किया गया है उससे अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेंद्रका तो स्पष्टतया बोध होता ही 1ज निधन हृदि धृत्वा का हृदये। 2 ज अन्तरंगबहिरङमां। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्लो० २ आत्मानुशासनम् दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ २ ॥ यतो वीरोज्तो लक्ष्मीनिवासस्थानम् । पुनरपि कथंभूतम् । विलीनविलयं विलीनों विनष्टो विलयो लब्धानन्तचतुष्टय स्वरूपात्प्रच्युतिर्यस्य । किमर्थ वक्ष्ये । मोक्षाय सकलकर्मविप्रमोचनाय । केषाम् । भव्यानां सम्यग्दर्शनादिसामग्री प्राप्य अनन्त चतुष्टय रूपतया भवनयोग्यानाम् ॥ १ ॥ शास्त्राभिधेये विनेयानां भयमुत्सार्य प्रवृत्त्यङगतामुपदर्शयन् दुःखादित्याह - नितराम् अत्यर्थम् । अतः यतो दुःखाद् बिभेषि सुखं च अभिवाञ्छसि अतः | अहम् अपि । हे आत्मन् । तवानुमतम् एवं तत्र अभिमतम् एव । अनुशास्मि प्रतिपादयामि । कुतोऽनुमतम् एवम् । 1 है, साथ ही उससे समस्त तीर्थंकर समूहका भी बोध होता है । यथा—' विशिष्टाम् ईं राति इति वीरः तं वीरम् ' इस निरुक्ति के अनुसार यहां वीर ( वि-ई-र ) पदमें स्थित 'वि' उपसर्ग का अर्थ विशिष्ट ' है, ई शब्दका अर्थ है लक्ष्मी, तथा र का अर्थ देनेवाला है । इस प्रकार समुदायरूपमें उसका यह अर्थ होता है कि जो विशिष्ट अर्थात् अन्यमें न पायी जानेवाली समवसरणादिरूप बाह्य एवं अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग लक्ष्मीको देनेवाला है वह वीर कहा जाता है । इस प्रकार चूंकि अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही प्रकारकी लक्ष्मीसे सम्पन्न सब ही तीर्थंकर अपने दिव्य उपदेशके द्वारा भव्य जीवोंके लिये विशिष्ट लक्ष्मीके देनेमें समर्थ होते हैं अतएव वीर शब्दसे यहां उन सबका ही ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार मंगलरूपमें श्री वर्धमान जिनेन्द्र अथवा समस्त ही तीर्थंकरसमुदायका ध्यान करके ग्रन्थकर्ताने इस ग्रन्थके रचनेका यह प्रयोजन भी प्रगट कर दिया है कि चूंकि सब ही प्राणी सुखको चाहते हैं और दुखसे डरते हैं अतएव मैं उन भव्य जीवोंके लिये इस ग्रन्थके द्वारा उस आत्मतत्त्वकी शिक्षा दूंगा कि जिसके निमित्तसे वे जन्ममरणके असह्य, दुखसे छूटकर अविनश्वर एवं निर्बाध सुखको प्राप्त कर सकेंगे ||१| हे आत्मन् ! तू दुखसे अत्यन्त डरता है और सुखकी इच्छा करता है, इसलिये मैं भी तेरे लिये अभीष्ट उसी तत्त्वका प्रतिपादन करता हू जो कि Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनेयभयोत्सारणम् । यद्यपि कदाचिदस्मिन् विपाकमधुरं तदात्वकटु किंचित् । त्वं तस्मान्मा भैषीर्यथातुरो भेषजादुग्रात् ॥३॥ जना घनाश्च वाचालाः सुलभाः स्युर्वथोत्थिताः। दुर्लभा द्वन्तरास्तेि जगदभ्युज्जिहीर्षवः ॥४॥ यतो दुःखापहारि दुःखस्फेटकं सुखकरं च ॥२.। तच्च यद्यपि कदाचित्तदात्वकटु तथापि तत्तो मा भैषीस्त्वम् इत्याह- यद्यपीत्यादि । अस्मिन् शास्त्रे । कदाचित् कस्मिश्चित् प्रघट्टके प्रतिपाद्यमानं किंचित् सम्यग्दर्शनादि । तदास्वकटु किंचित् प्रतिपाधं प्रतिपादनकाले अनुष्ठानकाले च दु:खदम् । यद्यपि । विपाकमधुरं फलानुभवनकाले सुखदम् । तस्मात् तदात्वकटुकात् । यथा आतुरः रोगी । भेषजात् औषधात् । उग्रात् रौद्रात् । न बिभेति तथा त्वं मा भैषीः । अथवा यथासौ ततो बिभेति तथा त्वं मा भैषीः ॥३॥ ननु उपदेप्टारो बहवः सन्ति तत्कि भवतां विफलप्रयासेन इति आह-जना इत्यादि । वाचाला: तेरे दुःखको नष्ट करके सुखको करनेवाला है ॥२॥ यद्यपि इस (आत्मानुशासन) में प्रतिपादित किया जानेवाला कुछ सम्यग्दर्शनादिका उपदेश कदाचित् सुननेमें अथवा आचरणके समयमें थोडासा कडुआ (दुःखदायक) प्रतीत हो सकता है, तो भी वह परिणाममें मधुर (हितकारक) ही होगा। इसलिये हे आत्मन् ! जिस प्रकार रोगी तीक्ष्ण (कडुवी) औषधिसे नहीं डरता है उसी प्रकार तू भी उससे डरना नहीं ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार ज्वर आदिसे पीडित बुद्धिमान् मनुष्य उसको नष्ट करनेके लिये चिरायता आदि कडुवी भी औषधिको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता है,उसी प्रकार संसारके दुःखसे पीडित भव्य जीवोंको इस उपदेशको सुनकर प्रसन्नतापूर्वक तदनुसार आचरण करना चाहिये । कारण यह कि यद्यपि आचरणके समय वह कुछ कष्टकारक अवश्य दिखेगा तो भी उसका फल मधुर (मोक्षप्राप्ति) होगा ॥३॥ जिनका उत्थान (उत्पत्ति और प्रयत्न) व्यर्थ है ऐसे वाचाल मनुष्य और मेघ दोनों ही सरलतासे प्राप्त होते हैं। किन्तु जो भीतरसे आर्द्र ( दयालु और जलसे पूर्ण ) होकर जगत्का उद्धार करना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् _ [श्लो० ५ प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया ब्रयाद्धर्मकथां गणी गणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥५॥ असत्प्रलापिनः । वथोत्थिता: विफलाटोपा: विफलप्रवृत्तयो वा । अन्तरार्द्राः सकरुणा: सजलाश्च । अभ्युज्जिहीर्षव: अभ्युद्धर्तुमिच्छवः।।४।। तहि कीदृग्गुणैः युक्त: उपदेष्टा भवतीति प्रश्ने 'प्राज्ञः' इत्यादि श्लोकद्वयम् आह-- प्रज्ञा त्रिकालार्थविषया प्रतिपत्तिः । उक्तं च-'मतिरप्राप्तिविषया बुद्धिः सांप्रतदर्शिनी अतीतार्था स्मृतिज्ञेया प्रज्ञा कालत्रयार्थगा । 'सा अस्य अस्तीति प्राज्ञः । 'प्रज्ञाश्रद्धार्चावृत्तिभ्यो ण: '(जैनेन्द्रम्. ४।१।२८) इति णः प्राप्तेत्यादि । प्राप्त परिज्ञातं समस्तशास्त्राणां हृदयम् अन्तस्तत्त्वं पेन । प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रव्यक्ता परिस्फुटा लोकस्य जगतः प्राणिगणस्य वा स्थिति: स्थानं व्यवहारश्च यस्य । प्रास्ताशः प्रकर्षण अस्ता स्फेटिता आशा लाभपूजादिवाञ्छा येन । चाहते हैं ऐसे वे मनुष्य और मेघ दोनों ही दुर्लभ हैं । विशेषार्थ- जो मेघ गरजते तो हैं, किंतु जलहीन होनेसे बरसते नहीं हैं, वे सरलतासे पाये जाते हैं। परन्तु जो जलसे परिपूर्ण होकर वर्षा करनेके उन्मुख हैं, वे दुर्लभ ही होते हैं। ठीक इसी प्रकारसे जो उपदेशक अर्थहीन अथवा अनर्थकारी उपदेश करते हैं वे तो अधिक मात्रामें प्राप्त होते हैं किंतु जो स्वयं मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होकर दयार्द्रचित्त होते हुए अन्य उन्मार्गगामी प्राणियोंको उससे उद्धार करनेवाले सदुपदेशको करते हैं वे कठिनतासे ही प्राप्त होते हैं। ऐसे ही उपदेशकोंका प्रयत्न सफल होता है ॥४॥ जो त्रिकालवर्ती पदार्थोंको विषय करनेवाली प्रज्ञासे सहित है, समस्त शास्त्रोंके रहस्यको जान चुका है, लोकव्यवहारसे परिचित है, अर्थलाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदिकी इच्छासे रहित है, नवीन नवीन कल्पनाकी शक्तिरूप अथवा शीघ्र उत्तर देनेकी योग्यतारूप उत्कृष्ट प्रतिभासे सम्पन्न है, शान्त है, प्रश्न करनेके पूर्व में ही वैसे प्रश्नके उपस्थित होनेकी सम्भावनासे उसके उत्तरको देख चुका है, प्रायः अनेक प्रकारके प्रश्नोंके उपस्थित होनेपर उनको सहन करनेवाला है Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६ गुरो: स्वरूपम् श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोध ने परिणतिरुरूद्योगो मार्गप्रवर्तन सद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुताऽस्पृहा यतिपति गुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ॥६॥ प्रतिभापरः आशु उत्तरप्रतिपत्तिः प्रतिभा सा परा उत्कृप्टा यस्य । प्रशमवान् प्रकृप्टोपशमयुक्त: । प्रागेव दृष्टोतरः परपर्यनयोगात् पूर्व मेत्र अवधारितोत्तरः यद्ययम् एवंविधं पर्यनुयोगं. करिप्यति तदा एवं विधम् उत्तरं दास्यामीति । प्रायःप्रश्नतहः प्रचुरपश्नसहः । प्रभुः आदेयरूपः। परमदोहारी पचित्तानुरागजनक: परचित्तोपलक्षको वा । परानिन्दया परेषां दोपाभावनया यथावद्वस्तुस्वरूपमेव निरूपयन् धर्मकथां ब्रूयात् इत्यर्थः । गणी आचार्यः । गुणनिधिः अनेकगुणनिधान: । प्रस्पष्टेत्यादि । प्रकर्षण स्पष्टानि व्यक्तानि मृष्टानि श्रोत्रमन:प्रियाणि अक्षराणि यस्य ॥५॥ श्रुतमित्यादि । श्रुतम् अविकलं परिपूर्ण निःसंदिग्धं वा यस्मिन् स गुरुः उपदेष्टा । तथा शुद्धा निरवद्या वृत्तिः चारित्रं मनोवाक्कायप्रवृत्तिर्वा । परप्रतिबोधने परिणतिः परिणामः प्रवीणता वा । उरु: महान् उद्योगः उद्यमः । क्वेत्याह मार्गेत्यादि । मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं प्रवर्तयति इति. मार्गप्रवर्तन: स चासौ सद्विधिश्च सन् शोभनो मायादिरहितो विधि: अनुष्ठानं यस्मिन् । अर्थात् न तो उनसे घबडाता है और न उतेजित ही होता है, श्रोताओंके ऊपर प्रभाव डालनेवाला है, उनके (श्रोताओंके) मनको आकर्षित करनेवाला अथवा उनके मनोगत भावको जाननेवाला है, तथा उत्तमोत्तम अनेक गुणोंका स्थानभूत है; ऐसा संघका स्वामी आचार्य दूसरोंको निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दोंमें धर्मोपदेश देनेका अधिकारी होता है ॥५॥ जिसके परिपूर्ण श्रुत है अर्थात् जो समस्त सिद्धान्तका जानकार है; जिसका चारित्र अथवा मन, वचन व कायकी प्रवृत्ति पवित्र है; जो दूसरोंको प्रतिबोधित करनेमें प्रवीण है, मोक्षमार्गके प्रचाररूप समीचीन कार्यमें अतिशय प्रयत्नशील है, जिसकी अन्य विद्वान् स्तुति करते हैं तथा जो स्वयं भी विशिष्ट विद्वानोंकी प्रशंसा एवं उन्हें नमस्कार आदि करता है, जो अभिमानसे रहित है, लोक और लोकमर्यादाका जानकार है, सरल परिणामी है, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ७भन्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद् भृशं भीतवान्। सौख्येषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विवार्य स्फुटम् । बुधनुति: वुधानां बुधर्वा नतिर्नमनम् । अनुत्सेकोऽनुद्धत:2 । लोकज्ञता सचराचरजगत्परिज्ञानम् । मृदुता सेव्यता। अस्पृहा निस्पृहता । अन्ये च उक्तेभ्योऽपरेऽपि परमकरुणादयः। सतां हेयोपादेयविवेकपरिज्ञानार्थिनाम् ॥६॥ यद्येवंविधः शास्ता शिष्यस्तहि कीदृशो भवतीत्याह-भव्य इत्यादि। विमृशन् पर्यालोचयन् । इस लोकसम्बन्धी इच्छाओंसे रहित है, तथा जिसमें और भी आचार्य पदके योग्य गुण विद्यमान हैं; वही हेयोपादेय-विवेकज्ञानके अभिलाषी शिष्योंका गुरु हो सकता है ॥६॥ जो भव्य है; मेरे लिये हितकारक मार्ग कौनसा है, इसका विचार करनेवाला है; दुखसे अत्यन्त डरा हुआ है, यथार्थ सुखका अभिलाषी है, श्रवण आदिरूप बुद्धिविभवसे सम्पन्न है, तथा उपदेशको सुनकर और उसके विषयमें स्पष्टतासे विचार करके जो युक्ति व आगमसे सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्मको ग्रहण करनेवाला है; ऐसा दुराग्रहसे रहित शिष्य धर्मकथाके सुननेमें अधिकारी माना गया है। विशेषार्थ-यहां धर्मोपदेशके सुननेका अधिकारी कौन है, इस प्रकार श्रोताके गुणोंका विचार करते हुए सवसे पहिले यह बतलाया है कि भव्य होना चाहिये । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको प्राप्त करके भविष्यमें अनन्तचतुष्टयस्वरूपसे परिणत होनेवाला है वह भव्य कहलाता है। यदि श्रोता इस. प्रकारका भव्य नहीं है तो उसे उपदेश देना व्यर्थ ही होगा। कारण. कि जिस प्रकार पानीके सींचनेसे मिट्टी गीलेपनको प्राप्त हो सकती है उस प्रकार पत्थर नहीं हो सकता, अथवा जिस प्रकार. नवीन घटके ऊपर जलबिन्दुओंके डालनेपर वह उन्हें आत्मसात् कर लेता है उस प्रकार घी आदिसे चिक्कणताको प्राप्त हुआ घट उन्हें आत्मसात् नहीं कर सकता है-वे इधर उधर विखर कर नीचे गिर जाती हैं। ठीक यही स्थिति उस श्रोताकी भी है-जिस श्रोताका हृदय सरल है वह सदुपदेशको ग्रहण करके तदनुसार प्रवृत्ति करने में प्रयत्नशील होता है, 1 म (नि. सा.) झीतिमान् । 2 ज अनुद्धताः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ श्रोतुर्लक्षणम् धर्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थित गृहन् धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७॥ भृशम् अतिशयेन । श्रवणेत्यादि । श्रवणादयो बुद्धेविया: गुगविभूतयः यस्य । शुभूपा श्रवणग्रह गधार पविज्ञानोहापोहतर वाभिनिवेशा हि बुद्धिगुणाः।शर्मकरं सुखजनकम्।दया किन्तु जिसका हृदय कठोर है उसके ऊपर सदुपदेशका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। अतएव सबसे पहिले उसका भव्य होना आवश्यक है । दूसरी विशेषता उसकी यह निर्दिष्ट की गई है कि उसे हिताहितका विवेक होना चाहिये । कारण कि मेरा आत्मकल्याण किस प्रकारसे हो सकता है, यह विचार यदि श्रोताके रहता है तब तो वह सदुपदेशको सुनकर तदनुसार कल्याणजार्गमें चलनेके लिये उद्यत हो सकता है । परन्तु यदि उसे आत्महितको चिन्ता अथवा हित और अहितका विवेक ही नहीं है तो वह मोक्षमार्गमें प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। किन्तु जब और जिस प्रकारका अनुकूल या प्रतिकूल उपदेश उसे प्राप्त होगा तदनुसार वह अस्थिरतासे आचरण करता रहेगा । इस प्रकारसे वह दुखी ही बना रहेगा। इसीलिये उसमें आत्महितका विचार और उसके परीक्षणकी योग्यता अवश्य होनी चाहिये । इसी प्रकार उसे दुखका भय और सुखकी अभिलाषा भी होनी चाहिये, अन्यथा यदि उसे दुखसे किसी प्रकारका भय नहीं है या सुखकी अभिलाषा नहीं है तो फिर भला वह दुखको दूर करनेवाले सुखके मार्ग में प्रवृत्त ही क्यो होगा? नहीं होगा । अतएव उसे दुखसे भयभीत और सुखाभिलाषी भी अवश्य होना चाहिये। इसके अतिरिक्त उसमें निम्न प्रकार बुद्धिका विभव या श्रोताके आठ गुण भी होने चाहिये-- “ शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । स्मृत्यूहापोहनिर्णीतिः श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥" सबसे पहिले उसे उपदेश सुननेकी उत्कंठा ( शुश्रूषा ) होनी चाहिये, अन्यथा तदनुसार आचरण करना तो दूर रहा किन्तु वह उसे रुचिपूर्वक सुनेगा भी नहीं। अथवा शुश्रूषासे अभिप्राय गुरूकी सेवाका भी हो - 1 स शस्यो । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्लो० ८ आत्मानुशासनम् पापाद् दुःखं धर्मात् सुखमिति सर्वजन सुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ॥८॥ गुणमयं दयागुणेन निर्वृत्तं दयागुणैर्वा प्रकृतः यत्र । युक्त्या प्रमाणनयात्मिकया । अधिकृतः योग्य: । शास्त्रः प्रतिनाद्यः । निरस्ताग्रहः दुराग्रहरहितः ।।७।। एवंविधः शिप्यो गुरूपदेशात्सुखार्थितया धर्मोपार्जनार्थमेव प्रवर्तताम् । यतः पापादित्यादि । इति एवम् चरतु अनुतिष्ठतु | ८|| धनं वा चरता सर्वेणापि विशिष्टसुखप्राप्यथना विचार्याप्त: सकता है, क्योंकि वह भी ज्ञानप्राप्तिका साधन है । इसके अनन्तर श्रवण ( सुनना ), सुने हुये अर्थको ग्रहण करना, ग्रहण किये हुए अर्थको हृदयमें धारण करना, उसका स्मरण रखना, उसके योग्यायोग्यका युक्तिपूर्वक विचार करना, इस विचारसे जो योग्य प्रमाणित हो उसे ग्रहण करके अयोग्य अर्थको छोडना, तथा योग्य तत्त्वके विषयमें दृढ रहना ये श्रोताके आठ गुण हैं जो उसमें होने चाहिये । उपर्युक्त गुणोंके अतिरिक्त श्रोता हठाग्रहका अभाव भी होना चाहिये, क्योंकि यदि वह हठाग्रही है तो वह यथावत् वस्तुस्वरूपका विचार नहीं कर सकेगा । कहा भी है-“आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।।” अर्थात् दुराग्रहीमनुष्यने जो पक्ष निश्चित कर रखा है वह युक्तिको उसी ओर ले जाना चाहता है । किन्तु जो आग्रहसे रहित होकर निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करना चाहता है वह युक्तिका अनुसरण करके उसके ऊपर विचार करता और तदनुसार वस्तुस्वरूपका निश्चय करता है । इस प्रकार जिस श्रोतामें ये गुण विद्यमान होंगे वह सुरूचिपूर्वक धर्मोपदेशको सुन करके तदनुसार आत्महितके मार्गमें अवश्य प्रवृत्त होगा ॥७॥ पापसे दुख और धर्मसे सुख होता है, यह बात सब जनोंमें भले प्रकार प्रसिद्ध है - इसे सब ही जानते हैं । इसलिये जो भव्य प्राणी सुखकी अभिलाषा करता है उसे पापको छोड़कर निरन्तर धर्मका आचरण करना चाहिये ||८|| सब प्राणी शीघ्र ही यथार्थ सुखको प्राप्त करनेकी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्तस्य सर्वसुखप्रदत्वम् सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृतात् स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात् स श्रुतेः। सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यतः तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥९॥ कश्चित्समाश्रयणीय: तन्मूलकारणत्वात् तत्प्राप्ते: । एतदेवाह- सर्व इत्यादि । प्रेप्सति प्रकर्षेण दाञ्छति । काम् । सत्सुखाप्ति मोक्षसुखाप्तिम् । अचिरात् संक्षेपेण । सद्वृत्तात् सम्यक्चारित्रात् । तच्च बोधनियतं ज्ञानायत्तम् । स श्रुते: स आगमः श्रुतेः आकर्णनात् । आकर्ण्यमानो हि आगमः कार्यकारी भवति सद्व्यवहारं च भजते । सा चाप्तात् । स च सर्वदोषरहितः । सर्वे दोषा रागादयोऽष्टादश- क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च खेद: स्वेदो मदो रतिः ॥ विस्मगे जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवा: । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥ एतैर्दोषविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जन: ।' इत्यभिधानात् । अतः यतः परम्परया सत्सुखाप्तेराप्तो मूलमतः । तम् इत्यंभूतम् आप्तम् । युक्त्या प्रमाणोसत्त्या। सुविचार्य जिन-सुगत-ईश्वर-ब्रह्म-कपिलेषु आप्तत्वेन परिकल्पितेषु मध्ये क एवंविधगुणसंपनो घटते इति निपुणरूपतया परीक्ष्य । इच्छा करते हैं, वह सुखको प्राप्ति समस्त कर्मोका क्षय हो जानेपर होती है, वह कर्मोका क्षय भी सम्यक् चारित्रके निमित्तसे होता है, वह सम्यक्चारित्र भी सम्यग्ज्ञानके अधीन है, वह सम्यग्ज्ञान भी आगमसे प्राप्त होता है, वह आगम भी द्वादशांगरूप श्रुतके सुननेसे होता है, वह द्वादशांग श्रुत भी आप्तसे आविर्भूत होता है, आप्त भी वही हो सकता है जो समस्त दोषोंसे रहित है, तथा वे दोष भी रागादिस्वरूप हैं। इसलिये सुखके मूल कारणभूत आप्तका (देवका) युक्ति (परीक्षा) पूर्वक विचार करके सज्जन मनुष्य बाह्य एवं अभ्यन्तर लक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिये सम्पूर्ण सुख देनेवाले उसी आप्तका आश्रय करें ॥ विशेषार्थ-यहां यह बतलाया है कि क्षुधा-तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित आप्तकी दिव्यध्वनिको सुनकर गणधरोंके द्वारा द्वादशांग श्रुतकी रचना की जाती है । उसको सुनकर आरातीय आचार्य आगमका प्रणयन करते हैं जिसके कि अभ्याससे साधारण Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आत्मानुशासनम् श्रद्धानं द्विविधं त्रिधा दशविधं मौडचाद्य गोडं सदा संवेगादिविर्वाधतं भवहरं व्यज्ञानशुद्धिप्रदम् । [ श्लो० १० सर्वसुखदं सर्वमुखं परिपूर्ण मोक्षसुखं तस्य दायकं सर्वेषां वा प्राणितां सुखदायकम् । श्रयन्तु आश्रयन्तु आराधयन्तु । थिये वाह्याभ्यन्तरलक्ष्मीसिद्धयर्थं ॥ ९ ॥ तत्सिद्धचै च तेन भगवता सतामुपायः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसाधनारूपी दर्शितस्तत्र सम्यग्दर्शनात्धनास्वरूपं दर्शयन्नाह श्रद्वातमित्यादि । श्रद्धानं सम्यग्दर्शन विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मनः स्वरूपम् । तत् द्विविध तावत् नैसर्गिकमधिगमं च। प्राणियोंको हिताहितका वोध प्राप्त होता है । इस प्रकार जब प्राणीको हिताहितविवेकके साथ वस्तुस्थितिका ज्ञान हो जाता है तब उसका सम्यक्चरित्र ( तप-संयम आदि) की ओर झुकाव होता है और इससे वह सम्पूर्ण कर्मोंको आत्मा से पृथक् करके शीघ्र ही अविनश्वर निराकुल सुखको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार परम्परासे उसके मनोरथको पूर्तिका मूल कारण रागादि दोषोंसे रहित सर्वदर्शी आप्त ही ठहरता है । अतएव सुखाभिलाषी प्राणियोंको ऐसे ही आप्तका स्मरण, चिन्तन एवं उपासना आदि करनी चाहिये ॥ ९ ॥ तत्त्वार्थश्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । वह निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका; औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे तीन प्रकारका; तथा आगे कहे जानेवाले आज्ञासम्यक्त्व आदि के भेद से दस प्रकारका भी है । मूढता आदि ( ३ मूढता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंका - कांक्षा आदि) दोषोंसे रहित होकर संवेग आदि गुणोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ वह श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन) निरन्तर संसारका नाशक; कुमति, कुश्रुत एवं विभंग इन तीन मिथ्याज्ञानोंकी शुद्धि ( समीचीनता) का कारण ; तथा जीवाजीवादि सात अथवा इनके साथ पुण्य और पापको लेकर नौ तत्त्वोंका निश्चय करानेवाला है । वह सम्यग्दर्शन स्थिर मोक्षरूप भवनके ऊपर चढनेवाले बुद्धिमान् शिष्योंके लिये प्रथम सीढी के समान है । इसीलिये इसे चार आराधनाओंमें प्रथम आराधनास्वरूप कहा जाता है | विशेषार्थ - - यहां सम्यग्दर्शनके जो दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं वे हैं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १० ] सम्यग्दर्शनस्वरूपम् निश्चिन्वन् नव सप्ततत्त्वमचलप्रासादमारोहतां सोपानं प्रथमं विजेयविदुषामाद्येयमाराधना ॥ १० ॥ ! ११ त्रिधा औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकं च । दशविधं वक्ष्यमाणाज्ञासम्यक्त्वादिभेदात् । मौढ्याद्यपोढं मौढयादिभिः पञ्चविशनिदोषैः रहितम् । के ते मढवाय दोषा इत्याह--' मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथातायतनानि पट् । अष्टौ शङकायश्चेति दृग्दोषा पञ्चविंशतिः ॥ ' मूढ त्रयं लोक-समय-देवता मूढलक्षणम् । अष्टमदा जातिकुलैश्वर्यादयः । पडनायतनानि मिथ्यादर्शन- ज्ञान - चारित्राणि त्रीणि त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः अथवा अनर्वज्ञ-अ सर्वज्ञायतन-अनर्वज्ञज्ञान सर्वज्ञज्ञानममवेत पुरुषाऽपर्वज्ञानु निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन । इनमें जो तत्त्वार्थश्रद्धान साक्षात् बाह्य उपदेश आदिकी अपेक्षा न करके स्वभावसे ही उत्पन्न होता है उसे निसर्गज तथा जो बाह्य उपदेशकी अपेक्षासे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । प्रत्येक कार्य अन्तरङग और बाह्य इन दो कारणोंसे उत्पन्न होता है । तदनुसार यहां सम्यग्दर्शनका अन्तरङग कारण जो दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है वह तो इन दोनों ही सम्यग्दर्शनोंमें समान है । विशेषता उन दोनों में इतनी ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन साक्षात् बाह्य उपदेशको अपेक्षा न करके जिनमहिमा आदिके देखने से प्रगट हो जाता है, परन्तु अधिगमजं सम्यग्दर्शन वाह्य उपदेशके विना नहीं प्रगट होता है। इसके आगे जो उसके तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं वे अन्तरङग कारणकी अपेक्षासे हैं । यथा- जो सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न होता है उसे औपशमिक तथा जो इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षयसे उत्पन्न होता है उते क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इनके उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशमसे तथा देशवाती स्पर्धकस्वरूप सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहा जाता है । आगे जो यहां उस सम्यग्दर्शनके दस भेदोंका निर्देश किया उनका वर्णन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. आत्मानुशासनम् [श्लो० १० ष्ठानाऽसर्वज्ञानुष्ठानसमवेतपुरुषलक्षणानि । अष्टौ शङकादयः शङका काङक्षा विचिकित्सा मूढदृष्टिरनुपगूहनमस्थितीकरणमवात्सल्यमप्रभावना इति । संवेगादिविधितं संवेगः संसारभीरुता. धर्मे धर्मफलदर्शने च हर्षों वा । आदिशब्दाद्वैराग्यनिन्दागर्हादयो गृहयन्ते । ते विशेषण वधिता वृद्धि नीता येन तैर्वा विवर्धितं निर्मलरूपतया प्रकर्षनीतम् । भवहरं संसारविनाशकम् । ग्रन्थकार स्वयं ही आगे करेंगे, अतएव उनके सम्बन्धमें यहां कुछ नहीं कहा जा रहा है। जिन दोषोंके कारण यह सम्यग्दर्शन मलिनताको प्राप्त होता है वे पच्चीस दोष निम्न प्रकार हैं- ३ मूढता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंका आदि । मूढताका अर्थ अज्ञानता है। वह मूढता तीन प्रकारकी है । (१) लोकमूढता- कल्याणकारी समझकर गंगा आदि नदियों अथवा समुद्रमें स्नान करना, वालु या पत्थरोंका स्तूप बनाना, पर्वतसे गिरना, तथा अग्निमें जलकर सती होना आदि । (२) देवमूढता- अभीष्ट फल प्राप्त करनेकी इच्छासे इसी भवमें आशायुक्त होकर राग-द्वेषसे दूषित देवताओंकी आराधना करना। (३) गुरुमूढता- जो परिग्रह, आरम्भ एवं हिंसासे सहित तथा संसारपरिभ्रमणके कारणीभूत विवाहादि कार्योमें रत हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि साधुओंकी प्रशंसा आदि करना। कहीं कहीं इस गुरुमूढताके स्थानमें समयमूढता पायी जाती है जिसका अभिप्राय है समीचीन और मिथ्या शास्त्रोंकी परीक्षा न कर कुमार्गमें प्रवृत्त करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास करना। ज्ञान, प्रतिष्ठा, कुल (पितृवंश), जाति (मातृवंश), शारीरिक बल, धन-सम्पत्ति, अनशनादिस्वरूप तप और शरीरसौन्दर्य इन आठके विषयमें अभिमान प्रगट करनेसे आठ मद होते हैं । अनायतनका अर्थ है धर्मका अस्थान। वे अनायतन छह हैं- कुगुरु, कुदेव, कुधर्म कुगुरुभक्त, कुदेवभक्त और कुधर्मभक्त । निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव राजा आदिके भयसे, आशासे, स्नेहसे तथा लोभसे भी कभी इनकी प्रशंसा आदि नहीं करता है । ८ शंका आदि- (१) शंका- सर्वज्ञ देवके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वके विषयमें ऐसी आशंका रखना कि जिस प्रकार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०] सम्यग्दर्शनस्वरूपम् ध्यज्ञानशुद्धिप्रदं त्रीणि अज्ञानानि कुमति-श्रुतावषयः तेषां शुद्धिपदं समोचीनताकरम् । निश्चिन्वन् निश्चितं विषयतां नयन् । जीवाजीवास्रवन्धतंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वमिति सप्ततत्त्वानि पुण्यपापपदार्थाभ्यां सहितानि नव पदार्था उच्चने । अचलप्रासादं न यहां अमुक तत्त्वका स्वरूप बतलाया गया है क्या वह वास्तवमें ऐसा ही है अथवा अन्य प्रकार है। (२) कांक्षा-पाप एवं दुख के कारणीभूत कर्माधीन सांसारिक सुखको स्थिर समझकर उसकी अभिलाषा रखना। (३) विचिकित्सा- मुनि आदिके मलिन शरीरको देखकर उससे घृणा करना । यद्यपि यह मनु यशरीर स्वभावतः अपवित्र है, फिर भी चूंकि सम्यग्दर्शन आदिरूप रत्नत्रयका लाभ एक मात्र इसी मनुष्यशरीरसे हो सकता है अतएव वह घृणाके योग्य नहीं है । यदि वह घृणाके योग्य है तो केवल विषयभोगको दृष्टिसे ही है, न कि आत्मस्वरूपलामकी दृष्टिसे। (४) मूढदृष्टि- कुमार्ग अथवा कुमार्गगामी जीवोंकी मन, वचन अथवा कायसे प्रशंसा करना ! (५) अनुपगूहन-- अज्ञानी अथवा अशक्त (व्रतादिके परिपालनमें असमर्थ) जनोंके कारण पवित्र मोक्षमार्गके विषयमें यदि किसी प्रकारको निन्दा होती हो तो उसके निराकरणका प्रयत्न न करके उसमें सहायक होना । (६) अस्थितीकरण- मोक्षमार्गसे डिगते हुए भव्य जीवोको देख करके भी उन्हें उसमें दृढ करनेका प्रयत्न न करना। (७) अवात्सल्य-- धर्मात्मा जोवोंका अनुरागपूर्वक आदरसत्कार आदि न करना, अथवा उसे कपटभावसे करना। (८) अप्रभावना- जैनधर्मके विषयमें यदि किन्हींको अज्ञान अथवा विपरीत ज्ञान है तो उसे दूर करके उसकी महिमाको प्रकाशित करनेका उद्योग न करना । इस प्रकार ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं जो उसे मलिन करते हैं। इतना यहां विशेष समझना चाहिये कि इन दोषोंकी सम्भावना केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनके विषयमें ही हो सकती है, कारण कि वहां सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहता है। औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनके विषयमें उक्त दोषोंको सम्भावना नहीं है । श्लोकमें जिन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [लो०-११आज्ञामार्गसमुद्भवमपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् विस्ताराभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥ ११ ॥ आजासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाजयव त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । -लम्ति प्राणिनो यस्मादमी अचल: म चामो प्रातदश्त्र मोक्षप्तन् आरोहतई चटनाम् । विनेयविदुपां शिप्यपण्डिनानाम् ।।१०।। इदानीं दविधसम्यक वसूचनाय 'आज्ञेत्यादि' संग्रहश्लोकमाह ।।११।। अस्यैव विवरणार्थमाशासम्यक्त्वमित्याद्याहयदुत उत अहो यत् विचितं श्रद्धानम् । तरागाज्ञयैव ग्रास्त्रपठनमन्तरेण सर्वज्ञवचनोपदेशमावेगव वोरागाज्ञयेति । वा इव (?) गाढसम्यग्दर्शनपर्यन्तं सर्वत्र संबन्धनीयम् । कथं विरचितम् । त्यक्तग्रन्थप्रपञ्च ग्रन्थयवणं विना । संवेग आदि गुणोंसे इस सम्यग्दर्शनको वृद्धिंगत बतलाया है वे ये हैं--- (१) संवेग अर्थात् संसारके दुःखोंसे निर.तर भयभीत रहना, अथवा धर्म में अनुराग रखना। (२) निर्वेद-- संसार, शरीर एवं भोंगोंसे विरक्ति । (३) निन्दा-- अपने दोषोंके विषयमें पश्चाताप करना । (४) गर्हा- किये गये दोषोंको गुरुके आगे प्रगट करके निन्दा करना । (५) उपशम-- क्रोधादि विकारोंको शान्त करना । (६) भक्ति-- सम्यग्दर्शन आदिके विषयमें अनुराग रखना। (७) वात्सल्य-- धर्मात्मा जनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना । (८) अनुकम्पा-- प्राणियोंके विषयमें दयाभाव रखना । इस प्रकार इन गुणोंसे सहित और उपर्युक्त पच्चीस दोषोसे रहित वह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी प्रासादको प्रथम सीढीके समान है । इसीलिये उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओंमें प्रथम स्थान प्राप्त है ॥१०॥ वह सम्यग्दर्शन आज्ञासमुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेशसमुद्भव, सूत्रसमुद्भव, वोजसमुद्भव, संक्षेपसमुद्भव, विस्तारसमुद्भव, अर्थसमुद्भव, अवगाढ और परनावगाढ; इस प्रकारसे दस प्रकारका है ॥११॥ दर्शनमोहके उपशान्त होनेसे ग्रन्थश्रवणके विना केवल वीतराग भगवान्की आज्ञासे हो जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहा गया है। दर्शनमोहका उपशम होनेसे ग्रन्थश्रवणके विना जो कल्याणकारी मोक्ष Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-]. सम्यग्दर्शनस्य दश भेदाः मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोप जाता या सज्ञानागमाधिप्रसुतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥१२॥ आकर्ष्याचारसूत्र मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः ' सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिगमगतेरर्थतार्थस्य बीजैः । कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाब्दीजदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥१३॥ तथा मार्गश्रद्धानमाहुः विरुचितम् । किं कुर्वन् । श्रद्दधत् प्रतीति कुर्वन् । कम अमृतपथं मोक्षपथम् । किविशिष्टम् शिवम् अनन्तसुखहेतुम् अबाध्यमानतया वा प्रशस्तम् । तथा त्यक्त ग्रन्थमः ञ्च निर्ग्रन्थताल्क्ष गम् । कुतः श्रद्दधत प्रतोति कुर्वन् । मोहशान्ते: दर्शनमोहोपशमादेः । एतच्च प्रामुत्तरत्र च संबन्धनीयम् । पुरुषेत्यादि । पुरुषवस: त्रिषष्टिशलाकापुरुषाः तेषां पुराणानि तदुपदेशाज्जांता प्रयमानुयोगपरिज्ञानात् उत्पन्नत्यर्थः । संज्ञाने त्यादि । सम चीनं ज्ञानं यस्यासौ संज्ञान: स चासौ आगमश्च स एव अधिः तत्र प्रवृतिभिः प्रवीण गगधरदेवादिभिस्तस्य वा प्रसूतिः प्रसरग यभ्यस्तीर्थ करेभ्यस्तैः। उपदेशादिदृष्टिः उपदेशशब्द: आदौ यस्य दृष्टे: उपदेशदृष्टिः इत्यर्थः । आदेशि उपदिष्टा ॥१२॥ आकयेत्यादि । मनिचरणविधैः मुनीनां चरणं चारित्रं तस्य विधेः प्रकारस्य करणस्य वा । सूचनं प्रतिपादकम् । श्रद्दधानः श्रद्धानं परिगत: । प्रतिपत्ति दवृत्त्या शक्त्या (सूक्तासौ। शोभना सा सूत्रदृष्टि: उक्ता । दुरविग नेत्यादि । जातोरलब्धे. पञ्चसंग्रहादिकरणानुयोगपरिज्ञानवतो भव्यस्य । कैः कृत्वा जातोपलब्धः। बीज: बीजपदैः कैश्चिद्विवक्षितैः । कस्य बीजपदैः । अथमार्थस्य जीवाद्यसं वातस्य । कथंभूतस्य । दुरधिगमगतेः अतिसूक्ष्मादिरूपतया दूरधिगमा महता कष्टेन प्राप्या संवेद्य वा मति: प्रतिपत्तियंस्य । असमशमवशात् अद्वितीयदर्शनमोहरेपसमवशात् । मार्गका श्रद्धान होता है उसे मार्गसम्यग्दर्शन कहते हैं। त्रेसठ शलाकापुरुषोंके पुराण (वृत्तान्त) के उपदेशसे जो सम्यग्दर्शन (तत्त्वश्रद्धान) उत्पन्न होता है उसे सम्यग्ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले आगमरूप समुद्रमें प्रवीण गणधर देवादिने उपदेशसम्यग्दर्शन कहा है ॥१२॥ मुनिके चरित्र (सकलचरित्र) के अनुष्ठानको सूचित करनेवाले आचारसूत्रको सुनकर जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे उत्तम सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है । जिन जीवादि पदार्थोके समूहका अथवा गणितादि विषयोंका Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [इलो० १४यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गों कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टि संजातात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि: । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगायोत्थिता यावगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥१४॥ सा बीजदृष्टि: । पदार्थानित्यादि । तत्त्वार्थसिद्धान्तसूत्रलक्षणद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान् जोवादीन् संक्षेपेणैव बुद्ध्वा तेषु रुचिम् उपगतवान् आत्मव अभेदवृत्त्या साधु समीचाना3 संक्षपदृष्टि: उच्यते ॥१३।। य: श्रुत्वेत्यादि । द्वादशाङ्गानां समाहारो द्वादशाङ्गी तां श्रुत्वा । तःप्रतिपादितेषु अर्थेषु य: कृतरुचि: । अथ अहो । तमात्मानम् अभेदवृत्त्या विद्धि जानीहि विस्तारदृष्टिम् । संजातेत्यादि । अर्थात् कुनश्चिन अङ्गबायप्रवचनप्रतिपादितात् । प्रवचनज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाले भव्य जीवके जो दर्शनमोहनीयके असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्य जीव पदार्थों के स्वरूपको संक्षेपसे ही जान करके तत्त्वश्रद्धानं (सम्यग्दर्शन) को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शनको संक्षेपसम्यग्दर्शन कहा जाता है ॥१३॥ जो भव्य जीव बारह अंगोंको सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शनसे युक्त जानो, अर्थात् द्वादशांगके सुननेसे जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगबाह्य आगमोंके पढने के विना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थके निमित्तसे जो अर्थश्रद्धान होता है अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगोंके साथ अंगबाह्य श्रुतका अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढसम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा देखे गये पदार्थोके विषयमें रुचि होतो है वह यहां परमावगाढसम्यग्दर्शन इस नामसे प्रसिद्ध है. ॥ विशनार्थ- श्लोक १२, १३ और १४ में सम्यग्दशनके जिन दस भदोंका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है वे प्रायः उत्तरोत्तर विकासको प्राप्त हुए हैं। यथा--प्रथम आज्ञासम्यक्त्वमें जीव शास्त्राभ्यासके विना केवल सर्वज्ञ वीतराग देवकी आज्ञापर ही विश्वास करता है। उसे यह निश्चल श्रद्धान होता है कि जिनेन्द्र देव .. 1 स तां । 2 (नि. सा) प्रतिपाठोऽयम्, ज स र ना। 3 स समीचीन । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४] सम्यग्दर्शनस्य दश भेदाः वचनान्यन्तरेण अङ्गबाहयप्रवचनश्रवणं विना द्वादशाङ्गविद: विशिष्टक्षयोपशमवशात् संजाता अर्थदृष्टिरुच्यते । साङ्गेत्यादि । सह अङ्गवर्तते इति साङ्गं तच्च तत् अङ्गबाहय (प्र) वचनं च । तदवगाहय ज्ञात्वा । उत्थिता उत्पन्ना ॥१४॥ ननु चतुर्विधारापनासु मध्ये सम्यक्त्वाराधना प्रथमत: कस्माद्विधीयते इत्याह-- चूंकि सर्वज्ञ और वीतराग (राग-द्वेषरहित) हैं अतएव वे अन्यथा उपदेश नहीं दे सकते हैं, उन्होंने जो तत्त्वका स्वरूप बतलाया है वह सर्वथा ठीक है । दूसरे मार्गसम्यग्दर्शनमें भी जीवके आगमका अभ्यास नहीं होता । वह केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रस्वरूप मोक्षमार्गको कल्याणकारी समझकर उसपर श्रद्धान करता है। तीसरे उपदेशसम्यग्दर्शनमें प्राणी प्रथमानुयोगमें वर्णित तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायग एवं बलभद्र आदि महापुरुषोंके चारित्रको सुनकर और उससे पुण्य-पापके फलको विचारकर तत्त्वश्रद्धान करता है । चौथे सूत्रसम्यग्दर्शनमें जीव चरणानुयोगमें वर्णित मुनियोंके चारित्रको सुनकर तत्त्वरूचिको उत्पन्न करता है । पांचवें बीजसम्यग्दर्शनमें करणानुयोगसे सम्बद्ध गणित आदिकी प्रधानतासे वर्णित जिन दुर्गम तत्त्वोंका ज्ञान सर्वसाधारणके लिये दुर्लभ होता है उसे जीव किन्हीं बीजपदोंके निमित्तसे प्राप्त करके तत्त्वश्रद्धान करता है । छठे संक्षेपसम्यग्दर्शनमें द्रव्यानुयोगमें वर्कको प्रधानतासे वर्णित जीवा-जीवादि पदार्थोंको संक्षेपसे जानकर प्राणी तत्त्वरुचिको प्राप्त होता है। सातवे विस्तारसम्यग्दर्शनमें जीव द्वादशांगश्रुतको सुनकर तत्त्वश्रद्धानी बनता है । आठवें अर्थसम्यग्दर्शनमें विशिष्ट क्षयोपशमसे सम्पन्न जीव श्रुतके सुननेके विनाही उसमें प्ररूपित किसी अर्थविशेषसे तत्वश्रद्धानी होता है । नौवें अवगाढसम्यग्दर्शनमें अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दोनों ही प्रकारके श्रुतको ज्ञात करके जीव. दृढश्रद्धानी बनता है। यह सम्यग्दर्शन श्रुतकेवलीके होता है । अन्तिम परमावगाढसम्यग्दर्शन सचराचर विश्वको प्रत्यक्ष देखनेवाले केवली भगवान्के होता है॥१४॥ पुरुषके सम्यक्त्वसे रहित शान्ति, ज्ञान, चारित्र आ. २ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १५शमबोधवृत्ततपसा पाषाणस्येव गौरवं पुंसः । पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ॥ १५ ॥ मिथ्यात्वातङ्कवतो हिताहितप्राप्त्यनाप्तिमुग्धस्य । बालस्येव तवेयं सुकुमारैव क्रिया क्रियते ॥१६॥ शमबोधवृत्तेत्यादि । गौरवं महत्त्वम् । पाषाणस्येव यथा पाषाणस्य गौरवं विशिष्टफलाप्रसाधकमबहुमूल्यत्वात् तथा शमादीनामपि । तदेव पूज्यं विशिष्टफल. साधकं भवति सम्यक्त्वसंयुक्तमनय॑त्वात् । महामगेरिव ॥१५॥ एवंविधसम्यक्त्वाराधने प्रवृत्तस्य आराधयितुः स्वरूपं निरूप्य भयमुत्सारयन्नाह-- मिथ्यात्वेत्यादि । सद्यः प्राणहरो व्याधिरातङ्कः । मिथ्यात्वमेव आतङ्क: तेन और तप इनका महत्त्व पत्थरके भारीपनके समान व्यर्थ है। परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्वसे सहित है तो वह मूल्यवान् मणिके महत्वके समान पूजनीय है ॥ विशेषार्थ- साधारण पाषाण और मणिरूप पाषाण ये दोनों यद्यपि पाषाणस्वरूपसे समान हैं, फिर भी गुणकी अपेक्षा उन दोनोंमें महान् अन्तर है । कारण कि यदि किसी मनुष्यके पास विशाल भी साधारण पाषाण हो तो उससे उसका कोई भी अभीष्ट सिद्ध होनेवाला नहीं है, बल्कि वह उसके लिये भारभूत (कष्टप्रद) ही बना रहता है। किन्तु जिसके पास वह मणिरूप पाषाण है वह . उससे अपने अभीष्ट प्रयोजनको अवश्य सिद्ध कर लेता है। कारण कि उसका मूल्य बहुत अधिक है । इससे उसकी जनसमुदायमें प्रतिष्ठा भी अधिक होती है । ठीक इसी प्रकारसे जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित है वह भले ही शान्ति, ज्ञान, चारित्र एवं तपका भी आचरण क्यों न करे; किन्तु इससे वह कल्याणके मार्ग में नहीं प्रवृत्त हो पाता है । कारण कि सम्यग्दर्शनके विना उक्त शान्ति आदिका कोई मूल्य नहीं होता। किन्तु मणिके समान बहुमूल्य सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेनेपर उन सब शान्ति आदिका महत्त्व बढ जाता है। उस समय वे प्राणीको मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करके शाश्वतिक सुखकी प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं । अतएव उक्त शान्ति आदिकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही विशेष. पूज्य है ॥१५॥ मिथ्यात्रूप रोगसे सहित होकर हितकी प्राप्ति और अहितके परिहारको Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्राराधनाया उपक्रमः विषयविषभाशनोत्थितमोहज्वरजनिततीव्र तृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाद्युपक्रमः श्रेयान् ॥ १७ ॥ - १७ ] १९ मुक्तस्य । हितं सुखम् अहितं दुःखं तयोः प्राप्तिश्च अनाप्तिश्च प्राप्त्यनाप्ती तत्र मुग्धस्य उपायानभिज्ञस्य । इयं सम्यक्त्वाराधनारूपा अस्माभिः तव प्रथमा क्रियाक्रियते संस्कारो विधीयते । किविशिष्टा । सुकुमारा अक्लेशेन अनुष्ठातुं शक्त्या ॥१६॥ अयेदानीं चारित्राराधनाप्रदर्शनोपक्रमं कुर्वाणस्तदाराधयितुर्योग्यामेबाणुव्रतरूपां ताम् उपदर्शयन्नाह - - निषयेत्यादि । प्रकृतिविरुद्धम् अधिकभोजनं था विषमाशनम् | नो चेत्कालातिक्रमहीनं वा विषया एव विषमाशनम् । मोहः अप्रत्याख्यानावरणोदयलक्षणः चारित्रमोहः स एव ज्वरो मोहज्वरः । तृष्णा तृषा न समझ सकनेवाले बालकके समान तेरे लिये यह सम्यक्त्वआराधनारूप सरल चिकित्सा की जाती है ।। विशेषार्थ --- जिस प्रकार कठिन रोगसे ग्रस्त हुआ बालक अपने हित-अहितको न समझ सकनेकें कारण जब उस रोगको नष्ट करनेवाली किसी तीक्ष्ण औषधिको नहीं लेना चाहता है तब चतुर वैद्य बताशा आदिमें औषधिको रखकर अथवा वस्त्र आदिमें उसका प्रयोग करके सरलतासे उसकी चिकित्सा करता है । उसी प्रकार मिथ्यात्वरूप रोगसे ग्रस्त हुआ प्राणी जब अपने हित-अहितका विवेक न होनेसे दुद्धर तपश्चरण आदिमें असमर्थ होता है तब उसके हितको चाहनेवाला गुरु सर्व प्रथम उसके लिये इस सम्यक्त्व आराधनाका उपदेश करता है । कारण कि इसका बह सरलतासे आराधना कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह ( सम्यक्त्व) आगेकी क्रियाओं (संयम व तप आदि) का मूल कारण भी है ।। १६ ।। विषयरूप विषम भोजनसे उत्पन्न हुए मोहरूप ज्वरके निमित्तसे जो तीव्र तृष्णा (विषयाकांक्षा और प्यास) से सहित है तथा जिसकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण हो रही है ऐसे तेरे लिये प्राय: पेय ( पीनेके योग्य सुपाच्य फलोंका रस आदि तथा अणुव्रत आदि) आदिकी चिकित्सा अधिक श्रेष्ठ होगी ॥ विशेषार्थ -- यदि कोई मनुष्य प्रकृतिके विरुद्ध अथवा मात्रासे अधिक भोजन करनेके कारण ज्वर आदिसे पीड़ित होकर तीव्र प्याससे व्याकुल होता है तो ऐसी अवस्थामें चतुर वैद्य Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १८सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धय दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥१८॥ भोगाभिलाषश्च । पेयाधुक्रम:-- यथा ज्वरक्षीणशक्ते: आतुरस्य प्रथमतः पेयारूक्षाहाराापक्रमः श्रेयान् तथा मोहज्वरक्षीणशक्तेः मुमुक्षो: अणुव्रतादे: पेयादिसदृशस्य प्रथमतः प्रायो बाहुल्येन उपक्रमः प्रारम्भाः श्रेयान् ।।१७।। करय सौ तत्प्रारम्भः कर्तुमुचितः इत्याह ~ सुखितस्येत्यादि । सुखितस्य सुखम् अनुभवतः । दुःखितस्य दुःखमनुभवतश्च । धर्मश्चारित्रम् उत्तमक्षमादिर्वा । स एव संसारे तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धये सुखाभिवृद्धिनिमित्तम् । दु:खभुजः दु:खितस्य । उसकी शारीरिक शक्तिको क्षीण होती हुई देखकर समुचित औषधिके साथ उसके लिये पीनेके योग्य फलोंके रस या दूध आदिरूप सुपाच्य भोजनकी व्यवस्था करता है। कारण कि स्निग्ध व गरिष्ठ भोजनसे उसका उक्त रोग कम न होकर और भी अधिक बढ़ सकता है। इस विधिसे उसका रोग सरलतासे दूर हो जाता है । ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी इन्द्रियविषयोंमें मुग्ध होकर उस विषयतृष्णासे अतिशय व्याकुल हो रहा है तथा इसीलिये जिसकी स्वाभाविक आत्मशक्ति क्षीणताको प्राप्त हो रही है उसके लिये सद्गुरु प्रथमतः अणुव्रत आदिके परिपालनकाजिनका परिपालन वह सरलतासे कर सकता है- उपदेश करता है। कारण कि वैसी अवस्थामें यदि उसे महाव्रतोंके धारण करनेका उपदेश दिया गया और तदनुसार उसने उन्हें ग्रहण भी कर लिया, परन्तु आत्मशक्तिके न रहनेसे यदि वह उनका परिपालन न कर सका तो इससे उसका और भी अधिक अहित हो सकता है । अतएव उस समय उसके लिये अणुव्रतोंका उपदेश ही अधिक कल्याणकारी होता है ॥१७॥ हे जीव ! तू चाहे सुखका अनुभव कर रहा हो और चाहे दुखका, किन्तु संसारमें इन दोनों ही अवस्थाओंमें तेरा एक मात्र कार्य धर्म ही होना चाहिये । कारण यह है कि वह धर्म यदि तू सुखका अनुभव कर रहा है तो तेरे उस सुखकी वृद्धिका कारण होगा, और यदि तू दुखका अनुभव कर रहा है तो वह धर्म तेरे उस दुरूके विनाशका कारण हेगा । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ -१९] विषयसुखस्य धर्मफलत्वम् धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युञ्चिनु यस्तैरुपायैस्त्वम् ॥ १९॥ तदुपघाताय दुःखविनाशनिमित्तम् ॥१८|| विषयसुखं हि धर्मफलम् । अतो धर्म रक्षता तद्भोक्तव्यमेतदेवाह-धर्मारामेत्यादि । तान् धर्मारामतरून् । ततस्तेभ्यः । सानि फलानि । उच्चिनु गृहाण । य: कैश्चित् तैः प्रसिद्धः स्रग्वनितादिभिः उपाय: इन्द्रियसुख हेतुभिः । तान् वा संरक्ष्य । तैः उपायैः उत्तमक्षमामार्दवादिभिः ॥१९॥ विशेषार्थ- जो प्राणियोंके दुखको दूर करके उन्हें उत्तम सुखमें धारण कराता है वही धर्म कहलाता है। इससे धर्मके दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- दुखको दूर करना और सुखको प्राप्त कराना। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि प्राणियोंको चाहे तो वे सुखी हों और चाहे दुखी, दोनों ही अवस्थामें उन्हें धर्मका आचरण करना चाहिये। कारण कि यदि वे सुखी हैं तो इससे उनका वह सुख और भी वृद्धिंगत होगा, और यदि वे दुखी हैं तो इससे उनके उस दुखका विनाश होगा ॥१८॥ इन्द्रियविषयोंके सेवनसे उत्पन्न होनेवाले सब सुख इस धर्मरूप उद्यानमें स्थित वृक्षों (क्षमा-मार्दवादि) के ही फल हैं । इसलिये हे भव्य जीव ! तू जिन किन्हीं उपायोंसे उन धर्मरूप उद्यानके वृक्षोंकी भले प्रकार रक्षा करके उनसे उपर्युक्त इन्द्रियविषयजन्य सुखोंरूप फलोंका संचय कर ।। विशेषार्थ-- ऊपर श्लोक १८ में जो धर्मको सुखका कारण और दुखका विनाशक बतलाया गया है उसमें यह आशंका हो सकती थी कि जब धर्म प्रत्यक्षमें सुखका विघातक है, तब उसे यहाँ सुखका कारण किस प्रकार कहा? कारण कि धर्माचरणमें विषयभोगोंके अनुभवसे प्राप्त होनेवाले सुखको छोडकर अनशनादिजनित दुखको ही सहना पडता है । इस आशंकाके निराकरणार्थ यहां यह बतलाया है कि जिस प्रकार अंगूर, सेब एवं आम आदि उत्तम फलोंकी इच्छा करनेवाला मनुष्य प्रथमतः कुछ कष्ट सहकर भी उन फलोंको उत्पन्न करनेवाले वृक्षोंका जलसिंचना क Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् । [श्लो०२०धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्य । तस्मात्सुखभङ्गभिया माभूधर्मस्या विमुखस्त्वम् ॥ २० ॥ विषयसुखप्राप्ती धर्ममनुतिष्ठतस्तदभाव: स्यात् इत्याशङ्कया धर्मात्पराङ्मुखो माभूस्त्वम् । यतः-- धर्म: सुखहेतुरित्यादि । न विराधक: न विनाशक: । कया । भङ्गभिया विनाशभयेन । विमुखः परान्मुखः (पराङ्मुखः) । २०॥ अमुमेवार्थ द्वारा परिवर्धन एवं संरक्षण करता है, तत्पश्चात् वह समयानुसार उनसे अभीष्ट फलोंको प्राप्त करके अतिशय आनन्दका उपभोग करता है । यदि वह पहिले जलसिंचनादिके कष्टसे डरकर उन वृक्षोंका परिवर्धन और संरक्षण न करता तो उसे उन अभीष्ट फलोंका प्राप्त होना असंभव ही था। ठीक इसी प्रकारसे वर्तमानमें जो इन्द्रियविषयभोगजनित सुख प्राप्त हो रहा है वह पूर्वकृत धर्मका ही परिणाम है । अतएव आगे भी यदि उक्त सुखको स्थिर रखना है तो उसके कारणभूत धर्मका आचरण अवश्य ही करना चाहिये । इससे वह धर्म फलीभूत होकर भविष्यमें भी उक्त इन्द्रियविषयजनित सुग्वरूप फलोंको स्थिर रखेगा, अन्यथा भविष्यमें उससे रहित होकर दुखका अनुभव करना अनिवार्य होगा ॥१९॥ धर्म सुखका कारण है और कारण कुछ अपने कार्यका विरोधी होता नहीं है। इसलिये तू सुखनाशके भयसे धर्मसे विमुख न हो । विशेषार्थ- धर्मके आचरणमें विषयसुखका विनाश होता है, इसी आशंकाका निराकरण करते हुए और भी यहां यह बतलाया है कि जब धर्म सुखका कारण है तब वह उस सुखका विघातक नहीं हो सकता है। यदि कारण ही अपने कार्यका विरोधी बन जाय तो फिर कार्य-कारणभावको नियमव्यवस्था भी कैसे बन सकेगी? नहीं बन सकेगी । इस प्रकारसे तो समस्त लोकव्यवहारका ही विरोध हो जावेगा। इसलिये धर्मसे सुखका विनाश होता है, यह कल्पना भ्रमपूर्ण है ॥२०॥ जिस प्रकार किसान बीजसे उत्पन्न 1 स धर्म। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२] धर्ममाहात्म्यम् २३ . धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु। बीजादवाप्तधान्यः कृषीवलस्तस्य बीजमिव ॥ २१॥ संकल्प्यं! कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ २२॥ . दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राह-- धर्मादवातविभव इत्यादि । विभवः इन्द्रियसौख्यसंपत्तिः। प्रतिपाल्य रक्षित्वा । कृषीवल: कुटुम्बिकः। तस्य धान्यस्य ।। २१ । कीदृशं फल धर्मात्प्राप्यत इत्याह-- संकल्प (ल्प) मित्यादि संकल्पं (ल्यं) बचनेन याचितम् । चिन्त्यं मनसा संप्रधारितम् ॥ २२ ॥ धान्य (गेहूं व चावल आदि) को प्राप्त करता हुआ उसमेंसे भविष्यके लिये कुछ बीजके निमित्त सुरक्षित रखकर ही उसका उपभोग करता है उसी प्रकार हे भव्य जीव ! तूने जो यह सुख-सम्पत्ति प्राप्त की है वह धर्मके ही निमित्तसे प्राप्त की है, इसलिये तू भी उक्त सुखसम्पत्तिके बीजभूत उस धर्मका रक्षण करके ही उसका उपभोग कर ॥२१॥ कल्पवृक्षका फल संकल्प (प्रार्थना) के अनुसार प्राप्त होता है तथा चिन्तामणिका भी फल चिन्ता (मनकृत विचार) के अनुसार प्राप्त हवा है, परन्तु धर्मसे जो फल प्राप्त होता है वह अप्रार्थित एवं अचिन्त्य ही प्राप्त होता है । विशेषार्थ-लोकमें कल्पवृक्ष और चिन्तामणि अभीष्ट फलके देनेवाले माने जाते हैं । परन्तु कलवृक्ष जहाँ वचन द्वारा की गई प्रार्थनाके अनुसार अभीष्ट फल देता है वहां चिन्तामणि मनकी कल्पनाके अनुसार वह फल देता है । किन्तु धर्म एक ऐसा अपूर्व पदार्थ है कि जिससे अभीष्ट फल प्राप्तिके लिये न किसी प्रकारको याचना करनी पड़ती है और न मनमें कल्पना भी। तात्पर्य यह कि धर्मका आचरण करनेसे प्राणीको स्वयमेव ही अभीष्ट सुख प्राप्त होता है । जैसेयदि मनुष्य सघन वृक्षके नीचे पहुंचता है तो उसे उसकी छाया स्वयमेव प्राप्त होती है,उसके लिये वृक्षसे कुछ याचना आदि नहीं करनी पडती॥२२॥ विद्वान् मनुष्य निश्चयसे आत्मपरिणामको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते हैं । इसलिये अपने निर्मल परिणामके द्वारा पूर्वसंचित 1 मुद्रितप्रतिपाठोऽयम्, ज स संकल्पं । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आत्मानुशासनम् श्लो० २३परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ।। २३ ।। कृत्वा धर्मविघातं विषयसुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् । आच्छिद्य तरून् मूलात् फलानि गृहन्ति ते पापाः ॥ २४ ।। एवंविधो धर्मः कुतः उपार्जित इत्याह- परिणाममेवेत्यादि । खलु स्फुटम् । तस्मात् परिणामात्, अथवा यत: एवं तस्मात् । पापापचय: पापस्य अपचय: अनुपार्जनं निर्जरा च । पुण्योपचय: पुण्योपार्जनं पुण्याभिवृद्धिश्च । सुविधेयः सुखेन विधातुं शक्यः सुष्छु वा कर्तव्य: ॥२३॥ ये तु धर्मोपचयम् अकुर्वन्त: विषयसुखान्यनुभवन्ति तेषां निन्दां दर्शयन्नाह-- कृत्वा धर्मविघातमित्यादि ॥२४॥ पापकी निर्जरा, नवीन पापका निरोध और पुण्यका उपार्जन करना चाहिये ॥ विशेषार्थ- 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (तत्त्वा. ६-३) इस सूत्रमें आचार्यप्रवर श्री उमास्वामीने यह बतलाया है कि शुभ योग पुण्य तथा अशुभ योग पापके आस्रवका कारण है। यहां शुभ परिणामसे उत्पन्न मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिको शुभ योग तथा अशुभ परिणामसे उत्पन्न मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिको अशुभ योग समझना चाहिये। इस प्रकार जब पुण्यका कारण अपना ही शुभ परिणाम तथा पापका कारण भी अपना ही अशुभ परिणाम ठहरता है तब आत्महितको अभिलाषा करनेवाले भव्य जीवोंको अपने परिणाम सदा निर्मल रखने चाहिये, जिससे कि उनके पुण्यका संचय और पूर्वसंचित पापका विनाश होता रहे ॥२३॥ जो प्राणी अज्ञानतासे धर्मको नष्ट करके विषयसुखोंका अनुभव करते हैं वे पापी वृक्षोंको जडसे उखाडकर फलोंको ग्रहण करना चाहते हैं । विशेषार्थ-- जिस प्रकार उत्तम फलोंको चाहनेवाला मनुष्य उन फलोंको उत्पन्न करनेवाले वृक्षोंको जड-मूलसे उखाडकर कभी उन अभीष्ट फलोंको नहीं प्राप्त कर सकता है उसी प्रकार विषयसुखकी अभिलाषा करनेवाले प्राणी भी उस सुखके कारणभूत धर्मको नष्ट करके कभी उक्त विषयसुखको नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये यदि विषयसुखकी अभिलाषा है तो उसके कारगभूत धर्मका रक्षण अवश्य करना चाहिये । २४॥ जो धर्म Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६] धर्मस्य भावाभावयोर्गुण-दोषदर्शनम् २५ कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतेः स्मरणचरणवचनेषु । यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः ॥२५॥ धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽय तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ॥ २६ ॥ ननु तिरस्कारमात्रमेवेदं तत्सुखानुभवने धर्मोपार्जनस्य कर्तु सर्वथाप्यशक्यत्वादित्या. शङ्क्याह-- कर्तृत्वेत्यादि । धर्मविषये हि यत्स्मरणं तथा चरणम् अनुष्ठानं प्रतिपादनं तद्विषयाणि यस्य यानि (?) प्रत्येक कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतानि तैः । सर्वथा योऽभिगम्यः प्राप्यः मनाक् अगम्यो न भवति ॥ २५॥ एवंविधे धर्म प्राणिनां चित्ते वर्तमानेऽवर्तमाने च फलमुपदर्शयन्नाह-धर्मों वसेदित्यादि । जनकात्मजानां पितृपुत्राणाम् ॥२६ ॥ ननु विषयसुखमनुभवतां प्राणिनां मनसे स्मरण, शरीरके द्वारा आचरण तथा वचनकृत उपदेशको विषय करनेवाले कर्तृत्व (कृत), हेतुकर्तृत्व (प्रेरणा-कारित) और अनुमोदनके द्वारा सब प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है उस धर्मका संग्रह कैसे नहीं करना चाहिये ? अर्थात् सब प्रकारसे उसका संग्रह अवश्य करना चाहिये ॥ विशेषार्थ- जो भी शुभ अथवा अशुभ कार्य स्वयं किया जाता है वह कृत, जो दूसरोंके द्वारा प्रेरणापूर्वक कराया जाता है वह कारित, तथा दूसरोंके द्वारा किये जानेपर जिसकी स्वयं प्रशंसा की जाती है वह अनुमत कहा जाता है। ये तीनों ही मन, वचन और कायसे सम्बन्ध रखते हैं। यथा- मनकृत, मनकारित, मनानुमत, वचनकृत वचनकारित, वचनानुमत, कायकृत, कायकारित और कायानुमत । इस तरह चूंकि इन नौ प्रकारोंसे सुखप्रद धर्मका संग्रह भले प्रकार किया जा सकता है अतएव सुखाभिलाषी प्राणियोंको उक्त प्रकारसे उस धर्मका संग्रह करना चाहिये, यही उपदेश यहां दिया गया है ॥ २५ ॥ देखो, जब तक वह धर्म मनमें अतिशय निवास करता है तब तक प्राणी अपने मारनेवालेका भी घात नहीं करता है । और जब वह धर्म मनमेंसे निकल जाता है तब पिता और पुत्रका भी परस्परमें घात देखा जाता Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [इलो०. २७ न सुखानुभवात् पापं पापं तद्धेतुघातकारम्भात् । नाजोणं मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥२७॥ पापोपार्जनसंभवात्कयं धर्मः स्यात् इत्याशक्य आह-- न सुखानुभवादित्यादि । तद्धतुघातकारम्भात् तस्य धर्मस्य हेतवौजसादयस्तेषां धातकस्य विनाशकस्य जीववधादेरारम्भात् हिमाद्यावेशकरणात् । तन्मात्राद्यतिक्रम गात् तस्य भोजनस्य मात्राद्यतिक्रमोऽतिमात्रस्य वेलातिक्रमयुक्तस्य प्रकृत्यवस्थाविरुद्धस्य चाहारस्य ग्रहण तस्मात् । नो चेन्नित्यभोजनमात्रादधिकात् । २७।। ननु हिंसादिकर्मणः पापद्धिक्रीडादे है। इसलिये इस विश्वकी रक्षा उस धर्मके रहने पर ही हो सकती है। विशेषार्थ-धर्मका स्वरूप दया है। वह धर्म जिसके हृदयमें स्थित रहता है वह दूसरोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु अपने घातकका भी अनिष्ट नहीं करता है । जैसे- यदि कोई दुष्ट जन किसी अहिंसा महाव्रतके धारक साधुके लिये गाली देता है या प्राणहरण भी करता है तो भी वह अपने उस घातकका प्रतीकार नहीं करता, प्रत्युत इसके विपरीत वह उसके हितका ही चिन्तन करता है। वह सोचता है कि यह बिचारा अज्ञानी प्राणी अज्ञानवश कुमार्गमें प्रवृत्त हो रहा है, वह कब कुमार्गको छोडकर . सन्मार्गमें प्रवृत्त होगा, आदि। इसके विपरीत जिसके हृदयमें वह दयामय धर्म नहीं रहता है वह औरकी तो बात क्या, किन्तु अपने पिता और पुत्रका भी घात कर डालता है। ऐसे उदाहरण देखने व सुनने में जब तब आते ही रहते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि विश्वका कल्याण करनेवाला यदि कोई है तो वह एक धर्म ही हो सकता है ॥ २६ ।। पाप सुखके अनुभवसे नहीं होता है, किन्तु वह उपर्युक्त धर्मके हेतुभूत अहिंसा आदिको नष्ट करनेवाले प्राणिवधादिके आरम्भसे होता है । ठीक ही है- अजीर्ण कुछ मिष्टान्नके खानेसे नहीं होता है, किन्तु वह निश्चय से उसके प्रमाणके अतिक्रमणसे ही होता है ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार स्वादके निमित्त परिमित मिष्टान्न आदिके खानेसे कभी अजीर्ण नहीं होता, किन्तु वह जिव्हालम्पट होकर उसे अधिक प्रमाणमें खानेपर ही- होता है; उसी प्रकार विषयसुखके अनुभव मात्रसे कुछ पाप Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ -२८] मृगयादीनां सुखाहेतुत्वम् अप्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्षदुःखास्पदं पापराचरितं पुरातिमयदं सौख्याय संकल्पतः । धर्मवत्सुखहेतुत्वप्रसिद्धः कथं तद्धेतुघातकारम्भात्पापं स्यात्, पापहेतोः सुखहेतुत्वाविरोधात् इत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह- अन्येतदि:यादि। अपि शब्द: प्रत्येकमभिसंबन्धनीयः । एतत्सरिदृश्यमानं भृगयादिकमपि । मृगया पापद्धिः । आदिशब्दादनृतचौर्यादिग्रहणम्। किविशिष्टं तत् । प्रत्यक्षदुःखास्पदमपि प्रत्यक्षतः प्रतीयमानानां तन्निमित्तदुःखानाम् नहीं होता, किन्तु वह उस सुखकी प्राप्तिके निमित्त अन्याय्य आचरण करनेसे- जैसे प्राणिहत्या, असत्यभाषग, चोरी, परस्री या वेश्याका सेवन अयवा अत्यासक्तिसे स्वस्रोका भी सेवन और तृष्णाको अधिकता आदिसे- होता है। यदि प्रागी पूर्वकृत धर्मके प्रभावसे प्राप्त हुई सामग्रीमें ही सन्तोष रखकर धर्मका घात न करता हुआ अनासक्तिपूर्वक उस विषयसुखका अनुभव करता है तो इससे वह पापसे विशेष लिप्त नहीं होता है । इसके लिये असाधारण वैभवका उपभोग करनेवाले भरत चक्रवर्ती आदिके उदाहरण भी पुराणोंमें देखे ही जाते हैं। यही तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके आचरणमें भेद है । कारण कि चारित्रमोहके उदयसे इन्द्रिजन्य सुखके भोगनेमें वे दोनों ही समानरूपसे प्रवृत्त होते हैं, फिर भी विशेषता उनमें यही है कि एक (सम्यग्दृष्टि) तो हेय-उपादेयके विवेकपूर्वक उसमें अनासक्तिसे प्रवृत्त होता है जब कि दूसरा उक्त विवेकको छोडकर अत्यासक्तिके साथ ही उसमें प्रवृत्त होता है। इसलिए यह नहीं समझना चाहिये कि विषयसुखका अनुभव करते हुए प्राणीके केवल पाप ही होता है और धर्म नहीं होता ॥ २७ ॥ हे भव्य जीव ! जो शिकार आदि व्यसन प्रत्यक्षमें ही दुखके स्थानभूत हैं, जिनमें पापी जीव ही प्रवृत्त होते हैं, तथा जो परभवमें दुखदायक होनेसे अतिशय भयानक हैं; वे भी यदि संकल्प मात्रसे तेरे सुखके लिये हो सकते हैं तो फिर विवेकी जन इन्द्रियसुखको न छोडकर जिस धर्मयुक्त आचरणको Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आत्मानुशासनम् ... [दलो० २८संकल्पं तमनुज्झितेन्द्रियसुखैरासेविते धीधनः धर्म्य कर्मणि किं करोति न भवॉल्लोकद्वयश्रेयसि ॥२८॥ आस्पदं स्थानम् । तथा पापैराचरितमपि पापिष्ठः पुरुषः अनुष्टितम् । पुरा अतिभयदमपि भवान्तरे प्रचुरदुःखदायित्वात् अतिभयदम् । इत्यंभूतं मृगय दिकमपि यदि तव सौख्याय सौख्यनिमित्तं भवति । कस्मात् । संकल्पत: चित्तोल्लासात् । तदा धर्म्य कर्मणि धर्मादन पेते कर्मणि हिंसादिविरतिदानदेवपूज दिलक्षणे । तं प्रसिद्धं सौख्यहेतुभूतं संकल्पं किं करोति न भवात् ( किं न करोति भवन् ) । कथंभूते तस्मिन् धर्म्य कर्मणि । आसेविते अनुष्टिते । कैः । धीधन: विवेकिभिः । किविशिष्टः । अनुज्झितेन्द्रियसुखैः विषयसुखमनुभवद्भिः गृहस्थैः अपि अनुष्ठीयमाने । पुनरपि कथभूते । लोकद्वयश्रेयसि इहलोके परलोके च उपकारकत्वेन प्रशस्ते ॥२८॥ पापद्धिक्रीडारतानां अतिनिःकरुणत्वं दर्शयन्नाह - भीतेत्यादि । करते हैं तथा जो दोनों ही लोकोंमें कल्याणकारक है उस धर्ममय आचरणमें तू उक्त संकल्पको क्यों नहीं करता है ? अर्थात् उसमें ही तुझे सुखकी कल्पना करना चाहिये । विशेषार्थ- सुख और दुख वास्तवमें अपने मनकी कल्पनाके ऊपर निर्भर हैं। इस कल्पनाके अनुसार प्राणी जिन पदार्थोंको इष्ट समझता है उनकी प्राप्तिमें वह सुख तथा उनकी अप्राप्तिमें दुखका अनुभव करता है। उसी प्रकार जिन पदार्थोंको उसने अनिष्ट समझ रक्खा है उनके संयोगमें वह दुखी तथा वियोगमें सुखी होता है । परन्तु यथार्थ में यदि विचार किया जाय तो कोई भी वस्तु न तो सर्वथा इष्ट है और न सर्वथा अनिष्ट भी। उदाहरणके रूपमें एक ही समयमें जहाँ किसी एकके घरपर इष्ट सम्बन्धीका मरण होता है वहीं दूसरेके घरपर पुत्रविवाहादिका उत्सव भी संपन्न होता है। अब जिसके यहां इष्टवियोग हुआ है वह उस एक ही मुहूर्तको अनिष्ट कहकर रुदन करता है और दूसरा उसे ही शुभ घडी मानकर अतिशय आनन्दका अनुभव करता है । इससे निश्चित प्रतीत होता है कि जिस प्रकार वह घडी (मुहूर्त) वास्तवमें इष्ट और अनिष्ट नहीं है न निःकरुणात्वं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२९] पाद्धिरतानां निर्दयत्वम् २९ भीतमूर्तीगतत्राणा निर्दोषा देहवित्तकाः। दन्तलग्नतृणा घ्नन्ति मृगीरन्येषु का कथा ॥२९॥ भीतमर्तीः भयकम्पितगात्राः । गतत्राणा. रक्षणरहिताः । निर्दोषा: दोषरहिताः । देहवित्तका: देह एव वित्तं धनं यासाम् । घ्नन्ति मारयन्ति ॥ २९ ॥ हिंसाविरतिव्रते दाढयं विधाय अनृतस्तेयविरतिव्रते तद्विधातुमाह-पैशुन्येत्यादि । पैशुन्यं परपरिवादः । उसी प्रकार कोई भी बाह्य पदार्थ स्वरूपसे इष्ट और अनिष्ट नहीं हो सकता है । उन्हें केवल कल्पनासे ही प्राणी इष्ट व अनिष्ट समझने लगते हैं। प्रकृतमें जिन शिकार आदि दुष्कृत्योंमें प्रत्यक्षमें ही प्राणिवियोगादिजन्य दुख देखा जाता है उनके सम्पन्न होनेपर शिकारी जन सुखको कल्पना करते हैं । पर भला विचार तो कोजिये कि दूसरे दीन प्राणियोंको कष्ट पहुंचानेवाले वे कार्य क्या यथार्थमें सुख कारक हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब सुख और दुख कल्पनाके ऊपर ही निर्भर हैं तब विवेकी जनको उभय लोकोंमें कष्ट देनेवाले उन प्राणिवधादिरूप दुष्कार्यों में सुखको कल्पना न करके जो अहिंसा एवं सत्य संभाषणादि उत्तम कार्य उभय लोकोंमें सुखदायक हैं तथा जिनकी सबके द्वारा प्रशंसा की जाती है उनमें ही सुखको कल्पना करके प्रवृत्त होना चाहिये ।।२८। जिन हिरणियोंका शरीर सदा भयसे कांपता रहता है, जिनका वनमें कोई रक्षक नहीं है, जो किसीका अपराध (अनिष्ट) नहीं करती हैं, जिनके एक मात्र अपने शरीरको छोडकर दूसरा कोई धन नहीं है, तथा जो दांतोके बीचमें अटके हुए तृणोंको धारण करती हैं; ऐसी हिरणियोंका भी घात करनेसे जब शिकारी जन नहीं चूकते हैं तब भला दूसरे (सापराध) प्राणियोंके विषयम क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् उनका घात तो वे करेंगे ही ।। विशेषार्थ- यह प्रायः लोकमें प्रसिद्ध ही है कि सच्चे शूर-वीर युद्धनीतिके अनुसार ऐसे किसी भी प्राणीके ऊपर शस्त्रका प्रहार नहीं करते हैं जो कि कायरताको प्रगट कर रहा हो, अरक्षित हो, निरपराध हो Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [इलो ३० आत्मानुशासनम् पैशुन्यदन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात। लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयश सुखमयार्थम् ॥३०॥ पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनोदशोऽमि. नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै । दैन्यं क्लीबता दम्भो कञ्चना ।स्तेयं चौर्यम् । अनृतम् ऋतं सत्यं न ऋतम् अनृतमा असत्यम् । तेभ्यः पातकानि तान्येक पातकानि(वा)। आदिशब्दात् स्तेनप्रयोगतदाह: तादानादयो गृह्यन्ते तेषां परिहारात अनृतविरतिव्रते पैशुन्यदैन्यपरिहारयोरन्तर्भाव: स्तेयविरतिव्रते दम्भपरिहारस्यान्तर्भाव: । लोकद्वयहितम् इहलोके परलोके हितका रकम्। अर्जय उपार्जय॥३०॥ननु वतीनममध्युपसर्गे समयाते आत्मरक्षार्थ हिंसानृतादिः क्वचित्स्यादित्यत्राह- पुण्यमित्यादि । कृतपुण्वं पुण्यवन्तं प्राणिनम् । अन्नदृशाऽफि सैन्य व शस्त्रादिंसे रहित हो, अथवा दातोंमें तृणोंको धारण करके अपने पराजयको प्रकट कर रहा हो। इसके अतिरिक्त वे स्त्रियों और बालकोंका घात तो किसी भी अवस्थामें नहीं करते हैं। परंतु खेद है कि शिकारी जनका बह कार्य इससे सर्वथा विपरीत होता है-जहां वीर पुरुष उपयुक्त अवस्थाओंमेंसे किसी एक ही अवस्थाके होनेपर प्राणीका घात नहीं करते हैं. वहां शिकारोजन हिरणियोंमें उन सभी अवस्थाओं (कायरता, अरक्षितता, निरपराधता,शस्त्रादिहीनता, दन्तस्थतृणता और स्त्रीत्व) के रहनेपर. उनका निर्दयतासे घात करते हैं । ऐसी अवस्थामें वे अन्य सापराधा प्राणियोंका घात किये विना भला कैसे रह सकते हैं? अतएव उनका कार्य सर्वथा निन्दनीय तो है ही, साथमें वह उभय लोकोंमें उन्हे दुःख देनेवाला भी है ॥२९॥ हे भव्य जीव ! तूपरनिन्दा दीनता, छल-कपट, चोरी और असत्य भाषण आदि पापोंको छोडकर उनके प्रतिपक्षभूत सत्यसंभाषण एवं अचौर्य व्रतोंको-जो दोनों ही लोकमें हितकारक हैं-धारण कर । कारण कि ये सबके लिये धर्म, धान, कीर्ति और सुखके कारणभूत हैं ॥३०॥ हे भव्य जीव ! तू पुण्य कार्यको कर, क्योंकि पुण्यवान् प्राणीके ऊपर असाधारण भी उपद्र कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता है। इतना ही नहीं बल्कि वह Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२] पुण्यस्य सुखप्रदत्वम् संतापयञ्जयदशेषमशीतरश्मिः पद्येषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम् ॥३१॥ नेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुखः सैनिकाः स्वयं दुर्धमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारणः । ३१ अद्वितीयो । उपद्रवो नाभिभवति न अभिभयं कुर्यात् । स प्रभवेच्च संपद्यते च ॥ भूत्यै विभूतिनिमित्तम् । ननुपसर्गस्थापकारकत्वात्कथं विभूतिहेतुत्वम्, न हि विषं तहेतुर्भवतीत्याशङ्क्याह संतापयन्नित्यादि । अयमर्गः यथा अशीतं रश्मेरादित्यस्व संतापो जगत्यपकारं कुर्वन्नपि पद्येषूपकारहेतुर्भवति तथा अपुण्यवति उपद्रवोऽपकाराय प्रवृत्तोऽपि पुण्यवति उपकारनिमित्तं भवतीति ॥ ३१॥ अथोच्यते पौरुषादेव शत्रूनभिभू उपसर्गस्य निवारयितुं शक्यत्वात् अलं पुण्येन इत्याशङ्क्याह- नेता यत्रेत्यादि । नेता मंत्री । सैनिकाः भृत्याः सेनायां समवेताः सैनिकाः सेवग्या वा" जैनेन्द्रस्, ३।३।१६६ उपद्रव भी उसके लिये सम्पत्त्विका साधन बन जाता है । देखो, समस्त संसारको संतप्त करनेवाला भी सूर्य कमलोंमें विकासरूप लक्ष्मीको ही करता है ॥ विशेषार्थ जिस प्रकार सूर्य दूसरों को संतापकारक भले ही हो, किन्तु वह कमलों को तो प्रफुल्लित ही करता है, उसी प्रकार जो उपद्रव अन्य पापी प्राणियोंके लिये कष्टदायक होता है वही पुण्यात्मा rain लिये सुखका साधन बन जाता है । देखो, अग्नि प्राणघातक है यह सब ही अनुभव करते हैं, परन्तु वह प्रज्वलित भयानक अग्नि भी सीता महासती के लिये जलरूप परिणत हो गई थी । यह सब उस पुण्येका ही प्रभाव है । इसीलिये सुखकी अभिलाषा करनेवाले मव्य जीवोंके लिये पाप कार्योंको छोड़कर सदा पुण्य कार्योंमें प्रवृत्त होना चाहिये ॥३१॥ जिसका मंत्री बृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग (किला) स्वर्ग था, हाथी ऐरावण था, तथा जिसके ऊपर विष्णुका अनुग्रह (सहायता) भा; इसप्रकार अद्भुत बलसे संयुक्त भी वह इन्द्र युद्ध में दैत्यों (अथवा रावण आदि) द्वारा पराजित हुआ है । इसीलिये यह स्पष्ट है कि निश्चयसे दैव (भाग्य) ही प्राणीका रक्षक है । पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसके लिये वारंवार धिक्कार हो । विशेषार्थ इससे पूर्वके श्लोकमें पुण्यको Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् ...... श्लो० ३२इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलभिग्नः परः सङ्गरे तद्वयक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्या पौरुषम् ॥ ३२॥ इति इकग् । अनुग्रहः सहायत्वं वरो वा। हरेविष्णोः । वारणः हस्ती। इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि एवंविधः सातिशयबलयुक्तोऽपि । बलमिदिन्द्रः । भग्नः पराजितः परैः। कैः। रावगादिशत्रुभिः। सङ्ग्रे सग्रामे। तद् व्यक्त सर्वप्रसिद्धमेतत् । अथवा ततस्मात् व्यक्तं स्फुटम् । ननु अहो पौरुषवादिन् । तथापि दैवमेव शरणम् । धिक् धिक् अतिशयेन निन्द्यं पौरुषम् । अतो देवरहितं वृथा विफलं पौरुषम् । ३२ ॥ ननु हिंसादिविरतिप्रभवस्य अदृष्टस्य इदानीम् प्रधान बतलाकर उसको उपजित करनेकी प्रेरणा की गई है । इसपर शंका उपस्थित हो सकती थी कि शत्रु आदिके द्वारा जो उपद्रव आरम्भ किया जाता है उसे पुरुषार्थके बलपर ही नष्ट किया जा सकता है, न कि दैवके ऊपर निर्भर रहते हुए अकर्मण्य बनकर । इसलिये अनुभवसिद्ध पुरुषार्थको छोडकर अदृष्ट दैवके ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। इस आशंकाको ध्यानमें रखकर यहां इन्द्रका उदाहरण देते हुए यह बतलाया है कि देखो जो इन्द्र बृहस्पति आदिरूप असाधारण साधन सामग्रीसे सम्पन्न था वह भी मनुष्य कहे जानेवाले रावण आदिके द्वारा पराजित किया गया है (प. च. पर्व १२) । यदि पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धका कारण होता तो वह देवोंका अधीश्वर कहा जानेवाला इन्द्र रावण आदि पुरुर्षोके द्वारा कभी पराजित नहीं हो सकता था, क्योंकि, उसका पुरुषार्थ असाधारण था । परन्तु वह पराजित अवश्य हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि देवके आगे पुरुषार्थ कुछ कार्यकारी नहीं है। यह उन लोगोंको लक्ष्य करके कथन किया गया है जो सर्वथा देवकी उपेक्षा करके केवल पुरुषार्थक बलपर ही कार्यसिद्धि करना चाहते हैं । वास्तवमें यदि विचार किया जाय तो सर्वथा पुरुषार्थके द्वारा कार्यको सम्भावना नहीं दिखती । कारण कि हम देखते हैं कि समानरूपसे पुरुषार्थ करनेवाले अनेक व्यक्तियोंमें कुछ यदि सफलताको प्राप्त करते हैं तो कुछ विफलताको भी। एक ही कक्षामें अध्ययन करनेवाले विद्यार्थियोंमें कुछ तो गुरुके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वको शीघ्रतासे ही ग्रहण करते हैं, कुछ उसे धीरे धीरे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२] दैवस्य प्रधानत्वम् समझने में समर्थ होते हैं, और कुछ प्रयत्न करते हुए भी उसे ग्रहण करनेमें असमर्थ ही रहते हैं । इसी प्रकार उनके परीक्षा में बैठने पर जिनके प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण होने की आशा की जाती थी वे अनुत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं तथा जिनके उत्तीर्ण होनेकी सम्भावना नहीं थी वे उत्तम श्रेणीमें उत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं । इससे निश्चित होता है कि अकेला पुरुषार्थ ही कार्यकारी नहीं है, अन्यथा किया गया पुरुषार्थ कभी निष्फल ही नहीं होना चाहिये था । इसी तरह जिस प्रकार केवल पुरुषार्थसे कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है उसी प्रकार केवल दैवसे भी कार्यकी सिद्धि सम्भव नहीं है । कारण यह कि यदि सर्वथा दैवको ही कार्यसाधक स्वीकार किया जाय तो यह शंका होती है कि वह दैव भी उत्पन्न कैसे हुआ ? यदि वह दैव पूर्व पुरुषार्थके द्वारा निष्पन्न हुआ है तब तो सर्वथा देवकी प्रधानता नहीं रहती है, और यदि वह भी अन्य पूर्व दैवके निमित्तसे आविर्भूत हुआ है तो फिर वैसी अवस्था में दैवकी परम्पराके चलते रहने से कभी मोक्षकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । इसलिये मोक्षके निमित्त किया जानेवाला प्रयत्न निष्फल ही सिद्ध होगा । अतएव जब उन दोनोंमें अन्यको उपेक्षा करके किसी एक (दैव या पुरुषार्थ ) के द्वारा कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है तब यहां ऐसा निश्चय करना चाहिये कि प्रत्येक कार्यकी सिद्धिमें वे दोनों ही कारग होते । हां, यह अवश्य है कि उनमेंसे यदि कहीं दैवको प्रधानता और पुरुषार्थकी गौणता भी होती है तो कहीं पुरुषार्थकी प्रधानता और दैवकी गोणता भी होती है । जैसे कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है— अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् । ।। आ. मी. ९१ अभिप्राय इसका यह है कि पूर्व में वैसा कुछ विचार न करनेपर भी जब कभी अकस्मात् ही इष्ट अथवा अनिष्ट घटना घटती है, तब उसमें दैवको प्रधान और पुरुषार्थको गौण समझना चाहिये । जैसे- अकस्मात् भूमिके खोदने आदिमें धनकी प्राप्ति अथवा यात्रा करते हुए किसी दुर्घटनामें मरणकी आ. ३ ३३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आत्मानुशासनम् [श्लो० ३३भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पहाः । स्पृष्टाः कैरपि नो नभो विभुतया विश्वस्य विश्रान्तये सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोऽप्यमी ॥३३॥ अनुष्ठातारो आसंभाव्यः, पूर्वमेव तेषां वार्तामात्रेण श्रूयमाणत्वात् इति वदन्तं प्रत्याह-- भर्तार इत्यादि । भर्तारो अभ्युद्धर्तारः पोषकाः वा। कस्याः भुव: पृथिव्याः । कुलपर्वता इव । इवशब्दो यथार्थः । यथा कुलपर्वता षट् हिमवदादयः । किं कृत्वा । मोहं विहाय निर्मोहाः सन्तः । रत्नानां निधय: पयोधयः इव-- यथा पयोधयः समुद्राः मुक्ताफलादिरत्नानां निधयः आश्रया: तथैव ते! सम्यग्दर्शनादिरत्नानाम् । कथंभूताः सन्तस्ते निधयः । व्यावृत्तवित्तस्पृहा व्यावृत्ता विनप्टा वित्तस्य द्रव्यस्य स्पृहा वाञ्छा येषाम् । तथा स्पृष्टा: कैरपि नो- स्पृष्टा लिप्ताः संश्लिष्टाः । कैरपि रागादिमल: । नो नैव । नभ इव । इव-शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः । यथा नभो निर्मलं तथा तेऽपि निर्मला: इत्यर्थः तथा विभुतया परममहत्त्वेन । नभ इव विश्वस्त्र जगतो विश्रान्तये क्लेशापनोदाय अवस्थानाय च । एवंविधगुणोपेताश्चिरन्तनानां महामुनीनां अन्तिकचरा: शिष्याः सन्त: सन्मार्गानुष्ठायिनः। अद्यापि इदानीं तेन ( इदानींतनेन ) कालेन । कियन्तोऽपि प्रतिनियताः । अमी अपि दृश्यमानाः ।।३३।। प्राप्ति । उसी प्रकार पूर्वापर विचार करने के पश्चात वैसा प्रयत्न करते हुए जो इष्ट अथवा अनिष्ट फल प्राप्त होता है उसमें पुरुषार्थकी प्रधानता और दैवकी गौणता समझनी चाहिये । जैसे- व्यापार आदि कार्य करके धनका प्राप्त करना अथवा विषभक्षण आदिके द्वारा मरणका प्राप्त करना ॥ ३२॥ जो स्वयं मोहको छोडकर कुलपर्वतोंके समान पृथिवीका उद्धार करनेवाले हैं, जो समुद्रोंके समान स्वयं धनकी इच्छासे रहित होकर रत्नोंके स्वामी हैं, तथा जो आकाशके समान व्यापक होनेसे किन्हींके द्वारा स्पृष्ट न होकर विश्वकी विश्रान्तिके कारण हैं; ऐसे अपूर्व गणोंके धारक पुरातन मनियोंके निकटमें रहनेवाले वे कितने ही साधु आज भी विद्यमान हैं । विशेषार्थ- यहां यह आशंका हो सकती थी कि दैवके ऊपर विश्वास रखकर व्रतोंका आचरण कलेवाले 1 सत Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ -३४] मोहमाहात्म्यदर्शनम् पिता पुत्रं पुत्रः पितरमभिसंधाय बहुधा विमोहादीहेते सुखलवमवाप्तुं नृपपदम् । अहो मुग्धो लोको मृतिजननदंष्ट्रान्तरगतो न पश्यत्यान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम् ॥ ३४॥ एतैरनुष्ठीयमानमार्गबाह्यः संसारस्थितिमपश्यन्नयं लोकः किं करोतीत्याह-- पिता पुत्रमित्यादि । अभिसंधाय वञ्चित्वा। ईहेते अभिलपत: । सुखलवं सुखस्य लवो लेगो यत्र । अश्रान्तम् अनवरतम् । तनुमपहरन्तं शरीरं विनाशयन्तम् । अमुं लोकप्रसिद्धं यमम् ॥ ३४ ॥ विषयव्यामुग्धस्य पुत्रवधाद्यकृत्य मनुष्य इस समय सम्भव नहीं हैं, उनकी केवल पुराणोंमें ही बात सूनी जाती है । इस आशंकाका परिहार करते हुए यहां यह बतलाया है कि वैसे साधु पुरुष कुछ थोडे-से आज भी यहां विद्यमान हैं, उनका सर्वथा अभाव अभी भी नहीं है । जिस प्रकार हिमालय आदि कुलपर्वत मोहसे रहित होकर पृथिवीको धारण करते हैं उसी प्रकार वे साध जन भी निर्मोह होकर पथिवीके प्राणियोंका उद्धार करते हैं, जिस प्रकार समुद्र मोती आदि बहुमूल्य रत्नोंका आश्रय (रत्नाकर) होकर भी स्वयं उनको इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार वे साधु पुरुष भी सम्यग्दर्शन आदिरूप गुणरत्नोंके आश्रय होकर धनको इच्छासे रहित होते हैं, तथा जिस प्रकार आकाश किन्हीं पदार्थोंसे लिप्त न होकर अपने व्यापकत्व गुणसे समस्त पदार्थोंको आश्रय देता है; उसी प्रकार वे साधु जन भी रागादि दोषोंसे लिप्त न होकर अपने महात्म्यसे समस्त प्राणियोंके संक्लेशको दूर करके उनको आश्रय देते हैं ॥३३॥ पिता पुत्रको तथा पुत्र पिताको धोखा देकर प्रायः वे दोनों ही मोहके वश होकर अल्प सुखवाले राजाके पद (सम्पत्ति) को प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं । परन्तु आश्चर्य है कि मरण और जन्मरूप दाढोंके बीचमें प्राप्त हुआ यह मूर्ख प्राणी निरन्तर शरीरको नष्ट करनेवाले उस उद्यत यमको नहीं देखता है ॥३४॥ जिसके नेत्र इन्द्रियविषयोंके द्वारा अन्धे कर दिये गये हैं अर्थात् विषयोंमें मुग्ध रहनेसे जिसको विवेकबुद्धि नष्ट हो चुकी है ऐसा यह प्राणो उस Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् .. .. [श्लो० ३५अन्धादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ॥ ३५॥ आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वथा वो विषयषिता ॥३६॥ प्रवृत्तौ कारणमाह-- अन्धादित्यादि। विषयान्धीकृतेक्षणः अनन्धानि अन्धानि कृतानि अन्धीकृतानि, विषयै अन्धीकृतानि ईक्षणानि इन्द्रियाणि यस्य ॥ ३५ ॥ किंचित् (किं च ) विषयवाञ्छया कृते प्रवृत्तिः, तद्वाञ्छा च प्रतिप्राणि विद्यते, अत: कस्य वाञ्छितसिद्धिः स्यात् इत्याह- -- आशेत्यादि । आशा एव गर्तः आशागतः । यस्मिन् आशागते । विश्वं जगत् । अणूपमं परमाणुतुल्यम् । कस्येत्यादि । कस्य आशावतः । किं जगत् । कियत् कियत्परिमाणम् । विभागेन वंद्य (वट्रय ) मानम् । आयाति । अतः वृथा। व: युप्माकम् । विषयषिता विषयाभिलाषित्वम् ॥३६॥ अत: एवं विषयसुखं विहाय विशिष्टपुण्योपार्जनार्थम् लोकप्रसिद्ध अन्धेसे भी अधिक अन्धा है, क्योंकि अन्धा प्राणी तो वे वल चक्षुके ही द्वारा नहीं जान पाता है, परन्तु वह विषयान्ध मनुष्य इन्द्रियों और मन आदिमेंसे किसीके द्वारा भी वस्तुस्वरूपको नहीं जान पाता है ॥ ३५ ॥ आशारूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणीके भीतर स्थित है जिसमें कि विश्व परमाणुके बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिये क्या और कितना आ सकता है ? अर्थात् प्रायः नहींके समान ही कुछ आ सकता है। अतएव हे भव्यजीवो! तुम्हारी उन विषयोंकी अभिलाषा व्यर्थ है। विशेषार्थ-- अभिप्राय इसका यह है कि प्रत्येक प्राणीकी तृष्णा इतनी अधिक बढी हुई है कि समस्त विश्वकी सम्पत्ति भी यदि उसे प्राप्त हो जाय तो भी उसकी वह तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। फिर भला जरा विचार तो कीजिये कि प्राणी तो अनन्त हैं और उनमें से प्रत्येककी विषयतृष्णा उसी प्रकारसे वृद्धिंगत है। ऐसी अवस्थामें यदि विश्वको समस्त सम्पत्तिको भी उनमें विभाजित किया जाय तो उसमेंसे प्रत्येक प्राणीके लिये जो कुछ प्राप्त हो सकता है वह नगण्य ही होगा। अतएव यहां यह उपदेश दिया गया Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८] परलोकसिद्धयर्थमेव मुनीनों प्रवर्तनम् आयुःश्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं स्यात् सर्व न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि । इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोद्यमा द्रायागामिभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम् ॥३७॥ कः स्वादो विषयेष्वसौ कटुविषप्रख्येवलं दुःखिना यानम्वेष्टुमिव त्वयाऽशुचिकृतं येनाभिमानामृतम् । एव मुनयः प्रवर्तन्ते,शरीरादेः तस्मिन् सति एबे संभवात् इति दर्शयन् आह-आयु:श्रीरित्यादि । न भवेल पुण्यं ने तत् चे आयुरादिकम् अपि भवेत् । आयासिते अपि क्लेखिते अपि आत्मनि । इति एवम् । सुविचार्य । के ते। आर्याः गुणैः गुणवद्भिः वा अर्यन्ते इति आर्यः । कार्य अत्र ऐहिके आयुरादिकार्थे । मन्दोद्यमाः आदररहिताः । द्वार शीघ्रम् । आगामिभवार्थ परलोकसिद्धयर्थम् । ससतम् अनवरतम् । कया । प्रीत्या प्रसत्त्या । यतन्ते तरम् उद्यम कुर्वन्ति अत्यर्थम् ॥३७॥ ननु ऐहिकसुखसाधकेषु दैववशात्प्राप्तेषु विषयेषु कस्मान्मन्दोद्यमो विधीयते इत्याह--क: स्वाद इत्यादि । कटुविषप्रख्येषु कटुविषसदृशेषु यथा कटुविषम् आस्वादितं दाह-संताप-मूर्छामरणादिकं करोति तथा विषय अंपि । दुःखिना है कि जब प्राणीकी विषयतृष्णा कभी पूर्ण नहीं हो सकती, बल्कि वहे उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है; तब उन विषयोंकी इच्छा करना ही व्यर्थ है ॥३६॥ यदि पूर्वमें प्राप्त किया हुआ पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीर आदि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं । परन्तु यदि वह पुण्य नहीं है तो फिर अपनेको क्लेशित करनेपर भो वह सबं (इष्ट आयु आदि) बिल्कुल भी नहीं प्राप्त हो सकता है। इसीलिये योग्यायोग्य कार्यका विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार विचार करके इस लोक सम्बन्धी कार्यके विषयमें विशेष प्रयत्न नहीं करते हैं, किन्तु आगामी भवोंको सुन्दर बनानेके लिये ही वे निरन्तर प्रीतिपूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं ॥३७॥ कडुए विषके संदश संताप उत्पन्न करनेवाले उन विष. योंमें वह कौन-सा स्वाद (आनन्द) है कि जिसके निमित्तसे उक्त विषयोंको खोजनेके लिये दुखी होकर तूने अपने स्वाभिमान (आत्मगौरव) रूप अमृतको मलिन कर डाला है ? अरे,मुझे निश्चय हो चुका है कि तू Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.८ [ श्लो० ३८ आत्मानुशासनम् आज्ञातं करणैर्मनः प्रणिधिभिः पित्तज्वराविष्टवत् कष्टं रागरसः सुधीरस्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः ॥ ३८ ॥ अनिवृत्तेर्जगत्सर्वं मुखादवशिनष्टियत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ॥ ३९॥ 1 सता । यान् विषयान् । अन्वेष्टुं वाञ्छितुम् । अलम् अशुचि कृतम् । येन आस्वादेन कृत्वा कारणेन वा । अभिमानामृतम् अभिमान एक अमृतम् । आ ज्ञातं निश्चितं मया । व्यत्यासितास्वादन: विपरीतकृतास्वादन: त्वम् । सुधीः अपि सन् इति कष्टं निन्द्यमेतत् । किंक्त् । पित्तज्वराविष्टवत् पित्तज्वरागृहीतवत् । कैः व्क्त्यासितास्वादनः । करणैः । किविशिष्टैः । मनः प्रणिधिभिः मनः प्रणिधिः दूतो येषां मनसो वा प्रणिधः । या रागरसैः विश्वविषयेषु रागरसो येषाम् । ३८ ॥ विषयासक्तस्य भवतः क्वचिदपि अनिवृत्त वेतसः भक्षितुमसामर्थ्यादेव किंचिदुद्रियते इति आह — अनिवृत्तेरित्यादि । अनिवृत्तेः क्वचिदपि विषये हिंसादिनिवृत्तिरहितस्य तव । अवशिनष्टि उद्रियते । तस्य अनिवृत्तिपरिणतस्य तव । वितनोः राहोः ।। ३९ ।। दैवात् सकरुणचेतसा मोक्षलक्ष्मीप्रार्थितया हिंसानिवृत्तिमिच्छता विद्वान् होकर भी पित्तज्वर से पीडित मनुष्यकी तरह मनकी दूती के समान होकर विषयों में आनन्द माननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा विपरीत स्वादवाला कर दिया गया है । विशेषार्थ - जिस प्रकार विषके भक्षणसे प्राणीको संताप आदि उत्पन्न होता है उसी प्रकार उन विषयों के उपभोग से भी प्राणको संताप आदि उत्पन्न होता है । अतएव वे विषय विषके ही समान हैं । फिर भी प्राणी उन्हें सुखके कारणभूत एवं स्थायी मानकर उनको प्राप्त करनेके लिये जो अयोग्य आचरण करता हुआ आत्मप्रतिष्ठा को भी नष्ट कर डालता है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त पुरुषको जीमका स्वाद विपरीत हो जाता है, जिससे कि उसे मधुर दूध भी कडुआ प्रतिभासित होने लगता है, ठीक उसी प्रकार मनसे प्रेरित होकर विषयोंमें अनुरक्त हुई इन्द्रियोंके दास बने हुए इस संसारी प्राणीको भी मोहवश विषतुल्य उन विषयोंके भोगने में आनन्दका अनुभव होता है तथा विषयनिवृत्तिरूप जो निराकुल सुख है वह . उसे कडुआ प्रतीत होता है ||३८|| तृष्णा की निवृत्तिसे रहित अर्थात् अधिक तृष्णासे युक्त होकर भी तेरे मुखसे जो सब जगत् अवशिष्ट बचा है वह तेरी भोगने की शक्ति न रहनेसे ही शेष रहा है। जैसे- राहुके Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहणात् पूर्वमेव परिप्रहस्य परिहार्यत्वम् ३९ सामाज्यं कयमप्यवाप्य सुचिरात्संसारसारं पुनः तत्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवराः प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् । त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर त्याज्यान गृहीत्वापि ते मा भूमौतिकमोरकव्यतिकरं संपाय हास्यास्पदम् ॥४०॥ भवता मूलतोऽपि परिग्रहः (ह) त्यागः कर्तव्यः इति दर्शयन्नाह माम्राज्यमित्यादि। साम्राज्यं चक्रवर्तित्वम् । कथमपि महता कण्टेन । सुचिरात् बहुतरकालेने । संसारसारं संसारे सारम् उत्कृष्टम् । शाश्वतीं श्रियं मरेक्षलक्ष्मीम् । प्रागेव मूलतोऽपि अगृहीत्वैव । ते त्वया त्याज्यानपि इति सम्बन्धः त्याज्यस्य. (व्यस्थ) वा कर्तरि (जैनेन्द्रम्. १.४१७५) इति षष्ठी । इत्थंभूतानपि परिग्रहान् गृहीत्वा । स्वं माभूः हास्यास्पदम् । माभूदिति पाठे ते तव हास्यास्पदं माभूदिति सम्बन्धः । किं कृत्वा । संपाद्य संयोज्य आत्मनः । कि तत् । भौतिक-मोदकव्यतिकरं परिव्राजक्रमोदकप्रघदृकम् ययैवेह केनचितरिवाजकेन मिनायां मोदको लन्धः, स च गच्छतो गूयोपरि पतितोऽपि तेच गृहीतोऽधेव च केनचित् परिव्राजको भणित: विरूपकोऽयं मोदकः परित्यज्यतामिति । तेन चोक्तं प्रक्षात्य त्यक्ष्यामीति ॥४०॥ शाश्वतश्रियो निप्रन्यावस्यैव साधिका न गृहस्थावस्थेति दर्शयन्नाह--- मुखसे शेष रहे सूर्य और चंद्र ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार यद्यपि राहु सूर्य और चन्द्रको पूर्णपास ही करना चाहता है, फिर भी जो उनको भाग शेष बचा रहता है वह उसकी अशक्तिके कारण ही वचा रहता है,उसी प्रकार प्रत्येक प्राणीकी तृष्णा तो इतनी अधिक होती है कि वह समस्त जगत्को ही स्वाधीन करना चाहता है,फिर भी जो समस्त जगत उसके स्वाधीन नहीं हो पाता है उसमें उसकी अशक्ति कारण है, न कि विषय-तृष्णाकी न्यूनता ॥३९॥ जिस किसी प्रकारसे संसारके सारभूत साम्राज्य (सार्वभौम राज्य) को चिरकालमें प्राप्त करके भी यदि चक्रवर्ती उसे छोडने के पश्चात् ही अविनश्वर मोक्ष-लक्ष्मीको प्राप्त हुए हैं तो फिर तुम त्यागनेके योग्य उन परिग्रहों (विषयों) को ग्रहण करमेके पहिले ही छोड दो । इससे तुम परिव्राजकके लड्डूके समान विषयोंका सम्पादन करके हंसीके पात्र न बन सकोगे । विशेषार्थ-संसारमें सबसे श्रेष्ठ चक्रवर्तीका साम्राज्य समझा जाता है, 1ब चोक्ता। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ आत्मानुशासनम् ...... श्लो० ४१ सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाप्येतद्वयवत्करोति चरितं प्रजानानामपि । सर्वमित्यादि । गेहाश्रमः कर्ता । चरितं कर्म । करोति । कथंभूतं. चरितम् । सर्व धर्ममयं क्वचित् सामायिकांद्यवस्थायां सर्व चरितं धर्म: प्रकृतो यत्र । क्वचिदकि क्वापि कृष्यादौ । प्रायेण बाहुल्येन । पापात्मकं पापरूपम् । क्वापि प्रासादादिकरणे एतत् चरितं द्वयवत् पुण्यफाफात्मकम् । प्रज्ञानानामपि विवेकिनामपि । तत् ( यत् ) एवं तस्मात् एष गृहाश्रमः पापः । तत्प्रसिद्धम् अन्धरज्जवलनम्-- यथा अन्धो रज्जवलनं विदधानो ने विशिष्टं निरूपद्रवं च विदधाति तथा मेहाश्रमः कर्मेति । स्नानं गजस्यायका-- यथा गजः स्नानं कृत्वा पुनरुध्दूलनं करोति तथा मेहाश्रमः पापशुद्धिं कृत्वा पुनः पापोर्जनं करोति । परन्तु उसको कष्टपूर्वक प्राप्त करके भी अन्तमें मोक्षसुखकी इच्छासे उन्हें भी वह छोडना ही पड़ा है। और तो क्या कहा जाय, किन्तु तीर्थकर भी प्राप्त राज्य लक्ष्मीको छोड देनेके पश्चात् ही जगत्का कल्याण करनेवाली आर्हन्त्य लक्ष्मी और अन्तमें मोक्ष-लक्ष्मीको प्राप्त करते हैं । इस प्रकार जब समस्त विषयोंका छोडना अनिवार्य है तब सबसे उत्तम तो यही है कि ममत्वबुद्धिको छोडकर उन्हें ग्रहण ही न किया जाय, अन्यथा यदि उन्हें ग्रहण करनेके पश्चात् छोडा तो फिर उस साधके समान हंसीका पात्र बनना पड़ेगा जो भिक्षामें प्राप्त हुए लड्डूके विष्ठामें गिर जानेपर उसे धोनेके पश्चात् छोडता है। अभिप्राय यह है कि जो प्राणी तदनुकल धर्मके आचरणके विना ही मोहवश विषयोंको प्राप्त करनेके लिये निष्फल प्रयत्न करते हैं वे लोगोंको हंसीके पात्र बनते हैं। अतएव वास्तविक सुखका साधन जो धर्म है उसका ही परिपालन करना योग्य है। इससे ऐहिक एवं परलौकिक सुखकी प्राप्ति स्वयमेव होगी ॥ ४० ॥ गृहस्थाश्रम विद्वज्जनोंके भी चरित्रको प्रायः किसी सामायिक आदि शुभ कार्यमें पूर्णतया धर्मरूप, किसी विषयभोगादिरूप कार्यमें पूर्णतया पापरूप सथा किसी जिनगृहादिके निर्मापणादिरूप कार्यमें उभय Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१] गृहाश्रमस्वरूपम् ४१ तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविवेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥४१॥ अथवा मतोन्मतविवेष्टितन्- मतो मद्याभिभूत: उन्मतो धत्तूर-कोद्रवादिजनितमदो मदरहितो वा तयोश्वेष्टितम् अनुष्ठानं येषां सुन्दरमसुन्दरं च भवति । तथा गेहाश्रम । यत एवं ततः न हि हित:-- हि स्फुटं न हितः शाश्वतलक्ष्मीसाधकत्वेनोपकारक: गेहाश्रनो गृहस्वावस्या ॥४१॥ तथा गेहाश्रने कृष्यादिव्यापाराणां सुखस्य असावकत्वं दर्शयन्नाह-- (पुण्य-पाप) रूप करता है। इसलिये यह गृहत्या त्रन अन्धेके रस्सी भांजने के समान, अथवा हायो के स्नानके समान अथवा शराबी या पागलको प्रवृत्ति के समान सर्वथा हितकारक नहीं है । विशेधार्य- अन्धा मनुष्य आगे आगे रस्सोको भांजता है, परन्तु वह पीछेसे उकलती जाती है, अतएव जिस प्रकार उसका वह रस्सी भांजना व्यर्थ है; अथवा हाथी पहिले स्नान करता है और तसश्वात् वह पुनः अंगपर धूलि डाल लेता है, इसलिये जिस प्रकार उक्त हाथोका स्नान करना व्यर्थ है; अथवा शराबी या पागल मनुष्य कभी उतन और कभी निकृष्ट चेष्टा करता है, परन्तु वह विवेकशून्य होनेसे जिस प्रकार हितकारक नहीं है; उसो प्रकार यह गृहस्थापन भी हितकारक नहीं है । कारग यह कि उक्त गृहस्थाश्रममें रहता हुआ मनुष्य जहां जिनपूजा, स्वाध्याय एवं दानादिरूप शुभ कार्योंको करता है वहां वह अर्थोपार्जनके लिये हिंसाजनक आरम्भ एवं विषयसेवनादिरूप पापाचरग भी करता ही है । अतएव अन्धेके रस्सो भांजने आदिके समान वह गहस्थाश्रम कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता है । जीवका सच्चा कल्याण उक्त गृहस्थाश्रमको छोड करके निर्ग्रन्थ अवस्थाको प्राप्तिमें ही सम्भव है ॥ ४१॥ तुम यहां सुखको प्राप्त करनेको आशासे भूमिको जोतकर और बीज बो करके अर्थात् खेती करके, राजाओंकी सेवा करके अर्थात् दासकर्म करके, तथा बहुत बार वनमें और समुद्रमें परिभ्रमण करके अर्थात् व्यापार करके बहुत कालसे क्यों कष्ट सह Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ [ श्लो० ४२ आत्मानुशासनम् कृष्ट्वोवा नृपतीन्निषेव्य बहुशो भ्रान्त्वा वनेऽम्भोनिधौ fe क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिरं हा कष्टमज्ञानतः । तैलं त्वं सिकतास्वयं मृगयसे वाञ्छेद्विषाज्जीवितुं नवाशाग्रहनिग्रहात्तव सुखं न ज्ञातमेतत्त्वया ॥ ४२ ॥ आशाहुताशनग्रस्तवस्तूच्चैवंशजां जनाः । हा किलैत्य सुखच्छायां दुःखघर्मापनोदिनः ॥ ४३ ॥ कृष्ट्वेत्यादि । कृष्ट्वा भूमि विलिख्य । उप्त्वा बीजं प्रक्षिप्य कृषि कृत्वेत्यर्थ: । नृपतीन् निषेव्य राजसेवां कृत्वा । बहुशो अनेकधा । अम्भोनिधौ समुद्रे । किम् अज्ञानत: क्लिश्नासि क्लेशं व्रजसि । अत्र ससारे । हा विषादे कष्टमेतत् । त्वम् अयम् अज्ञानत: तैलं सिकतासु वालुकासु मृगयसे अन्वेषयसे । ननु अहो । आशाग्रहनिग्रहात् आग्रह : प्राणिनां पारतन्त्र्यहेतुत्वात् । तस्य निग्रहात् ||४२ ॥ उपदिष्टेऽपि सुखोपायं तदनिग्रहं कुर्वाणाः प्राणिनः एतत्कुर्वन्ति इत्याह-- आशेत्यादि । आशैव हुताशनोऽग्निः प्राणिनां संतापकारित्वात् । तेन प्रस्तानि च तानि वस्तूनि च तान्येव उच्चैवंशाः तेभ्यो जातां सुखच्छायां सुखाय छाया सुखस्य वा छाया लेशः । छाया हि प्रकाशावरणं लेशरचोच्यते । किलैत्य आश्रये अरुचौ लोकोक्तौ वा । एतत्प्राप्य दुःखधर्मापनोदिन : दुःखमेव घर्मो दाहसंतापजनकत्वात् तस्य अपनोदिनः स्फोटका : भवन्ति ॥ ४३ ॥ सुखलवमात्रमपि देवात् कथमपि प्राप्तं स्थिरं न भवति इति 1 रहे हो ? खेद है कि तुम अज्ञानतासे यह जो कष्ट सह रहे हो उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि तुम वालुमें तेल की खोज कर रहे हो अथवा विषभक्षणसे जीनेकी इच्छा कर रहे हो । अभिप्राय यह कि जिस प्रकार वालुमें तेलकी प्राप्ति असम्भव है अथवा विषके भक्षणसे जीवित रहना असम्भव है उसी प्रकार उक्त कृषि आदिके द्वारा यथार्थ सुखका प्राप्त होना भी असम्भव है । हे भव्य ! क्या तुझे यह ज्ञात नहीं है कि तेरा वह अभीष्ट सुख निश्चयतः आशा ( विषयाभिलाषा) रूप पिशाचीके नष्ट करनेसे ही प्राप्त हो सकता है ? ॥ ४२ ॥ खेद है कि अज्ञानी प्राणी आशारूप अग्निसे व्याप्त भोगोपभोग वस्तुओंरूप ऊंचे वांसोंसे उत्पन्न हुई सुखकी छाया ( सुखाभास = दुख) को प्राप्त करके दुखरूप सन्तापको दूर करना चाहते हैं ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४४] पुण्याद्विना न सुखलवोऽपीत्यत्र दृष्टान्तः ४३ खातेऽभ्यासजलाशयाऽजनि शिला प्रारब्धनिर्वाहिणा भयोऽभेदि रसातलावधि ततः कृच्छात्सुतुच्छं किल । दृष्टान्तद्वारेण समर्थयते- खाते इत्यादि । खाते खनने । कया । अभ्यासजलाशया निकटे जलप्राप्तोच्छया। अजनि संजाता। कासौ । शिला। प्रारब्धनिर्वाहिणा खननम् विशेषार्थ- जो अज्ञानी प्राणी विषयतृष्णाके वश होते हुए अभीष्ट भोगोपभोग वस्तुओंको प्राप्त करके यथार्थ सुख प्राप्त करना चाहते हैं उनका यह प्रयत्न इस प्रकारका है जिस प्रकार कि सूर्यके तापसे पीडित होकर कोई मनुष्य उस संतापको दूर करनेके लिए अग्निसे जलते हुए ऊंचे वांसोंको छायाको प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। अभिप्राय यह है कि प्रथम तो ऊंचे वांसोंको कुछ उपयुक्त छाया ही नहीं पडती है, दूसरे वे अग्निसे जल भी रहे हैं, अतएव ऐसे वांसोंकी छायाका आश्रय लेनेवाले प्राणीका वह संताप जिस प्रकार नष्ट न होकर और अधिक बढता ही है उसी प्रकार विषयतृष्णाको शान्त करनेकी अभिलाषासे जो प्राणी इष्ट सामग्रीके संचयमें प्रवृत्त होता है इससे उसकी वह तृष्णा भी उतरोत्तर बढती ही है, परन्तु कम नहीं होती। जैसा कि समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है" तृष्णाचिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । . स्थित्यव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽ भूत् ॥ बृ. स्व. ८२. अर्थात् विषयतृष्णारूप अग्निकी ज्वालायें प्राणीको सब ओरसे जलाती हैं । इनकी शान्ति इन्द्रियविषयोंकी वृद्धिसे नहीं होती, बल्कि उससे तो वे और भी अधिक बढती हैं। यह उस तृष्णाका स्वभाव ही है। प्राप्त हुए इष्ट इन्द्रियविषय कुछ थोडे-से समयके लिए केवल शरीरके संतापको दूर कर सकते हैं । इस प्रकार विचार करके हे जितेन्द्रिय कुन्थु जिनेन्द्र ! आप चक्रवर्तीको भी विभूतिको छोडकर उस विषयजन्य सुखसे पराङ्मुख हुए हैं ॥४३॥ निकटमें जलप्राप्तिकी इच्छासे भूमिको खोदनेपर चट्टान प्राप्त हुई। तब प्रारम्भ किये हुए इस कार्यका -निर्वाह करते हुए उसने Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आत्मानुशासनम् . [स्लो० ४४क्षारं वायुदगात्तदप्युपहतं पूतिकृमिश्रेणिभिः शुष्कं तच्च पिपासतोऽस्य सहसा कष्ट विप्रेश्चेष्टितम् ॥ ४४ ॥ अपरित्यज्य (ज) ता। भूयोऽभेदि पुनः स्फोटिता शिला । रसातलावधि पातालपर्यन्तम् । तत: रसातलावधिशिलाभेदनात् । कृच्छा महता कण्टेन । सुतुच्छं स्वल्पम् । उदगात् निर्गतम् । कि तत् । वारि । तदपि क्षारमपि वारि । उपहतम् उपहृतम् । काभिः। पूतिकृमिश्रेणिय: पूति: पूतिगन्धा कृमिश्रेणय: कृमिपङ्क्तयः ताभिः । पिपासि ( स )त: पातुमिच्छतः । सहसा झटिति । कष्टमिति विषादे । तत्त्व वारि शुकम् । विश्वेप्टितं कर्मणो विलसितम् ॥४४।। पाताल पर्यन्त खोदकर उस चट्टानको तोड दिया । तत्पश्चात् वहां बडे कष्टसे कुछ थोडा-सा जो खारा जल प्रगट हुआ वह भी दुर्गन्धयुक्त और क्षुद्र कीडोंके समूहसे व्याप्त था। इसको भी जब वह पीने लगा तब वह भी शीघ्र सूख गया । खेद है कि दैवको लीला विचित्र है। विशेषार्थयहां एक उदाहरण द्वारा पुरुषार्थको गौण करके दैवकी प्रधानता निर्दिष्ट की गई है । कल्पना कोजिये कि कोई एक मनुष्य प्याससे अतिशय पीडित था। इसलिये जल प्राप्त करनेके लिये वह भूमिको खोदने लगता है । किन्तु कुछ थोडा-सा खोदनेपर वहां एक विशाल कठोर चट्टान आ जाती है। इतनेपर भी वह अपने प्रारब्ध कार्यको चालू रखते हुए उस चट्टानको तोड कर उसे बहुत अधिक गहरा खोद डालता है । तब कहीं उसे वहां कुछ थोडा-सा जल दिखायी देता है, सो भो खारा, दुर्गन्धयुक्त और कोडोंसे परिपूर्ण । फिर भी जब वह उसे भी पीना प्रारम्भ करता है तो वह भी देखते ही देखते सूख जाता है। इसको ही दैवकी प्रतिकूलता समझनी चाहिये । तात्पर्य यह कि यदि पापका उदय है तो प्राणी इष्ट विषयसामग्रीको प्राप्त करने के लिये कितना भी अधिक प्रयत्न क्यों न करे, परंतु वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती है । यदि किसी प्रकार कुछ थोडी-सी प्राप्त भी हुई तो इससे उसकी तृष्णा अग्निमें डाले हुए पीके समान और भी अधिक बढती जाती है जिससे कि उसे शांति मिलने के बजाय अशांति ही अधिक प्राप्त होती है। अतएव सुखी रहनेका Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६ ] निरवद्यवृत्यार्थोपार्जनस्यासंभवत्वम् शुद्धैर्धनैविवर्धन्ते सतामपि न संपदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्गाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥ ४५ ॥ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नापुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥ ४६ ॥ ४५ ननु निरवद्यवृत्त्या अर्थोपार्जनं कृत्वा संपदां वृद्धि विधान सुखानुभवनं करिष्यामीति चदन्तं प्रत्याह-शुद्धैरित्यादि । शुद्ध निरवद्यैः । स्वच्छाम्बुभि: निर्मलजलै: । सिन्धवः नद्यः ||४५ || अस्तु नाम यथाकथंचित्तासां वृद्धिस्तथापि धर्मसुखज्ञानसुगतिसाधनत्वमस्तीति मन्यमानं प्राह स धर्म इत्यादिपत्र यस्मिन् सति । अनेन यथाख्यातचारित्रस्यैव धर्मत्वम् अनन्तसुखस्यैवा (व) सुखत्वं केवलज्ञानस्यैव ज्ञानत्वं मोक्षगतेरेव गतित्वमुक्तं भवति ॥ ४६ ॥ इत्थंभूतं सुखादिकं कष्टसाध्यम् अर्थोपार्जनं तु सुखसाध्यमतस्तत्रैव प्रवृत्ति सरल उपाय यही है कि पूर्व पुण्यसे प्राप्त हुई सामग्रीमें संतोष रखकर भविष्य के लिये पवित्र आचरण करे । कारण यह कि सुखका हेतु एक धर्माचरण ही है, न कि केवल ( दैवनिरपेक्ष) पुरुषार्थ ||४४|| शुद्ध धनके द्वारा सज्जनोंकी भी सम्पत्तियां विशेष नहीं बढती हैं ! ठीक है-नदियां शुद्ध जलसे कभी भी परिपूर्ण नहीं होती हैं ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार नदियां कभी आकाशसे वरसते हुए शुद्ध जलसे परिपूर्ण नहीं होती हैं, किन्तु वे इधर उधरको गंदी नालियों आदिके बहते हुए जलसे ही परिपूर्ण होती हैं; उसी प्रकार सम्पत्तियां भी कभी किसीके न्यायोपार्जित धनके द्वारा नहीं बढती हैं, किन्तु वे असत्यभाषण, मायाचार एवं चोरी आदिके द्वारा अन्य प्राणियोंको पीडित करनेपर ही वृद्धिको प्राप्त होती हुई देखी जाती हैं । इससे यहां यह सूचित किया गया है कि जो सज्जन मनुष्य यह सोचते हैं कि न्यायमार्गसे धन-सम्पत्तिको बढाकर उससे सुखका अनुभव करेंगे उनका वह विचार योग्य नहीं है ||४५ || धर्म वह है जिसके होनेपर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दुख न हो, ज्ञान वह है जिसके होनेपर अज्ञान न रहे, तथा गति वह है जिसके होनेपर आगमन न हो । विशेषार्थ--जो प्राणी यह विचार करते हैं कि भले ही सम्पत्ति न्याय अथवा अन्याय्य मार्गसे क्यों न प्राप्त होत्रे, फिर भी उससे धर्म, सुख, ज्ञान और शुभ गतिकी तो सिद्धि होती Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ४७वार्तादिभिविषयलोल विचारशन्य। - -- क्लिश्नासि यन्मुहुरिहार्यपरिग्रहार्थम् । तच्चेष्टितं यदि सकृत्परलोकबुद्धया न प्राप्यते ननु पुनर्जननादि दुःखम् ॥४७॥ रित्याशङ्क्याह- - वार्तेत्यादि । कृषि (:)प(पाशुपाल्यं वाणिज्या च वार्ता सा आदिर्यासां दण्डनीत्यादीनां ताभिः । विषयलोल विषयलम्पट । विचारशून्यम् इत्यम् अर्थोपार्जन कृतं कि मम परिणामपथ्यं न वेति विचारमकृत्वा । यत् क्लिश्नासि आत्मानम् आयासयसि । मुहुः पुनः पुनः । इह संसारे अर्थपरिग्रहार्थम् अर्थोपार्जनार्थम् । तच्चेष्टितम् आत्मनः क्लेशकारि दुर्धरानुष्ठानम् । यदि सकृत् कदाचित् परलोकबुद्धया क्रियते ।। ४७ ।। परलोकचेष्टिते ही है, अतएव उसको उपार्जित करना योग्य ही है । ऐसा विचार करने वालोंको लक्ष्यमें रखकर यहां यह बतलाया गया है कि वैसी सम्पत्ति धर्म, सुख, ज्ञान और सुगति इनमेंसे किसीको भी सिद्ध नहीं कर सकती है । कारण यह कि धर्मका स्वरूप यह है कि जो दुखको दूर करे । वह धर्म समस्त धन-धान्यादि परिग्रह एवं राग-द्वेषादिको छोडकर यथाख्यातचारित्रके प्राप्त होनेपर ही हो सकता है, अतः उसको सिद्धि पापोपादक सम्पत्तिके द्वारा कभी नहीं हो सकती है । इसी प्रकार सुख भी वास्तविक वही हो सकता है जिसमें दुखका लेश न हो। ऐसा सुख उस सम्पत्तिसे सम्भव नही है। सम्पत्तिके द्वारा प्राप्त होनेवाला सुख आकुलताको उत्पन्न करनेवाला है तथा वह स्थायी भी नहीं है । अतएव वह सम्पत्ति सुखको भी साधक नहीं है । तथा जिसके प्रगट होनेपर समस्त विश्व हाथकी रेखाओंके समान स्पष्ट दिखने लगता है वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान कहलानेके योग्य है। वह ज्ञान (केवलज्ञान) भी उक्त संपत्तिसे सिद्ध नहीं हो सकता। जिस गतिसे पुनः संसारमें आगमन नहीं होता है वह पंचमगति (मोक्ष) ही सुगति है । वह सम्यग्दर्शन आदिरूप अपूर्व रत्नत्रयके द्वारा सिद्ध होती है, न कि धन-धान्य आदिके द्वारा । अतएव वैसा विचार करना अविवेकतासे परिपूर्ण है ॥४६।। है विषयलम्पट! तू यहां विषयोंमें मुग्ध होकर विवेकसे रहित होता हुआ । म (नि)शन्यः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८) बाह्यवस्तुनीष्टाविष्टकल्पनयोर्व्यर्थता संकल्प्येदमनिष्टमिष्टमिदमित्यज्ञातयाथाल्यको बाह्ये वस्तुनि किं वृथैव गमयस्यासज्य कालं मुहुः । अन्तःशान्तिमुपैहि यावददयप्राप्तान्तकप्रस्फुरज्ज्वालाभीषगजाठरानलमुखे भस्मीमवेनो भवान् ॥४८॥ दाढोत्पादनार्थी रतिद्वेषौ निराकुर्वन्नाह- संकल्प्येत्यादि । अज्ञातयाथात्म्पर्कः यथावत्पदार्थपरिज्ञानरहित: । आसज्य आसक्तो भूत्वा संबंध्य (?) वा। कालं गमयसि नयसि । अन्तःशान्ति रागादिपरिहारम् । उपैहि गच्छ । यावन्न भस्मीभवेद्भवान् । क्वेत्याह अदयेत्यादि । अदयो निर्दयः स चासो प्राप्तश्चासौ अन्न करने मृत्युस्तस्य प्रस्फुरन् ज्वालाभीषणश्चासौ जाठरानलश्च तस्य मुखे ॥४४॥अन्तःशान्ते (न्ति) रेव च कांक्षानद्या नीत्वा भवसमुद्रे पात्यमानस्य भवतस्तरणोपाय जो खेतो, पशुपालन एवं व्यापार आदिके द्वारा धन कमानेके लिये बार बार कष्ट सहता है वैसी कष्टमय प्रवृत्ति (तपश्चरणादि) परलोककी बुद्धिसे अर्थात् आगामी भवको सुखमय बनानेके लिये यदि एक बार भी करता तो फिर निश्चयसे बार बार जन्म-मरण आदिके दुःखको न प्राप्त करता ॥४७॥ हे भव्य ! तू पदार्थके यथार्थ स्वरूपको न जानकर 'यह इष्ट है और यह अनिष्ट है' इस प्रकार मानता हुआ बाह्य वस्तुओं (स्त्री पुत्र एवं धन आदि) में आसक्त होकर व्यर्थमें ही क्यों बार बार समयको बिताता है ? जब तक तू प्राप्त हुए निर्दय काल (मरण) की प्रगट ज्वालाओंसे भयानक औदार्य अग्निके मुख में पडकर भस्मसात् नहीं होता है तबतक राग-द्वेषादिके परिहारस्वरूप आन्तरिक शान्तिको प्राप्त कर ले । विशेषार्थ-किसका कब मरण होगा, इसे कोई भी प्राणी नहीं जानता है । इसलिये यहां परलोकको सुखमय बनानेके लिये यह उपदेश दिया गया है कि हे जीव! तू अविवेकी होकर बाह्य परपदार्थोंमें राग और द्वेष करता हुआ अपने समयको यों ही न बिता । कारण कि ऐसा करते हुए तुझे कभी निराकुलता प्राप्त न हो सकेगी।पहिली बात तो यह है कि ये बाह्य पदार्थ अपनी इच्छा अनुसार प्रायः प्राप्त ही नहीं न दार्गपादनार्थम् । 2 रामादिक Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आत्मानुशासनम् ...... [श्लो० ४१ आयातोऽस्यतिदूरमङग परवानाशासरित्प्रेरितः कि नावैषि ननु (वमेव नितरामेनां तरीतुं क्षमः । इति दर्श पन्नाह-आयातोऽसीत्यादि । अङा अहो । परवान् कर्माधीनः । एनाम् आशासरितम् । क्षमः समर्थः । स्व तंत्र्यम् ओदासीन्यं निहिताम् । दुरन्तेत्यादि । दुष्ट: अन्त: सामीप्यं यत्र दुःवेन वा अन्तो अबसानो यस्य स चासो होते हैं, फिर यदि पुण्यके उदयसे कुछ प्राप्त भी हुए तो वे चिरस्थायी नहीं हैं--किसी न किसी प्रकार उनका वियोग अवश्य होनेवाला है। अतएव हे भव्यजीव ! उन अस्थिर बाह्य पदार्थोमें राग-द्वेष न करके तू अहिंसा आदि सव्रतोंका आवरण करता हुआ स्थिर व निराबाध आत्मीक सुखको प्राप्त करनेका प्रयत्न कर । यदि तूने ऐसा न किया और इस बीच मृत्युका ग्रास बन गया तो फिर यह जो आत्महितकी साधक सामग्री (मनुष्यभव आदि) तुझे सौभाग्यसे प्राप्त हो गई है वह दुर्लभ हो जावेगी ॥ ४८ ॥ हे भव्य ! तू पराधीन बनकर तृष्णारूपी नदीसे प्रेरित होता हुआ बहुत दूर आ गया है। क्या तू यह नहीं जानता है कि निश्चयसे इस तृष्णारूप नदीको पार करनेके लिये तू ही अतिशय समर्थ है ? अतएव तू स्वतन्त्रताका अनुभव कर जिससे कि शीघ्र ही उस तृष्णानदीके किनारे जा पहुंचे । यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर उस विषयतृष्णारूप नदीके प्रवाहमें बहकर दुर्दम यमरूप मगरके खुले हुए गम्भीर मुखसे भयानक ऐसे संसाररूप समुद्रके मध्यमें जा पहुंचेगा । विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि नदीके प्रवाहमें पड़ जाता है तो वह दूर तक बहता हुआ चला जाता है । ऐसी अवस्थामें यदि वह अपने तैरनेके सामर्थ्यका अनुभव करके उसे पार करनेका प्रयत्न करे तो वह निश्चित ही उससे पार हो सकता है। परन्तु यदि वह व्याकुल होकर अपनी तैरनेकी कलाका स्मरण नहीं करता है तो फिर वह उसके साथ बहता आ उस भयानक अपार समुद्रके बीचमें जा पहुंचेगा जहां उसे खानेके Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५० ] भव-समुद्रतस्तरणोपायनिरूपणम् स्वातन्त्र्यं व्रज यासि तीरमचिरान्नो चेद् दुरन्तान्तकग्राहव्यात्तगभीरवक्त्रविषमे मध्ये भवान्धर्भवेः ॥ ४९ ॥ आस्वाद्याद्य यदुज्झितं विषयिभिर्व्यावृत्तकौतूहलस्तद्भूयोऽप्यवि कुत्सयन्नभिलषस्य प्राप्तपूर्वं यथा । - ४९ अन्तकश्च यमः स एव ग्राहो जलचर: तेन व्यातं प्रसारितं गम्भीरं महत् तच्च तद्वक्त्रं च तेन विषमे रौद्रे ।। ४९ ।। विषयाकांक्षया अभिभूतश्च भवान् (न) भोग्यमपि भुङ्क्ते इत्याह-- आस्वाद्येत्यादि । आस्वाद्य भुक्त्वा । यत् स्त्र्यादि । उज्झितं त्यक्तम् । विषयिभिः । कथंभूतैः । व्यावृत्तकौतूहल: विनष्टस्त्र्यादिरागरसैः । हे जन्तो । अद्य इदानीम् । तत् स्त्र्यादिकं पुनरपि अभिलषसि भोक्तुं वाञ्छसि । कथम् । अप्राप्तपूर्वं यथा भवत्येवं न प्राप्तं लिये मुखको फाडकर हिंस्र जलजन्तु ( मगर व घडयाल आदि) तत्पर रहेंगे । ठीक इसी प्रकारसे अज्ञानी प्राणी नदीके समान भयावह विषयोंकी तृष्णामें फंसकर उसके कारण मोक्षमार्गसे बहुत दूर हो जाता है । वह यदि यह विचार करे कि मैं स्वयं ही इस विषयतृष्णा में फंसा हूं, अतः इससे छुटकारा पानेमें भी मैं पूर्णतया स्वतन्त्र हूं, मुझे दूसरा कोई परतन्त्र करनेवाला नहीं है; तो वह उक्त विषयतृष्णाको छोडकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हो सकता है । परन्तु यदि वह अपनी ही अज्ञानतासे ऐसा नहीं करता है तो यह निश्चित है कि इससे वह समुद्र के समान अथाह और अपरिमित उस संसार (निगोदादि पर्याय) के मध्य में जा पहुंचेगा कि जहां से उसका निकलना अशक्य होगा और जहां उसे अनन्त वार जन्ममरणके दुखको सहना पडेगा ।। ४९ ।। जिन स्त्री आदि भोगोंको विषयी जनोंने भोग करके अनुरागके हट जाने से छोड दिया है उनको ( उच्छिष्टको) तू घृणासे रहित होकर फिरसे भी इस प्रकारसे भोगनेकी इच्छा करता है जैसे कि मानों वे कभी पूर्वमें प्राप्त ही न हुए हो । हे क्षुद्रप्राणी ! जबतक तू पापसमूहरूप वीर शत्रूकी सेनाकी फहराती हुई ध्वजाके समान इस दुष्ट विषयतृष्णाको नष्ट नहीं कर देता है तबतक क्या तुझे शान्ति मा. ४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [ श्लो० ५० आत्मानुशासनम् जन्तो कि तव शान्तिरस्ति न भवान् यावद् दुराशामिमामंहः संहतिवीरवैरिपृतनाश्रीवैजयन्तीं हरेत् ॥ ५० ॥ भक्त्वा भाविभवांश्च भोगिविषमात् भोगान् वुभुक्षुर्भृशं मृत्वापि स्वयमस्तमीतिकः सर्वाजिघांर्मुधा । पूर्व कदाचिद्यतत् अप्राप्तपूर्वम् । किं कुर्वन् | अविकुत्सयन् धिक् विषयिणाम् उत्सृष्टमिदम् इत्येवं निन्दयन् । शान्तिः रागाद्युपशमः परमसुखं निर्वाणं वा । दुराशां दुष्टाम् आशाम् । इमां स्त्र्यादिविषयाम् । कथंभूतामित्याह -- अंह इत्यादि । अंहांसि पापानि तेषां संहतिः संघातः सैव वीरवैरिपृतना सुभटशत्रु सेना तस्याः श्रीवैजयन्तीं पताकाम् । हरेत् स्फेटयेत् ॥ ५० ॥ तामहुरन् भवान् अपरमपि किं कर्तुमिच्छतीत्याह-- भवेत्यादि भाविभवांश्च स्वर्गादिपरलोकानपि । च शब्दोऽप्यर्थे । कथंभूतान् । भोगिविषमान् भोगिनां व्यसनिनां विषमान् प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ।। विशेषार्थ - जिस प्रकार युद्धभूमिनें जब तक शत्रुसेनाकी ध्वजा फहराती रहती है तबतक शूर-वीरोंको शान्ति नहीं मिलती है- तबतक वे उस ध्वजाको गिरानेके लिये भीषण रण में ही उयुक्त रहते हैं। इस प्रकार जब वे उस शत्रुकी ध्वजाको छिन्नभिन्न कर डालते हैं तब ही उन्हें अभूतपूर्व आनन्दका अनुभव होता है। ठीक उसी प्रकारसे यह प्राणी भी जबतक शत्रु सेनाकी ध्वजाके समान उस दुष्ट विषयवासनाको नष्ट नहीं कर देता है तबतक शान्ति (सन्तोष) को प्राप्त नहीं होता-- वह उन विषयोंको प्राप्त करनेके लिये नाना प्रकारके कष्टोंको ही सहता है । किन्तु जैसे ही वह विवेकको प्राप्त होकर उक्त विषयतृष्णाको नष्ट कर देता है वैसे ही उसे अनुपम शान्तिका अनुभव होने लगता है । इससे यह निश्चित है कि सुखका कारण अभीष्ट विषयोंकी प्राप्ति नहीं है, किन्तु उनका परित्याग ही है ॥ ५० ॥ जो स्वर्गादिरूप आगामी भव भोगी जनोंके लिये विषम हैं, अर्थात् जो विषयी जनों को कभी नहीं प्राप्त हो सकते हैं, उनको कष्ट करके जो अज्ञानी प्राणी सर्पके समान भयंकर उन भोगोंके भोगनेकी अतिशय इच्छा करता है वह भय और दयासे रहित होकर स्वयं मर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१] कामुकस्याविवेकता यद्यत्साधुविहितं हतमतिस्तस्यैव धिक् कामुकः कामक्रोधमहाग्रहाहितमनाः किं किं न कुर्याज्जनः ॥५१॥ अगोचरान् । भक्त्वा विनाश्य । भोगान् बुभुक्षुर्भृशं भोगान् भोक्तुमिच्छुः । . भृशम् अत्यर्थम् । किविशिष्टान् भोगान् । भोगिविषमान् सर्पवद्रौद्रान संतापमूर्छा. मरणविधायकत्वात् । मृत्वापि स्वयं मृत्वापि मरणम् अङ्गीकृत्वापि स्वयम् । अस्तभीतिः परित्यक्तभयः सन् भोगान् बुमुक्षुः । तया स्वयम् अस्तकरुगः सर्वान् पितृपुत्रकलत्रादीन् जिघांसुः हन्तुमिच्छुः । अथवा मृत्वापि विषयासक्तिवशात् दुःकर्म आर्जयित्वा जन्मनो वैफल्यं कृत्वापि । तथा मुधा एवमेव । सर्वान् जिघांसुः सर्वान प्राणिनो विषयासक्ति विधाय अनेन दुःकर्म उत्पादयित्वा तज्जन्मनो वैफल्यं विधाय दुर्गतिप्रापकत्वेन हन्तुमिच्छुः । यद्यदित्यादि। यद्यत् कर्म परलोकनाशकं स्वपरवधादि. लक्षणं साधुविहितं मुनिभिनिन्दितम् तस्यैव कर्मणः । कामुको विषयाभिलाषीति धिक् निन्द्यमेतत् । अत्रैव अर्थान्तरन्यासमाह-- कामेत्यादि । कामक्रोधावेव महा. ग्रहौ तौ आहितौ स्थापितो मनसि येन, ताभ्यां वाहितम् अध्यासितं मनो यस्य, स किं किं न कुर्यात् । इह परत्र वा विरुद्ध सर्वमपि कुर्यादित्यर्थः।।५१॥ भोगे बुभुक्षा च करके भी व्यर्थमें दूसरोंको मारनेकी इच्छा करता है । जिस जिस निकृष्ट कार्यको साधु जनोंने निन्दा की है, धिक्कार है कि वह दुर्बुद्धि उसी कार्यको चाहता है। ठीक है- जिनका मन काम और क्रोध आदिरूप महाग्रहोंसे पीडित है वे प्राणी कौन कौन-सा निन्द्य कार्य नहीं करते हैं ? अर्थात् सब ही निन्द्य कार्यको वे करते हैं। विशेषार्थ-ये इन्द्रियविषय सर्पके समान भयंकर हैं- जिस प्रकार सर्पके काटनेसे प्राणीको संताप एवं मरण आदिका दुख प्राप्त होता है उसी प्रकार उन विषयमोगोंके कारण विषयी जनोंको भी संताप एवं मरण आदिका दुख सहना पडता है । फिर भी जो अज्ञानी उन विषयोंके भोगनेको इच्छा करते हैं उन्हें न तो अपने मरणका भय रहता है और न दूसरे प्राणियोंका घात करने में दया भी उत्पन्न होती है। वे उन विषयोंको प्राप्त करनेके लिये स्वयं मर करके भी दूसरोंके मारनेमें उद्यत होते हैं । अथवा वे उन विषयोंमें पडकर स्वयं तो मरते ही हैं- अपना सर्वनाश करते ही हैं, साथ ही दूसरोंको भी उन विषयोंमें प्रवृत्त करके उनका भी घात करते हैं- सर्वे Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ५२श्वो यस्यानि यः स एव दिवसो ह्यस्तस्य संपद्यते स्थर्य नाम न कस्यचिज्जगदिदं कालानिलोन्मूलितम् । भ्रातान्तिमपास्य पश्यसि तरी प्रत्यक्षमणोर्न कि येनात्रैव मुहुर्मुहुर्बहुतरं बद्धस्पृहो भ्राम्यसि ॥५२॥ संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेप्युद्वेगकारिण्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् ।। जगतः स्थितिमपश्यतो जनस्य स्यादित्याह-- श्व इत्यादि। यस्य वस्तुन: श्वी भावी दिवसोऽजनि अभूत् स एव दिवसो ह्यः अतीतः तस्य वस्तुनः संपद्यते । यतः एवम् अत: । स्थैर्यमित्यादि । कालानिलोन्मूलितं काल एव अनिलो वायु: तेन उन्मूलितं स्थितेः प्रच्यावितं किं न पश्यसि । भ्रान्तिम् अपास्य निराकृत्य सर्वथा नित्यत्वाभिनिवेशं परित्यज्य । प्रत्यक्षम् अक्ष्णोर्यथाभवत्येवम् । येन अदर्शनेन कारणेन वा । अत्रैव जगति बद्धस्पृहः कृताभिलाष: ।। ५२ ॥ एवंविध जगत्स्वरूपम् अपरिभावयता चतुर्गतिसंसारे दुःखान्यनेकधानुभूतानीत्याह-- संसार इत्यादि । संसारे नरकादिषु गतिषु । यानि दुःखानि प्रतिसेवितानि अनुभूतानि तान्येवमेवासताम् एवम् एव तिष्ठन्तु । कथंभूते संसारे । स्मृतिपथेऽ• नाश करते हैं । कामी जनकी बुद्धि ऐसी भ्रष्ट हो जाती है कि जिससे वे उस असदाचरणमें प्रवृत्त होते हैं जिसकी कि साधु जन सदा निन्दा किया करते हैं। ये काम और क्रोध आदि दुष्ट पिशाचके समान हैं। उनसे पीडित होकर प्राणी हेयादेयका विचार न करके जिस किसी भी कार्यको करता है ॥५१॥ जो दिन जिस वस्तुके लिये कल (आगामी दिन) था वह उसके लिये कल (बीता हुआ दिन) हो जाता है। यहां कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, यह सब संसार कालरूप वायुसे परिवर्तित किया जानेवाला है । हे भ्रात ! क्या तुम भ्रमको छोडकर आखोंसे प्रत्यक्ष नहीं देखते हो, जिससे कि इन नश्वर बाह्य वस्तुओंके विषयमें ही बार बार इच्छा करके बहुत कालसे परिभ्रमण करते हो? ॥ ५२ ॥ जो संसार स्मरण मात्रसे भी अतिशय संतापको उत्पन्न करनेवाला है उसके भीतर नरकादि दुर्गतियोंमें पडकर तूने जिन दुःखोंको सहन किया है वे तो यों ही रहें, अर्थात् उन परोक्ष दुःखोंकी चर्चा करना तो व्यर्थ है। किन्तु Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेंसारिप्राणिनामवस्था तत्तावत्स्मर सस्मरस्मितशितापाङपैरनङगायुधैवामानां हिमदग्धमुग्धतस्वद्यत्प्राप्तवानिर्धनः ॥५३॥ उत्पन्नोऽस्यसि दोषधातुमलवदेहोऽसि कोपादिवान् साधिव्याधिरसि प्रहीणचरितोऽस्यस्यात्मनो वञ्चकः । प्युद्वेगकारिणि, न केवलम् अनुभूयमाने किं तु स्मृतिपये स्मृतिविषयमात्रे अपि उद्वेगकारिणि अरतिसंतापत्रासजनके । दुःखानि वो कथंभूतानि । उद्वेगकारीणि । अलम् अत्यर्थेन । तद् दुःखं स्मर यत् प्राप्तवान् निर्धन: सन् । कैः कृत्वेत्याहे सस्मरेत्यादि । सस्मरस्मितं सकामहसितं सह तेन वर्तन्ते ये ते च ते शितापाङगाश्च कटाक्षाः तः । कथंभूतः । अनङगायुधैः कामबाणैः । वामानां स्त्रीणाम् । किंवत् । हिमदग्धमुग्धतरुवत् हिमेन दग्धश्चासौ मुग्धतरुश्च कोमलतरुस्तहत् ।। ५३ ।। संसारे परिभ्रमन्नेवंविधं धर्मम् आत्मनः पश्यन् किमिति वैराग्वं भवान्न बंजतीत्याह--- उत्पन्नोऽसीत्यादि । दोषर वातपितश्लेष्माणः । हे भव्य ! भनसे रहित तूने कामके शस्त्रों (बाणों) के समान स्त्रियों के कामोत्पादक मन्द हास्पयुक्त तीक्ष्ण कटाक्षोंसे विद्ध होकर बर्फसे जले हुए कोमल वृक्षके समान जो दुःख प्राप्त किया है उसका तो भला स्मरण कर ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि जो प्रागो सदा विषयभोगोंमें ही लिप्त रहते हैं उन्हे दोनों ही लोकोंमें दुख भोगनी पडता है। इस लोकमें तो उन्हें इसलिये दुख भोगना पड़ता है कि जिने सुन्दर स्त्रियों के मम्द हास्य एवं कटाक्षपात आदिके द्वारा वे कामसे पीडित होनेपर उन्हें प्राप्त करके अपनी वासनाको पूर्ण करना चाहते हैं वे उपयुक्त धन आदिके न रहनेसे उन्हें प्राप्त होती नहीं हैं। फिर भी वे यों ही संतप्त होकर उसके लिये कष्टकारक निष्फल प्रयत्न करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त उस विषयतृष्णासे जो पापका बन्ध होता है उसका उदय होनेपर नरकादि दुर्गतियोंमें जाकर परलोकमें भी वे दुःसंह दुःखोंको सहते हैं ॥५३॥ हे बार बार जन्मको धारण करनेवाले प्राणी! तू उत्पन्न हुआ है; वात-पित्तादि दोषों, रस-रुधिरादि सात धातुओं एवं मल-मूत्रादिसे सहित शरीरका धारक है; क्रोधादि कषायोंसे सहित है; Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आत्मानुशासनम् [श्लौ० ५४मृत्युव्यात्तमुखान्तरोऽसि जरसा ग्रास्योऽसि जन्मिन् वृथा किं मत्तोऽस्यसि कि हिनारिरहिते किं वासि बद्धस्पृहः ॥५४॥ धातवः रुसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि । मला: मूत्रपुरीषादयः । आधिर्मन:पीडा । सह आधिव्याधिभ्यां वर्तते इति साधिव्याधिः । असि भवसि । मृत्युव्यात्तमुखान्तरः मृत्युना व्यात्तं प्रसारितं तच्च तन्मुखं च तस्य आन्तरं मध्यं तदस्ति इति । अतस आदेरः । इति । जरसा पास्यो वृद्धत्वेन कवलीकर्तव्य: । बद्धस्पृहः कृतानुबन्धः ।।५४॥ अहिते कृतानुबन्धोऽपि आधि (मानसिक पीडा) और व्याधि (शारीरिक पीडा) से पीडित है, दुश्चरित्र है, अपने आपको धोका देनेवाला है, मृत्युके द्वारा फैलाये गये मुखके मध्यमें स्थित अर्थात् मरणोन्मुख है, तथा जरा (बुढापा) का ग्रास बननेवाला है। फिर ये अज्ञानो प्राणी! यह समझमें नहीं आता कि तू उन्मत्त होकर अपने ही हितका शत्रु (घातक) होता हुआ उन अहितकारक विषयोंका अभिलाषा क्यों करता है?। विशेषार्थजिस प्रकार पागल या शराबी मनुष्य हिताहितके विवेकसे रहित होकर स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है तथा उसको अपने मरणका भी भय नहीं रहता है उसी प्रकार यह विषयोन्मत्त प्राणी भी अपने भले बुरेका ध्यान न रखकर जो हिंसादि कार्य आत्माका अहित करनेवाले हैं उनमें तो प्रवृत्त होता है तथा जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदारसंतोष ( या पूर्णतया ब्रह्मचर्य) एवं अपरिग्रह आदि कार्य आत्माका हित करनेवाले हैं उनसे विमुख रहता है । ऐसा करते हुए उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि अब मैं बूढा हो गया हूं, मुझे किसी भी समय मृत्यु अपना ग्रास बना सकतो है,उसके पहिले क्यों न मैं कुछ आत्महित कर लूं। यही कारण है जो वह उस विषयतृष्णाके साथ मरणको प्राप्त होकर पुनः उस शरीरको धारण करता है जो स्वभावतः अपवित्र, रोगादिसे ग्रसित एवं राग-द्वेषादिका कारण है । इस प्रकारसे वह दूसरोंके साथ स्वयं अपने आपको भी धोका देकर इस दुखमय संसारमें बार बार परिभ्रमण करता रहता है ॥५४॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५] इन्द्रियक्लेशः उग्रगोष्मकठोरधर्मकिरणस्फूर्जद्गमस्तिप्रभः संतप्तः सकलेन्द्रियैरयमहो संवृद्धतृष्णो जनः । अप्राप्याभिमतं विवेकविमुखः पापप्रयासाकुल स्तोयोपान्तदुरन्तकर्दमगतीमोमवत् क्लिश्यते ॥५५॥ भवान् अभिलषितविषयप्राप्ती केवलं क्लेशमेव अनुभवतीत्याह-- उग्रेत्याद्याहे । उग्रग्रीष्मो ज्येष्ठाषाढीयोष्णकालः । तत्र कठोरस्तीव: ० चासो धर्मकिरणश्चादित्यः तस्ये स्फूर्जन्तो दीप्ता: ते च ते गभस्तयश्च किरणा: तेषां प्रभा सादृश्यं संतापकारित्वलक्षणं येषां तैः । पापप्रयासाकुल: अशुभव्यापारव्यग्रः । तोयोपान्तेत्यादि । तोयोपान्ते जलसमीपे दुरन्तोऽगाधः स चासौ कर्दमश्च तत्र गतः पतित: स चासौ क्षीणो दुर्बल: उक्षा च बलीवईः स एव (इव) तीक्ष्ण ग्रीष्म कालके कठोर सूर्यकी दैदीप्यमान किरणोंकी प्रभाके समान संतापको उत्पन्न करनेवाली समस्त इन्द्रियोंसे संतप्त होकर यह प्राणी वृद्धिंगत विषयतृष्णासे युक्त होता हुआ विवेकको नष्ट कर देता है और फिर इसीलिये अभीष्ट विषयोंको प्राप्त करनेके लिये वह पापाचारम प्रवृत्त होकर व्याकुल होता है। परंतु जब उसे वे अभीष्ट विषय नहीं प्राप्त होते हैं तब वह इस प्रकारसे क्लेशको प्राप्त होता है जिस प्रकार कि प्याससे पीडित होकर पानीके निकट अगाध कीचडमें फंसा हुआ निर्बल बैल क्लेशको प्राप्त होता है। विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई दुर्बल बैल ग्रीष्म कालीन सूर्यके संतापसे पीडित होकर तृष्णा (प्यास) से युक्त होता हुआ किसी जलाशयके पास जाता है और वहां पानीके समीपमें स्थित भारी कीचडमें फंसकर दुःसह दुखको सहता है उसी प्रकार यह अज्ञानी प्राणी भी ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान संतापजनक इन्द्रियोंसे पीडित होकर तृष्णा (विषयवांछा) से युक्त होता हुआ उन विषयोंको प्राप्त करनेके लिये कठोर परिश्रम करता है और इसके लिये वह धर्म-अधर्मका भी विचार नहीं करता। परंतु वैसा पुण्य शेष न रहनेसे जब वे विषयभोग उसे नहीं प्राप्त होते हैं तब उसकी गति भी उक्त बैलके ही समान होती है- वह इच्छित भोगोंको न पाकर उस बढी हुई तृष्णासे निरंतर संक्लिष्ट रहता है ।॥५५॥ अग्नि ___1 म (जै., नि.) प्रतिपाठोध्यम्, ज स संबंद्धतृष्णो । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् .... [श्लो० ५६लब्धेन्धनो ज्वलत्यग्निः प्रशाम्यति निरिन्धनः । ज्वलत्युभयथाप्युच्चरहो मोहाग्निरुत्कटः ॥५६॥ कि मर्माभ्यभिनन्न भीकरतरो दुःकर्मगर्मुद्गगः किं दुःखज्वलनावलीविलसितै लेढि देहश्चिरम् । सहि अभिमतविषयप्राप्तौतृष्णाग्नेरुपशमात् क्लेशोशमो भविष्यतीति क्दन्तं प्रत्याहसब्धन्धन इत्यादि। निर (रि)धन इन्धनरहितः । उभयथापि वाञ्छितार्थेधनं (न्धन)प्राप्य प्राप्लेद्विप्रकारोत्कटः(?)इतराग्नेरतिशयवान्।।५६॥ विषयसुखसाधकार्थेषु प्रवृत्तिश्च प्राणिनां मोहजन्विाधिक (मा)हात्म्यात्तच्च व्याजेन निराकुर्वन्नाह-कि मर्माणीत्यादि । किं न अभिनत विदारितवान् । भीकरतर: अतिशयेन नयंकरः दुःकर्म इन्धनको पाकर जलती है और उससे रहित होकर बुझ जाती है। परंतु आश्चर्य है कि तीव्र मोहरूपी अग्नि दोनों भी प्रकारसे ऊंची (अतिशय) जलती है । विशेषार्थ-जिस प्रकार अग्नि प्राणीको संतप्त करती है उसी प्रकार मोह भी राग-द्वेष उत्पन्न करके प्राणीको संतप्त करता है। इसीलिये मोहको अम्निकी उपमा दी जाती है। परंतु विचार करनेपर वह मोहरूप अग्नि उस स्वाभाविक अग्निकी अपेक्षा भी अतिशय भयानक सिद्ध होती है। कारण यह है कि अग्नि तो जबतक इन्धन मिलता है तभी तक प्रदीप्त होकर प्राणीको संतप्त करती है-इन्धानके म रहनेपर वह स्वयमेव शान्त हो जाती है, किन्तु वह मोहरूप अग्नि इन्धान (विषयभोग) के रहनेपर भी संतप्त करती है और उसके न रहनेपर भी संतप्त करती है । अभिप्राय यह है कि जैसे जैसे अभीष्ट विषय प्राप्त होते जाते हैं वैसे वैसे ही कामी जनोंकी वह विषयतृष्णा उत्तरोत्तर और भी बढती जाती है जिससे कि उन्हें कभी आनन्दजनक संतोष नहीं प्राप्त हो पाता । इसके विपरीत इच्छित विषयसामग्रीके न मिलनेपर भी वह दुखदायक तृष्णा शान्त नहीं होती। इस प्रकार यह विषय तृष्णा उक्त दोनों ही अवस्थाओंमें प्राणीको संतप्त किया करती है ॥५६।। हे भव्यजीव ! क्या अत्यन्त भयानक पापकर्मरूपी मधुमक्खियोंके समूहने इस प्राणीके मर्मको नहीं विदीर्ण किया है ? अवश्य किया है। क्या Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७] मोहनिद्रा दुस्त्यजा कि गर्जद्यमतूरभैरवरवानाकर्णयनिर्णय येनायं न जहाति मोहविहितां निद्रामभद्रां जनः ॥५७ ॥ गर्मुद्गणः दुःकर्माणि एव गर्मुतां मधुमक्षिकागां गणः । दुःखेत्यादि । दुःखान्येव ज्वलनावली अग्निपङ्क्तिः तस्या विलसितैः दाघसंतापकारित्वादिचेष्टितः । न आलेढि न ग्रस्तः । यमतूरभैरवरवं मृतकतूरभयानकशब्दम् । गर्जन (त) वाद्यमानं नाकर्ण यन् (त्)। निर्णयं निश्चयं यथा भवति । न जहाति न त्यजति । निद्राम् अज्ञानताम् । अभद्रां निन्द्याम् ।। ५७ ॥ दुखरूप अग्निको ज्वालाओंसे इसका शरीर चिर कालसे नहीं व्याप्त किया गया है ? अवश्य किया गया है । क्या इसने गरजते हुए यम (मृत्यु) के वाजोंके भयानक शब्दोंको नहीं सुना है ? अवश्य सुना है। फिर क्या कारण है जो यह प्राणी निश्चय से दुखोत्पादक उस मोहनिर्मित निद्रा (अज्ञान) को नहीं छोड़ रहा है । विशेषार्थ-- लोकमें देखा जाता है कि प्राणी प्रगाढ निद्रामें भी यदि सो रहा है तो भी वह मधुमक्खियोंके काट लेनेसे, निकटवर्ती अग्निको ज्वालाओंसे, अथवा मृतकके आगे बजनेवाले गम्भीर बाजोंके शब्दोंसे अवश्य जाग उठता है। परन्तु खेद है कि यह अज्ञानी प्राणी उन मधुमक्खियोंके समान कष्टदायक पाप कर्मोंसे ग्रसित, अग्निके समान सन्ताप देनेवाले अनेक प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त, तथा बाजोंके साथ ले जाते हुए मृतकको देखकर शरीरकी अनित्यताको जानता हुआ भी दुखदायक अज्ञानरूप निद्राको नहीं छोडता है। इससे यह निश्चित प्रतीत होता है कि वह मोहनिद्रा उस प्राकृत निद्रासे भी प्रबल है। यही कारण है जो स्वाभाविक निद्रा तो प्राणीकी थकावटको दूर करके उसे कुछ शान्ति ही प्रदान करती है, परन्तु वह मोहनिद्रा उसे विषयतृष्णावश उत्तरोत्तर किये जानेवाले परिश्रमसे पीडित ही करती है ॥५७।। हे जन्म लेनेवाले प्राणी! इस जन्म-मरणरूप संसारमें तेरा शरीरके साथ तादात्म्य है अर्थात् तू उत्तरोत्तर धारण किये जानेवाले शरीरोंके भीतर स्थित होकर सदा उनके अधीन रहता है, तू निरन्तर पाप कर्मके फल Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [इलो० ५८तादात्म्यं तनुभिः सदानुभवनं पाकस्य दुःकर्मणो व्यापारः समयं प्रति प्रकृतिभिर्गाहें स्वयं बन्धनम् । निद्रा विश्रमणं मृतेः प्रतिभयं शश्वग्मृतिश्च ध्रुवं जन्मिन जन्मनि ते तथापि रमसे तत्रैव चित्रं महत् ॥५८॥ मोहजनितनिद्रावशाच्चैवंविधस्वरूपसंपादके संसारे जनस्य रतिरित्याह--- तादात्म्यमित्यादि । हे जन्मिन् । जन्मनि संसारे । तव तादात्म्यम् अभेद: । तनुभिः. शरीरैः सह । पाकस्य दुःकर्मणः फलस्य व्यापारः दुःकर्मणो निमित्तो मनोवाक्कायपरिस्पन्दः। समयं प्रति प्रतिसमयम् । तथा समयं प्रति प्रकृतिभि: ज्ञानावरणादिभिः। गाढं निव (बि) डम् अत्यर्थं च । स्वयम् आत्मना बन्धनं संबन्ध: । निद्रा विश्रमणं व्यापारप्रभवदोषस्य निद्रा विश्रामहेतुः। मृतेः प्रतिभयं मृते. मरणान् प्रतिभयं आशङ्का । शश्वत् सर्वदा । मृतिश्च ध्रुवं मृतिः पुन: अवश्यंभावेन। तत्रैव जन्मनि ॥५८॥ येन च शरीरेण सह तादात्म्यं तव संपन्नं तत्कीदृशमित्याह स्वरूप दुखका अनुभव करता है, प्रत्येक समयमें जो तेरा ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियोंसे स्वयं बन्धन (सम्बन्ध) होता है वही तेरा व्यापार है, निद्रा जो है वही तेरा विश्राम है; तथा मरणसे तुझे सदा भय रहता है, परन्तु वह निश्चयसे आता अवश्य है । फिर आश्चर्य यही है कि ऐसी दुखमय अवस्थाके होनेपर भी तू उसी संसारके भीतर रमण करता है ।। विशेषार्थ- यह संसारी प्राणी बाह्य पर पदार्थोंमें राग-द्वेष करता हुआ मरणको प्राप्त होकर निरन्तर नवीन नवीन शरीरको धारण करता रहता है। इस प्रकारसे वह निरन्तर जन्म-मरण के दुखको सहता है । इसके अतिरिक्त पूर्वोपार्जित कर्मके अनुसार और भी अनेक कष्टोंका वह अनुभव किया करता है। उसका कार्य निरन्तर अपने राग-द्वेषादि परिणामोंके अनुसार कर्मप्रकृतियोंके बांधनेका रहता है। जब उसे कुछ निद्रा आती है तभी विश्राम मिलता है । वह मृत्युसे यद्यपि सदा भयभीत रहता है, परन्तु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता। इस विषयमें स्वामी समन्तभद्राचार्यने यह बिलकुल ठीक कहा है- बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । तथापि बालो भय-कामवश्यो वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥ अर्थात हे सुपार्श्व जिन ! यह प्राणी मृत्युसे निरन्तर Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९] शरीरं कारागारम् ५९ अस्थिस्थूलतुलाकलापघटितं नद्धं शिरास्नायुभिश्चर्माच्छादितमस्रसान्द्रपिशितलिप्तं सुगुप्तं खलः । कर्मारातिभिरायुरुद्घनिगलालग्नं शरीरालयं कारागारमवैहि ते हतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥ ५९॥ अस्थीत्यादि। अस्थीनि एव स्यूलतुलाः तासां कलापः संघातः तेन घटितम् । नद्धं बद्धम् । सिरास्नायुभिः सिरा: प्रसिद्धाः, स्नायुः नहारुः । चर्माच्छादितं चर्मणा आच्छादितं झंपितम् । अस्रसान्द्रपिशितः अस्रेण रक्तेन सान्द्राणि तानि च तानि पिशितानि च मांसानि तै: लिप्तम् । सुगुप्तं सुष्ठु रक्षितम् । आयुरुद्घनिगलालग्नं आयुरेव उद्घो महान् निगल: आलग्नो यत्र । इत्थंभूतं शरीरालयं शरीरगृहम् । कारागारं ते बन्दिगृहं तव ॥ ५९॥ शरीराद्डरता है, पर उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता। वह सदा कल्याणकी इच्छा करता है, परन्तु उसका उसे लाभ नहीं होता। फिर भी वह अज्ञानी प्राणी मृत्युके भय और काम (सुखको इच्छा) के वशीभूत होकर स्वयं ही व्यर्थमें संतप्त हो रहा है । बृ. स्व. ३४. इस प्रकारसे वह प्राणी शरीरको धारण करके उसके सम्बन्धसे संसारमें उपर्युक्त दुःखोंको सहता है, तो भी वह उसी संसारमें रमण करता है, यह महान् आश्चर्यको • बात है ॥५८।। हे नष्टबुद्धि प्राणी! हड्डियोंरूप स्थूल लकडियोंके समूहसे रचित, सिराओं और नसोंसे सम्बद्ध, चमडासे ढका हुआ, रुधिर एवं सघन मांससे लिप्त, दुष्ट कर्मोरूप शत्रुओंसे रक्षित, तथा आयुरूप भारी सांकलसे संलग्न; ऐसे इस शरीररूप गृहको तू अपना कारागार (बन्दीगृह) समझकर उसके विषयमें व्यर्थ अनुराग मत कर॥ विशेषार्थ- यहां शरीरमें गृहका आरोप करते हुए उसे बन्दीगृहके समान बतला कर उसमें अनुराग न रखनेकी प्रेरणा की गई है । बन्दीगृहसे समानता बतलानेका कारण यह है कि जिस प्रकार बन्दीगृह लकडीके खम्मो आदिसे निर्मित होता है उसी प्रकार यह शरीर भी हड्डियोंसे निर्मित है, बन्दीगृह यदि रस्सियोंसे बंधा होता है तो यह शरीर भी नसोंसे सम्बद्ध है, बन्दीगृह जहां छत अथवा कबेलू आदिसे आच्छादित होता है वहां यह शरीर चमडेसे आच्छादित है, दन्दोगृह जिस प्रकार गोबर एवं मिट्टी आदिस Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० आत्मानुशासनम् शरणमशरणं वो बन्धवो बन्धमूलं चिरपरिचितद्वारा द्वारमापद्गृहाणाम् । विपरिमृशत पुत्राः शत्रवः सर्वमेतत् त्यजत भजत धर्मं निर्मलं शर्मकामाः ॥ ६० ॥ [ श्लो० ६० व्यतिरिक्तमन्यदपि वस्तु कीदृशं तवेत्याह-- शरणमित्यादि । शरणं गृहं राजादिर्वा । अशरणम् अरक्षणम् । प्रतिकूलकर्मणोदय ( ? ) प्राप्तेरा (र) वश्यं स्वकार्यकरणात् 1 । द्वारं प्रवेशस्थानम् । विपरिमृशत पर्यालोचयत । सर्वमेतद गृहबन्धुपुत्रकलत्रादिकं त्यजत, धर्मं भजत अनुतिष्ठत । निर्मल निरतिचारम् 1180 11 यद्यपि गृहादयोऽस्माकं नोपकारकास्तथाप्यर्थो लिप्त ( लीपा गया) होता है उसी प्रकार यह शरीर रुधिर और मांस से लिप्त है, बन्दीगृहकी रक्षा यदि दुष्ट पहरेदार करते हैं तो शरीरकी रक्षा दुष्ट कर्मरूप शत्रु करते हैं, तथा बन्दीगृह जहां बडी बडी सांकलोंसे संयुक्त होता है वहां यह शरीर आयुरूप सांकलसे संयुक्त है, इसीलिये जैसे सांकलोंके लगे रहने से उसमें से बन्दी ( कैदी ) बाहिर नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार विवक्षित ( मनुष्यादि) आयु कर्मका उदय रहनेतक प्राणी भी उस शरीरसे नहीं निकल सकता है। इस प्रकार जब बन्दीगृह और शरीरमें कुछ भेद नहीं है तब यहां यह उपदेश दिया गया है कि जिस प्रकार कोई भी विचारशील मनुष्य दुखदायक बन्दी - गृहमें नहीं रहना चाहता है उसी प्रकार हे भव्यजीव ! यदि तू भी उस बन्दीगृहके समान कष्टदायक इस शरीरमें नहीं रहना चाहता है तो उससे अनुराग न कर ॥ ५९ ॥ हे भव्यजीवो ! जिसे तुम शरण (गृह) मानते हो वह तुम्हारा शरण ( रक्षक) नहीं है, जो बन्धुजन हैं वे राग-द्वेषके निमित्त होने से बन्धके कारण हैं, दीर्घ कालसे परिचयमें आई हुई स्त्री आपत्तियोंरूप गृहोंके द्वारके समान है, तथा जो पुत्र हैं वे अतिशय रागद्वेषके कारण होनेसे शत्रुके समान हैं; ऐसा विचार कर यदि आप लोगोंको सुखकी अभिलाषा है तो इन सबको छोड़कर निर्मल धर्मकी आराधना करें ॥ ६० ॥ हे शरीरधारी प्राणी ! इन्धनके समान तृष्णारूप 1 स कारणात् । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनार्दनां सुखाहेतुवन् तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनराशग्निसंधुक्षणः संबन्धेन किमङ्ग शश्ववशुभैः संबन्धिभिर्बन्धुभिः । -६१] ६१ प्युपकारको भविष्यतीत्याशङ्क्य आह-- तत्कृत्यमित्यादि । तत्प्रसिद्धं सुखाद्युपकारलक्षणं कृत्यं कार्य किम् । न किमपि । कैः । धनैः किविशिष्टैः । आशाग्निसंधुक्षपैः आशैव अग्निः तस्य संयुमणैः उद्दीपकैः । तथा सत्यं ( ? ) संबन्धेन पितृपुत्रभार्यादिना । अङग अहो । किं कृत्यम् कैः सह संबन्धेन । संबन्धिभि: वैवाहिकादिभिः बन्धुभिः । कथंभूतैः । शश्वदशुभैः दुर्मतिहेतुतया सदाऽप्रशस्तैः 1 मोहाहीत्यादि । मोह एव अहिः सर्पः तस्व अग्निको प्रज्वलित करनेवाले धनसे यहां तुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । पापके कारणभूत सम्बधियों ( नातेदारों) एवं अन्य बंधुओं (भ्राता आदि ) के साथ संबंध रखने से तुझे क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं । मोहरूप सर्पके दीर्घ बिल (बांबी) के समान शरीर अथवा गृहसे भी तुझे क्या प्रयोजन है? कुछ भी नहीं । ऐसा विचार कर हे भव्य जीव ! तू सुखके निमित्त उस तृष्णाकी शांति को प्राप्त हो, इसमें व्यर्थ प्रमाद न कर ॥ विशेषार्थं सुख वास्तवमें वही हो सकता है जिसमें आकुलता न हो । वह सुख धानके द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता है । कारण यह कि जितना जितना धान बढता है उतनी ही अधिक उत्तरोत्तर तृष्णा भी बढती जाती है, जैसे कि घीके डालनेसे उत्तरोत्तर अग्नि अधिक बढती है । इस प्रकार जहां तृष्णा है- आकुलता है -- वहां भला सुख कहांसे मिल सकता है ? इसके अतिरिक्त जितना कष्ट धनके उपार्जनमें होता है उससे भी अधिक कष्ट उसकी रक्षामें होता है । यदि रक्षण करते हुए भी वह दुर्भाग्यसे कदाचित् नष्ट हो गया तो फिर प्राणीके दुखका पारावार भी नहीं रहता है । इसीलिये तो उसे भी प्राण कहा जाता है । इतना ही नहीं, बहुत-से धनान्ध मनुष्य तो उस धनरूप प्राणकी रक्षा करनेमें वास्तविक प्राण भी दे देते हैं। इससे निश्चित होता है कि धन वास्तवमें सुखका कारण नहीं है । इसी प्रकारसे माता, पिता, पुत्र एवं अन्य सम्बन्धी जनोंका संयोग Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ [ श्लो० ६१ आत्मानुशासनम् fi मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा देहिन् याहि सुखाय ते समममुं मा गाः प्रमादं सुधा ॥ ६१ ॥ महाविलेन देहेन । कथं भूतेन । सदृशा गेहेन गृहतमानेन । एतत् सर्वम् इत्थंभूतं ज्ञात्वा देहि शमं याहि । अमुम् अर्थाभिलाषोपशमलक्षणम् । किमर्थम् । सुखा सुखनिमित्तम् ते शब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते । तत्कृत्यं ते किमत्यादि । मा गाः प्रमादम् अतात्पर्यं मा कार्षीः ।। ६१ ।। अस्यैवोपशनस्य दाढयंविधानार्थ मादावेवेत्याह- आदावेव भी उस सुखका कारण नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि उनका संयोग होनेपर यदि उनकी प्रवृत्ति अनुकूल हुई तब तो उनमें अनुराबुद्धि उत्पन्न होती है, जिससे कि उनके भरण-पोषण एवं रक्षण आदिको चिंता उदित होती है। और यदि उनकी प्रवृत्ति प्रतिकूल हुई तो इससे उद्वेग उत्पन्न होता है। ये दोनों (राग - द्वेग ) ही कर्मबन्धके कारण हैं । उक्त बन्धुव में भी मुख्यता स्त्रीको होती है । कारण कि उसके ही निमित्त कुटुम्बकी वृद्धि और तदर्थ धनार्जनकी चिन्ता होती है इसीलिये तो यह कहनेको आवश्यकता हुई कि " स्त्रीतः चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमीहसे। मृतमण्डनकल्पो हि स्त्री निरीहे धनग्रहः ॥" अर्थात् हे मन ! यदि तू स्त्रीका ओरसे हट गया है - तुझे स्त्रीकी चिंता नहीं रही है - तो फिर तू धनकी इच्छा क्यों करता है? अर्थात् फिर धनकी इच्छा नहीं रहना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीकी इच्छा न रहनेपर फिर धनका उपार्जन करना इस प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकारसे कि मृत शरीरका आभूषण आदिसे श्रृंगार करना । सा ध ६-३६, इसी प्रकार जिस शरीरको अपना समझकर अभीष्ट आहार आदिके द्वारा पुष्ट किया जाता है वह भी सुखका कारण न होकर दुखका ही कारण होता है । कारण यह कि वह अनेक रोगोंका स्थान है और उसके रोगाक्रान्त होनेपर जो वेदना उत्पन्न होती है उसके निवारणके लिये प्राणी विकल होकर प्रयत्न करता है । फिर भी कभी न कभी वह छूटता ही है । इसके अतिरिक्त उपर्युक्त Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२] राजलक्ष्म्या विनश्वरत्वम् आदावेव महावलेरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं रक्षाध्यक्षभुजासिपञ्जरवृता सामन्तसंरक्षिता । लक्ष्मीर्दीपशिखोपमा क्षितिमता हा पश्यतां नश्यति प्रायः पातितचामरानिलहतेवान्यत्र काशा नृणाम् ॥६२॥ प्रथमत एव । महाबलैः सातिशयसामोपेतः मन्त्रिभिः महामण्डलोकादिभिः । अविचलं यथा भवत्येवम् । स्वयं पट्टेन बद्धा । पश्चात् । रक्षेत्यादि । रक्षाध्यक्षाः अङगरक्षाः तेषां भुजेषु असिपञ्जरः खडगसंघात: तेन वृता । ततो बहिः सामन्तसंरक्षिता : इत्यंभूतापि लक्ष्मीः । क्षितिनतां राज्ञाम् । हा कष्टम् । पश्यतां नश्यति । किंविशिष्टा । दीपशिखोपमा प्रदीपशिखानुल्या चञ्चलेत्यर्थः । कथंभूतेवेत्याह प्राय इत्यादि । प्रायोऽनवरतं संपातितानि चाराणि च तेषाम् अनिलेन हतेव । अन्यत्र प्राणिमात्रलक्ष्मी: लक्ष्भ्यां पुत्र कलत्रादौ वा । काशा कः समाश्वासः ।।६२।। यत्र शरीरे लक्षम्या पट्टबन्धस्तव कृतः तत्कीदृशं किं च स्त्री एवं पुत्र आदि कौटुम्बिक सम्बन्ध भी इस शरीरके ही आश्रित हैंउनका सम्बन्ध कुछ अमतिक आत्माके साथ नहीं है। इस प्रकार उपर्यक्त सब ही दुःखोंका मूल कारण वह शरीर ही ठहरता है। अब जब निरंतर साथमें रहनेवाला वह शरीर भी सुखका कारण नहीं है तब भला गृह आदि अन्य पदार्थ तो सुखके कारण हो ही कैसे सकते हैं ? इस प्रकार विचार करनेपर सुखका कारण उस तृष्णाका अभाव (संतोष)ही सिद्ध होता है । वह यदि प्राप्त है तो धनके अधिक न होनेपर भी प्राणी निराकुल रहकर सुखका अनुभव करता है, किन्तु उसके विना अटूट सम्पत्तिके होनेपर भी प्राणी निरंतर विकल रहता है ॥ ६१ ।। जो राजाओंको लक्ष्मी सर्वप्रथम महाबलवान् मंत्री और सेनापति आदिके द्वारा स्वयं पट्टबन्धाके रूपमें निश्चलतासे बांधी जाती है,जो रक्षाधिकारी (पहारेदार) पुरुषोंके हाथोंमें स्थित खड्गसमूहसे वेष्टित की जाती है,तथा जो सैनिक पुरुषोंके द्वारा रक्षित रहती है,वह दीपककी लोके समान अस्थिर राजलक्ष्मी भी दुराये जानेवाले चामरोंके पवनसे ताडित हुईके समान जब देखते ही देखते नष्ट हो जाती है तब भला अन्य साधारण मनुष्योंकी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् . [ श्लो० ६३ दीप्तोमयाग्रवातारिदारूदरगकीटवत् । जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे बत सोदसि ॥६३॥ नेत्रादीश्वरचोदितः सकलषो रूपादिविश्वाय कि प्रेष्यः सीदसि कुत्सितव्यतिकरैरंहांस्यलं बृहयन् । तत्र त्वं रति करोषीत्याह-दीप्तेत्यादि । दीप्ते प्रज्वलिले उभयाग्रे यस्य तच्च तत् वातारिदारूच एरण्डकाष्ठं उदरगो मध्य गत: स चासौ कीटश्च स इव तद्वत् । समाश्लिष्टे व्याप्ते । बत कष्टम् । सीदसि दुखमनुभवसि ॥६३॥ एवंविधशरीराश्रितानमिन्द्रियाणां वशो भूत्वा किमित्यनेकधा क्लेशमनुभवसि इति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-- नेत्रादीत्यादि । नेत्रादीन्येव ईश्वरः प्रभुः तेषां वा ईश्वरं मनः तेन चोदितः स्वविषये प्रेरित: । सकलुषः आरौिद्रयुक्त: । लझ्मीकी स्थिरताके विषयमें क्या आशा की जा सकती है? अर्थात् नहीं की जा सकती है।। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस राजलक्ष्मीकी रक्षा करनेमें अतिशय बलवान् सुभट एवं अन्य बुद्धिमान् मंत्री आदि भी सदा उद्यत रहते हैं वह भी जब पवनसे प्रेरित दीपककी शिखाके समान क्षणभरमें नष्ट हो जाती है तब साधारण मनुष्योंकी अल्प संपत्ति, जिसका कि कोई रक्षण करनेवाला नहीं है, कैसे स्थिर रह सकती है? अर्थात् नहीं रह सकती है । अतएव अविनश्वर सुखकी प्राप्तिके लिये विनश्वर धन-संपत्तिकी अभिलाषाको छोडकर सन्तोषका ही आश्रय लेना हितकर है ॥६२।। हे भव्यजीव ! जिसके दोनों अग्रभाग अग्निसे जल रहे हैं ऐसी एरण्ड (अण्डा) को लकडीके भीतर स्थित कीडेके समान और मृत्युसे व्याप्त शरीरमें स्थित होकर तू दुख पा रहा है, यह खेदको बात है । विशेषार्थ- जिस प्रकार दोनों ओरसे जलती हुई पोली लकडीके भीतर स्थित कोडेका मरण अवश्य होनेवाला है उसी प्रकार जन्म और मरणसे संयुक्त इस शरीरमें स्थित रहनेपर प्राणीका भी अहित अवश्य होनेवाला है । इसीलिये कल्याणके अभिलाषी भव्यजीव शरीरसे निर्ममत्व होकर रत्नत्रयकी प्राप्तिपूर्वक उसे छोडनेका ही प्रयत्न करते हैं ॥ ६३ ॥ हे भव्यप्राणी ! तू नेत्रादि इन्द्रियोंरूप स्वामीसे अथवा नेत्रादि इन्द्रियोंके स्वामीस्वरूप मनसे प्रेरित दासके समान होकर संक्लेशयुक्त होता हुआ रूपादिरूप समस्त विषयोंको प्राप्त करनेके लिये हीनाचरणोंके द्वारा क्यों अतिशय पापोंको Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५] धनिनोऽपि दुःखिन एव नीत्वा तानि भुजिष्यतामकलुषो विश्वं विसृज्यात्मवानात्मानं धिनु सत्सुखी धुतरजाः सद्वृत्तिििनर्वृतः ॥ ६४ ॥ अथिनो धनमप्राप्य धनिनोऽप्यवितप्तितः। कष्टं सर्वेऽपि सीदन्ति परमेकः सुखी सुखी ॥६५॥ प्रेष्यः नेत्रादीनामाधीन: कर्मकरः । किं सीदसि । किमर्थम् । रूपादिप्रपञ्चनिमित्तम् । रूपादिविश्वायेति पाठे रूपाद्यनुभवायेत्यर्थः । किं कुर्वन् सीदसि । अलं बृहयन् अत्यर्थं वृद्धि नयन् । कानि। अंहांसि पापानि । कैः । कुत्सितव्यतिकरैः निकृष्टव्यापारैः। तानि नेत्रादीनि भुजिष्यतां प्रेष्यतां दासत्वं नीत्वा । अकलुषो रागादिरहित: । विश्वं परिग्रहप्रपञ्चम् । विसृज्य परित्यज्य। आत्मवान् जितेन्द्रियः। आत्मानं धिनु प्रीणय । सत्सुखी सुखीयसि सन् (?) । धुतरजाः निराकृतकर्ममल: । निर्वृत: सुखीभूत: अथवा निवृतो मुक्तः । सत्सुखी सन् (त्) शोभनं सुखमस्या. स्तीति ॥६४॥ ननु यतीनां निर्धनत्वात् कथं सुखप्राप्तिरिति वदन्तं प्रति सधननिर्धनाभ्यां यतेः सुखातिशयं दर्शयन्नाह-- अथिन इत्यादि। किं च धनाढ्याधी (दी) नां सुखं परायत्तं तस्माच्च परायत्तात् सुखात् यत्स्वायत्तं कायक्लेशादिदुःख बढाता है और खेदखिन होता है ? तू उन इन्द्रियोंको ही अपना दास बनाकर संक्लेशसे रहित होता हुआ उन रूपादि समस्त विषयोंको छोड दे और जितेन्द्रिय होकर अपनी आत्माको प्रसन्न कर । इससे तू सदाचरणोंके द्वारा पापसे रहित होकर मुक्तिको प्राप्त करता हुआ समीचीन सुखका अनुभव कर सकता है। विशेषार्थ- यह प्रागी जबतक इन्द्रियोंका दास बनकर उनको सन्तुष्ट करनेके लिये अनेक प्रकारसे अयोग्य आचरण करता है तबतक उसके अशुभ कर्मोका बन्ध होता रहता है जिससे कि उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती। परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उन इन्द्रियोंको स्वयं दास बना लेता है तब उसकी वह दुराचारमय प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है- बढती हुई विषयाकांक्षा नष्ट हो जाती है । इससे वह शुभ ध्यान (धर्म व शुक्ल) में प्रवृत्त होकर रत्नत्रयको पूर्ण करता हुआ मोक्षको प्राप्त कर लेता है और वहां निरन्तर अव्याबाध सुखका अनुभव करता है ।। ६४ ॥धनाभिलाषी निर्धन मनुष्य तो धनको न पाकर दुखी 1 मु (नि) परमे को मुनि: सुखी । आ.५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् . [श्लो० ६६परायत्तात् सुखाद् दुःखं स्वायत्तं केवलं वरम् । अन्यथा सुखिनामानः कथमासंस्तपस्विनः ॥६६॥ तद्वरम् उत्तमं सुखम् । कथंभूतम् । केवलम् इन्द्रियसुखास्पृष्टम् । अन्यथा यदि तदुत्तम सुखं न स्यात् तदा कथम् आसन् संजाताः । के ते। तपस्विनः । किविशिष्टाः सुखिनामान: सुखीति नाम येषाम् ।।६५-६६।। तेषामेव श्लोकद्वयेन गुणप्रशंसां कुर्वन्नाह होते हैं और धनवान् मनुष्य सन्तोषके न रहनेसे दुखी होते हैं। इस प्रकार खेद है कि सब ही (धनी और निर्धन भी) प्राणी दुखका अनुभव करते हैं। यदि कोई सुखी है तो केवल एक सन्तोषी (तृष्णासे रहित) मुनि ही सुखी है । धनवानोंका सुख पराधीन है। उस पराधीन सुखकी अपेक्षा तो आत्माधीन दुख अर्थात् अपनी इच्छानुसार किये गये अनशन आदिके द्वारा होनेवाला दुख ही अच्छा है । कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर तपश्चरण करनेवाले साधुजन ‘सुखी' इस नामसे यक्त कैसे हो सकते थे? अर्थात नहीं हो सकते थे ।। विशेषार्थ- यदि विचार कर देखा जाय तो संसारमें कोई भी प्राणी सुखी नहीं है प्रायः सब ही दुखी हैं। उनमें निर्धन जन तो इसलिये दुखी हैं कि विना धनके वे अपनी आवश्यकताओंको पूर्ण नहीं कर पाते हैं। इसलिये वे उनकी पूर्तिके योग्य धनको प्राप्त करनेके लिये निरन्तर चिन्तातुर रहते हैं, परन्तु वह उन्हें प्राप्त होता नहीं है । इसके अतिरिक्त वे जब अपने सामने धनवानोंके टाट-वाट (रहन-सहन) को देखते हैं तो इससे उन्हें ईर्ष्या होती है, इस कारण भी वे सदा संतप्त रहते हैं। इससे यदि कोई यह सोचे कि धनवान् मनुष्य सुखी रहते होंगे, सो भी बात नहीं है- वे भी दुखी ही रहते हैं। उनके दुखका कारण असन्तोष-- उत्तरोत्तर बढनेवाली तृष्णा- है । उन्हें इच्छानुसार कितनी भी अधिक धन-सम्पत्ति क्यों न प्राप्त हो जावे फिर भी उन्हें उतनेसे सन्तोष नहीं प्राप्त होता- उससे भी अधिककी चाह उन्हें निरन्तर बनी रहती है । इससे ज्ञात होता है कि जिस प्रकार धन सुखका कारण नहीं है उसी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७] तपस्विनां प्रशंसा यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं सहाय संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् । यदेतदित्यादि । एतत् प्रतीयमानम् । यत् स्वच्छन्दम् आत्मायत्तम् । विहरगं प्रवृत्तिः। अकार्पण्यं दीनत्वरहितम् । अशनम् आहारः । आर्य: संसारभीरुभिः गुणवद्भिर्वा । सह संवास: सहावस्यानम् । श्रुतं शास्त्रपरिज्ञानम् । उपशमैकश्रमफलं उपशमो रागाद्यनुदयः स एव धनलाभपूजादि एकम् असहायं श्रमस्य प्रयासस्य प्रकार निर्धनता दुखको भी कारण नहीं है। सुखका कारण वास्तवमें सन्तोष और दुखका कारण असन्तोष (तृष्णा) है। यही कारण है जो साधु जन सब प्रकारके धनसे रहित होकर भी एक मात्र उसी सन्तोष-धनसे अतिशय सुखी, तथा चिन्ताकुल धनवान् भी मनुष्य अतिशय दुखी देखे जाते हैं । इसके अतिरिक्त वह जो विषयजनित सुख है वह पराधीन है- वह उसके योग्य पुण्य एवं धन आदिको अपेक्षा रखता है । जब ऐसे पुण्य आदिका संयोग होगा तब ही वह सुख प्राणीको प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त पराधीन होनेसे वह चिरस्थायी भी नहीं है- थोडे ही समयतक रहनेवाला है । अतएव जहां पराधीनता नहीं है उसे ही वास्तविक सुख समझना चाहिये । उस पराधीन सुखकी अपेक्षा तो स्वतन्त्रतासे आचरित अनशनादि तपोंसे उत्पन्न होनेवाला दुख भी कहीं अच्छा है, क्योंकि, उससे भविष्यमें स्वाधीन सुख प्राप्त होनेवाला है । परन्तु वह पराधीन क्षणिक सुख उत्तरोत्तर दुखका कारण होनेसे वास्तवमें दुख ही है ॥ ६५-६६ ॥ साधु जनोंका जो यह स्वतन्त्रतापूर्वक विहार (गमनागमन प्रवृत्ति), दीनता (याचना) से रहित भोजन, गुणी जनोंकी संगति, शास्त्रस्वाध्यायजनित परिश्रमके फलस्वरूप रागादिको उपशान्ति, तथा बाह्य पर पदार्थोमें मन्द प्रवृत्तिवाला मन है; वह सब कौन-से महान तपका परिणाम है, इसे मैं बहुत कालसे अतिशय विचार करनेपर भी नहीं जानता हूं ॥ विशेषार्थ---- यहां गृहस्थोंकी अपेक्षा साधु जनोंको किस प्रकारका सुख प्राप्त होता है, इसका विचार करते हुए सबसे पहिले Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [इलो० ६७मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरायाति विमृशन् न जाने कस्येयं परिणतिरुदारस्य तपसः ॥ ६७॥ फलं यत्र । मनो बहिः बाह्यार्थे । मन्दस्पन्दं मन्दप्रवृत्तिकम् । चिराय चिरकालम् । अतिविमुशन्नपि अतिपरिभावयन्नपि । न जाने । परिणति: विपाकः । उदारस्य महतः ।।६७॥ तथा- विरतिरित्यादि । विरतिविषयव्यावृत्ति: । अतुला अनुपमा । यह बतलाया है कि उनका गमनागमन व्यवहार स्वतन्त्रतासे होता है-- वे अज्ञानी प्राणियोंको सम्बोधित करनेके लिये जहां भी जाना चाहते हैं निर्भयतापूर्वक जाते हैं। परन्तु गृहस्थोंका जाना-आना व्यापारादिकी परतन्त्रताके कारणसे ही होता है। इसलिये उन्हें उससे सुख नहीं प्राप्त होता । इसके अतिरिक्त उनके पास कुछ न कुछ परिग्रह भी रहता है, इसलिये वे उन निर्ग्रन्थ साधुओंके समान यत्र तत्र स्वतन्त्रतासे जा-आ भी नहीं सकते हैं- उन्हें चोर एवं हिंस्र जन्तुओं आदिका भय भी पीडित करता है । इसके अलावा मुनियोंका भोजन जिस प्रकार याचनासे रहित होता है उस प्रकारका भोजन गृहस्थोंका नहीं होता। कारण यह कि उन गृहस्थोंमें जो दरिद्र हैं वे तो प्रत्यक्षमें याचना करके ही उदरपूर्ति करते हैं। किन्तु जो धनवान् हैं वे भी जिव्हालम्पटताके कारण घरमें तैयार किये गये अनेक प्रकारके पदार्थोमें इच्छानुसार स्वादिष्ट पदार्थोंकी याचना किया ही करते हैं। फिर भी उन्हें जिव्हा इन्द्रियपर विजय प्राप्त कर लेनेवाले उन मुनियोंके समान सुख नहीं प्राप्त होता जो कि केवल शरीरको स्थिर रखनेके लिये विधिपूर्वक अयाचकवृत्तिसे ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि स्वादपरतासे । तथा जिस प्रकार मुनियोंका सहवास गुणवान् अन्य मुनिजनोंके साथ और योग्य सद्गृहस्थोंके साथ ही होता है उस प्रकार गृहस्थोपा नहीं होता-- वे स्वार्थवश योग्यायोग्यका विचार न करके जिस किसीके भी साथ सहवास करते हैं । मुनि जहां अपने समयको राग-द्वेषादिको दूर करनेवाले शास्त्रस्वाध्यायादि कार्योमें बिताते हैं वहां गृहस्थका सब समय प्रायः विषयोंके Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६९] शरीरस्य दूरक्षत्वम् विरतिरतुला शास्त्रे चिन्ता तथा करुणा परा मतिरपि सदैकान्तध्वान्तप्रपञ्चविभेदिनी। अनशनतपश्चर्या चान्ते यथोक्तविधानतो भवति महतां नाल्पस्येदं फलं तपसो विधेः ॥६८॥ उपायक्रोटिदूरक्षे स्वतस्तत इतोऽन्यतः । सर्वतः पतनप्राये काये कोऽयं तवाग्रहः । ६९॥J एकान्तेत्यादि । एकान्तमेव ध्वान्तं तमस्तस्य प्रपञ्चो विस्तारस्तस्य विभेदिनी विध्वंसिका । अनशनस्तपश्चर्या संन्यासानुष्टानम् यथोक्तविधानत: आगमोक्तविधिविधानेन । अनतिक्रमेण ।।६८।। ननु तपोविधाने कायपीडा सा च अयुक्ता 'शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः' इत्यभिधानादित्याशङ्क्याह-उपायेत्यादि । दूरक्षे रक्षितुमशक्ये । स्वतः स्वयमेव । ततः विवक्षितात् कार्यकरणात् । इत: परिदृश्यमानाद्धतोः । अन्यतः यतः कुतश्चित् । एवं सर्वतः पतनप्राये उक्तप्रकारेण सर्वस्माद्धेतोः पतन प्रायेण यस्य । आग्रहः संग्रहमें ही बोतता है, जिससे कि वह सदा राग-द्वेषसे कलुषित और व्याकुल रहता है। मुनियोंका मन जहां कदाचित ही बाह्य पदार्थोंको ओर जाता है वहां गृहस्थोंका मन प्रायः निरन्तर बाह्य पदार्थों में ही प्रवृत्त रहता है । इस प्रकार वह साधुओंको प्रवृत्ति अवश्य ही किसी महान् तपके फलस्वरूप है जो कि सर्वसाधारणको दुर्लभ हो है। इससे निश्चित हैं कि जो सुख स्वतन्त्रतामें है वह पराधीनतामें कभी नहीं प्राप्त हो सकता है ॥६७।। इसके अतिरिक्त विषयोंका अनुपम त्याग, श्रतका अभ्यास, उत्कृष्ट दया,निरन्तर एकान्तरूप अन्धकारके विस्तारको नष्ट करनेवाली बुद्धि, तथा अन्तमें आगमोक्त विधिसे अनशन तंपका आचरण अर्थात् आहारके परित्यागपूर्वक समाधिमरण; यह सब महात्माओंको प्रवृत्ति किसी थोडे-से तपके अनुष्ठानका फल नहीं है, किन्तु महान् तपका ही वह फल है ॥६८॥ करोडों उपायोंको करके भी जिस शरीरका रक्षण न स्वयं किया जा सकता है और अन्य किसीके द्वारा कराया जा सकता है, किन्तु जो सब प्रकारसे नष्ट ही होनेवाला है, उस शरीरको रक्षाके विषयमें तेरा कौन-सा आग्रह है ? अर्थात् जब किसी भी प्रकारसे उक्त शरीरको रक्षा 1 (अनशनतपश्चर्या) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आत्मानुशासनम् [श्लो० ७० अवश्यं नश्वररेभिरायुःकायादिभिर्यदि । शाश्वतं पदमायाति मुधायातमवैहि ते ॥७॥ गन्तुमुच्छ्वासनिःश्वासैरभ्यस्यत्येव संततम् । लोकः पृथग (गि)तो वाञ्छत्यात्मानमजरामरम् ॥७॥ मलत्यायुः प्रायः प्रकटितवटीयन्त्रसलिलं खलः कायोऽप्यायुगतिमनुपतत्येव सततम् । आबन्धः ॥६९॥ तस्मात् आह- अवश्यमित्यादि । शाश्वतं पदं मोक्षस्थानम् ॥७॥ तत्र आयुषो नश्वरत्वं दर्शयन् 'गन्तुमित्यादि ' श्लोकद्वयमाह- संततं एष जीवोऽभ्यस्यति । किं कर्तुम् । गन्तुं शरीरं त्यक्तुम् । कैरभ्यस्यति । उच्छ्वासनि: श्वास: । लोकः पृयक् पृथक् लोकः अविवेकिजनः । इतः एभ्य: उच्छ्वासनिः श्वासेभ्यः ।आयुष: अपकर्षोपायेभ्यः। आत्मानम् अजरामरं मृत्योरगोचरं वाञ्छति । अथवा पूरककुम्भकरेचकरूपेभ्य: उच्छवासनिःश्वासेभ्यः आत्मानम् अजरामरं वृद्धलमृत्युरहितं वाञ्छति । पूरको हि उच्छ्वासो रेचको निःश्वास इति ॥७॥ गलतीत्यादि । गलति गच्छति आयुः । प्राय: अत्यर्थम् । प्रकटितम् अनुकृतं घटीयन्त्र नहीं की जा सकती है तब हपूर्वक सब प्रकारसे उसकी रक्षाका प्रयत्न करना निरर्थक है ॥६९। इसलिये यदि अवश्य नष्ट होनेवाले इन आयु और शरीर आदिकोंके द्वारा तुझे अविनश्वर पद (मोक्ष) प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास ही आया समझ ॥७०॥ यह जीव निरंतर उच्छवास और निःश्वासोंके द्वारा जानेका अभ्यास करता है। परंतु अज्ञानो जन उन उच्छ्वास और निःश्वासोंके द्वारा आत्माको अजर-अमर अर्थात् जरा और मरणसे रहित मानता है ॥ विशेषार्य-अभिप्राय यह है कि जिस क्रमसे प्राणीके उच्छ्वास और निःश्वास निकलते हैं उसी क्रमसे उसकी पूर्वबद्ध आयु (जीवित)कम होती जाती है। फिर भी बहुतसे प्राणी अज्ञानतावश यह समझते हैं कि उन उच्छ्वास-निःश्वासोंको जितना अधिक रोका जा सकेगा उतनी ही अधिक आयु बढेगी तथा इस प्रकारसे प्राणी वृद्धत्वसे भी रहित होगा । यह उनका मानना अज्ञानतासे परिपूर्ण है, यही यहां सूचित किया गया है ॥७१॥ यह आयु प्रायः अरहटकी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्देहयोर स्थिरता किमस्यान्यैरन्यैर्द्वयमयमिदं जीवितमिह स्थितो भ्रान्त्या नावि स्वमिव मनुते स्थास्नुमपधीः ॥७२॥ सलिलं येन । एष कायः खलः अपकारकः । आयुतिम् अस्यास्नुताम् । अनुपतति अनुतकरोति । सततम् अनवरम् । अस्य जीवस्य । अन्यैः पुत्रकलत्रादिभिः । अन्यैः भिन्नैः । किम् । न किमपि कार्यम् । कुतो यतो जीवित द्वयमयं आयुर्देहाभ्यां निवृत्तम् 1 । तच्च द्वयं अस्यास्तु । अतोऽयमात्मा अपधी: अपगतविवेकः सन् । इह जीविते लोके वा । स्वम् आत्मानम् । स्थास्तुं भ्रान्त्या मनुते । नावीव स्थितः ॥ ७२ ॥ जीवितत्वेन प्रसिद्धस्य चोच्छवासस्य दुःखरूपत्वात् क्व प्राणिनां सुखं स्यादित्याह - -७२] ७१ घटिकाओं में स्थित जलके समान प्रतिसमय क्षोग हो रही है तथा यह दुष्ट शरीर भी निरंतर उस आयुकी गति ( नश्वरता ) का अनुकरण कर रहा है। फिर भला इस प्राणीका अपने से भिन्न अन्य स्त्री एवं पुत्र- मित्रादिसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । कारण यह कि यहां इन दोनों (आयु और शरीर ) स्वरूप ही तो यह जीवित है । फिर भी अविवेकी प्राणी नावमें स्थित मनुष्यके समान भ्रमसे अपनेको स्थिरशील मानता है ।। विशेषार्थ - जिस प्रकार अरहटकी घटिकाओंका जल प्रतिसमय नष्ट होता रहता है उसी प्रकार प्राणीको आयु भी निरंतर क्षीण होती रहती है। तथा जिस क्रमसे आयु क्षीण होती है उसी क्रम से उसका शरीर भी कृश होता जाता है । जिस आयु और शरीर स्वरूप यह जीवन है उन दोनों ही की जब यह दशा है तब पुत्र और स्त्री आदि जो प्रगटमें भिन्न हैं, वे भला कैसे स्थिर हो सकते हैं तथा उनसे प्राणीका कौन - सा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? कुछ भी नहीं । फिर भी जिस प्रकार नावके ऊपर बैठा हुआ मनुष्य अपने आधारभूत उस नाव के चलते रहनेपर भी भ्रांतिवश अपनेको स्थिर मानता है उसी प्रकार आयुके साथ प्रतिक्षण क्षीण होनेवाले शरीरके आश्रित होकर भी यह प्राणी अज्ञानता से अपनेको स्थिर मानता है । यदि वह यह समझने का प्रयत्न करे कि जिस प्रकार यह शरीर क्षीण होता जा रहा है उसी प्रकार आयु भी घटती जा रही है और मृत्यु निकट आ रही है, तो फिर वह उसको स्थिर रखनेका (निर्वृतम्) | Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ७३उच्छ्वासः खेदजन्यत्वाद् दुःख मेषोऽत्र जीवितम् । तद्विरामोभवेन्मृत्युर्नृणां भर्ण कुतः सुखम् ॥७३॥ जन्मतालद्रुमाज्जन्तुफलानि प्रच्युतान्यधः। " अप्राप्य मृत्युभूभागमन्तरे स्युः कियच्चिरम् ॥७४॥ . . . उच्छ्वास इत्यादि । एष उछ्वास: । तद्विराम: उच्छ्वासविनाशः ॥ ७३ ।। उत्पत्तिविनाशान्तराले वर्तमानानां च प्राणिनां जोक्तेि कियत्काल समाश्वास: स्यात् इत्याह-- जन्मेत्यादि । प्रत्युतानि पतितानि ।। ७४ ॥ जन्तुरक्षार्थ च प्रयत्न न करके जिस शरीरके संयोगसे यह परिभ्रमण हो रहा है उसे ही छोड देनेका प्रयत्न कर सकता है और तब ऐसा करनेसे उस अविनश्वर सुख भी अवश्य प्राप्त हो सकता है ।।७२।। उच्छवास कष्टसे उत्पन्न होनेके कारण दुखरूप है और यह उच्छ्वास ही यहां जीवन तथा उसका विनाश ही मरण है । फिर बतलाईये किं मनुष्योंको सुख कहांसे हो सकता है? नहीं हो सकता है । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि श्वासोच्छ्वासका चाल रहना,यही तो जीवन है। सो वह श्वासोच्छ्वास चूंकि कष्टसे उत्पन्न होता है अंतएव इससे समस्त जीवन ही दुखमय हो जाता है । और उस श्वासोच्छवासके नष्ट हो जानेपर जंब मरण अनिवार्य है तब उसके पश्चात सुख भोगनेवाला रहेगा कौन ? इस प्रकार संसार में सर्वदा दुख ही है ॥७३॥ जन्मरूप ताडके वृक्षसे नीचे गिरे हुए प्राणीरूप फल मृत्युरूप पृथिवीतलको न प्राप्त होकर अन्तसलमें कितने काल रह सकते हैं ? विशेषार्थ-- जिस प्रकार ऊंचे भी ताडवृक्षसे नीचे गिरे हुए फल क्षण मात्र अन्तरालमें रहकर निश्चित ही पृथ्वीतलका 'आश्रय ले लेते हैं उसी प्रकार ताडवृक्षके समान जन्मसे उत्पन्न होनेवाले प्राणी अल्प काल ही बीचमें रहकर निश्चयंसे इस पृथ्वीतलंके समान मृत्युको प्राप्त करते ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वृक्षसे गिरा हुआ फल पृथ्वीके ऊपर अवश्य गिरता है उसी प्रकार जो प्राणी जन्म लेते हैं वे मरते भी अवश्य हैं-स्थिर रहनेवाला कोई भी नहीं है ॥ ७४ ॥ विधि (ब्रह्मा या कर्म) रूप · ! स मु (ज. नि.) तद्विरामे Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७५ ] अध्यतमोऽन्तकः क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनैस्त्रिभिः परिवृतमतः खेनाधस्तात्खलासुरनारकान् । उपरि दिविजान् मध्ये कृत्वा नरान् विधिमन्त्रिणा पतिरपि नृणां त्राता नैको ह्यलङ्घ्यतमोऽन्तकः ॥ ७५ ॥ ७३ विधिनापि प्रयत्ने कृते तद्रक्षा कर्तुं न शक्येति दर्शयन्नाह-- क्षितीत्यादि । परिवृतं वेष्टितं जगत् । कैः । क्षितिजलधिभिः द्वीपसमुद्रः । कथंभूतैः । संख्यातीतः असंख्यातैः । ततरे बहिः पवनैः घनवाताम्बु वाततनुवातनामभिस्त्रिभिः परिवृतम् । अतः पवनत्रयात् परतः । खेन आकाशेन परिवृतम् । अधस्तात् अधोभागे । खलासुरनारकान् कृत्वा । उपरि ऊभागे । दिविजान् देवान् । मध्ये मध्यभागे । नरान् कृत्वा । इत्थं नररक्षार्थं जगत् परिवृतम् । केन । विधिमन्त्रिणा । सोऽपि न त्राता । न केवलं विधिमन्त्री, नान्योऽपि त्राता । अथवा यद्विधि मन्त्रिणा परिवृतं यत्नं ( ? ) कृतं तन्न त्रातृ । न केवलं तन्न त्रातृ, अपि तु पतिरपि मंत्रीने इस लोकमें नीचे दुष्ट असुरकुमार देवों और नारकियोंको तथा ऊपर वैमानिक देवों को करके मध्य में मनुष्यों को स्थापित किया और उनके निवासभूत उस मनुष्यलोकको असंख्यात पृथिवीस्वरूप द्वीपों और समुद्रोंसे वेष्टित किया । उनके भी बाहिर तीन ( घनवातवलय, अम्बुवातवलय, और तनुवातवलय) वातवलयोंसे तथा उनके भी आगे उसे आकाशसे वेष्टित किया । इतनेपर भी न तो वह विधिरूप मंत्री ही उन मनुष्यों की रक्षा कर पाता है और न चक्रवर्ती आदि भी । कारण यह कि लोकमें अतिशय दुर्गम एक वह यम ( मृत्यु ) ही है || विशेषार्थ - जिस प्रकार किसी राजाका सुयोग्य मंत्री राजा और उसके राज्यकी रक्षाके लिये कोट एवं गहरी खाईसे वेष्टित नगरका निर्माण कराकर उसके बीच में दुर्गम दुर्ग ( किला ) का निर्माण कराता है उसी प्रकार मंत्रीके समान विधिने मनुष्यों की सुरक्षा के लिये उनके निवासस्थान ( मनुष्यलोक) को कोट और खाईके समान एक दो नहीं किन्तु असंख्यात द्वीप- समुद्रोंसे, इसके पश्चात् तीन वायुमण्डलों और तत्पश्चात् भी आकाशसे वेष्टित किया; तथा उनके Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ [ श्लो० ७६ आत्मानुशासनम् अविज्ञातस्थानो व्यपगततनुः पापमलिनः खलो राहुर्भास्वद्दशशतकराक्रान्तभुवनम् । स्फुरन्तं भास्वन्तं किल गिलति हा कष्टमपरः 1 परिप्राप्ते काले विलसति विधौ को हि बलवान् ॥ ७६ ॥ चक्रवर्तीन्द्रादिर्न त्राता । कुतः । हि यस्मात् । एक अलङ्घ्यतमः अतिशयेन अलङ्घ्यो दुर्निवार: ।। ७५ । प्राप्तावधो च प्राणिनामन्तके उद्यमं कुर्वाणे कस्तन्निवारणे समर्थ इत्याह- अविज्ञात इत्यादि । व्यपगततनुः शरीररहित: । पापमलिनः कृष्णः । भास्वदित्यादि । भास्वन्तश्च ते दशशतकराश्च सहस्रकिरणा: तैः आक्रान्तं व्याप्तं भुवनं येन । स्फुरन्तं सप्रतापं प्रकाशमानं वा । इत्थंभूतं भास्वन्तम् आदित्यम् । परिप्राप्ने काले लब्धावसरे । विलसति विजृम्भमाणे सति विधौ ।। ७६ ।। स च अन्तकः किं कृत्वा क्व प्राणिनं हन्तीत्याह-- उत्पाद्येत्यादि । नीचे व्यन्तरों, भवनवासियों एवं नारकियोंको और ऊपर वैमानिक देवोंको स्थापित किया । इतना करनेपर भी वह उन मनुष्यों को मरने से नहीं बचा सका - आयुके पूर्ण होनेपर समयानुसार उन सबका मरण होता ही है । अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त जो लोककी रचना है वह स्वाभाविक ही है । उसके उपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि यह लोककी रचना क्या है, मानो ब्रह्माने मनुष्योंकी रक्षाके लिये ही यह सब किया है, फिर भी खेद है कि वे मृत्युपे सुरक्षित नहीं रह सके । तात्पर्य यह कि मनुष्य ही नहीं, किन्तु जितने भी शरीरधारी प्राणी हैं। वे सब समयानुसार मरणको अवश्य प्राप्त होनेवाले हैं - उन्हें मृत्युसे बचानेवाला कोई भी नहीं है || ७५ ॥ जिसका स्थान अज्ञात है, जो शरीरसे रहित है, तथा जो पापसे मलिन अर्थात् काला है वह दुष्ट राहु निश्चयसे प्रकाशमान एक हजार किरणोंरूप हाथोंसे लोकको व्याप्त करनेवाले प्रतापी सूर्यको कवलित करता है; यह बड़े खेदकी बात है । ठीक है - समयानुसार कर्मका उदय आनेपर दूसरा कौन बलवान् है ? आयुके पूर्ण होनेपर ऐसा कोई भी बलिष्ठ प्राणी 1 मु (जै. नि.) कष्टमपरं । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७७] अलध्यतमोऽन्तकः ७५ उत्पाद्य मोहमदविव्हलमेव। विश्वं वेधाः स्वयं गतघृणष्ठकवधयेष्टम् । वेधाः विधिः कर्ता । विश्वं जगत् । मोहजनितमदेन विव्हलं कृत्वा । कृत्याकृत्यविवेकशून्यमेव उत्पाद्य पूर्वम्, पश्चात् स्वयमेव गतघृणो निदयः सन् हन्ता यथेष्टं ठकवत् । क्वेत्याह संसारे इत्यादि । ठगो हि गहनान्तराले हन्ता भवति । वेधाः नहीं है जो मृत्युसे बच सके ॥ विशेषार्थ-- लोकमें सूर्य अतिशय प्रतापी माना जाता है । उसके एक हजार किरण (कर) क्या हैं मानो आक्रामक हाथ ही हैं । ऐसे अपूर्व बलशाली तेजस्वी सूर्यको भी ग्रहणके समय वह काला राह ग्रसित करता है जिसके न तो स्थानका पता है और न जिसके शरीर भी है । जिस प्रकार वह प्रतापशाली भी सूर्य राहके आक्रमणसे आत्मरक्षा नहीं कर सकता है उसी प्रकार कितना भी बलवान् प्राणी क्यों न हो, किन्तु वह भी कालसे (मृत्युसे) अपनी रक्षा नहीं कर सकता है-- समयानुसार मरणको प्राप्त होता ही है । कारण यह कि राहुके समान वह काल भी ऐसा है कि न तो उसके स्थानका ही पता है और न उसके शरीर भी है जिससे कि उसका कुछ प्रतिकार किया जा सके । ७६ ॥ कर्मरूप ब्रह्मा समस्त विश्वको ही मोहरूप शराबसे मूर्छित करके तत्पश्चात् स्वयं ही ठग (चोर-डाक) के समान निर्दय बनकर इच्छानुसार संसाररूप भयानक महावनके मध्यमें उसका घात करता है। उससे रक्षा करने के लिये भला यहां दूसरा कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार कोई चोर या डाकू बीहड जंगलमें किसी मनुष्यको पाकर प्रथमतः उसे शराब आदि मादक वस्तु पिलाकर मूछित करता है और तत्पश्चात् उसके पास जो कुछ भी रुपया-पसा आदि होता ह उसे लूट कर मार डालता है। उसी प्रकार यह कर्म भी प्राणीको म (ज. नि.) मविभ्रममेव । - ...... Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ७७संसारभीकरमहागहनान्तराले .. हन्ता निवारयितुमत्र हि कः समर्थः ॥ ७७ ।। कदा कथं कुतः कस्मिन्नित्यतयः खलोऽन्तकः । प्राप्नोत्येव किमित्याध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ॥ ७८॥ पुनः क्व । संसार एव भीकर महागहनान्तरालं तत्र । अत्र वेधसि ॥ ७७ ।। म च अन्तकस्य देशकालाकारनैयत्यमस्ति यत्परिहारेणासौ परिहियते इत्याह--- कदेत्यादि । कदा कस्मिन् काले । कथं केन प्रकारेग । कुतः कस्मात् स्थानात् । कस्मिन् क्षेत्रे आगच्छति इत्येवम् अतय: अपर्यालोच्य: । किमिति आध्वं किमिति निश्चिन्तास्तिष्ठत । यतध्वं श्रेयसे प्रयत्नं कुरुत चारित्रानुष्ठानाय हे बुधाः ॥ ७८॥ देशादीनां च मध्ये मृत्योरमोचरं किंचिदवलोक्य पहिले तो मोहरूप शराब पिलाकर मूछित करता है-- हेयोपादेयके ज्ञानसे रहित करता है, और तत्पश्चात् उसके रत्नत्रय स्वरूप धनको लूटकर मार डालता है- दुर्गतिमें प्राप्त कराकर दुखी करता है । इस प्रकार जैसे उस बीहड जंगलमें चोरके हाथोंमें पडे हुए, उस मनुष्यकी कोई रक्षा करनेवाला नहीं है उसी प्रकार इस भयानक संसारमें कर्मोदयसे मोहको प्राप्त हुए प्राणीकी भी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हां, यदि वह स्वयं ही मोहसे रहित होकर हिताहितके विवेकको प्राप्त कर लेता है तो अवश्य ही वह संसारके सन्तापसे बच सकता है। प्रकारान्तरसे यहां यह भी सूचित किया गया है कि जो ब्रह्मा स्वयं ही विश्वको उत्पन्न करता है वही यदि उसका संझरक हो जाय तो फिर दूसरा कौन उसकी रक्षा कर सकता है ? कोई नहीं ॥ ७७ ।। जिस कालके विषयमें कब वह आता है, कैसे आता है, कहांसे आता है, और कहांपर आता है; इस प्रकारका विचार नहीं किया जा सकता है वह दुष्ट काल प्राप्त तो होता ही है । फिर हे विद्वानो! आप निश्चिन्त' क्यों बैठे हैं ? अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कीजिये । अभिप्राय यह है कि प्राणीके मरणका म तो कोई समय ही नियत है और न स्थान भी। अतएव विवेकी जनको सदा सावधान रहकर आत्महितमें प्रवृत्त रहना चाहिये ॥ ७८ ॥ मृत्युसे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ -6.] स्त्रीकलेवरस्वरूपम् असामवायिक मृत्योरेकमालोक्य कंचन । देशं कालं विधि हेतुं निश्चिन्ताः सन्तु जन्तवः ॥७९॥ अपिहितमहाघोरद्वारं न कि नरकापदामुपकृतवतो भूयः किं तेन चेदमपाकरोत् । निश्चिन्त: स्थातव्यमित्याह-असामवायिकमित्यादि। असानवायिक प्रतिकूलं अगोचर पा । विधि प्रकारम् ॥७९।। एवम् आयुधो नश्वरत्वं प्रतिपाद्य इदानीं स्त्रीनिन्दा कुर्वाणस्तस्कायस्य अपकारहेतुत्वं प्रदर्शयन् 'अपिहितं' इत्याद्याह-अपिहितम् अझम्पितम्। सम्बन्ध न रखनेवाले किसी एक देशको, कालको, विधानको और कारणको देखकर प्राणी निश्चिन्त हो जावें ॥ विशेषार्थ-पूर्व श्लोकमें यह बतलाया गया है कि प्राणीका मरण कब, कहां और किस प्रकारसे होगा; इस प्रकार जब कोई नहीं जान सकता है तब विवेको जीवोंको यों ही निश्चिन्त होकर नहीं बैठना चाहिये,किन्तु उससे आत्मरक्षाका कुछ प्रयत्न करना चाहिये । इसपर शंका हो सकती थी कि जब उसके काल और स्थान आदिका पता ही नहीं है, तब भला उसका प्रतीकार करके आत्मरक्षा की ही कैसे जा सकती है ? इसके उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया है कि यदि उस काल (मरण) के स्थान आदिका पता नहीं है तो न रहे, किन्तु हे प्राणी ! ऐसे किसी सुरक्षित स्थानको प्राप्त कर ले जहां कि वह पहुंच ही नहीं सकता हो । ऐसा करनेसे उसका प्रतीकार करनेके विना ही तेरी रक्षा अपने आप हो जावेगी। ऐसे सुरक्षित स्थानका विचार करनेपर वह केवल मोक्षपद ही ऐसा दिखता है जहां कि मृत्युका वश नहीं चलता । अतएव बाह्य वस्तुओंमें इष्टानिष्टकी कल्पनाको छोडकर मोक्षमार्गमें ही प्रवृत्त होना चाहिये, इसीमें जीवका आत्मकल्याण है ॥७९॥ जिस स्त्रीके शरीरको अज्ञानी जन दुर्लभ मानते हैं उस स्त्रीके शरीरमें हे भव्य ! तू किसलिये अनुरक्त हो रहा है ? वह स्त्रीका शरीर पुण्य (सुख) को भस्मीभूत करनेके लिये अग्निकी ज्वालायोंके समूहके समान होकर नरकके दुःखोंको प्राप्त करनेके Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आत्मानुशासनम् कुशलविलयन्वालाजाले कलत्रकलेवरे कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ॥८०॥ व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं विष्वक्क्षुरक्षत पातकुष्ठ कुथिताद्युग्रामछिद्रितम् । [. इल्लो० ८० उपकृतक्तः वस्त्राभरणादिभिः उपचारं कृतवतः । न च नैक । इदं कलत्रकलेवरम् । अपाकरोत् प्रतिकूला चरण प्राणविपत्त्याद्यपकारकं कृतवत् । कुशलेत्यादि । कुशलस्य पुण्यस्य विलयाय ज्वालाजाले ज्वालासंघाते । प्रीतः प्रीति मतः ।। ८० ।। तत्र च प्रीति परित्यज्य सर्वथा निःसारं मानुष्यं विशिष्टधर्मोपार्जनेन सफलं कुविति शिक्षां प्रयच्छताह-- व्यापदित्यादि । विविधा आपदो व्यापदः ता एक पर्वाणि प्रन्ययः तैनिर्वृत्तं व्यात्पर्वमयम् । विराम विरसं विरामे वृद्धत्वे अग्रभागे च विगतरसम् । मूले मूर्ध्नि बालत्वे च अभोग्योचितम् लिये खुले हुए महा भयानक द्वारके समान है । तथा जिस स्त्रीशरीरको तूने वस्त्राभरणादिसे अलंकृत कर बार बार उपकृत किया है उसने क्या तेरा प्रतिकूल आचरण करके अपकार नहीं किया है ? अर्थात् अवश्य किया है । अतएव ऐसे कृतघ्न स्त्री के शरीर में अनुराग करना उचित नहीं है ||८०|| आपत्तियोंरूप पोरोंसे निर्मित, अन्तमें नीरस, मूलमें भी उपभोगके अयोग्य तथा सब ओरसे भूख, क्षतपात ( घाव ), कोढ और दुर्गन्ध आदि तीव्र रोगों से छेद युक्त की गई ऐसी यह मनुष्य पर्याय घुनों ( लव. डीके कीडों) से खाये हुए गन्ने के समान केवल नामसे ही रमणीय है । हे भव्य ! तू इस निःसार मनुष्य पर्यायको शीघ्र यहां परभवका बीज ( साधन) करके सारयुक्त कर ले ॥ विशेषार्थं - यहां मनुष्य पर्यायको ara ras समान निःस्सार बतलाकर उसके द्वारा योग्य संयम एवं तप आदिका आचरण करके परभवको सुधारनेकी प्रेरणा की गई है। उन दोनों में समानता इस प्रकारसे है - जैसे गन्ना पोरोंसे संयुक्त होता है वैसे वह मनुष्य पर्याय अनेक प्रकारके दुःखोंरूप पोरोंसे संयुक्त है, जिस प्रकार गन्ना अन्त (अन्तिम भाग) में नीरस या फीका होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी अन्तमें ( वृद्धावस्थामें ) नीग्स ( आनन्दसे रहित ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] मानुष्यस्य स्वरूपम् मानुष्यं घुणभक्षितेक्षुसदृशं नामैकरम्थं पुनः निःसारं परलोकबीजमचिरात्कृत्वेह सारी कुरु ॥८१॥ प्रसुप्तो मरणाशङ्कां प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयन्नेव तिष्ठे कार्य कियच्चिरम् ॥८२॥ ७९ अनुभवनायोग्यम्। विश्वगित्यादि । विष्वक् समन्तात् क्षुच्च बुभुक्षा च, क्षतपातश्च 1, कुष्ठं च कुत्सितं च तानि आदिर्येषां जलोदरभगन्दराद्युग्रामयाः तैः छिद्रितं जर्जरीकृतम् इक्षुदण्डकम् । नामैकरम्यं नाम्ना मानुष्यमिति शब्देनैकेन केवलेन रम्यम्, न परैर्धर्मैः । निःसारं अन्तस्तुच्छम् । परलोकबीजं धर्मसाधनत्वेन परलीकोपायम् । इह लोके सारीकुरु सफलं कुरु ॥८१॥ प्रसुप्तेत्यादि । प्रसुप्तो गाढनिद्रा क्रान्तः । मरणाशङ्काम् । प्रबुद्धो जागरित: जीवितोत्सवं जीविते सति उत्सव: परिजन परितोषादि । प्रत्यहं प्रतिदिनम् । एषः आत्मा । कियच्चिरं कियद्बहुकालम् ।। ८२।। एवं कायस्यात्मोपकारकत्वाभावं प्रतिपाद्य बन्धूनां प्रतिपादहोता है, गन्ना यदि मूल (जड ) में उपभोग्यके (चूसने के ) योग्य नहीं होता है तो वह मनुष्यशरीर भी मूल (बाल्यावस्था) में उपभोग के अयोग्य होता है, गन्ना जहां वनस्पतिमें होनेवाले रोगोंसे ग्रसित होकर यत्र तत्र छेदयुक्त हो जाता है वहां मनुष्य शरीर भी क्षुधा एवं घाव आदि रोगों से छेदयुक्त (दुर्बल) हो जाता है, तथा जिस प्रकार गन्ना भीतर सारभागसे रहित होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी सार ( श्रेष्ठवस्तु) से रहित होता है इस प्रकार दोनोंमें समानता होनेपर जिस प्रकार किसान उस गन्नेकी गांोंको बीजके रूपमें सुरक्षित रखकर उनसे पुनः उसकी सुन्दर फसलको उत्पन्न करता है उसी प्रकार विवेकी जनका भी कर्तव्य है कि वे उस निःसार मनुष्यशरीरको आगामी भवका देवादि पर्याय अथवा सिद्ध पर्याय) का बीज ( साधन) बनाकर उसे सफलीभूत करें ॥८१॥ जब प्राणी सोता तब वह मृतवत् होकर मरने की आशंका उत्पन्न करता है और जब जागृत रहता है तब जीने के उत्सवको करता है । इस प्रकार प्रतिदिन आचरण करनेवाला यह प्राणी कितने काल तक उस शरीरमें रह सकेगा ? अर्थात् बहुत ही थोडे समय तक रह सकता है, पश्चात् उस शरीरको छोडना ही पडेगा ॥ ८२ ॥ हे प्राणी ! यदि तूने 1 ज क्षसपातश्च । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्ला० ८३० सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तव भत्मयन्ति ॥८३॥ जन्मसंतानसंपादिविवाहादिविधायिनः । स्वाः परेऽस्य सकृत्प्राणहारिणो न परे परे ॥८४॥ यन्नाह-सत्यमित्यादि । अत्र संसारे बन्धुकृत्यं बन्धुकार्यम् । हितार्थन् उपकारकम् । आप्तं प्राप्तम । संभूय मिलित्वा ।।८३।। ननु विवाहादिकार्यस्य बन्धुजनान् (त्) प्रतीते: कथं न तत: तत्कार्यमित्याशझ्याह-- जन्मेत्यादि । जन्ननः संसारे प्रादुर्भावस्य संतान: प्रवाहः तस्य संपादि संप्रापकं तच तद्विवाहादि तस्य विधायिनः कारका: स्वजनाः । तस्य आत्मन: परे शत्रवः । अपरे स्वजनेभ्योऽन्ये ये ते सकृत्यागहारिणः एकदा प्राणविपत्तिकारिणः न ते परे शत्रवः ॥ ८४ ॥ अथोच्यते विवाहादिविधानेन धनधान्यकलत्रादि-- संसारमें भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर बंधुत्वका कार्य प्राप्त किया है तो उसे सत्य बतला । उनका केवल इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्रित होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते हैं । विशेषार्थ-बंधुका अर्थ हितैषी होता है । परंतु जिन कुटुम्बी जनोंको बन्धु समझा जाता है वे वास्तवमें प्राणीका कुछ भी हित नहीं करते हैं बल्कि,इसके विपरीत वे राग-द्वेषके कारण बनकर उसका अहित ही करते हैं । इसीलिये विवेकी जनको बन्धुजनमें अनुरक्त न होकर अपने आत्महितमें ही लगना चाहिये ॥८३।। जो कुटुम्बी जन जन्मपरंपरा (संसार) को बढाने वाले विवाहादि कार्यको करते हैं वे इस जीवके शत्रु हैं, दूसरे जो एक ही बार प्राणोंका अपहरण करनेवाले हैं वे यथार्थमें अत्रु नहीं हैं। विशेषार्थ-जो अपना अहित करे वही वास्तवमें शत्रु है-किन्तु जिसे प्राणी शत्रु मानता है वह सचमुचमें शत्रु नहीं है । कारण यह कि यदि वह अधिकसे अधिक अहित करेगा तो केवल एक वार प्राणोंका वियोग कर सकता है, इससे अधिक वह और कुछ भी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनिनोऽपि दुःखिन एव ८१ धनरन्धनसंभारं। प्रक्षिप्याशाहुताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संघक्षगक्षये ॥ ८५॥ पलितच्छलेन देहानिर्गच्छति शद्धिरेव तव बद्धः। कथमिव परलोकार्थ जरी वराकस्तदा स्मरति ॥८६॥ संगदकत्वेन वाञ्छितार्थप्रापकत्वात कथं तेषां शत्रुत्वमिति तदयुक्तमित्याह-- धनेत्यादि । रन्ध्यते अनेनेति रन्धनम् • इन्धनम, धनमेव रन्धनं तस्य संभारं संबातम । प्रक्षिप्य । क्व । आशाहुताशने आशैव हुताशनोऽग्निः तस्मिन् । ज्वलन्तम आशाहताशनम् । शान्तम् उपशानं मन्यते । भ्रान्तः सन् अविवेकी । संधुक्षणक्षणे आशाग्नेः धनेन्धनैः प्रज्वालनसमये ॥ ८५ ॥ एवं मन्यमानस्य भवतः कि किं भवतीत्यह- पलितेत्यादि । पलितच्छलेन पलितव्याजेन । द्धिः निर्मलता। परलोकार्थ परत्रार्थम् । अथवा पर उत्कृष्टो लोको मोक्ष: परलोक: तस्य अर्थः नहीं कर सकता है । किन्तु जो कुटुम्बीजन विवाहादिको करके प्राणीको संसारवद्धिके कारणोंमें प्रवृत्त करते हैं वास्तविक शत्रु तो वे ही हैं, क्योंकि उनके द्वारा अनेक भवोंका घात होनेवाला है- राग-द्वेषादिकी वृद्धिके कारण होनेसे वे अनेक भवोंको दुखमय बनानेवाले हैं ।। ८४ ॥ आशा (विषयतृष्णा) रूप अग्निमें धनरूप इन्धनके समूहको डालकर भ्रान्तिको प्राप्त हुआ प्राणी उस जलती हुई आशारूप अग्निको जलनेके समयमें शान्त मानता है। विशेषार्थ---- जिस प्रकार अग्निमें इन्धनके डालनेसे वह उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती- उसी प्रकार अधिक अधिक धनके संचयसे यह विषयतृष्णा भी उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती । अग्नि जब इन्धनको पाकर अधिक भडक उठती हैं तब मूर्खसे मूर्ख प्राणी भी उसै शान्त नहीं मानता। परन्तु आश्चर्य है कि विषयसामग्रीरूप इन्धनको पाकर उस तृष्णारूप अग्निके भडक उठनेपर भी यह प्राणी उसे (विषयतृष्णाग्निको) और उसमें जलते हुए अपनेको भी शान्त मानता है । यह उसकी बडी अज्ञानता है ।। ८५ ।। हे भव्य ! बालोंको धवलताके मिषसे तेरी बुद्धिकी निर्मलता ही शरीरसे 1 मु (जै. नि.) रे थनेन्धनसंभारं । आ.६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ आत्मानुशासनम् . [ श्लो० ८७इष्टार्थोद्यदनाशितं भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरन् नानामानसदुःखवाडवशिखासंदीपिताभ्यन्तरे । प्रयोजनम् अनन्तज्ञानादि सम्यग्दर्शनज्ञानादिकारणकलापो वा, अर्थ्यते याच्यते मोक्षो येनासावर्थ इति व्युत्पत्तेः । जरी जरा अस्यास्तीति जरी ब्रीह्यादेरिन (जै. म. ४।१।४२) तदा शुद्धिनिर्गमकाले ।। ८६ ।। ये तु बुद्धिशुद्धियुक्ता मोहानभिभूतचेतसः परलोकार्थं स्मरन्ति ते विरला इत्याह-- इष्टार्थेत्यादि । इष्टार्थः स्रग्वनिताचन्दनादिः निकलती जा रही है। ऐसी अवस्थामें बिचारा वृद्ध उस समय परभवमें हित करनेवाले कार्योंका कैसे स्मरण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है ॥ विशेषार्थ- वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर बाल सफेद होने लगते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह बालोंकी सफेदी क्या है मानों निर्मल बुद्धि ही शरीरसे निकलकर बाहिर आ रही है । अभिप्राय उसका यह है कि वृद्धावस्थामें जैसे जैसे शरीर शिथिल होता जाता है वैसे ही वैसे प्राणीकी बुद्धी भी भ्रष्ट होती जाती है । उस समय उसकी विचारशक्ति नष्ट हो जाती है तथा करने योग्य कार्यका स्मरण भी नहीं रहता है। ऐसी दशामें यदि कोई मनुष्य यह विचार करे कि अभी मैं युवा हूं, इसलिये इस समय इच्छानुसार धन कमाकर विषयसुखका अनुभव करूंगा और तत्पश्चात् वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर आत्मकल्याणके मार्गमें लगूंगा । ऐसा विचार करनेवाले प्राणियोंको ध्यानमें रखकर यहां यह बतलाया है कि वृद्धावस्थामें इन्द्रियां शिथिल और बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है तथा व्रत एवं जप-तप आदि करनेका शरीरमें सामर्थ्य भी नहीं रहता है । इसके अतिरिक्त मृत्युका भी कोई नियम नहीं हैवह वृद्धावस्थाके पूर्वमें भी आ सकती है । अतएव वृद्धावस्थाके ऊपर निर्भर न रहकर उसके पहिले ही, जब कि शरीर स्वस्थ रहता है, आत्मकल्याणके मार्गमें- व्रतादिके आचरणमें- प्रवृत्त हो जाना अच्छा है ॥८६।। जो संसाररूप भयानक समुद्र मनोहर पदार्थों के निमितसे उत्पन्न होनेवाले असन्तोषजनक सुखरूप खारे जलसे परिपूर्ण है, जिसका भीतरी भाग मु (जैः नि.) इष्टार्थाद्यदवाप्ततद्भवसुखेक्षा । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८७] संसारे निर्मोहिनो दुर्लभाः ८३ मृत्यूत्पत्तिजरातरङ्गचपले संसारघोरार्णवे मोहग्राहविदारितास्यविवरादरे चरा दुर्लभाः ॥ ८७॥ तस्मादुद्यत्प्रादुर्भवत् तच्च तत् अनाशितं भवम् अतृप्तिजनकं तच्च तत् सुखं च तदेव क्षारम् अम्भो यत्र । प्रस्फुरदित्यादि । प्रस्फुरन्त्यो दीप्ता: ताश्च ताः नानामानसदुःखानि एव वाडवशिखाश्च ताभि: सदीपितं प्रज्वलितम् अभ्यन्तरं यत्र । मृत्युत्पत्तिजरा एव तरङ्गा ऊर्मय: तरल.श्चपला यत्र । इत्यंभूते संसारलक्षगे घोराणवे रौद्रसमुद्रे। मोह इत्यादि । मोह एव ग्राहो जल वरस्तेन विदारितं तच्च तत् आस्यं च मुखं तदेव विवरं तस्मात् । दूरे चराः दूरे प्रवर्तमानाः ॥ ८७ ॥ ततो दूरे चरतो दुर्धरानु अनेक प्रकारके मानसिक दुखोंरूप वडवानलको ज्वालाओंसे जल रहा है; तथा जो मरण, जन्म एवं वृद्धत्वरूप लहरोंसे चंचल है; उस भयानक संसार-समुद्रमें जो विवेकी प्राणी मोहरूप हिंस्र जलजन्सुओं (मगर आदि) के फाडे हुए मुखरूप बिलसे दूर रहते हैं वे दुर्लभ हैं ॥ विशेषार्थ-- यह संसार भयानक समुद्रके समान है-- समुद्र में जहां तृष्णा (प्यास) को न शान्त कर सकनेवाला खारा जल रहता है वहां संसारमें तृष्णा (विषयाभिलाषा) को न शान्त कर सकनेवाला इष्ट विषयभोगजनित सुख रहता है, समुद्रमें यदि वडवानलको ज्वालाओंसे उसका जल जलता रहता है तो संसारमें भी प्राणी अनेक प्रकारके मानसिक दुःखोंसे जलते (संतप्त) रहते हैं; समुद्र में जहां उसको क्षुब्ध करनेवाली बडी बडी लहरोंकी परम्परा चलती है यहां संसार में भी प्राणीको पीडित करनेवाली लहरोंके समान जन्म, जरा और मरणकी परम्परा चलती रहती है; तथा समुद्रमें यदि मगर एवं घडियाल आदि हिंसक जन्तु रहते हैं तो संसारमें भी घातक मोह रहता है । इस प्रकार संसार और समुद्र इन दोनोंके समान होनेपर जिस प्रकार गम्भीर एवं अपार समुद्रमें गिरे हुए प्राणियोंका उसमें स्थित मगर-मत्स्यादिके मुखसे बचना अशक्य है-विरला ही कोई भाग्यवान् बचता है, उसी प्रकार संसारमें स्थित प्राणियोंका मोहसे बचना अशक्य है-- विरले ही विवेकी जीव उसके प्रभावसे बचते हैं । ८७ ॥ निरन्तर प्राप्त Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आत्मानुशासनम् [श्लो० ८८ अव्युच्छिन्नैः सुखपरिकरालिता लोलरम्यः श्यामाङ्गीनां नयनकमलरचिता यौवनान्तम् । धन्योऽसि त्वं यदि तनुरियं लब्धबोधे गीभिदग्धारण्ये स्थलकमलिनीशङ्कयालोक्यते ते ॥ ८८॥ ष्ठानमनुतिष्ठतो भवत: सुलालितापि तनूर्यदीत्थं वने मृगीभिः दृश्यते तदा धन्योऽसीत्याह-- अव्युच्छिन्नैरित्यादि। अव्युच्छि नैः निरन्तरः। सुखपरिकरः 'स्रग्वनितादिभिः । लालिता उपचयं नीता । तथा अचिंता अनवरतमवलोकिता । कैः । नयनकमलः । कथंभूतः। लोलरम्यः चञ्चलरमणीयः। कासाम् । श्यामागीनां उत्तमनायिकानाम् । कथमच्चिताः । यौवनान्तं यौवनमध्यं यथा भवत्येवम् । लब्धबोधेः प्राप्तरत्नत्रयस्य । दग्धेत्यादि-दग्धा चासो अरण्ये अटव्यां स्थलकमलिनी च तस्याः शङ्कया संदेहेन ॥ ८८ ।। इत्यमेव त्वदीय जन्म सफल होनेवाली सुख-सामग्रीसे पालित और यौवनके मध्यमें सुन्दर स्त्रियोंके चंचल एवं रमणीय नेत्रोंरूप कमलोंसे पूजित अर्थात् देखा गया ऐसा वह तेरा शरीर विवेकज्ञानके प्राप्त होनेपर यदि जले हुए वनमें हिरणियोंके द्वारा स्थलकमलिनीकी आशंकासे देखा जाता है तो तू धन्य है- प्रशंसाके योग्य है ॥ विशेषार्थ- जिसने निरन्तर सुखसामग्रीको प्राप्त करके विषयसुखका अनुभव किया है तथा यौवनके समयमें जिसको अनेक सुन्दर स्त्रियां चाहती रही हैं वह यदि विवेकज्ञानको प्राप्त करके वनमें स्थित होता हुआ दुर्द्धर तपका आचरण करता है तो तपसे कृश उसके सुकुमार शरीरको देखकर हिरणियोंको जंगलमें आगसे जली हुई स्थलकमलिनीका भ्रम होने लगता है। ऐसे वे भव्यजीव ही वास्तवमें पुण्यशाली हैं जिन्हें समस्त सुखसामग्रीके सुलभ रहनेपर भी आत्मकल्याणके लिये उसे छोडनेमें किसी प्रकार क्लेशका अनुभव नहीं हुआ। वे स्तुतिके योग्य हैं। आश्चर्य तो उन जीवोंके ऊपर होता है जो कि यथेष्ट सुखसामग्रीके न मिलनेसे निरन्तर दुखी रहकर भी तद्विषयक मोहको नहीं छोडना चाहते हैं ॥ ८८ ॥ प्राणी बाल्यावस्थामें शरीरके पुष्ट न होनेसे कुछ भी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८९] बाल्याद्यवस्थासु धर्मस्य दुष्करत्वम् बाल्ये वेत्सि न किचिदप्यपरिपूर्णाङगो हितं वाहितं कामान्धः खलु कामिनीवुमघने भ्राम्यन् वने यौवने । स्यान्नान्यथेति दर्शयन्नाह-- बाल्येत्यादि । बाल्ये बालत्वे । , अपरिपूर्णाङगः अपुष्टाङगः सन् । कामान्धः कामेन अन्ध: विवेकपराङ्मुखः । कामिनीद्रुमधने कामिनीलक्षणद्रुमैः घने, ते वा घना यत्र वने यौवमलक्षणे वने । भ्राम्यन् न किंचिद्धितमहितं वा वेत्सि । मध्ये मध्यमावस्थायाम् । बृद्धतृषा वृद्धा महती सा चासो तृट् वृद्धतृट् तया। बसु द्रव्यम् । अजितुम् । हित-अहितको नहीं जानता है । यौवन अवस्थामें कामसे अन्धा होकर स्त्रियोंरूप वृक्षोंसे सघन उस यौवनरूप वनमें विचरता है, इसलिये यहाँ भी वह हिताहितको नहीं जानता है । मध्यम (अधेड) अवस्थामें पशुके समान अज्ञानी होकर बढो हुई तृष्णाको शान्त करनेके लिये खेती व वाणिज्य आदिके द्वारा भनके कमानेमें तत्पर रहकर खिन्न होता है,अतः इस समय भी हिताहितको नहीं जानता है तथा वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वह अधमरेके समान होकर शरीरसे शिथिल हो जाता है, इसलिये यहां भी हिताहितका विवेक नहीं रहता है। ऐसी दशामें हे भव्यजीव ! कौन-सी अवस्थामें धर्मका आचरण करके तू अपने जन्मको सफल कर सकता है ?॥ विशेषार्थ-बाल्यावस्थामें शरोरके परिपुष्ट न होनेसे प्राणी अपने हिताहितको ही नहीं समझ सकता है । यौवन अवस्थामें प्रायः वह कामसे पीडित होकर विषयसामग्रीको खोजमें रहता है। इसके पश्चात् अधेड अक्स्थामें वह धनके कमानेमें आसक्त होकर उसके द्वारा वृद्धिंगत धनकी तृष्णाको समाप्त करना चाहता है,परंतु इससे उसका शांत होना तो दूर ही रहा,वह उत्तरोत्तर बढती ही अधिक है। अब रही वृद्धावस्था, सो यहां समस्त इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं,शरीर रोगाक्रांत हो जाता है, तथा स्मृति भी जाती रहती है । इस प्रकारसे वे सब अवस्थायें यों ही बीत जाती हैं और वह अज्ञानी प्राणी कुछ भी आत्महित नहीं कर पाता । किन्तु हां जो विवेकी प्राणी हैं वे यौवन अवस्थामें विषय Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ८९मध्ये वुद्धतृषाजितुं वसु पशुः क्लिश्नासि कृष्यादिभि द्धिक्येऽर्धमृतः2 क्व जन्म फलि ते धर्मो भवेनिर्मलः ॥८९॥ बाल्येऽस्मिन् यदनेन ते विरचितं स्मतुं च तन्नोचितं मध्ये चापि धनार्जनव्यतिकरस्तन्नास्ति यत्नापितः । पशुः अज्ञः सन् । क्लिश्नासि । कैः । कृष्यादिभिः । अतस्तत्रापि न किंचिद्धितम् अहितं वा वेत्सि । वाद्धिके क्ये वृद्धत्वे अर्धमृतः क्वचिदपि व्यापारे अक्षमः, । अवस्था विशेषे । जन्म । ते तक। फलि सफलं स्यात् । तथा धर्मो भवेनिश्चल: ।। ८९॥ अवस्थात्रयेऽपि अपकारकस्य कर्मणो वशेनेदानीं भवतो सुखको भोग करके तत्पश्चात् उसे उच्छिष्टके समान छोड देते हैं और आत्मकल्याणके मार्गमें प्रवृत्त हो जाते हैं। कुछ ऐसे भी महापुरुष होते हैं जो उन कष्टदायक विषयोंमें अनुरक्त न होकर प्रारम्भमें ही संयम एवं तप आदिके साधनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं। परन्तु ऐसे महापुरुष विरले ही हैं, अधिक प्राणी तो वे ही अज्ञानी जीव हैं जो पूर्वोक्त अवस्थाओं से किसी भी अवस्थामें आत्महितको नहीं करते हैं। ८९ ॥ हे दुर्बुद्धि प्राणी! इस विधि (कर्म) ने बाल्यकालमें जो तेरा अहित किया है उसका स्मरण करना भी योग्य नहीं है । मध्यम अवस्थामें भी ऐसा कोई दुख नहीं है जिसे कि उसने धनोपार्जन आदि कष्टप्रद कार्योंके द्वारा तुझे न प्राप्त कराया हो। वृद्धावस्थामें भी उसने तुझे तिरस्कृत करके निर्दयतापूर्वक दांत तोड देने आदिका प्रयत्न किया है। फिर देख तो सही कि तेरा इतना अहित करनेपर भी आज भी तू उक्त कर्मके ही वशीभूत होकर प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करता है। विशेषार्थ-- यह अज्ञानी प्राणी दूसरोंके विषयमें हित और अहितकी कल्पना करके तदनुसार उन्हें मित्र और शत्रु समझने लगता है। परन्तु वास्तवमें जो उसका अहितकारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है । जीव बाल्यावस्थामें जो गर्भ एवं जन्म 1 मु (ज.) पशो। 2 मु (जै. नि.) वृद्धो वार्द्धमृतः । 3 मु (ज.) फलितं । 4 मु (ज. नि.) स्तन्नार्पितं यत्त्वयि । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०] अवस्थात्रयेऽपि कर्मपरवशता वाक्ये प्यभिभूय दन्तदलनाद्याचेष्टितं निष्ठुरं पश्याद्यापि विधेर्वशेन चलितुं वाञ्छ त्यहो दुर्मते ॥ ९० ॥ ८७ वर्तितुम् अनुचितमिति शिक्षां प्रयच्छन्नाह-- बाल्येत्यादि । अनेन विधिना विरचितं कृतम् । व्यतिकरैः प्रघट्टकैः । नापितः न प्रापितः । अभिभूय पराभवं कृत्वा । आचेष्टितम् आचरितम् । निष्ठुरम् अमनोज्ञम् । चलितुं प्रवर्तितुम् ||१०|| 1 आदिके असह्य दुखको भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है । तत्पश्चात् यौवन अवस्थामें भी कुछ कर्मके ही उदयसे प्राणी कुटुम्बके भरण-पोषणकी चिन्तासे व्याकुल होकर धनके कमाने आदिमें लगता है और निरन्तर दुःसह दुःखको सहता है । इसी कर्मके निमित्तसे वृद्धावस्थामें इन्द्रियां शिथिल पड जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है, और दांत टूट जाते हैं । इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह अज्ञानी प्राणी आगे भी उसीके वश में रहना चाहता है । लोकमें देखा जाता है कि जो मनुष्य किसीका एक बार भी अनिष्ट करता है उससे वह भविष्य में किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता । इसी प्रकार यदि कोई दांत तोडना तो दूर रहा, किन्तु यदि दांत तोडने के लिये कहता ही है तो मनुष्य उसे अपना अपमान करनेवाला मानकर यथाशक्ति उसके प्रतीकारके लिये प्रयत्न करता है । फिर देखो कि जो कर्म एक बार ही नहीं, किन्तु बार बार प्राणीका अनिष्ट करता है तथा दांत तोडने के लिये कहता ही नहीं, बल्कि वृद्धावस्था में उन्हें तोड ही डालता है; उस अहितकर कर्म के ऊपर इस प्राणीको क्रोध नहीं आता । इसीलिये उसका प्रतीकार करना तो दूर रहा, किन्तु वह भविष्य में भी उसी कर्मके अधीन रहना चाहता है ।। ९० ।। हे वृद्ध ! तेरे कान दूसरोंके निन्दावाक्योंको नहीं सुननेकी इच्छासे ही मानो तिरस्कृत अर्थात् नष्ट हो गये - बहरे हो गये । नेत्र मानो तेरी घृणित अवस्थाको देखने में असमर्थ होकर ही अन्धेपनको प्राप्त हो गये हैं । यह 1 मु (जै. नि ) वार्द्धक्ये | Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् .... [ श्लो० ९१ अश्रोत्रीव तिरस्कृतापरतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिः चक्षुर्वीक्षितुमक्षमं तव दशां दूष्यामिवान्ध्यं गतम् । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कम्पते निष्कम्पस्त्वमहो प्रदीप्तमवनेऽप्यासे (स्से) जराजर्जरे ॥११॥ वृद्धावस्थायामिन्द्रियादीनामेवंविधा प्रवृत्ति पश्यतस्तक निश्चिन्तमवस्थानमयुक्तमित्याह-अश्रोनीवेत्यादि । श्रुति: श्रोत्रम् । तिरस्कृता ते नष्टा:(नष्टा) कथंभूतेव । भश्रोत्रीव श्रोतुमनिच्छतीव कासाम् । परतिरस्कारश्रुतीनां परनिन्दावचनानाम् । तव दशां तव वृद्धावस्थान् । दूष्यां निन्द्याम् । दीक्षितुं द्रष्टुम् । अक्षममिव अशक्तमिव । चक्षुः आन्ध्यं गतम् । भीत्येव भयेनेव । नि:कम्पः परलोकव्यापारचिन्तारहितः । त्वम् । अहो आश्चर्यम् । प्रदोप्त भवनेऽपि प्रदीप्तं भवनमिव प्रदीप्तभवन जराव्याध्याद्युपहृतं शरीरम् । तत्रापि आसे (स्से) तिष्ठसि ॥ ९१ ।। तत्र तिष्ठतो जीवस्य शिक्षा प्रयच्छन्नतिपरिचितेष्वित्याद्याह शरीर भी तेरा सन्मुख आनेवाले यम (मृत्यु) से मानो भयभीत हो करके ही अतिशय कांप रहा है। फिर भी आश्चर्य है कि तू जलते हुए घरके समान उस वृद्धत्वसे शिथिल हुए शरीरमें निश्चल रह रहा है ।। विशेषार्थवृद्धावस्थामें कान बहरे हो जाते हैं,आंखें अन्धी हो जाती हैं,और शरीर कांपने लगता है । यह शरीरकी अवस्था बुढापेमें स्वभावतः हो जाया करती है । इसपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि बुढापेमें प्रायः घर व बाहिरके सब ही जन तिरस्कार करने लगते हैं, उन निन्दावाक्योंको न सुननेकी ही इच्छासे मानो वृद्धके कान बहरे हो जाते हैं। इसी प्रकार उस अवस्थामें मुंहसे लार बहने लगती है,कपडोंमें मल-मूत्रादि हो जाता है, तथा निरन्तर खांसी व कफ आदि बना रहता है । इस प्रकारको घृणाजनक अवस्थाको न देख सकनेके ही कारण मानो वृद्धकी आंखें अन्धी हो जाती हैं । वह बुढापा क्या है मरणको निकटताको सूचना ही है, उसीके भयसे मानो वृद्धका शरीर कांपने लगता है । वह वृद्धावस्थाका शरीर आगसे जलते हुए महलके समान नष्ट हो जानेवाला है। फिर भी आश्चर्य 1 ज निश्चिन्त्या। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरे तिष्ठतो दोषासक्तिः अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । तं किमिति मृषा कुरुषे दोषासक्तो गुणेष्वरतः ॥ ९२ ॥ जनवादः लोकवादः । तं जनवादम् । किमिति इति एवं वक्ष्यमाणन्यायेन किं मृषा कुरुष । दोषा हि रागद्वेष मोहादयः अतिपरिचिताः, सर्वत्र सर्वदा सर्वे: प्राणिभिः अनादिसंसारे अनुभूतत्वात् । गुगास्तु सम्यग्दर्शनादयः नवाः, कदाचिदपि अननुभूतत्वात् । ततो दोषेषु आसक्तेन गुणेषु च अनुराग रहितेन भवता जनवादोऽसत्यः कृत: इति ।। ९२ ।। दोषासक्तेन च व्यसनिना - ९२] ८९ है कि जब घरमें आग लग जाती है तब उसके भीतर स्थित प्राणी व्याकुल होकर बाहिर निकलने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु वह बेपुध हुआ वृद्व उस नष्टप्राय शरोरसे मोहको नहीं छोडता और इसलिये वह परभत्रको सुखय बनाने के लिये कुछ प्रयत्न भी नहीं करता है ।। ९१ ॥ अत्यन्त परिचित वस्तुमें अनादरबुद्धि और नवीनमें प्रेम होता है, यह जो किंवदन्ती ( प्रसिद्धि ) है उसे तू दोषों में आसक्त तथा गुणों में अनुराग रहित होकर क्यों असत्य करता है ? ॥ विशेषार्थ - लोकमें प्रसिद्धि है कि जो वस्तुएं अनेक बार परिचय में ( उपभोग में) आ चुकी हैं उनमें अनुराग नहीं रहता है, इसके विपरीत जो वस्तु पूर्व में कभी परिचय में नहीं आयी है उसके विषय में प्राणीका विशेष अनुराग हुआ करता है । परन्तु पूर्वोक्त जीवकी दशा इसके सर्वथा विपरीत है- जो दोष ( राग-द्वेषादि ) जीवके साथ चिर कालसे सम्बद्ध हैं उनसे वह अनुराग करता है तथा जो सम्यग्दर्शनादि गुण उसे पूर्व में कभी भी नहीं प्राप्त हुए हैं उनमें वह अनुराग नहीं करता है । इस प्रकारसे वह उपर्युक्त लोकोक्तिको भी असत्य करना चाहता है ।। ९२ ।। कमलको हंस नहीं खाते हैं, वह जलमें उत्पन्न होकर भी उससे चूंकि संगत नहीं होता है अतएव कठोर है, तथा वह दिन में विकसित होकर रात्रि में मुकुलित हो जाता है । यह सब विचार भ्रमर नहीं करता है । इसलिये वह उसकी गन्धमें आसक्त होता हुआ रात्रि में उसके संकुचित हो जानेपर उसीके भीतर मरणको प्राप्त होता है । ठीक है - व्यसनी जनको अपने हिताहितका विचार नहीं रहता है ॥ विशेषार्थ - यहां भ्रमरका उदाहरण देकर यह बतलाया है Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ९३हंसन भुक्तमतिकर्कशमम्भसापि नो संगतं दिनविकासि सरोजमित्थम् । नालोकितं मधुकरेण मृतं वृथव प्रायः कुतो व्यसनिनां स्वहिते विवेकः॥९३॥ प्रजैव दुर्लभा सुन्छु दुर्लभा सान्यजन्मने । तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ॥ ९४॥ हिताहितमपरिभावयता संसारे मरणादिदुःखमनुभूतमिति सदृष्टान्तं दर्शयन्नाह-- हंसरित्यादि । हंसः पक्षिविशेषैः पुरुषविशेषैश्च गणधरदेवादिभिः । न भुक्तं न भक्षितं न सेवितं वा । यतः अतिकर्कशम् अकोमलं संसारदुःखदायि च । अम्भसा जलेन स्वच्छस्वमावेन च । नो संगतं नैकतां गतम् । दिनविकासि दिवसे असंकुचितम् । सरोजं पद्मं शरीरं च । सर इव शरीरं शुक्रशोणितसमुदाय:, तत्र जातं इति कृत्वा । इत्थम् अनेन प्रकारेण । नालोकितं मधुकरेण भ्रमरेण विटेन च ।। ९३ ॥ तदवलोकने च सम्यग्ज्ञानभाव: कारणम्, संसारे परिभ्रमतः प्राणिन: तत्प्राप्तेरतिदुर्लभत्वादित्याह- प्रज्ञेवेत्यादि । प्रजैव, न भोगोपभोगादिकम् । अन्यजन्मने परत्र निमित्तम् । प्रमाद्यन्ति अकृतादरा भवन्ति ।।९४॥ परिप्राप्तप्रज्ञानामपि कि जिस प्रकार भ्रमर कमलके विषयमें यह नहीं सोचता है कि इसका भक्षण हंस नहीं करते हैं, वह (कृतघ्न) जिस जलमें उत्पन्न हुआ है उसीसे अलिप्त रहता है, तथा वह रात्रिमें मुकुलित होकर प्रागोंका घातक बनेगा; इसीलिए वह उसमें आसक्त रहकर वहीं मरणको प्राप्त होता है। ठीक इसी प्रकारसे विषयी जन भी यह विवार नहीं करते हैं कि इन विषयोंका उपभोग हंसोंके समान महात्मा पुरुषोंने नहीं किया है. ये सर्वदा रहनेवाले नहीं हैं-- देखते देखते नष्ट होनेवाले हैं, तथा आत्मस्वभाव के प्रतिकूल होकर प्राणीको नरकादि दुर्गतियोंमें ले जानेवाले हैं; इसीलिए वे उनमें आसक्त होकर उसी भ्रमरके समान जन्म-मरणादिके अनेक दुःखोंको सहते हैं । सो यह कुछ आश्चर्यजनक बात नहीं है, कारण कि व्यसनी जनोंका ऐसा स्वभाव ही होता है-- उन्हें कभी अपने हितका विवेक नहीं रहता है ॥ ९३ ॥ प्रथम तो हिताहितका विचार करनेरूप बुद्धि ही दुर्लभ है, फिर वह परभवके हितका विवेक तो और भी दुर्लभ है। उस विवेकको प्राप्त करके भी जो जीव प्रमाद करते हैं वे बुद्धिमानोंके लिये सोचनीय होते हैं । विशेषार्थ- संसारमें एकेन्द्रिय आदिको लेकर चौइन्द्रियतक सब ही प्राणी मनसे रहित होते हैं, इसीलिये उन्हें Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९५] राजसेवां कुर्वतां निन्दा लोकाधिपाः क्षितिभुजो भुवि येन जाताः तस्मिन् विधौ सति हि सर्वजनप्रसिद्धे । शोच्यं तदेव यदमी स्पृहणीयवीर्यास्तेषां बुधाश्च बत किंकरतां प्रयान्ति ॥ ९५ ॥ 1322 ९१ उद्भूतवीर्याणां लक्ष्मीविलासाभिलाषेण राज्ञां सेवां कुर्वतामनुशयं कुर्वयन्नाह - लोके - त्यादि । क्षितिभुजो राजानः । भुवि । लोकाधिपाः लोकस्वामिनः, लोकाधिका वा पाठ: । येन धर्मलक्षणेन विद्धि ( धि ) ना । स्पृहणीयवीर्याः श्लाघ्यसामर्थ्याः । तेषां क्षितिभुजाम् । बुधाश्च विबुधा अपि । किंकरतां भृत्यताम् ॥ ९५ ॥ पादोपनतोत्तमाविचारात्मक बोध ही नहीं प्राप्त होता है । पंचेन्द्रियों मे भी सभी जीवोंके मन नहीं होता- कुछके ही होता है । जिनके वह होता है उनको भी प्रायः आत्महितका विवेक नहीं रहता । फिर जो आत्महितका विवेक होनेपर भी तदनुरूप आचरण करनेमें असावधान रहते हैं उनके ऊपर बुद्धिमानोंको खेद होता है । कारण यह कि वे उपयुक्त सामग्रीको प्राप्त करके भी हितके मार्ग में प्रवृत्त नहीं होते और इस प्रकारसे उक्त सामग्रीके विनष्ट हो जानेपर फिर उसका पुनः प्राप्त होना कठिन ही है ।। ९४ ॥ जिस विधि (पुण्य) से पृथिवीके ऊपर लोकके अधिपति राजा हुए हैं उस विधिके सर्व जनों में प्रसिद्ध होनेपर भी यही खेदकी बात है कि जो विशिष्ट पराक्रमी और विद्वान् हैं वे भी उक्त राजा लोगोंकी दासताको प्राप्त होते हैं-- सेवा करते हैं ।। विशेषार्थ -- यह सब ही जानते हैं कि राजा, महाराजा चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर आदि जितने भी महापुरुष होते हैं वे सब पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभावसे ही होते हैं । फिर खेदकी बात तो यही है कि अनेक पराक्रमी एवं विद्वान् भी ऐसे हैं जो कि उक्त पुण्यके ऊपर विश्वास न करके लक्ष्मीकी इच्छासे उन राजा आदिकी ही सेवा करते हैं । वे यदि पुण्यके ऊपर विश्वास रखकर उसका उपार्जन करते तो उन्हें राजा आर्दिकी सेवा न करनेपर भी वह लक्ष्मी स्वयमेव प्राप्त हो जाती। इसके विपरीत पुण्योपार्जन के विना कितनी भी वे राजा आदिकी सेवा क्यों न करें, किन्तु उन्हें वह यथेष्ट लक्ष्मी कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है ।। ९५ ।। जो पर्वत बडे बडे वांसोंको धारण करते हैं, जिनका अन्त ---- Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ९६ यस्मिन्नस्ति स भूभृतो धृतमहावंशाः प्रदेशः परः। प्रज्ञापारमिता धृतोन्नतिधनाः मूर्ना ध्रियन्ते श्रियै । ङ्गस्य कृष्णराजस्य धृतनिधानस्थानप्रतिपादनव्याजेन धर्मलक्षणविधेः स्वरूपं मार्ग च दशयन्नाह- यस्मिन्नित्यादि । सः प्रदेश: परः उत्कृष्टः अस्ति । यस्मिन् प्रदेशे । ध्रियन्ते तिष्ठन्ति । के ते । भूभृतः पर्वता: । कथंभूताः । धृतमहावंशा: धृता धारिता: पोषिता वा महान्तो वंशा यैः । पुनरपि कथंभूताः प्रज्ञापारमिता: प्रज्ञयैव पारं पर्यन्तम् इतं परिच्छिन्नं येषाम् । पुनरपि किंविशिष्टाः । धृतोन्नतिधना: धृतम् उन्नतिरेव धनं य: ते धृतोन्नतिधनाः । केन । मूर्जा शिरसा । किमर्थम् । श्रिय शोभानिमित्तम् । भूयान् महान् । तस्य प्रदेशस्य मार्गः । कथंभूतः । भुजङ्गदुर्गमतमः भुजङ्गः सर्प: अतिशयेन दुर्गमः । तथा निराशः आशाभ्यो दिग्भ्यो नि:क्रान्तः। यतः एव तत: व्यक्तं साललोकविदितं यथा भवत्येवम् । वक्तुम् अयुक्तं महताम् । हे आर्य! तद्विषये व्युत्पन्नमते । सर्वार्थसाक्षात्कृत: सर्वार्येण सर्वार्यकनाम्ना द्वितीयमन्त्रिणा साक्षात्कृतो दृष्टः । अन्यत्र द्वितीयपक्षे-प्रदिश्यते परस्मै प्रतिपाद्यते इति प्रदेशो धर्मः । परः उत्तमः । बुद्धिसे ही जाना सकता है, तथा जो उंचाईरूप धनको धारण करनेवाले हैं; ऐसे वे पर्वत जिस प्रदेश (निधानस्थान) में शोभाके निमित्त स्थित हैं वह उत्कृष्ट प्रदेश है । उसका लंबा मार्ग साँसे अत्यन्त दुर्गम और दिशाओंसे रहित अर्थात् दिग्भ्रमको उत्पन्न करनेवाला है। इसीलिये हे आर्य ! उसके विषयमें महापुरुषोंके लिए स्पष्ट बतलाना अयोग्य है । वह सर्यि नामके द्वितीय मंत्रीके द्वारा प्रत्यक्षमें देखा गया है । प्रकृत श्लोकका यह एक अर्थ उदाहरण स्वरूप है । दूसरा मुख्य अर्थ उसका इस प्रकार है- प्रदेश शब्दका अर्थ यहां धर्म है, क्योंकि 'प्रदिश्यते परस्मै प्रतिपाद्यते इति प्रदेशः' अर्थात् दूसरोंके लिये जिसका उपदेश किया जाता है वह प्रदेश (धर्म) है, ऐसी उसकी निरुक्ति हैं। जिस धर्मके होनेपर इक्ष्वाकु आदि उत्तम वंशको धारण करनेवाले (कुलीन), बुद्धि के पारगामी (अतिशय विद्वान) तथा गुणोंसे उन्नत होकर धनके धारक ऐसे राजा सोग अन्य जनोंके द्वारा लक्ष्मी प्राप्तिके निमित्त शिरसे धारण किये जाते हैं वह धर्म उत्कृष्ट है । उस धर्मका मार्ग (उपाय) दान-संयमादिके भेदसे अनेक प्रकारका है जो आशा (विषयवांछा) से रहित होता हुआ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णराज निधानस्थाननिर्देश: भूयांस्तस्य भुजङगदुर्गमतमो मार्गों निराशस्ततो व्यक्तं वक्तुमयुक्तमार्य महतां सर्वार्थसाक्षात्कृतः ॥९६॥ -९६] ९३ सः अस्ति यस्मिन् सति । भूमृतो राजानो मूर्ध्ना मस्तकेन प्रियन्ते लोकैः । किमर्थम् । श्रियै लक्ष्मीनिमित्तम् । कथंभूता भूभृतः । धृतमहावंशाः धृतेक्ष्वाक्त्रा - दिवंशाः । तथा प्रज्ञायाः पारमिता : प्रज्ञानाः पारं पर्यन्तम् इता मताः 1 धृतोन्नतिधना: उन्नतिश्च धनं च ते धृते यैः । तस्य धर्मलक्षणत्रदेवस्य । मार्गः उपाय: । भूयान् प्रचुरः, दानव्रतादिभेदात् । निराशः आशायाः आकांक्षाया: 1 निःक्रान्तः । भुजङय मदुर्गमतमः भुचङगानां कामुकानां दुर्गमतमः अगरे वरः । यतः एवं ततो व्यक्त स्फुटं वक्तुम् अयुक्तम् । आर्य महताम् आर्याणां मध्ये महतवम् अस्माकम् । सर्वार्थसाक्षात्कृतः सर्वैः आर्यैः गणधर देवादिभिः साक्षात्कृतो अनुभूतः । अथवा सर्वै: भव्यैः अर्यते मम्यते सेव्यते इति सर्वार्य: (र्यः ) सर्वज्ञः तेन साक्षीकृतः, न पुनः कस्यचिदप्यसौ,प्रतीत्यगोचरः इत्यर्थः । । ९६ । । शरीरादिभ्यो वैराग्यमुलाथ जैनस्य धर्म तन्मार्ग च भुजंगो-कामी जनों के लिये दुर्लभ है । इस कारण महापुरुषों के लिये उसका स्पष्टतया व्याख्यान करना अशक्य है । वह धर्म सर्वार्थ अर्थात् सबों से पूजने योग्य सर्वज्ञके द्वारा प्रत्यक्ष में देखा गया है । विशेषार्थ - जिस प्रकार कृष्णराजाका कोष (खजाना ) अनेक उन्नत विशाल पर्वतों से घिरे हुए एवं सर्पादि हिंस्र जन्तुओं से व्याप्त दुर्गम स्थानमें निक्षिप्त था और उसके संबंध में सर्वार्थ नामक राजाके द्वितीय मंत्रीको छोडकर अन्य कोई कुछ भी नहीं जानता था तथा दूसरोंके लिये चोरी आदि के भय से उसके संबंध में कुछ बतलाया भी नहीं जा सकता था । उसी प्रकार यह धर्मका स्वरूप भी साधारण जनोंके लिये दुर्गम है। उसको प्रत्यक्ष रूप से तो सर्वज्ञ ही जानता है तथा उस सर्वज्ञ के द्वारा किये गये व्याख्यान से अन्य गणधार आदि भी यथा योग्य जानते हैं । साधारण मनुष्य अन्य जनोंके लिये उसका स्पष्टतया व्याख्यान नहीं कर सकते हैं, किंतु विशिष्ट बुद्धिको धारण करनेवाले ही उसका स्पष्ट प्रतिपादन कर सकते हैं। जिन-महाराजा आदिकी अन्य मनुष्य सेवा किया करते हैं वे इसी धर्म के प्रभावसे होते हैं । अतएव जो ऐहिक एवं पारलौकिक सुखकी अभिलाषा करते हैं उन्हें व्रत, संयम, जप-तप एवं दानादिके भेदसे अनेक प्रकारके उस धर्मका आचरण करना चाहिये ॥९६॥ स बाशायां आकांक्षायां । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० ९७शरीरेऽस्मिन् सर्वाशुचिनि बहुदुःखेऽपि निवसन् व्यरंसीनो नैव प्रथयति जनः प्रीतिमधिकाम् । इदं दृष्ट्वाप्यस्माद्विरमयितुमेनं च यतते यतिर्याताख्यानः परहितरति पश्य महतः ॥ ९७॥ प्रदर्शयतो मुनेः न किंचित्फलाभिलाषित्वमस्ति, परोपकारार्थमेव तत्प्रवृत्तेः, 'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम्' इति वचनात् । एतदेव दर्शयन्नाह- शरीरेत्यादि । अस्मिन् औदारिके शरीरे । सर्वाशुचिनि सर्वम् अशुचि अपवित्रं यस्मिन् । बहुदुःखें बहूनि शारीर-मानसादीनि दुःखानि यस्मिन् । इत्थंभूतेऽपि काये वसन् जनः । व्यरंसीनो वैराम्यं गतवान् नैव । नैवेत्यादि काक्वा व्याख्यानम्- इदं शरीरं दृष्टवा जनः प्रीतिम् अधिकां नैव प्रथयति किम् । अपि तु प्रश्यत्येव । इमाम् इति पाठे काक्वा व्याख्यानं न कर्तव्यम् । दृष्ट्वा मुनिम् । जनाः प्रीति प्रमोदम् । अधिकां विशिष्टाम् । प्रथयति करोति । नव नापि । एनं च जनम् । पुनः यतिः अस्मात शरीरात् । विरमयितुं निवर्तयितुं यतते प्रयत्नं करोति। कैः कृत्वा । याताख्यान: ज्ञातसारोपदेशः ।। ९७ ।। कस्मात् न निवर्तते जनः । तं जनं याताख्यान: मुनिः जो शरीर सब प्रकारसे अपवित्र और बहुत दुःखोंको उत्पन्न करनेवाला है ऐसे इस शरीरमें रहनेवाला प्राणी उससे विरक्त नहीं होता है, बल्कि वह उक्त शरीरको देख करके भी उससे अधिक प्रीति नहीं करता हो सो बात नहीं, किन्तु अधिक ही प्रीति करता है । उसको हितैषी मुनि श्रेष्ठ उपदेशोंके द्वारा इस अपवित्र शरीरसे विरक्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं। ऐसे महापुरुषोंका दूसरोंके हितविषयक अनुराग देखने योग्य है-प्रशंसनीय है । विशेषार्थ- यह शरीर अतिशय अपवित्र एवं तीव्र दुःखोंका कारण है। फिर भी अज्ञानी प्राणी उससे अनुराग करना नहीं छोडता है । इतना ही नहीं, बल्कि वह उत्तरोत्तर 'उसमें अधिक ही आसक्त होता है। यह देखकर दयालु साधु उसे अनेक प्रकारसे समझा करके उससे विरक्त करनेका निरन्तर प्रयत्न करते हैं। दूसरे प्राणियोंके कल्याणमें निरत रहना यह महात्माओंका स्वभाव ही हुआ करता है । ऐसे साधु पुरुषोंका समागम दुर्लभ है। संसारमें एसे निकृष्ट जन ही अधिक देखे जाते हैं जो दूसरोंके साथ मधुर भाषण करके उन्हें धोखा देनेमें उद्यत रहते हैं ।।९७।। । म (ज.) इमां (नि.) इमं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भावस्थास्वरूपम् इत्थं तथेति बहुना किमुदीरितेन भूयस्त्वयैव ननु जन्मनि भुक्तमुक्तम् । एतावदेव कथितं तव संकलय्य सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम् ॥ ९८॥ अन्तर्वान्तं वदनविवरे क्षुत्तृषार्तः प्रतीच्छन् कर्मायत्तः सुचिरमुदरावस्करे वृद्धगृद्धया। निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो मन्ये जन्मिन्नपि च मरणात्तन्निमिताद्विमेधि ॥ ९९॥ शरीरात् निवर्तयति इत्याह-- इत्वं तथेत्यादि । इत्थम् अनेन बहुदुःखत्वप्रकारेण । सथा तेन सर्वाशुचित्वप्रकारेण । उदीरितेन उक्तेन । जम्मनि भुक्तमुक्तं संसारे तद्रूपतया अनुभूतं व्य (त्य) क्तम् । संकलय्य पिण्डितायं कृत्वा । जनानाम् । जायते उत्पद्यते प्राणी यस्मिस्तज्जन शरीरम ॥९८तच्च आददानो गर्भावस्थायां कीदृशः किं कुर्वन्नाददासीदित्याह-- अन्तर्वान्तमित्यादि । मात्रा यत् अन्तर्वान्त छदितम् । क्व । वदनविवरे । तत् । उदरावस्करे उदरमेव अवस्करो वर्चीगृहं तत्र स्थित: । वृद्धगृद्धया बृहदाकाङ्क्षया । कर्मायत्त: सुचिरं प्रतीच्छन् । कथंभूतः सन् । क्षुत्तृषार्तः बुभुक्षापिपासाभ्यां पीडितः । निष्पन्दात्मा संकुचितावयवः । कृमिसहचरः उदरगण्डूपदादिकृमिसहभावी । जन्मनि उत्पत्तौ ।क्लेशभीतः समुत्पन्नदुःखात् त्रस्तः । मन्ये हे जन्मिन् अहम् एवं मन्ये । मरगादपि च तनिमित्तात् जन्मनिमित्तादिभेषि स्वम् ॥ ९९ ॥ सम्यग्दर्शनलाभापूर्वभवेषु भवतात्मवधाय सर्वमनुष्ठितमित्याहहे भव्यजीव ! यह शरीर ऐसा है और वैसा है, इस प्रकार बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? तूने स्वयं ही इस संसारमें उसे अनेक बार भोगा है और छोडा है । संक्षेपमें संग्रहरूपसे तुझे यही उपदेश दिया है कि यह प्राणियोंका शरीर सब दुःखोंका घर है ।। ९८॥ यह प्राणी गर्भावस्थामें कर्मके अधीन होकर चिर कालतक माताके पेटरूप विष्ठागृह (संडास) में स्थित रहता है और वहां भूख-प्याससे पीडित होकर बढी हुई तृष्णासे माताके द्वारा खाये हुए भोजन (उच्छिष्ट) की मुंह खोलकर प्रतीक्षा किया करता है। वहां वह स्थानके संकुचित होनेसे हाथ-पैर आदि शरीरके अवयवोंको हिला-डुला नहीं सकता है तथा उदरस्थ कीडोंके साथ रहकर जन्मके कष्टसे भयभीत होता है। हे जन्म लेनेवाले प्राणी ! तू जो मरणसे डरता है सो में ऐसा समझता हूं कि वह मरण चूंकि अगले जन्मका कारण है, इसीलिये मानो उस मरणसे डरता Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १०० अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमुग्धेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित्सुखरूपमाप्यते तदार्य विद्धयन्धकवर्तकीयम् ॥१०॥ अजाकृपाणीयमित्याह (दि)। अना च कृपाणश्च तयोरित्र कार्यम् अजाकृपाणीयम्यथा अजा केनचिद्धन्तुं नीता, शस्त्रेण च विना सा हन्तुं न शक्यते । तत्र प्रस्तावे अजया पादेन भूमि खनन्त्या आत्मवधाय खड्ग उत्खातः । तद्वत्त्वया विकल्पविमुग्धेन हेयोपादेयसंकल्पशून्येन आत्मवधाय कार्यमनुष्ठितम् । भवादितः पुरा-इतः सम्यग्दर्शनादिलाभयुक्तात् भवात् पूर्वम् । अत्र संसारे। सुखरूप सुखस्वनावम् । अन्धकवर्तकीयं अन्धकश्च वर्तका च तयोरिव कार्य अन्धकवर्तकीयम्-यथा अन्धकेन हस्तं प्रक्षिपता देवाद्वर्तकी प्राप्यते तथा संसारे चेष्टमानेन जीवेन सुखरूप स्थितं सुखसंपादक वस्तु ।। १०० ।। सुखाभिलाषिणः च काम एतत्करोतीत्याह-- है, क्योंकि जन्मका कष्ट तुझे अनुभवनें आ ही चुका है ॥ ९९ ॥ हे आर्य ! तूने इस (सम्यग्दशनयुक्त) भवसे पहिले संसारमें हेय और उपादेयके विचारमें मूढ होकर अजाकृपाणीयके समान कार्य किया है । यहां जो कुछ सुखरूप सामग्री प्राप्त होता है वह उन्धाक-वर्तकोय न्यायसे ही प्राप्त होती है ॥ विशेषार्थ-प्राणीको जब तक सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होता है तब तक उसे अनेक दुख सहने पड़ते हैं । कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके विना उसे यह त्याज्य है और यह ग्राह्य है, इस प्रकारका विवेक नहीं हो पाता है । इसीलिये वह ऐसे भी अनेकों कार्योंको स्वयं करता है कि जिनसे मारनेके लिए ले जायी गई बकरीके समान वह अपने आप ही विपत्तिमें पडता है। जैसे-कोई एक व्यक्ति मारनेके लिये बकरीको ले गया, किन्तु उसके मारनेके लिये उसके पास कृपाण (तलवार या छुरी) नहीं था। इस बीच उस बकरीने पैरसे जमीनको खोदना प्रारंभ किया और इसके घातकको वहां भूमिमें खड्ग प्राप्त हो गया जिससे कि उसने उसका वध कर डाला । इसीको 'अजा-कृपाणीय' न्याय कहा जाता है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके विना यह प्राणो भी अपने लिये ही कष्टकारक उपायोंको करता रहता है । उसे जो अल्प समयके लिये कुछ अभीष्ट सामग्नी भी प्राप्त होती है वह ऐसे प्राप्त होती Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०१] कामकार्यम् ९७ हा कष्टमिष्टवनिताभिरकाण्ड एव चण्डो विखण्डयति पण्डितमानिनोऽपि । पश्याद्भुतं तदपि धीरतया सहन्ते दग्धुं तपोऽग्निभिरमुं न समुत्सहन्ते ॥ १०१॥ त्याह-- हा कष्टमित्यादि । हा धिक् विषादे वा। कष्टं निन्द्यम् । अकाण्डे अप्रस्तावे । चण्ड: काम: विखण्डयति विशेषेण खण्डितव्रतवान् (व्रतान्) करोति । पण्डितमानिनोऽपि पण्डितम् आत्मानं मन्यमानान्, अपि। काभिः कृत्वा । इष्टवनिताभिः वल्लभस्त्रीभिः। अमुं कामं न समुत्सहन्ते न समुत्साह कुर्वन्ति ।। १०१ ॥ कामं दग्धुं समुत्साहमानाश्च केचित् किंचित्कृतवन्त इत्याह-- है जैसे कि अन्धा मनुष्य कभी हाथोंको फैलाये और उनके बीचमें वटेर पक्षी फंस जाय । ऐसा कदाचित् ही होता है, अथवा प्रायः वह असम्भव ही है। यही अवस्था संसारी प्राणियोंके सुखकी प्राप्तिकी भी है ।।१०।। बडे खेदकी बात है कि जो अपनेको पण्डित समझते हैं उनको भी यह अतिशय क्रोधी कामदेव (विषयवांछा) असमयमें ही इष्ट स्त्रियों के द्वारा खण्डित करता है। फिर भी देखो यह आश्चर्यकी बात है कि वे उसे (कामकृत खण्डनको) भी धीरतापूर्वक सहन करते हैं, किन्तु तपरूप अग्निके द्वारा उस कामको जलानेके लिये उत्साहको नहीं करते हैं । विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि कामी जन विषयान्ध होकर इच्छापूर्तिके लिये स्त्री आदिकी खोज करते हैं और उन्हें प्राप्त करके वे उनमें इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर उनको अपने हिताहितका विवेक ही नहीं रहता। इस प्रकारसे वे दोनों ही लोकोंको नष्ट करते हैं। यहां इस बातपर खेद प्रगट किया गया है कि विद्वान् मनुष्य भी उस विषयतृष्णाके वशीभूत होकर उसकी पूर्ति के लिये तो असह्य दुखको सहते हैं, किन्तु तप-संयमादिके द्वारा उस विषयतृष्णाको ही नष्ट करनेका अल्प दुख नहीं सहते जो कि वस्तुतः परिणाममें सुखकारक ही है । लोकमें देखा जाता है कि यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यका शिरच्छेद करनेके लिये शस्त्रका प्रयोग करता है तो इसके प्रतिकारस्वरूप दूसरा भी उसका आ. ७ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आत्मानुशासनम् [श्लो० १०२मयिभ्यस्तुणवद्विचिन्त्य विषयान् कश्चिच्छ्यिं दत्तवान् पापां तामवितर्पिणीं विगणयन्नादात् परस्त्यक्तवान् । प्रागेवाकुशलां विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत् एते ते विदितोत्तरोत्तरवराः सर्वोत्तमारत्यागिनः ॥ १०२॥ अथिभ्य इत्यादि । पापां पापबहुलाम् । तां श्रियम् । अवितपिणीम् अतृप्तिकरीम् । विगणयन् मन्यमानः । अपरा (परो) विवेकी। नादात् न दत्तवान् अथिभ्यः । एवमेव त्यक्तवान् । प्रागेव प्रथमत एव । न पर्यग्रहीत् न परिगृहीतवान् । सुभग. सुविवेकी। एते प्रदर्शितस्वरूपास्ते कामदहनोद्यताः। विदितेत्यादि- विदित उत्तरोत्तरो वरो येषां ते । सर्वोत्तमः सर्वेभ्यः त्यागिभ्यः उत्कृष्टास्त्यागिनः ।। १०२॥ न च विशिष्टाः संपदः प्राप्य परित्यजता सतां शिरच्छेद करनेके लिये उद्यत होता है । परन्तु कामीजनकी दशा इससे विपरीत है, क्योंकि काम तो उनका खण्डन करता है- उनके सुखको नष्ट करता है, परन्तु उसका खण्डन करनेके लिये वे स्वयं उद्यत नहीं होते। इतना ही नहीं, किन्तु उस घातकको भी वे अपना मित्र मानकर अनुराग ही करते हैं ॥ १०१॥ कोई विद्वान् मनुष्य विषयोंको तृणके समान तुच्छ समझकर लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) को याचकोंके लिये दे देता है; दूसरा कोई विवेकी जीव उक्त लक्ष्मीको पापका कारण और असन्तोषजनक जानकर किसी दूसरेके लिये नहीं देता है, किन्तु उसे यों ही छोड़ देता है । तीसरा कोई महाविवेकी जीव उसको पहिले ही अहितकारक मानकर ग्रहण नहीं करता है । इस प्रकार वे ये त्यागी उत्तरोत्तर त्यागकी उत्कृष्टताके जाननेवाले हैं- उत्तरोत्तर उत्कृष्टताको प्राप्त हैं। विशेषार्थ-विषयतृष्णाका कारण धन-सम्पत्ति है। कारण यह कि उसके होनेपर वह विषयभोगाकांक्षा और भी अधिक बढती है । इसीलिये विवेकी जन विषयतृष्णाकी मूलभूत उस सम्पत्तिका ही परित्याग करते हैं। प्रकृत श्लोकमें उसका परित्याग करनेवाले तीन प्रकारके बतलाये गये हैं- (१) पहिले प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने उस लक्ष्मीको तुच्छ समझते हुए दूसरों (पुत्रादि) को दे करके छोडा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०३] विरक्तिः संपदां त्यागः . ९९ विरज्य संपदः सन्तस्त्यजन्ति किमिहाद्भुतम् । मा वमीत् किं जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥ १०३॥ . किंचिदाश्चर्यमस्तीति दर्शयन्नाह-- विरज्येत्यादि । विरज्य वैराग्यं गत्वा । मा वमीत् मा छद्दि करोत् । जुगुप्सावान् विचिकित्सावान् ।। १०३ ॥ श्रियं त्यजन् कश्चित् कि है। इन्होंने यद्यपि आत्महितका तो ध्यान रक्खा है, किन्तु जिनके लिये वह दी गई है उनके हितका उन्होंने अनुरागवश ध्यान नहीं रक्खा । (२) दूसरे प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने उसे पापजनक और तृष्णाको बढानेवाली जानकर स्वयं छोड दिया है तथा दूसरोंको भी नहीं दिया है । ऐसे त्यागी अपने समान दूसरोंके भी हितका ध्यान रखनेके कारण पूर्वोक्त त्यागियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हैं। (३) तीसरे प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने अकल्याणकारी समझकर उसे प्रारम्भमें ही नहीं ग्रहण किया । ऐसे त्यागी सर्वोत्कृष्ट त्यागी माने जाते हैं । इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त दोनों प्रकारके त्यागियोंने तो भोगनेके पश्चात् उसे छोडा है, किन्तु इन्हें उसके स्वरूपको जानकर ही इतनी विरक्ति हुई कि जिससे उन्होंने उसे स्वीकार ही नहीं किया ॥ १०२॥ यदि सज्जन पुरुष विरक्त हो करके उन सम्पत्तियोंको छोड देते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कुछ भी नहीं । ठीक ही है- जिस पुरुषको घृणा उत्पन्न हुई है वह क्या भले प्रकार खाये गये भोजनका भी वमन (उलटी) नहीं करता है ? अर्थात् करता ही है ॥ विशेषार्थ-किसी व्यक्तिने भोजन तो बडे आनन्दके साथ किया है, किन्तु यदि पीछे उसे उसमें विषादिकी आशंकासे घृणा उत्पन्न हो गई है तो इससे या तो उसे स्वयं का हो जाता है; अन्यथा वह प्रयत्नपूर्वक वमन करके उस मुक्त भोजनको निकाल देता है । इसमें वह कष्टका अनुभव न करके विशेष आनन्द ही मानता है । ठीक इसी प्रकारसे जिन विवेकी जनोंको परिणाममें अहितकारक जानकर उस सम्पत्तिसे घृणा उत्पन्न हो गई है उन्हें Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आत्मानुशासनम् [ श्लो० १०४ श्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं सात्त्विकः स ताम् । करोति तत्त्वविच्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥ १०४ ॥ करोतीत्याह -- श्रियमित्यादि । जडः शोकम् - महता कष्टेन मयोपार्जितेयम् एवमेवं कथं त्यक्तेति श्रियं त्यजन् जडः शोकं करोति । स ताम् - स जड: प्रसिद्धो वा । सात्विक: अक्लीब: । तां श्रियं त्यजन् । विस्मयं विशिष्टः स्मयो गर्व : विस्मय: तं करोति - अहमेवेत्थंभूतां लक्ष्मीं त्यक्तुं समर्थो नान्यः इति । तत्त्ववित् हेयापादेय वस्तुस्वरूपपरिज्ञानी ॥ १०४ ॥ यथा च उसका परित्याग करनेमें किसी प्रकारका क्लेश नहीं होता, प्रत्युत उन्हें इससे अपूर्व आनन्दका ही अनुभव होता है । उसके परित्यागमें कष्ट उन्हींको होता है जो उसे हितकारी मानकर उसमें अतिशय अनुरक्त रहते हैं ।। १०३ ।। मूर्ख पुरुष लक्ष्मीको छोडता हुआ शोक करता है, तथा पुरुषार्थी मनुष्य उस लक्ष्मीको छोडता हुआ विशेष अभिमान करता है, परन्तु तत्त्वका जानकार उसके परित्यागमें न तो शोक करता है और न विशिष्ट अभिमान ही करता है । विशेषार्थ -- नो मूर्ख जन पुरुषार्थसे रहित होते हैं उनकी सम्पत्ति यदि दुर्भाग्यसे नष्ट हो जाती है तो वे इससे बहुत दुखी होते हैं । वे पश्चात्ताप करते हैं कि बडे परिश्रमसे यह धन कमाया था, वह कैसे नष्ट हो गया, हाय अब उसके बिना कैसे जीवन बीतेगा आदि । इसके विपरीत जो पुरुषार्थी मनुष्य होते हैं वे जैसे धनको कमाते हैं वैसे ही उसका दानादिमें सदुपयोग भी करते हैं । इस प्रकारके त्यागमें उन्हें एक प्रकारका स्वाभिमान ही होता है । वे विचार किया करते हैं कि जब मैंने इसे कमाया है तो उसे सत्कार्यमें खर्च भी करना हीं चाहिये । इससे वह कुछ कम होनेवाला नहीं 1 है । मैं अपने पुरुषार्थ से फिर भी उसे कमा सकता हूं आदि । यदि कदाचित् वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है तो भी अपने पुरुषार्थके बलपर उन्हें इसमें किसी प्रकारका खेद नहीं होता है । परन्तु इन दोनोंके विपरीत जो तत्त्वज्ञानी हैं वे विचार करते हैं कि ये सब धन-सम्पत्ति आदि पर पदार्थ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०६] बुधाः शरीरमपि सानन्दं त्यजन्ति १०१ विमृश्योच्चैर्गर्भात् प्रभृति मृतिपर्यन्तमखिलं मुधाप्येतत्क्लेशाशुचिभयनिकाराद्यबहुलम् । बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्तिश्च जडधीः स कस्त्यक्तुं नालं खलजनसमायोगसदृशम् ॥१०५॥ कुबोधरागादिविचेष्टितैः फलं स्वयापि भूयो जननादिलक्षणम् ।। श्रीस्त्यजते विवेकिभिस्तथा शरीरमपीति दर्शयन्नाह- विमृश्येत्यादि । विमृश्य उच्चैः पर्यालोच्य महाप्रयत्नेन । गर्भात्प्रभृतिमृतिपर्यन्तम् अखिलम् एतत् आचरणं शरीरादिस्वरूपं वा । कथंभूतमित्याह मुधेत्यादि । मुधा एवमेव क्लेशाशुचिभयनिकाराद्यबहुलम् अपि । निकारो वञ्चना पराभवो वा । स कः । स जडधीः । नालं न समयः। खलेत्यादि । खलजनानां समायोगो मेलापक : तेन सदृशम् अनेकानर्थकारित्वेन ॥१०५।। यथा च श्रीः शरीरं च त्याज्यं तथा रागादयोऽपीत्याह-कुबोधेत्यादि । कुत्सितबोधरागादिभिः जनितः विविधचेष्टितैः । त्वयापि स्वया प्राप्तम् । प्रतीहि पूर्वमुत्तरम् उभयमपि जानीहि । प्रतिलोमवृत्तिभिः कुबोधा हैं, ये न मेरे और न मै इनका स्वामी हूं। कर्मके उदयसे उनका संयोग और वियोग हुआ ही करता है । ऐसा विचार करते हुए उन्हें सम्पत्तिके परित्यागमें न तो शोक होता है और न अभिमान भी ॥१०४।। गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त यह जो समस्त शरीरसम्बन्धित आचरण है वह व्यर्थ में प्रचुर क्लेश, अपवित्रता, भय और तिरस्कार आदिसे परिपूर्ण हैं; ऐसा जानकर विद्वानोंको उसका परित्याग करना चाहिये । उसके त्यागसे यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर वह कौन-सा मूर्ख है जो दुष्ट जनकी संगतिके समान उसे छोडनेके लिये समर्थ न हो? अर्थात् विवेकी प्राणी उसे छोडते ही हैं ॥ १०५ ॥ हे भव्य ! तूने बार बार मिथ्याज्ञान एवं राग-द्वेषादि जनित प्रवृत्तियोंसे जो जन्म-मरणादिरूप फल प्राप्त किया है उसके विरुद्ध प्रवृत्तियों- सम्यग्ज्ञान एवं वैराग्यजनित आचरणों के द्वारा तू 1 मु (जै. नि.) निकाराद्य । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आत्मानुशासनम् ... श्लो० १०६प्रतीहि भव्य प्रतिलोमवृत्तिभिः ध्रुवं फलं प्राप्स्यसि तद्विलक्षणम् ॥ १०६॥ दयादमत्यागसमाधिसंततेः पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयत्नवान् । नयत्यवश्यं वचसामगोचरं विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥ दिभ्यः प्रतिकूलप्रवर्तिभिः सम्यग्ज्ञानवैराग्यादिभिः । ध्रुवं निश्चयेन नित्यं वा । तद्विलक्षणं जननादिविलक्षणम् ।।१०६ ।। इत्थंभूतं च फलमभिलषस्तस्मिन् मार्गे गच्छेत्याह-- दयेत्यादि । दयादमत्यागसमाधीनां संततिः प्रवाहः तस्याः । संबन्धिनि पथि मार्गे। प्रयाहि गच्छ । प्रगुणं मायादिवर्जितं यथा भवति । विकल्पदूरं विकल्पाविषयम् । वचसाम् अगोचरम् । यत् परमम् उत्कृष्टम् । किमपि मोक्षादम् । असौ फन्याः ॥ १०७ ।। विवेकपूर्वकपरिग्रहत्यागरूपः पंथा: निश्चयसे उसके विपरीत फल- अजर-अमर पद- को प्राप्त करेगा, ऐसा निश्चय कर ॥१०६॥ हे भव्य ! तू प्रयत्न करके सरल भावसे दया, इन्द्रियदमन, दान और ध्यानकी परम्पराके मार्गमें प्रवृत्त हो जा । वह मार्ग निश्चयसे किसी ऐसे उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त कराता है जो वचनसे अनिर्वचनीय एवं समस्त विकल्पोंसे रहित है। विशेषार्थ- दीन-दुखी प्राणियोंको देखकर उनके साथ जो हृदयमें सहानुभूतिका भाव उदित होता है वह दया कहलाती है। यह धर्मको जड है, क्योंकि उसके विना धर्म स्थिर रह नहीं सकता। कहा भी है-धर्मो नाम कृपामूलं सातु जीवानुकम्मनम्। अशरण्यशरण्यत्वमतो धार्मिकलक्षणन् । अर्थात् धर्मको आधारभूत दया है और उसका लक्षण है प्राणियोंके साथ सहानुभूति । इसलिये जो भरक्षित प्राणियोंकी रक्षा करता है वही धार्मिक माना जाता है । क्ष. चू. ५--३५. दूसरे शब्दसे इस दयाको अहिंसा कहा जा सकता है और उस अहिंसामें चूंकि सत्यादिका भी अन्तर्भाव होता है अतएव वह दया पंचव्रतात्मक ठहरती है। दमका अर्थ है राग-द्वेषके दमनपूर्वक इन्द्रियोंका दमन करना- उन्हें अपने नियन्त्रणमें रखना अथवा स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त न होने देना । इसे दूसरे शब्दसे संयम भी कहा जा सकता है जो इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमके भेदसे दो प्रकारका है। त्यागसे अभिप्राय बाह्य Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०१] अभुक्त्वैव त्यागः श्रेष्ठः विज्ञाननिहतमोहं कुटीप्रवेशो विशुद्धकायमिव । त्यागः परिग्रहाणामवश्यमजरामरं कुरुते ॥१०८॥ अभुक्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमासितम् । येन चित्रं नमस्तस्मै कौमारब्रह्मचारिणे ॥१०९॥ जीवस्य मोक्षपदप्रापकः इसिसमर्थयमानः प्राह-विज्ञानेत्यादि (विज्ञान) विशिष्ट ज्ञानं तेन निहि(ह)तः स्फेटितो मोहः यत्र कर्मणि । कुटीप्रवेशः परपुरप्रवेशो रसायन क्रिया वा । अजरामरं जरा च मरणं च जरामरणे ताभ्यां रहितं मुक्तात्मानम्।।१०८।। विवेकपूर्वकं परित्यागं कुर्वतां मध्ये सर्वोत्तमं परित्यागं कुर्वन्तं प्रशंसयन्नाह- अभुक्त्वेत्यादि । स्वोच्छिष्टं स्वस्य उच्छिष्टं स्वयं परित्यक्तं पृथिव्यादि । विश्वं जगत् । आशितं भोजितम् । कौमारब्रह्मचारिणे बालब्रह्मचारिणे । कुमारीभिः प्रथमं परिवृतः, न च परिणयनं कृतं कौमारः। कुमारात्प्रायम्ये अण्।।१०९॥ इत्यंभूतपरित्यागकारिणः और अभ्यन्तर परिग्रहके त्याग एवं दानका है। समाधिसे तात्पर्य धर्म और शुक्लरूप समीचीन ध्यानसे हैं । इस प्रकार जो विवेकी जीव मन, वचन और कायकी सरलतापूर्वक उपर्युक्त दया आदि चारोंकी परम्पराका अनुसरण करता है वह निश्चयसे अविनश्वर पदको प्राप्त करता है ।।१०७॥ विवेकज्ञानके द्वारा मोहके नष्ट हो जानेपर किया गया परिग्रहोंका त्याग निश्चयसे जीवको जरा और मरणसे रहित इस प्रकार कर देता है जिस प्रकार कि कुटीप्रवेश क्रिया शरीरको विशुद्ध कर देती है ॥१०८॥ आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगते हुए त्याग करके अपने उच्छिष्टरूप विश्वका उपभोग कराया है उस बालब्रह्मचारीके लिये नमस्कार हो ।। विशेषार्थ-जिसने राज्यलक्ष्मी आदिके भोगनेका अवसर प्राप्त होनेपर भी उसे नहीं भोगा और तुच्छ समझकर यों ही छोड दिया है वह सर्वोत्कृष्ट त्यागी माना गया है । जैसे किसीको पहिले कुमारियोंने वरण कर लिया है, परंतु पश्चात् उसने उनके साथ विवाह न करके ब्रह्मचर्यको ही स्वीकार किया हो वह बालब्रह्मचारी उत्कृष्ट ब्रह्मचारी गिना गया है। यहां ऐसे ही सर्वोत्कृष्ट त्यागीको नमस्कार किया गया है कि जिसने Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आत्मानुशासनम् [ श्लो० ११० अकिंचनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥११०॥ परमोदासीनतालक्षणं चारित्रं प्रतिपादयन्नाह-अकिंचनेत्यादि मम न किंचन अस्ति इति भकिंचनोऽहमित्येवं आस्स्व तिष्ठ। रहस्यम् अन्तस्तत्त्वं यत्र कुत्रचित् अप्रकाश्यं गूढकारणम्।।११०॥अदानीं तपआराधनास्वरूपोपक्रमाय दुर्लभेत्याद्याह-दुर्लभेत्यादि । लक्ष्मीके उपभोगका अवसर प्राप्त होनेपर भी उसे नहीं भोगा, किंतु जो बालब्रह्मचारीके समान उससे अलिप्त रहा है। यहां इस बातपर आश्चर्य भी प्रगट किया गया हैं कि लोकमें कोई भी उच्छिष्ट (उलटी या वांति) का उपभोग नहीं करता,परंतु ऐसे महापुरुषोंने अपने उच्छिष्टका-विना भोगे ही छोडी गई राज्यलक्ष्मी आदिका-भी दूसरोंको उपभोग कराया। तात्पर्य यह कि जो महापुरुष राज्यलक्ष्मी आदिका अनुभव न करके पहिले ही उसे छोड़ देते हैं वे अतिशय प्रशंसनीय हैं । तथा इसके विपरीत जो अविवेकी जन उनके द्वारा तृणवत् छोडी गई उक्त राज्यलक्ष्मीको भोगनेके लिये उत्सुक रहते हैं वे अतिशय निंदनीय हैं।।१०९।।हे भव्य! तू 'मेरा कुछ भी नहीं है' ऐसी भावनाके साथ स्थित हो । ऐसा होने.. पर तू तीन लोकका स्वामी (मुक्त) हो जायगा । यह तुझे परमात्माका रहस्य (स्वरूप) बतला दिया है जो केवल योगियोंके द्वारा प्राप्त करनेके योग्य या उनके ही अनुभवका विषय है। विशेषार्थ--अभिप्राय यह है कि पर पदार्थोंको अपना समझकर जबतक जीवका उनमें ममत्वभाव रहता है तबतक वह राग-द्वेषसे परिणत होकर कर्मोंको बांधता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता है । और जैसे ही उसका पर पदार्थोसे वह ममत्वभाव हटता है वैसे ही वह निर्ममत्व होकर आत्मस्वरूपका चिंतन करता हुआ स्वयं भी परमात्मा बन जाता है ।।११०।यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध और सुखसे रहित (दुखमय) है। मनुष्य अवस्थामें मरणका समय नहीं जाना जा सकता है। तया मनुष्यको पूर्वकोटि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानुष्यं प्राप्य तपः कर्तव्यम् दुर्लभमशुद्धम सुखमविदित मृतिसमयमल्पपरमापुः मानुष्यमिव तपो मुक्तिस्तनसैव ततः कार्यम् ॥ १११ ॥ -१११] १०५ अशुद्धम् अशुचि । अपसुखम् अपगतसुखम् । अल्पं पूर्व कोट्यादिपरिमाणम् । इह् एव मानुष्ये एव ।। १११ ॥ तत्र तपसो द्वादशप्रकारस्य मध्ये मुक्तिप्रत्यासन्नसाधनस्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु भी देवायु आदिकी अपेक्षा स्तोक है । परन्तु तप इस मनुष्य पर्याय में ही किया जा सकता है और मुक्ति उस तपसे ही प्राप्त की जाती है । इसलिये तपका आचरण करना चाहिये || विशेषार्थ - मुक्तिकी प्राप्ति तपके द्वारा होती है और वह तप एक मात्र मनुष्य पर्यायमें ही सम्भव है - अन्य किसी देवादि पर्याय में वह सम्भव नहीं है । अतएव उस मनुष्य पर्यायको पा करके तपका आचरण अवश्य करना चाहिये । कारण यह है कि वह मनुष्य पर्याय अतिशय दुर्लभ है । जीवोंका अधिकांश समय नरक निगोद आदिमें ही बोलता है । वह मनुष्य पर्याय यद्यपि स्वभावतः अशुद्ध ही है, फिर भी चूंकि रत्नत्रयको प्राप्त करके तपका आचरण एक उस मनुष्य पर्याय में ही किया जा सकता है, अतएव वह सर्वथा निन्दनीय भी नहीं है । आचार्य समन्तभद्र स्वामी निर्विचिकित्सित अंगका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि - " स्वभावतोऽशुवौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता । अर्थात् यह मनुष्यशरीर यद्यपि स्वभावसे अपवित्र है, फिर भी वह रत्नत्रयकी प्राप्तिका वारण होनेसे पवित्र भी है । अतएव रत्नत्रयका साधक होने से उनके विषयमें घृणा न करके गुणों के कारण प्रेम ही करना चाहिये । इसीका नाम निर्विचिकित्सित अंग है । र. श्रा. १३. इसके अतिरिक्त वह मनुव्यशरीर कुछ देवशरीरके समान सुखका भी साधन नहीं है कि जिससे सुखको छोडकर उसे तपके खेद में न लगाया जा सके। वह तो आधि और व्यधिका स्थान • होने से सदा दुखरूप ही है । यहांपर यह शंका हो सकती थी कि उससे जो कुछ भी विषयसुख प्राप्त हो सकता है उसके भोगने के बाद वृद्धावस्था में Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आत्मानुशासनम् [श्लो० ११२आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुवृत्तिः सतां संमता क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् । समाधिरूपस्य तपसो विषयफलादिकं प्रदर्शयन्नाह- आराध्य इत्यादि । आराध्यः समाधिविषयः । भगवान् परमज्ञानसंपन्नः इन्द्रादीनां पूज्यो वा परमात्मा । वृत्ति: भगवदाराधने प्रवृत्तिः अभिमुखता। सतां सत्पुरुषाणां संमता अभिप्रेता उत्तमपुरष विषयत्वात् । प्रप्रक्षयः प्रक्षयः पादपूरणे प्रसिद्धत्वम्, 'प्रोपात्समां उसे तपश्चरणमें लगाना ठीक है, न कि उसके पूर्व में। इस शंकाके परिहार. स्वरूप ही यहां यह बतलाया है कि मृत्यु कब प्राप्त होगी, यह किसीको विदित नहीं हो सकता है । कारण कि देव-नारकियोंके समान मनुष्योंमें उसका समय नियत नहीं है-- वह वृद्धावस्थामें भी आ सकती है और उसके पूर्व बाल्यावस्था या युवावस्थामें भी आ सकती है। इसके अतिरिक्त जहां देवों और नारकियोंकी आयु अकालमृत्युसे रहित होकर तेतीस सागरोपमतक होती है वहां मनुष्योंकी आयु अधिकसे अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण ही हो सकती है । अतएव अच्छा यही है कि सौभाग्यसे यदि वह मनुष्य पर्याय प्राप्त हो गई है तो जल्दीसे जल्दी उससे प्राप्त करने योग्य रत्नत्रयको प्राप्त कर लें, अन्यथा उसके व्यर्थ नष्ट हो जानेपर फिरसे उसे प्राप्त करना अशक्य होगा ॥ १११ ॥ ध्यानमें तीनों लोकोंका स्वामी परमात्मा आराधना करनेके योग्य है । इस प्रकारकी प्रवृत्ति सज्जनोंको अभीष्ट है। उसमें यदि कुछ कष्ट है तो केवल भगवान्के चरणोंका स्मरण ही है। उससे जो हानि भी होती है वह अनिष्ट कर्मोंकी ही हानि (नाश) होती है । उससे सिद्ध करनेके योग्य मोक्षसुख है। उसमें काल भी कितना लगता है ? अर्थात् कुछ विशेष काल नहीं लगता- अन्तर्मुहूर्त मात्र ही लगता है । उसका साधन (कारण) मन है । अतएव हे विद्वानो! चित्तमें उस परमात्माका भले प्रकार विचार कीजिये, क्योंकि, उसके ध्यानमें कष्ट ही क्या है ? कुछ भी नहीं है ।। विशेषार्थ- यहां यह बतलाया गया है कि जो भव्य जीव मोक्षसुखके Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११२] समाधेः सुकरत्वम् १०७ साध्यं सिद्धिसुखं कियान परिमितः कालो मनः साधनं सम्यक्चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किं वा समाधौ बुधाः॥११२॥ पादपूरण' इति वचनात् । साध्यं फलम् । दिव्यवर्षसहस्रकोटिपरिमितकालसाध्यत्वात् समाधेः दुःशक्यतेत्याशझ्याह कियान् परिमितः कालः । समाधेरन्तर्मुहूर्तादिः । कियान् कतिपयः परिमितः स्तोक एव काल: । कस्तत्रोपाय इत्याह-- मनः साधनम् । विधुरं कष्टं विफलं वा । किं वा न किमपि ॥ ११२ ।। अभिलाषी हैं उन्हें सर्वज्ञ वीतराग परमात्माका ध्यान करना चाहिये । उसका ध्यान करनेसे ध्याता स्वयं भी परमात्मा बन जाता है । जैसे कि आचार्य कुमुदचन्द्रने भी कहा है- " ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुफ्लभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥" अर्थात् हे जिनेन्द्र ! आपके ध्यानसे भव्यजीव क्षणभरमें ही इस शरीरको छोडकर परमात्मा अवस्थाको इस प्रकारसे प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि धातुभेद (सुवर्णपाषाण) तीव्र अग्निके संयोगसे पत्थरके स्वरूपको छोडकर शीघ्र ही सुवर्णरूपताको प्राप्त हो जाते हैं ॥ कल्याण. १५. यहां उस ध्यानकी उपादेयताको बतलाते हुए यह भी निर्देश कर दिया है कि उस ध्यानके करनेमें न तो कुछ क्लेश है और न किसी प्रकारकी हानि भी है। उसमें यदि कुछ क्लेश है तो वह केवल जिनचरणोंके स्मरणरूप ही है जो नगण्य है, तथा उससे जो हानि होनेवाली है वह है कर्मोंको हानि, सो वह सबको अभीष्ट ही है। वह निरर्थक या अनिष्ट फलदायक भी नहीं है, बल्कि इष्ट फलप्रद (मोक्षसुखदायक) ही है। उसमें बहुत अधिक समय भी नहीं लगता है- उसका समय अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तपरिमित है । इसके अतिरिक्त उसके लिये विशेष साधनसामजीकी भी आवश्यकता नहीं होती, वह केवल अपने मनकी एकाग्रतासे ही होता है । इस प्रकार जब वह ध्यान सब प्रकारके क्लेश एवं हानिसे रहित है, परिमित समय में ही अभीष्ट Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आत्मानुशासनम् [श्लो० ११३द्रविणपवनप्राध्मातानां सुखं किमिहेश्यते किमपि किमयं कामव्याधः खलीकुरुते खलः । चरणमपि किं स्प्रष्टुं शक्ताः पराभवपांसवः वदत तपसोऽप्यन्यन्मान्यं समोहितसाधनम् ॥ ११३ ॥ नि:श्रेयसार्थिनां तपसो नान्यद्वाञ्छितफलप्रदमित्याह-- द्रविणेत्यादि । प्राध्मातानां मोटितानाम् । इह अस्मिस्तपसि सति लोके वा । खलीकुरुते अखलम् अदुष्टाचरणं हलं दुष्टाचरणं कुरुते खलीकुरुते । पराभवपांसवः पराभवो मानखण्डना स एव पांसवो धूलयः मान्यं पूज्यम् ॥ ११३ ॥ एवं. मोक्षसुखको देनेवाला है, तथा अपने मनके अतिरिक्त अन्य किसी भी कारणकी अपेक्षा भी नहीं रखता है तब विवेकी जनोंका यह कर्तव्य है कि वे उस कष्टरहित जिनचरणोंका ध्यान अवश्य करें ॥ ११२॥ धनरूप वायु (तृष्णा) से मर्दित (संतप्त) प्राणियोंको भला कौन-सा सुख हो सकता है ? कुछ भी नहीं । अर्थात् जो सुख तपश्चरणसे प्राप्त होता है वह सुख धनाभिलाषी प्राणियोंको कभी नहीं प्राप्त हो सकता है । उस तपके होते हुए क्या यह कामरूप दुष्ट व्याध (भील) किसी प्रकारका दुष्ट आचरण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है । इसके अतिरिक्त उक्त तपके होनेपर क्या तिरस्काररूप धूलि तपस्वीके चरणको भी छूनेके लिये समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती। हे भव्यप्राणियो! यदि तपसे दूसरा कोई अभीष्ट सुखका साधक हो तो उसे बतलाओ। अभिप्राय यह कि यदि प्राणीके मनोरथको कोई सिद्ध कर सकता है तो वह केवल तप ही है, उसको छोडकर दूसरा कोई भी प्राणीके मनोरथको पूर्ण करनेवाला नहीं है ॥ ११३ ॥ जिस तपके प्रभावसे प्राणी इस लोकमें क्रोधादिकषायोंरूप स्वाभाविक शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है तथा जिन गुणोंको वह अपने प्राणोंसे भी अधिक चाहता है वे गुण उसे प्राप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त तपके प्रभावसे परलोकमें उसे मोक्षरूप पुरुषार्थको सिद्धि स्वयं ही शीघ्रतासे प्राप्त होती है। इस प्रकारसे जो तप प्राणियोंक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११५] तपस्विनों प्रशंसा इहैव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपाविकान् गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति । पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी नरो न रमते कयं तपसि तापसंहारिणि ॥११४॥ तपोवल्ल्यां देहः समुपचितपुण्योजितफल: शलाट्वग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलितः। विधे तपसि वर्तमानः किं करोतीत्याह- इहैवेत्यादि । इहैव उक्तप्रकार एवं तपसि स्थितः । सहजान् रिपून् सहभुवः शत्रून् । प्रकोपादिकान् प्रकृष्टकोपादीन् । परिणमन्ति प्रादुर्भवन्ति । असुभिरपि प्राणैरपि । पुरश्चाने पुरुषार्यसिद्धि: मोक्षसिद्धिः । अचिरात् संक्षेपण । स्वयं यायिनी स्वयम् अग्रेसरी । तापसंहारिणि संसारदुःखस्फेटके ॥ ११४ ॥ तपसि रतिं कुर्वाणश्चायुर्देहयोरित्यं य: सफलतां कुरुते तं श्लाघयभाह- तपोवल्यामित्यादि । समुपचितपुण्योजितफल: समुपचितं पुष्टि नोतं पुण्यमेव ऊजितं महत्फलं येन देहेन । शलाट्वग्रे कोमलफलाने सति पुष्पमपगच्छति यस्मात्कलात्तत् शलाटुः शलेरटुः । प्रसव इव पुष्पमिव । संतापको दूर करता है उसके विषय में मनुष्य कैसे नहीं रमता है? अर्थात् रमना ही चाहिये । विशेषार्थ-यहां यह बतलाय गया है कि वह तप प्राणीके लिये उभय लोकों में ही हितकारक है। इस लोकमें तो वह इसलिये हितकारक है कि जो क्रोध आदि कषायें अनादि कालसें प्राणीका अहित कर रही हैं उनको वह तप नष्ट कर देता है । कारण यह है कि जबर्तक क्रोधादि कषायें जागृत रहती हैं तबतक वह इच्छानिरोधात्मक तप संभव ही नहीं है । इसके अतिरिक्त वह तर इसी लोकमें क्षमा,शांति एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुगों को भी प्राप्त कराता है। वह चूंकि परलोकमें मोक्ष पुरुषार्यको सिद्ध कराता है अतएव वह परलोकमें भी हितका साधक है । इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभय लोकके संतापको दूर करनेवाले उस तपमें अवश्य प्रवृत्त होते हैं ॥११४॥ जिसका शरीर तपरूप बेलिके ऊपर पुण्यरूप महान् फलको उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकारसे नष्ट हो जाता है जिस प्रकार कि कच्चे फलके अग्रभागसे फूल नष्ट हो जाता है,तथा जिसकी आयु सन्यासरूप अग्निमें दूधकी Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मात्मानुशासनम् श्लो० ११५ व्यशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपयः स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥ अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत् तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥११६॥ आयुष्यं च व्यशुष्यत् आयुरेव आयुष्यम्, स्वार्य यः । व्यशुष्यत् । क्व । संन्यासाहुतभुजि संन्यासाग्नी । पयः दुग्धम् । कथं व्यशुष्यत् । समाधानचरमं यथा भवति । समाधानं समाधि: ध्यानं चरमम् अन्यधर्मशुक्लरूपं यत्र ।। ११५ ॥ परमवैराग्योपतानाम् अशुचौ दुःखदे देहे प्रतिपालनम् अवस्थानं च कृत्वा तपः कुर्वतां कारणं श्लोकद्वयमाहृ- अमी इत्यादि । प्ररूढवैराग्या अपि प्ररूढम् उत्पन्न प्रकर्ष प्राप्तं वा वैराग्यं येषाम् । तनुम् अनुपाल्य शरीरं प्रतिपाल्य । ते तपस्यन्ति तपः कुर्वन्ति । वैभवं प्रभुत्वम् ॥ ११६ ।। क्षणाधंमित्यादि । बतिस्तोक-- रक्षा करनेवाले जलके समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधिकी रक्षा करते हुए सूख जाती है वह धन्य है-प्रशंसनीय है ॥ विशेषार्य--जिंस प्रकार लतामें उत्पन्न हुआ फूल फलको उत्पन्न करके उस कच्चे फलके अग्रभागसे स्वयं नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिसका शरीर तपश्चरणके द्वारा महान् पुण्यको उत्पन्न करके तत्पश्चात् स्वयं नष्ट हो जाता है तथा जिस प्रकार आगपर रखे हुए दूधर्म रहनेवाला पानी स्वयं जलता है, परंतु वह दूधकी रक्षा करता है; उसी प्रकार जिस महा पुरुषको आयु ध्यानरूप अग्निमें स्वयं शुष्क होती है, परंतु धर्म एवं शुक्लरूप ध्यानको रक्षा करती है वह महात्मा सराहनीय है-- उसीका मनुष्यजन्म पाना सफल है ॥११५॥ जिनके हृदयमें विरक्ति उत्पन्न हुई है वे शरीरकी रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं वह निश्चयसे ज्ञानका ही प्रभाव है, ऐसा निश्चित प्रतीत होता है । विशेषार्थ-- लोकमें प्रायः यह देखा जाता है कि जो जिसकी ओरसे विरक्त या उदासीन होता है वह उसका रक्षण नहीं करता है । परन्तु विवेकी जन शरीरकी ओरसे उदासीन (अनुरागरहित) हो करके भी यथायोग्य प्राप्त हुए आहारके द्वारा उसका रक्षण करते हैं। इसका कारण रह है कि वे यह जानते Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१७] तपोऽनुष्ठाचे विवेकः कारणम् क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत .कः। यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्वोधरे निरोधकः ॥११७॥ कालमपि। साहचर्य सहभावः प्रकोष्ठं हस्तप्रोच्चकप्रदेश: । अत्र तुप्रकोष्ठमन्तस्तत्त्वम्। तदादाय अवलम्ब्य आत्मस्वरूपं पश्य किं शरीरं चिन्तयेदिति बोध: शिक्षयतीत्यर्थः । निरोधक: धारकः।।११७।।अमुमेवार्थे दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः समस्तमित्यादिश्लोक हैं कि इस मनुष्यशरीरसे हमें अपना प्रयोजन (मुक्ति) सिद्ध करना है, हमने यदि इसकी रक्षा न की तो यह असमयमें ही नष्ट हो जावेगा और तब ऐसी अवस्थामें हम उससे अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इसका भी कारण यह है कि यदि यह मनुष्य पर्याय यों ही नष्ट हो गई तो फिर देवादि किसी दूसरी गतिमें तपका आचरण संभव नहीं है और वह मनुष्य पर्याय कुछ बार बार प्राप्त होती नहीं है। इस प्रकारकी विवेकबुद्धिके रहनेसे ही साधुजन उस शरीरका रक्षण करते हैं, अन्यथा वे उसकी रक्षा न भी करते । हां, यह अवश्य है कि वह शरीर किसी असाध्य रोगादिसे आक्रांत होकर यदि अभीष्टकी सिद्धि में ही बाधक बन जाता है तो फिर वे उसकी रक्षा नहीं करते हैं, बल्कि उसे सल्लेखनापूर्वक छोडकर धर्मकी ही रक्षा करते हैं ॥११६॥ यदि ज्ञान पोंचे (हथेलीके उपरका भाग) को ग्रहण करके रोकनेवाले न होता तो कौन-सा विवेकी जीव उस शरीरके साथ आधे क्षणके लिये भी रहना सहन करता? अर्थात् नहीं करता ॥ विशेषार्थ-बाणी जो अनेक प्रकारके दुखोंको सहता है वह केवल शरीरके ही संबंधसे सहता है, इसीलिये कोई भी विवेकी जीव क्षणभर भी उसके साथ नहीं रहना चाहता है । फिर भी जो वह उसके साथ रहता है, इसका कारण उसका उपर्युक्त (अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिविषयक) विचार ही है ॥११७॥ जिन ऋषभ देवने समस्त राज्य-वैभवको तृणके समान तुच्छ समझकर छोड 1 प प्राञ्चक0, स प्रोञ्चक०। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ [ श्लो० ११८ आत्मानुशासनम् समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवान् लपस्यन् निर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि सुचिरं न सोढव्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशतः ॥ ११८ ॥ द्वयमाह - समस्तं त्रिभुवनविषयम् । साम्राज्यं परमैश्वर्यम् । निर्माण: मानरहितः । दीना इव । किले. त्यागमोक्तौ । न सोढव्यं किं वा । अपि तु सर्वमपि सोढव्यम् । परम् अन्यत् ॥ इह लोके । परैः उत्कृष्टैः, भगवतोऽन्यैर्वा । कार्यवशतः संवर- निर्जरालक्षणं कार्यम् उररी कृत्य । । ११८ || पुरेत्यादि । पुरा गर्भान् पूर्वं गर्भात् । स्वयं स्रष्टा परोपदेशमन्तरेण विधाता । दिया था और तपश्चरणको स्वीकार किया था वे भी निरभिमान होकर भूखे दरिद्र के समान भिक्षा के निमित्त स्वयं दूसरोंके घरोंपर घूमे । फिर भी उन्हें निरन्तराय आहार नहीं प्राप्त हुआ । इस प्रकार उन्हें छह मास घूमना पडा । फिर भला अन्य साधारण जनों या महापुरुषों को अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये यहां क्या ( परीषह आदि) नहीं सहन करना चाहिये ? अर्थात् उसकी सिद्धिके लिये उन्हें सब कुछ सहन करना ही चाहिये || विशेषार्थ - यह पुराणप्रसिद्ध बात है कि भगवान् ऋषभ देव दीक्षा लेने के बाद छह मास के उपवासको पूर्ण करके आहारके लिये छह माह घूमे थे, परंतु भोगभूमिके बाद उस समय कर्म भूमिका पादु-होनेसे कोई भी आहार दानकी विधिको नहीं जानता था । इसीलिये उन्हें छह माह तक विधिपूर्वक निरन्तराय आहार नहीं प्राप्त हो सका था । अन्त में जब राजा श्रेयांसको जातिस्मरण हुआ तब जिस विधि श्रीमतीके भवमें आहारदान दिया था उसी विधि से भगवान् आदि जिनेन्द्रको आहार दिया इस प्रकार दैववशात् जब भगवान् ऋषभनाथ जैसे महापुरुषको भी निरभिमान होकर शिक्षा के लिये छह माह तक घर-घर घूमना पडा और वह नहीं प्राप्त हुई तो फिर यदि साधारण जनोंको अपने अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिमें कष्ट उपस्थित होता है तो उन्हें वह सहन करना ही चाहिये ॥ ११८ ॥ जिस आदिनाथ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ -१२०] दैवदुर्लङ्घत्वे दृष्टान्तः पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव स्वयं स्रष्टा सृष्टः पतिरथ निधीनां निजसुतः । क्षधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगतीमहो केनाप्यस्मिन् विलसितमलद्ध्यं हतविधेः ॥ ११९ ॥ प्राक प्रकाशप्रधानः स्यात प्रदीप इव संयमी। पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ॥ १२० ॥ कस्याः । सृष्टेः असिमषिकृष्यादेः। अथ शब्दः पुनरर्थे निजसुत इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः । निजसुतः पुन: पतिनिधोनाम् । पुरुरपि इन्द्रादीनामाराध्योऽपि । आट पर्यटितोऽभवत् ॥ ११९ ।। एवंविधसम्यग्दर्शनाद्याराधनात्रयं श्रुतज्ञानादिप्रधानतया प्रवृत्तं विशिष्टप्रयोजनप्रसाधकं भवति, नान्यथा । अतस्तदनन्तरं ज्ञानाराधनाप्रदर्शनोपक्रम कुर्वाण: प्रागित्याद्याह-- प्रागित्यादि । प्राक् प्रथमम् । प्रकाशप्रधानः यथावत्स्वपरस्वरूपप्रकाशनप्रधान: ज्ञानप्रधान इत्यर्थः। संयमी मुनिः । तपः तपनं ताप: संतापः, तपश्चारित्रयोरनुष्ठानमित्यर्थः । भासतां शोभताम् प्रकाशतां वा ॥ १२० ॥ ज्ञानाराधनाराधकः इत्थंभूतः जिनेन्द्रके गर्भ में आनेके पूर्व छह महिनेसे ही इन्द्र दासके समान हाथ जोडे हुए सेवामें तत्पर रहा, जो स्वयं ही सृष्टिको रचना करनेवाला था, अर्थात् जिसने कर्मभूमिके प्रारम्भमें आजीविकाके साधनोंसे अपरिचित प्रजाके लिये आजीविकाविषयक शिक्षा दी थी, तथा जिसका पुत्र भरत निधियोंका स्वामी (चक्रवर्ती) था; वह इन्द्रादिकोंसे सेवित आदिनाथ तीर्थंकर जैसा महापुरुष भी बुभुक्षित होकर छह महिनेतक पृथ्वीपर घूमा; यह आश्चर्यकी बात है । ठीक है- इस संसारमें कोई भी प्राणी दुष्ट दैवके विधानको लांघनेमें समर्थ नहीं है ।। ११९॥ साधु पहिले दीपकके समान प्रकाशप्रधान होता है । तत्पश्चात वह सूर्यके समान ताप और प्रकाश दोनोंसे शोभायमान होता है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार दीपक केवल प्रकाशसे संयुक्त होकर घट-पटादि पदार्थोंको प्रकाशित करता है उसी प्रकार साधु भी प्रारम्भमें ज्ञानरूप प्रकाशसे संयुक्त होकर स्व और परके स्वरूपको प्रकाशित करता है। यद्यपि इस समय उसके प्रकाश (ज्ञान) के साथ ही कुछ तपका तेज भी अवश्य रहता है, फिर भी उस आ. ८ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आत्मानुशासनम् .. [श्लो० १२१भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रभात्त्वरः । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वमत्कर्म (न् कर्म) कज्जलम् ॥ १२१॥ अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥ १२२॥ सन्नेतत्करोतीत्याह- भूत्वेत्यादि । दीपोपमो दीपसदृशो भूत्वा। एष ज्ञानाराधनाराधको धीमान् । भासयति शोभयति वा प्रकाशयति वा । प्रोद्वमन् प्रोत्सृजन्, निर्जरां कुर्वन्नित्यर्थः ॥ १२१॥ तथा ज्ञानाराधनाराधक: प्रवचनजनितविवेकपूर्वकं क्रमेण अशुद्धपरिणामं परित्यज्य शुद्धपरिणामम् आश्रित्य मुक्तो भवतीति निदर्शयन्नाह-- अशुभादित्यादि । अयमाराधनाराधको भव्यः । आगमात् आगमज्ञानात् । अशुभात् अतपश्चारित्रपरिणामात् । शुभं ताश्चारित्रपरिणामम् । मायातः आश्रितः । शुद्धः स्यात् सकलकर्ममलकलङ्कविकलो समय उसकी प्रधानता नहीं होती जिस प्रकार कि तापकी दीपकमें। परन्तु आगेकी अवस्थामें उसका वह प्रकाश (ज्ञान) सूर्यके प्रकाशके समान समस्त पदार्थोंका प्रकाशक हो जाता है। इस अवस्था में उसके जैसे प्रकाशकी प्रधानता होती है वैसे ही तेज (तपश्चरण) की. भी प्रधानता हो जाती है ॥ १२० ॥ वह बुद्धिमान् साधु दीपक के समान होकर ज्ञान और चारित्रसे प्रकाशमान होता है। तब वह कर्मरूप काजलको उगलता हुआ स्वके साथ परको प्रकाशित करता है। विशेषार्थ--जिस प्रकार दीपक प्रकाश और तेजसे युक्त होकर काजलको छोडता है और घट-पटादि पदार्थों को प्रगट करता है उसी प्रकार साधु भी ज्ञान और चारित्रसे दीप्त होकर कर्मको निर्जरा करता है तथा आत्म-परस्वरूपको जानता भी है ॥ १२१ ॥ यह आराधक भव्यजीव आगमज्ञानके प्रभावसे अशुभस्वरूप असंयम अवस्थासे शुभरूप संयम अवस्थाको प्राप्त हुआ समस्त कर्ममलसे रहित होकर शुद्ध हो जाता है । ठीक है- सूर्य जबतक सन्ध्या (प्रभातकाल) को नहीं प्राप्त होता है तबतक वह अन्धकारको नष्ट नहीं करता है ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्य प्रथमतः रात्रि अन्धकारसे निकलकर प्रभातकालको प्राप्त करता है और तब फिर कहीं वह अन्धकारसे रहित होता है, उसी प्रकार आराधक भी पहिले रात्रिगत अन्धकारके समान अशुभसे 1 प शोभयति प्रकाशयति । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपः श्रुतनिबन्धनरागोऽप्यभ्युदयाय विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥ १२३ ॥ -१२३] ११५ 1 भवेत् । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थं दृष्टान्तमाह- रवेरित्यादि । अयमर्यो - यथा आदित्यस्य अप्राप्तसंध्यस्य न प्राप्ता संध्या प्रभातं येन तस्य । तमसो न सनुद्गमः न निर्गमः । तथा आत्मनोऽपि अप्राप्तशुभपरिणामस्य कर्मतमसो न निर्गम: इति ।। १२२ ।। ननु ज्ञानाराधनापरिणतस्य तपः श्रुतविषयरागेन रागित्वात्कथं मुक्तत्वं स्यात् इत्याशङ्क्याह -- विधूततमसोरित्यादि । तमोऽज्ञानम् अन्धकारश्च विधूतं स्फेटितं तमो येन तस्य । रागः रक्तिमा अनुरागश्च । तपःश्रुतनिबन्धनः तपश्रुतविषयः । संध्याराग इवार्कस्य प्रभातरागो यथादित्यस्य । अभ्युदाय उदयनिमित्तं स्वर्गापवर्ग निमित्तं च ।। १२३ ।। एतद्विपरीते रागे द्वेषं दर्शयन्नाह-निकलकर प्रभातके समान शुभ ( सरागसंयम ) को प्राप्त करता है और तब फिर कहीं कर्म कलंकरूप अन्धकार से रहित होता है। अभिप्राय यह है कि प्राणीका आचरण पूर्वमें प्रायः असंयमप्रधान रहता है, तत्पश्चात् वह यथाशक्ति असंयममय प्रवृत्तिको छोडकर संयमके मार्ग में प्रवृत्त होता है यह हुई उसकी अशुभसे शुभमें प्रवृत्ति । यद्यपि कर्मबन्ध ( पराधीनता ) की अपेक्षा इन दोनोंमें कोई विशेष भेद नहीं है, फिर भी जहां अशुभसे पाप कर्मका बन्ध होता है वहां शुभसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है । इस प्रकारसे उसे शुद्ध होनेकी साधनसामग्री उपलब्ध होने लगती है, जो fa पापबन्ध के होनेपर असम्भव ही रहती है । उदाहरणके रूपमें जैसे प्रभात - काल में यद्यपि रात्रिगत अन्धकारकी सघनता नहीं होती है, फिर भी कुछ अंशमें तब भी अन्धकार रहता है, पूर्ण अन्धकारका विनाश तो दिन में ही हो पाता है । इस प्रकार वह शुभ में स्थित रहकर अन्तमें अपने शुद्ध स्वरूपको भी प्राप्त कर लेता है ॥ १२२ ॥ अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कर देनेवाले प्राणीके जो तप और शास्त्रविषयक अनुराग होता है वह सूर्यकी प्रभातकालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय ( अभिवृद्धि ) के लिये होता है । विशेषार्थ --- जिस प्रकार प्रभातकाल में उदित होनेवाले सूर्यकी लालिमा उसकी अभिवृद्धिका कारण होती है उसी प्रकार अज्ञानसे रहित हुए विवेकी जीक्का भी तप एवं श्रुतसे सम्बद्ध 1 प स ' विधूततमसोरित्यादि ' नास्ति । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आत्मानुशासनम् [श्लो० १२४विहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृस्य पुनस्तमः । रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥ १२४॥ विहायेत्यादि । विहाय परित्यज्य । व्याप्नं वस्तुप्रकाशने प्रसृतम् । आलोकं ज्ञानम् उद्योतं च । पुरस्कृत्य अग्रे कृत्वा स्वीकृत्य च । पातालतलम् अस्तं नरकं च । ऋच्छति गच्छति ॥१२४ ॥ एवं चतुर्विधाराधनायां प्रगुणमनसा प्रवर्तमानस्य मुमुक्षोर्मोक्षपदप्राप्तिअनुराग उसकी अभिवृद्धिका- स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्तिका-- कारण होता है। जो अनुराग हानि (दुर्गति) का कारण होता है वह अज्ञानीका ही होता है और वह भी विषयभोगविषयक अनुराग विवेकी (सम्यग्दृष्टि) जीवका वह तप आदिविषयक अनुराग कभी हानिका कारण नहीं हो सकता है ॥१२३॥ जिस प्रकार सूर्य फैले हुए प्रकाशको छोडकर और अन्धकारको आगे करके जब राग (लालिमा) को प्राप्त होता है तव वह पातालको जाता है-- अस्त हो जाता है, उसी प्रकार जो प्राणी वस्तुस्वरूपको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानरूप प्रकाशको छोडकर अज्ञानको स्वीकार करता हुआ राग (विषयवांछा) को प्राप्त होता है वह पातालतलको- नरकादि दुर्गतिको-- प्राप्त होता है ॥ विशेषार्थ---- सूर्य जिस प्रकार प्रभात समयमें लालिमाको धारण करता है उसी प्रकार वह सन्ध्या समयमें भी उक्त लालिमाको धारण करता है । परन्तु जहां प्रभातकालीन लालिमा उसके अभ्युदय (उदय या वृद्धि ) का कारण होती है वहां वह सन्ध्या समयकी लालिमा उसके अधःपतन (अस्तगमन) का कारण होती है । ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी अज्ञानको छोडकर तप एवं श्रुत आदिके विषयमें रागको प्राप्त होता है वह राग उसके अभ्युदय-स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्ति-- का कारण होता है, किन्तु जो प्राणी विवेकको नष्ट करके अज्ञानभावको प्राप्त होता हुआ विषयानुरागको धारण करता है वह अनुराग उसके अधःपतनका-- नरक-निगोदादिकी प्राप्तिका-- कारण होता है। इस प्रकार तपश्रुतानुराग और विषयानुराग इन दोनोंमें अनुरागरूपसे समानताके होनेपर भी महान् अन्तर है-- एक ऊर्ध्वगमनका कारण है और दूसरा अधोगमनका कारण है ॥ १२४ ॥ जिस यात्रा (गमन) में ज्ञान Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधाराधनातो मुक्तिनिश्चिता ज्ञानं यत्र पुरःसरं सहचरी लज्जा तपः संबलं चारित्रं शिबिका निवेशनभुवः स्वर्गा गुणा रक्षकाः - १२५ ] ११७ निरुपद्रवा भवतीति दर्शयन्नाह - ज्ञानमित्यादि । यत्र याने 1। ज्ञानं पुरस्सरं मार्गप्रदर्शक - न्तया अग्रेसरम् । ज्ञानस्य च दर्शनपूर्वकत्वाद्दर्शनमप्यग्रेस रं सामर्थ्य सिद्धम् । सहचरी सखी । 'निवेशनभुवः निवासस्थानानि । गुणा वीतरागत्वादमः । मथा मोक्षमार्गः रत्नत्रयात्मकः । / मार्गदर्शक है, लज्जा मित्रके समान सदा साथ में रहनेवाली है, तपरूप पाथेय (मार्ग में खाने योग्य भोजन) है, चारित्र शिविका (पालकी) है, निवेशस्थान ( पडाव ) स्वर्ग है, रक्षा करनेवाले वीतरागता आदि गुण हैं, मार्ग ( रत्नत्रयरूप ) सरल ( मन, वचन व कायकी कुटिलतासे रहित) एवं शान्तिरूप प्रचुर जलसे परिपूर्ण है, तथा छाया दयाभावना है; वह यात्रा उस मुनिको विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर अभीष्ट स्थानको प्राप्त कराती है || विशेषार्थ - जिस पथिकके पास सुपरिचित मार्गदर्शक हो, मित्र साथ में हो, नाश्ता पासमें हो, सवारी उत्तम हो, बीचमें ठहरनेका स्थान सुरक्षित हो, रक्षक साथमें हो; तथा मार्ग सरल (सीधा ), जलसे सहित एवं छायायुक्त सघन वृक्षोंसे व्याप्त हो; वह पथिक जिस प्रकार नव विघ्न-बाधाओं से रहित होकर निश्चित ही अपने अभीष्ट स्थानको पहुंच जाता है उसी प्रकार जिस मुक्ति पुरी के पथिकके पास ज्ञान मार्गदर्शक के समान है, पापवृत्ति से बचानेवाली लज्जा हितैषी मित्रके समान सदा साथमें रहनेवाली है, पाथेयका काम करनेवाला तप विद्यमान है, सवारीका काम करनेवाला चारित्र है, स्वर्ग पडावके समान हैं, उत्तम क्षमा आदि गुण राग-द्वेषादिरूप चारोंसे रक्षा करनेवाले हैं, तथा रत्नत्रय स्वरूप मार्ग सरल ( मन, वचन एवं कायकी कुटिलतासे रहित), शान्तिरूप जलसे परिपूर्ण एवं दयाभावनारूप छायासे सहित है; वह 1 ज स ज्ञाने । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आत्मानुशासनम् - श्लो० १२५ पन्थाश्च प्रगुणः शमाम्बुबहुलश्छाया दयाभावना यानं तं मुनिमापयेदभिमतं स्थानं विना विप्लवः ॥१२५॥ मिथ्या दृष्टिविषान् वदन्ति फणिनो दृष्टं तदा सुस्फुट यासामर्धविलोकनैरपि जगदंदाते सर्वतः । प्रगुण: प्राञ्जलः मनोवाक्कायकुटिलतारहितः । शमाम्बुबहुल: शम उपशमः स एव अम्बु पानीयं बहुलं प्रचुरं बहलं वा यत्र । एवंविधं यानं गमनं कर्तृ आपयेत् प्रापयेत् । तं चतुर्विधाराधनाराधकं मुनिम् । अभिमतं स्थानं मोक्षम् । विना विप्लवैः उपद्रवमन्तरेण ॥ १२५ ॥ के ते तद्याने विप्लवा इत्याशक्य पञ्चश्लोकैस्तद्विप्लवानाह-मिथ्येत्यादि । मिथ्या असत्यम् । दृष्टिविषान् दृष्टी विषं येषां तान् । दृष्टिविषत्वम् आसु स्त्रीषु । अर्धविलोकनैः कटाक्षः । मुक्तिका पथिक साधु सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होता हआ अवश्य ही अपने अभीष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। अभिप्राय यह है कि जो मुनि सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओंका आराधान करता है वह निःसन्देह मोक्षको प्राप्त करता है। प्रस्तुत श्लोकमें जिस प्रकार ज्ञान,तप और चारित्र इन तीन आराधनाओंका पृथक् पृथक् उल्लेख किया है वैसा सम्यग्दर्शन आराधनाका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है,किन्तु उसे ज्ञानाराधनाके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है । इसका कारण सम्यग्ज्ञानका उक्त सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाव है- उसका सम्यग्दर्शनके विना आविर्भूत नहीं होना है। इसीलिये उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया है ॥१२५॥ व्यवहारी जन जो सर्पोको दृष्टिविष कहते हैं वह असत्य हैं,क्योंकि,वह दृष्टिविषत्व तो उन स्त्रियोंमें स्पष्टतया देखा जाता है जिनके अर्धविलोकन रूप कटाक्षोंके द्वारा ही संसार (प्राणी) सब ओरसे अतिशय संतप्त होता है । हे साधो ! तू जो उनके विरुद्ध आचरण कर रहा है सो वे तेरे ही विषयमें अतिशय क्रोधको प्राप्त होकर इधर उधर घूम रही हैं । वे स्त्रीके रूपमें केवल विष ही हैं। इसीलिये तू उनका विषय न बन॥ विशेषार्थ-पूर्वके श्लोकमें यह बतलाया था कि जो 1 ज स मोक्षे । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२७] मोक्षमार्ग बाधका सामग्री तास्त्वय्येव विलोमवतिनि भृशं भ्राम्यन्ति बद्धक्रुधः स्त्रीरूपेण विषं हि केवलमतस्तद्गोचरं मा स्म गाः ॥१२६॥ क्रुद्धाः प्राणहरा भवन्ति भुजगा दष्ट्वैव काले क्वचित् तेषामौषधयश्च सन्ति बहवः सद्यो विषब्युच्छिदः । दंदह्यते अत्यर्थं संतप्यते । सर्वतः सर्वण प्रकारेण । विलोमवतिनि प्रतिकूल प्रतिनि । भ्राम्यन्ति भ्रमन्ति । बद्ध क्रुध: आबद्धकोपाः । तद्गोचरं स्त्रीविषयम् मा स्म गाः मा गच्छ ॥ १२६ ।। क्रुद्धा इत्यादि । दष्ट्वैव भक्षित्वा । काले क्वचित् कुलिकवेलायाम् । सद्य: झटिति । विष व्युच्छिद: विषविनाशिकाः । हन्युः मारयेयुः । पुरा अन्य जन्मनि । इह च अस्मिन् जन्मनि । सम्यग्दर्शनादि आराधनाओंका आराधान करता है उसे मुक्ति पदकी प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं उपस्थित हो सकती है । इसपर यह शंका हो सकती थी ऐसी कौन-सी वे बाधायें हैं जिनकी कि मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हुए साधु के लिये सम्भावना की जा सकती है ? इस शंकाके निराकरणस्वरूप ही यहां बतलाना चाहते हैं कि उक्त साधुके मार्गमें स्त्री आदिके द्वारा बाधा उपस्थित की जा सकती है, अतएव साधुज. नको उनकी ओरसे विमुख रहना चाहिये । कारण यह कि ये सर्पकी अपेक्षा भी अधिक कष्ट दे सकती हैं । लोकमें सर्पोको एक दृष्टिविष जाति प्रसिद्ध है । इस जातिका सर्प जिसकी ओर केवल नेत्रसे ही देखता है वह विषसे संतप्त हो जाता है । ग्रन्यकार कहते हैं कि उक्त जातिके सर्पोको दृष्टिविष न कहकर वास्तवमें उन स्त्रियोंको दृष्टिविष कहना चाहिये जिनकी कि अर्ध दृष्टिके (कटाक्षके) पडने मात्रसे ही प्राणी विषसे व्याप्त-कामसे संतप्त-हो उठता है। जो साधु उनकी ओरसे विरक्त रहना चाहता है उसे वे अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अनेक प्रकारको हाव-भाव एवं विलासादिरूप चेष्टाए करती हैं । इसलिये यहां यह प्रेरणा की गई है कि जो भव्य प्राणी अपना हित चाहते हैं वे ऐसी स्त्रियोंके समागमसे दूर रहें ॥१२६॥ सर्प तो किसी विशेष समयमें क्रोधित होते हुए केवल काटकर ही प्राणोंका नाश करते हैं, तथा वर्तमान में उनके विषको नष्ट करनेवाली Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आत्मानुशासनम् [ श्लो० १२७ हन्युः स्त्रीभुजगाः पुरेह च मुहुः क्रुद्धाः प्रसन्नास्तथा योगीन्द्रानपि तान् निरौषधविषा दृष्टाश्च दृष्ट्वापि च ॥ १२७॥ मुहुर्वारंवारम् क्रुधा(द्धाः)रुण्ठा: । प्रसन्नास्तुष्टाः । योगीन्द्रानपि योगिनां प्रधानानपि । तान् लोकप्रसिद्धान् रुद्रादीन् । निरौषधविषा औषधान्निष्क्रांतं । विषं यासाम् । दृष्टा योगीन्द्रैः दृष्ट्वा योगीन्द्रान् ॥ १२७ ॥ एतामित्यादि । अभिजनाय कुलीनजनैरा 1 बहुत-सी औषधियां भी हैं । परंतु स्त्रीरूप सर्प क्रोधित होकर तथा प्रसन्न हो करके भी उन प्रसिद्ध महर्षियों को भी इस लोक में और पर लोक में भी बार बार मार सकती हैं । वे जिसकी ओर देखें उसका तथा जो उनकी ओर देखता है उसका भी दोनोंका ही धात करती हैं तथा उनके विषको दूर करनेवाली कोई औषधि भी नहीं हैं ॥ विशेषार्थ. पूर्व श्लोक में स्त्रियोंको जो दृष्टिविष सर्पकी अपेक्षा भी अधिक दुखप्रद बतलाया है उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत श्लोकके द्वारा किया जा रहा है । यथा सर्प जब किसी के द्वारा बाधाको प्राप्त होता है तब ही वह क्रुद्ध होकर किसी विशेष काल और किसी विशेष देशमें ही काटता है तथा उसके विषको नष्ट करनेमें समर्थ ऐसी कितनी ही औषधियां भी पायी जाती हैं । फिर भी यदि वह अधिक से अधिक कष्ट दे सकता है तो केवल एक बार मरणका ही कष्ट दे सकता है | परंतु स्त्रियां जिसके ऊपर क्रुद्ध हो जाती हैं उसे तो वे विषप्रयोग आदिके उपायोंसे मारती ही हैं, किन्तु जिसके ऊपर वे प्रसन्न रहती हैं उसे भी मारती हैं- कामासक्त करके इस लोक में तो रुग्णता व बन्दीगृह आदिके कष्टको दिलाती हैं तथा परलोकमें नरकादि दुर्गतियोंके दुखके भोगनेमें निमित्त होती हैं । साधारण जनकी तो बात ही क्या है, किन्तु वे बडे बडे तपस्वियोंको भी भ्रष्ट कर देती हैं । इसके अतिरिक्त दृष्टिविष सर्प जिसकी ओर देखता है उसे ही वह विषसे संतप्त करता है, किन्तु वे स्त्रियां जिसकी ओर स्वयं दृष्टिपात ( कटाक्षपात ) करती 1 1 ज स ऊषधातिक्रान्तं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२८] मोक्षमार्गे बाधका सामग्री १२१ एतामुत्तमनायिकामभिजनावा जगत्प्रेयसी मुक्तिश्रीललनां गुणप्रणयिनीं गन्तुं तवेच्छा यदि । तां त्वं संस्कुर वर्जयान्यवनितावार्तामपि प्रस्फुट तस्यामेव रति तनुष्व नितरां प्रायेण सेाः स्त्रियः ॥१२८॥ वर्जनीयाम् । जगत्प्रेयसीं लोकस्य अतिशयेन प्रियाम् । मुक्तिश्रीललनां मोक्षलक्ष्मीमहिलाम्2 । गुणप्रणयिनी 3 गुणेषु प्रणय: स्नेहः सोऽस्या अस्तीति । संस्कुरु रत्नत्रयाद्युपायेन संभूषय । तनुष्व विस्तारय ।। १२८ ॥ वचनेत्यादि । हैं उसे कामसे संतप्त करती हैं और जिसकी ओर वे न भी देखें, पर जो उनकी ओर देखता है उसे भी वे कामसे संतप्त करती हैं । इसके अतिरिक्त सर्पके विषसे मूछित हुए प्राणीके विषको दूर करनेवाली औषधियां भी उपलब्ध हैं, पर स्त्रीविषसे मूर्छित (कामासक्त) प्राणीको उससे मुक्त करानेवाली कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार जब स्त्रियां सर्पसे भी अधिक दुख देनेवाली हैं तब आत्महितैषियोंको उनकी ओरसे विरक्त ही रहना चाहिये ।। १२७ ॥ हे भव्य ! जो यह मुक्तिरूप सुन्दर महिला उत्तम नायिका है, कुलीन जनोंको ही प्राप्त हो सकती है, विश्वकी प्रियतमा है, तथा गणोंसे प्रेम करनेवाली है; उसको प्राप्त करनेकी यदि तेरी इच्छा है तो तू उसको संस्कृत कर- रत्नत्रयरूप अलंकारोंसे विभूषित कर- और दूसरी (लोक प्रसिद्ध) स्त्रीकी बात भी न कर । केवल तू उसके विषयमें ही अतिशय अनुराग कर; क्योंकि, स्त्रियां प्रायः ईर्ष्यालु होती हैं । विशेषार्थ-- एक ओर लोकप्रसिद्ध स्त्री है और दूसरी ओर मुक्तिरूपी अपूर्व स्त्री है। इनमें लोकप्रसिद्ध स्त्री जहां कुलीन एवं अकुलीन सब ही जनोंको प्राप्त हो सकती है वहां मुक्ति ललना केवल कुलीन जनको ही प्राप्त हो सकती हैवह नीच एवं दुराचारी जनोंको दुर्लभ है । लौकिक स्त्री केवल कामी जनोंको ही प्यारी होती है, परन्तु मुक्ति-कान्ता समस्त विश्वको ही प्यारी । ज स सुतरां । 2 प मोहलक्ष्मीस्वीकरणीयां महिलां । 3 प 'गुणप्रणयिनी' इति नास्ति । 4 ज स सोऽस्यास्तीति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मात्मानुशासनम् [श्लो० १२९ वचनसलिलहासस्वच्छस्तरङ्गसुखोदरः वदनकमलर्बाह्ये रम्याः स्त्रियः सरसीसमाः। वचनान्येव सलिलानि तैः। हासस्वच्छैः निर्मलैः। तरङ्गसुखोदरः तरङ्गवदुत्पन्नभमुररूपाणि सुखानि तान्युदरे मध्ये येषां वचनस लिलानाम्, तेषां वा जनकानि उदराणि मध्यप्रदेशास्तैः । वदनकमलैः वदनान्येव कमलानि तैः । प्रास्तप्रज्ञाः प्रकर्षण अस्ता क्षिप्ता प्रज्ञा यैः। तटेऽपि सांनिध्यमाने (a )ऽपि । है । लौकिक स्त्री जहां केवल धन-सम्पत्ति आदिमें ही अनुराग रखती है वहां मुक्ति-सुन्दरी केवल उत्तमोत्तम गुणोंमें ही अनुराग रखती है। लौकिक स्त्रीसे यदि ऐहिक क्षणिक सुख प्राप्त होता है तो मुक्ति-रमणीसे पारलौकिक अविनश्वर सुख प्राप्त होता है। इस प्रकारसे इन दोनोंका स्वभाव सर्वथा भिन्न है । अतएव जो लौकिक स्त्रीको चाहता है उसे मुक्ति-वल्लभा दुर्लभ है तथा जो मुक्ति-वल्लभाको चाहता है उसे लौकिक स्त्रीसे मोह छोडना पडता है, कारण कि इसके विना वह प्राप्त हो ही नहीं सकती है। इसीलिये तो यह नीति प्रसिद्ध है कि स्त्रियां प्रायः करके अत्यन्त ईायुक्त होती हैं। ऐसी स्थितिमें जो भव्य मुक्ति-रमाको चाहता है उसे लौकिक स्त्रीकी चाह तो दूर रही, किन्तु उसे उसका नाम भी नहीं लेना चाहिये, इसके अतिरिक्त लौकिक स्त्रीको प्रसन्न करने के लिये जिस प्रकार उसे कटिसूत्र, केयूर एवं हार आदि अलंकारोंसे अलंकृत किया जाता है उसी प्रकार मुक्ति-कान्ताको प्रसन्न करनेके लिये उसे सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित करना चाहिये ॥ १२८ ॥ वे स्त्रियां सरसी (छोटा तालाब) के समान बाहिरसे ही रमणीय दिखती हैं- सरसी जिस प्रकार चंचल तरंगोंसे युक्त स्वच्छ जल एवं कमलोंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वे स्त्रियां भी तरंगोंके समान चंचल (अस्थिर) सुखको उत्पन्न करनेवाले हास्ययुक्त मनोहर वचनोंरूप जलसे तथा मुखरूप कमलोंसे रमणीय होती हैं । जिस प्रकार बहुत-से बुद्धिहीन (मूर्ख) प्राणी प्याससे दौडित होकर सरोवरपर जाते हैं और किनारेपर ही भयानक हिंस्र जलजन्तुओंके ग्रास बनकर- उनके द्वारा मरणको प्राप्त होकर-फिर नहीं निकल Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ -१३०] मोक्षमार्गे बाधका सामग्री इह हि बहवः प्रास्तप्रज्ञास्तटेऽपि पिपासवो विषयविषमग्राहग्रस्ताः पुनर्न समुद्गताः ॥ १२९ ॥ पापिष्ठर्जगतीविधीतमभितः प्रज्वाल्य रागानलं क्रुद्धरिन्द्रियलुब्धकर्मयपदैः संत्रासिताः सर्वतः । पिपासव: अनुभवितुमिच्छवः । विषयेत्यादि । विषया एव विषमग्राहो रौद्रजल वरः तेन ग्रस्ताः कवलिताः । न समुद्गता: न निर्गता ॥ १२९ ।। पापिष्ठैः पापरतैः । क्रुद्धः उत्कट: अपायहेतुभिर्वा । भयपदैः भयस्थानः। इन्द्रियलुब्धकैः इन्द्रियासक्तैः।। प्रज्वाल्य रागानलं राग एव अनल: अग्निः तम् । क्व । जगतीविधीतमभितः जगती जगत् सैव विधीतं विडम्बितम् । तस्मिन् इति पाते हैं उसी प्रकार बहुत-से अज्ञानी प्राणी भी विषयतृष्णासे व्याकुल होकर उन स्त्रियोंके पास पहुंचते हैं और हिंस्र जलजन्तुओंके समान अतिशय भयानक विषयोंसे ग्रस्त होकर-उनमें अतिशय आसक्त होकर-फिर नहीं निकलते अर्थात् नरकादि दुर्गतियोंमें पडकर फिर उत्तम मनुष्यादि पर्यायको नहीं पाते हैं ।। १२९ ॥ अतिशय पापी, क्रूर एवं भयको उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियोंरूप अहेरियों (शिकारियों) के द्वारा संसाररूप विधीत (मृग व सिंहादिके रहनेका स्थान) के चारों ओर रागरूप अग्निको जलाकर सब ओरसे पीडाको प्राप्त कराये गये ये मनुष्यरूप हिरण रक्षाकी इच्छास व्याकुल होकर स्त्रीके छलसे बनाये गये कामरूप व्याधराज (अहेरियोंका स्वामी) के घातस्थान (मरणस्थान) को प्राप्त होते हैं, यह खेदकी बात है ॥ विशेषार्थ--- दुष्ट अहेरी मृगादिकोंका घात करनेके लिये उनके निवासस्थानके चारों ओर आग जला देते हैं जिससे वे भयभीत होकर रक्षाकी दृष्टि से उस स्थानको प्राप्त होते हैं जो कि अहेरियोंके द्वारा उनका ही घात करने के लिये बनाया गया है। इस प्रकारसे वे वहां जाकर उनके द्वारा मारे जाते हैं । ठीक इसी प्रकारसे उन अहेरियोंके समान दुष्ट इन्द्रियां इस संसारमें प्राणियोंको विषयासक्त करनेके लिये उन विषयोंके प्रति रागको उत्पन्न कराती हैं, जिससे व्याकुल होकर वे प्राणी उन मृगोंके ही समान शान्ति 1ज इन्द्रियाशक्तः। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आत्मानुशासनम् [श्लो० १३०हन्तैते शरणैषिणो जनमृगाः स्त्रीछद्मना निर्मितं घातस्थानमुपाश्रयन्ति मदनव्याधाधिपस्याकुलाः ॥ १३०॥ अपत्रप तपोऽग्निना भयजुगुप्सयोरास्पदं शरीरमिदमर्धदग्धशववन्न किं पश्यसि । सप्तमीप्राप्ती अभिना योगे द्वितीया भवति । सर्वतश्चतुदिक्षु । हन्त अहो । जनमृगाः जना एव मृगाः । स्त्रोछद्मना स्त्रीव्याजेन । मदनव्याधाधिपस्य मदनः कामः स एव व्याधाधिप व्याधप्रधानः । आकुला व्याकुलचित्ताः ।। १३० ॥ एवं बाहयेषु विप्लवहेतुषु प्रवृत्ति प्रतिषेध्य अन्तरङगेषु तां प्रतिषेधयन्नाह-- अपत्रपेत्यादि । त्रपा लज्जा सा अपक्रान्ता नि:क्रान्ता यस्मादसी अपत्रपः, तस्य संबोधनं हे अपत्रप। जुगुप्सा निन्दा । आस्पदं स्थानम् । अर्धदग्धमृतकवत् । रतिम् आसक्तिम्, विषयेषु प्रवृत्तौ अन्तरङ्गहेतुम् । ननु अहो न भीषयसि प्राप्त करनेकी इच्छासे उस स्त्रीरूप घातस्थानको प्राप्त होते हैं जो मानों उनके नष्ट-भ्रष्ट करनेके लिये ही बनाया गया है। अभिप्राय यह है जिस प्रकार हिरण अज्ञानतासे अपना ही वध करानेके लिये शिकारियों द्वारा निर्मित वधस्थानमें जा फंसते हैं उसी प्रकार ये अविवेकी प्राणी भी विषयतृष्णाके वशीभूत होकर उसको शान्त करनेकी इच्छासे स्त्रीका आश्रय लेते हैं । परन्तु होता है उससे विपरीत-- जिस विषयतृष्णाको वे शान्त करना चाहते थे वह स्त्रीका आश्रय पाकर उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धिको ही प्राप्त होती है । परिणाम यह होता है कि इस प्रकार विषयविमूढ होकर प्राणी धर्माचरणको भूल जाता है और पापका संचय करता है जिससे कि वह दुर्गतिमें पडकर अनेक दुःखोंको भोगता है ॥ १३० ॥ हे निर्लज्ज ! यह तेरा शरीर तपरूप अग्निसे अधजले शव (मृत शरीर) के समान भय और घृणाका स्थान बन रहा है । क्या तू उसे नहीं देखता है? फिर तू उत्सुक होकर व्यर्थमें क्यों स्त्रियोंके विषयमें अनुरागको प्राप्त होता है। ऐसे शरीरको धारण करता हुआ तू उन स्त्रियोंके लिये भयको न उत्पन्न कराता हो सो बात नहीं है, किन्तु उन्हें निश्चयसे भयको प्राप्त कराता ही है । संसारमें स्त्रियां स्वभावसे ही कातर होती हैं । वे तेरे भयानक शरीरको देखकर स्पष्टतया भयभीत होती हैं। विशेषार्थ--जो Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३२] स्त्रीशरीरस्वरूपम् १२५ वृथा व्रजसि कि रति ननु न भीषयस्यातुरो निसर्गतरलाः स्त्रियस्त्वदिह ताः स्फुटं बिभ्यति ॥१३१॥ उत्तुङगसंगतकुचाचलदुर्गदूरमाराद्वलित्रयसरिद्विषमावतारम् । रोमावलीकुसृतिमार्गमनङगमूढाः कान्ताकटीविवरमेत्य न केऽत्र खिन्नाः ॥१३२॥ न भयं नयति । अपि तु भीषयस्येव । आतुरः अत्युत्सकः । निसर्गतरलाः स्वभावेन कातराः । त्वदिह इह लोके त्वत्तो विकरालमूत: सकाशात् । विभ्यति भयं गच्छन्ति ।।१३१।। यत्र च स्थाने त्वं रति करोषि तदीदृशमिति दर्शयन् उत्त (तु) ङगेत्यादि श्लोकत्रयमाह--उत्तुङगो उन्नतरै संयती स्थूलतया परस्परसंलग्नौ तौ च तो कुचौ च तो एव अचलदुर्ग: मिरिदुर्गः तेच दूरं दुःप्राप्यम् । आरात् समीपे । वलीत्यादि--वलिवयमेव सरितस्ताभिविषमो दुःकर्मोपार्जनहेतुतया दुःखदो अवतारः प्रवृत्तिर्यत्र । रोमेत्यादि-रोमावल्येव कुसृतिमार्गो अपाय--- भव्य जीव सब इन्द्रियविषयोंको छोडकर मनिधर्मको स्वीकार करता है और तपश्चरणमें प्रवृत्त हो जाता है वह यदि तत्पश्चात् स्त्रियोंके विषयमें अनुरक्त होता है तो यह उसके लिये लज्जाको बात है । ऐसे ही साधुके लक्ष्यमें रखकर यहां यह कहा गया है कि हे निर्लज्ज ! तेरा यह शरीर तपके कारण मलिन एवं बीभत्स हो गया है । तू जिन स्त्रियोंको चाहता है वे तेरे इस घृणित शरीरको देखकर इस प्रकारसे भयभीत होगी जिस प्रकार कि मनुष्य अधजले 'मृतशरीर (मुर्दा) को देखकर भयभीत होते हैं । ऐसी अवस्थामें यह तू ही बता कि जैसे तू उन स्त्रियोंको चाहता है वैसे ही क्या वे भी तुझे चाहेगी या नहीं ? चाहना तो दूर ही रहा, किन्तु वे तुझे देखकर भयसे दूर ही भागेगीं। फिर भला तू उनके विषयमें अनुरक्त होकर व्यर्थ में अपने आपको क्यों दुर्गतिमें डालता है ? यह तेरे लिये उचित नहीं है ॥१३१॥ जो स्त्रीकी योनि ऊंचे एवं परस्पर मिले हुए स्तनोंरूप पर्वतीय दुर्गसे दुर्गम है, पास ही उदरमें स्थित त्रिवलीरूप नदियोंसे जहां पहुंचना भयप्रद है, तथा जो रोमपंक्तिरूप इधर उधर Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् - [इलो० १३३ब!गृहं विषयिणां मदनायुधस्य नाडीव्रणं विषमनिर्वृतिपर्वतस्य । प्रच्छन्नपादुकमनङगमहाहिरन्ध्रमाहुर्बुधाः जघनरन्ध्रमदः सुदत्याः॥१३३॥ प्रधुरः दण्डोलकरूपः पन्थाः । अनङमूढाः अनङगेन कामेन मूढा विवेकपराङ्मुखाः । खिन्ना अर्थ: प्राणैः खिन्ना: ॥ १३२॥ व!गृहमित्यादि विषमा येन तेन असाध्या, सा चासो निर्वृत्तिश्च पर्वतश्च मोक्षपर्वतस्य (श्च) । प्रच्छन्नपादुकं तिरोहितपातगर्तरूपं रन्ध्रम् । अद: एतत् । सुदत्या: स्त्रिया: शोभना दन्ता यस्याः असो सुदती तम्याः सुदत्याः स्त्रियाः ।। १३३ ।। भटकानेवाले मार्गसे संयुक्त हैं; ऐसी उस स्त्रीको योनिको पाकर कौन-से कामान्ध प्राणी यहां खेदको नहीं प्राप्त हुए हैं ? अर्थात् वे सभी दुखको प्राप्त हुए हैं ॥ विशेषार्थ-जिस स्थानका मार्ग ऊंचे पर्वतोंसे दुर्गम हो, जिसके मध्यमें नदियां पडती हों, तथा जो भयानक वनसे व्याप्त हो,ऐसे मार्गमें उस स्थानको जानेवाले प्राणी जैसे अतिशय खेदको प्राप्त होते हैं वैसे ही पर्वत जैसे उन्नत स्तनोंसे सहित, त्रिवलीप नदियोंसे वेष्टित और रोमपंक्तिरूप वनराजिसे व्या-त उस योनिस्थानको प्राप्त करनेवाले कामीजन भी इस लोकमें खेदको (आकुलताको) प्राप्त होते हैं तथा इस प्रकारसे पापका संचय करके वे परलोकमें भी दुखो होते है ।।१३२॥ सुन्दर दांतोंवाली स्त्रोका यह जो जांघोंके बोचमें स्थित छिद्र है उसे पण्डित जन कामी पुरुषोंके मल (वीर्य) का घर, कामदेवके शस्त्रका नाडीव्रण अर्थात् नसके ऊपर (उत्पन्न हुआ)घाव, दुर्गम मोक्षरूप पर्वतका ढका हुआ गड्ढा तथा कामरूप महासर्पका छिद्र (बांवी)बतलाते हैं । विशेषार्थ-कामी जन स्त्रीके जिस योनिस्थानमें क्रीडा करते हुए आनन्दका अनुभव करते हैं वह कितना घृणास्पद और अनर्थका कारण है, इसका यहां विचार करते हुए यह बतलाया है कि वह योनिस्थान पुरीषालय (संडास) के समान है-जैसे मनुष्य पुरीषालयमें मल-मूत्रका क्षेपण करते हैं वैसे ही कामी जन इसमें घृणित वीर्यका क्षेपण करते है। फिर भी आश्चर्य है कि जो विषयी जन पुरीषालयमें जाते हुए तो Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३३ ] स्वोशरीरस्वरूपम् १२७ कष्टका अनुभव करते हैं, किन्तु उसमें क्रीडा करते हुए वे कष्टके स्थान में आनन्दका अनुभव करते हैं । वह योनिस्थान क्या है - जिस प्रकार शत्रु बाण आदि किसी शस्त्र के प्रहारसे घावको उत्पन्न करता है उसी प्रकार कामरूप शत्रुने अपने बाणको मारकर मानो वह घाव ही उत्पन्न कर दिया है फिर भी खुद इस बातका है कि जो लोग शरीरमें थोडा-सा भी घाव उत्पन्न होने पर दुःखी होते हैं वे ही इस घावको आनंददायक मानते हैंइसमें उन्हें किसी प्रकार दुःख नहीं होता । जिस प्रकार किसी ऊंचे विषम (ऊंचा-नीचा) पर्वत के उपान्तमें गहरा गड्ढा हो और वह भी घास एवं पत्तों आदिसे आच्छादित हो तो उसके ऊपर चढनेवाला मनुष्य उक्त गड्ढेको न देख सकने के कारण उसमें गिर जाता है और वहीं पर मरणको प्राप्त होता है । ठीक उसी प्रकार से वह योनिस्थान भी मोझरून उन्नत पर्वतपर चढ़नेवालोंके लिये उस पर्वत के गड्ढेके ही समान है जिसमें कि पडकर वे फिर निकल नहीं पाते - कामासक्त होकर विषयोंमें रमते हुए दुर्गतिके पात्र बनते हैं । इसके अतिरिक्त जिस प्रकार सर्पकी बांवी प्राणीको दुःखदायक होती है उसी प्रकार स्त्रीका वह योनिस्थान भी कामी जनोंके लिये दुःखका देनेवाला है। इसका कारण यह है जिस प्रकार बांवी में हाथ डालनेवाले प्राणियोंको उसके भीतर स्थित सर्प काट लेता है, जिससे कि वह मरणको प्राप्त करता है, उसी प्रकार उस योनिस्थान में क्रीडा करनेवालोंको वह कामरूप सर्प काट लेता है, जिससे कि वे भी हिताहितके विवेकसे रहित होकर विषयों में आसक्त होते हुए मरणको प्राप्त होते हैं- अपनेको दुःख में डालते हैं । इसलिये जो पधिक सावधान होते हैं वे चूंकि मार्गको भले प्रकार देख-भाल करके ही पर्वतके ऊपर चढते हैं इसीलिये जैसे वे अभीष्ट स्थान में चा पहुंचते हैं वैसे ही जो विवेकी जीव हैं वे भी उस गड्ढेसे बचकर विषयभोगसे रहित होकर अपने अभीष्ट मोक्षरूप पर्वतपर चढ जाते हैं ।। १३३ || दूसरे मनुष्य तपके Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ [ श्लो १३४ आत्मानुशासनम् अध्यास्यापि तपोवनं बत परे नारीकटीकोटरे ब्याकृष्टा विषयैः पतन्ति करिणः कूटावपाते यथा । प्रोचे प्रीतिकरों जनस्थ जननीं प्राग्जन्मभूमि च यो व्यक्तं तस्य दुरात्मनो दुरुदितैर्मन्ये जगद्वञ्चितम् ॥१३४॥ कण्ठस्थः कालकूटोऽपि शम्भोः किमपि नाकरोत् । सोऽपि दह्यते स्त्रीभिः स्त्रियो हि विषमं विषम् ॥१३५॥ ; अध्यायादि । अध्यास्य आश्रित्य तपोवनमपि तपसो निमित्तं वनम् अटकी } तपसां वा वनं संघातः । परे मुनयः । व्याकृष्टाः विशेषेण आकृष्टाः । कूटावपाते प्रच्छन्नपादुके । प्रोचे प्रतिपादितवान् प्रीतिकरीं जनस्य जननीं प्राक् - युवावस्थायाः पूर्व पश्चा ( ? ), जन्मभूमि च योनि प्रीतिकरीम्, 'जननी जन्मभूमि च प्राप्य को. न सुखायते इत्याभिधानात् । एवंविधैः दुरुदितैः दुर्गतिहेतुवचनैः । विषे मृतबुद्धया प्रवर्तको वञ्चकः || १३४|| स्त्रियश्च महात्मनामपि संतापादिदु:खहेतुत्वान्महद्विषमित्याह -- कण्ठस्थ इत्यादि । शम्भोर्महेश्वरस्प । किमपि संतापादिकम् । नाकरोत् न कृतवान् । विषमम् । अचिकित्स्यम् ||१३५ ।। एवंविधे निमित्त वनका आश्रय ले करके भी इन्द्रिय विषयोंके द्वारा खीचे जाकर स्त्री योनिस्थान में इस प्रकार से गिरते हैं जिस प्रकार कि हाथी अपने पकडनेके लिये बनाये गये गड्ढे में गिरते हैं । जो योनिस्थान प्राणी के जन्मकी भूमि होने से माता के समान है उसे जो दुष्ट कवि प्रीतिका कारण बतलाते हैं वे स्पष्टतया अपने दुष्ट वचनोंके द्वारा विश्वको ठगाते हैं ।। १३४ ।। जिस महादेवके कण्ठमें स्थित हो करके भी विषने उसका कुछ भी अहित नहीं किया वही महादेव स्त्रियोंके द्वारा संतप्त किया जाता है । ठीक है - स्त्रियां भयानक विष हैं ।॥ विशेषार्थ -- कहा जाता है कि देवोंने जब समुद्रका मंथन किया था तो उन्हें उसमें से पहिले विष प्राप्त हुआ था और उसका पान महादेवने किया था। उक्त विष के पी लेनेपर भी जिस महादेवको विषजनित कोई वेदना नहीं हुई थी वही महादेव पार्वती आदि स्त्रियोंके द्वारा काम से संतप्त करके पीडित किया जाता है । इससे यह निश्चित होता है कि लोग जिस विषको दुःखदायक मानते हैं वह 1 न स विषं । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३६] स्त्र्यनुरागेऽविवेकः कारणम् तव युवतिशरीरे सर्वदोषेकपात्रे रतिरमृतमयूखाद्यर्यसाधर्म्यतश्चेत् । स्त्रीशरीरे चन्द्रादिधर्मारोपात् प्राणिनामासक्तिरसत्केत्याह- तवेत्यादि । एकपात्रे एकम् असाधारणम् । पात्रं भाजनम् । अमृतेत्यादि-- अमृततुल्यमयूखाः किरणा यस्य वा अमृतमयूखश्चन्द्रः स आदिर्येषां पद्मादीनां ते च ते अर्थाश्च ते (तेषां) साधर्म्यतः । मुखस्य हि चन्द्रेण साधर्म्यम् , चक्षुषोः पद्मपत्रः, केशानां भ्रमरैः, दन्तानां हीरकैः, इत्याद्यथैः सादृश्यात् । शुचिषु निर्मलेषु पवित्रेषु वा । शुभेषु वास्तव में उतना दुःखदायक नहीं है- उससे अधिक दुःख देनेवालीं तो स्त्रियां हैं । अतएव उन स्त्रियोंको ही विषम विष समझना चाहिये। कारण कि उपर्युक्त विषकी तो चिकित्सा भी की जा सकती है, किन्तु स्त्रीरूप विषकी चिकित्सा नहीं की जा सकती है ।। १३५ ॥ हे भव्य ! सब दोषोंके अद्वितीय स्थानभूत स्त्रीके शरीरमें यदि चन्द्र आदि पदार्थोंके साधर्म्य (समानता) से तेरा अनुराग है तो फिर निर्मल और उत्तम इन्हीं (चन्द्रादि) पदार्थों के विषयमें अनुराग करना श्रेष्ठ है। परन्तु कामरूप मद्यके मद (नशा) से अन्वे हुए प्राणीमें प्रायः वह विवेक ही कहां होता है ? अर्थात् उसमें वह विवेक ही नहीं होता है । विशेषार्थ---- स्त्रीका शरीर अतिशय निन्द्य एवं अनेक दोषोंका स्थान है। फिर भी कविजन उसके मुखको चन्द्रकी, नेत्रोंको कमलकी, दांतोंको हीरेकी, तथा स्तनोंको अमृतकलशों आदिकी उपमा देते हैं जिससे कि बेचारे भोले प्राणी उसके निन्द्य शरीरको सुन्दर मानकर उसमें अनुराग करते हैं। वे यह नहीं समझते कि जिन चन्द्रादिकी समानता बतलाकर स्त्रीके शरीरको सुन्दर बतलाया जाता है वास्तव में तो वे ही सुन्दर कहलाये, अतः उनमें ही अनुराग करना उत्तम है, न कि उस घृणित स्त्रीके शरीरमें । परन्तु क्या किया जाय ? जिस प्रकार मद्यपान करनेवाले मनुष्यको उन्मत्त हो जानेके कारण कुछ भी भले बुरेका ज्ञान नहीं रहता है उसी प्रकार कामसे उन्मत्त हुए प्राणियोंको भी अपने बा. ९ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मात्मानुशासनम् [श्लो० १३६ननु शुचिषु शुभेषु प्रीतिरेष्वेव साध्वी मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ॥ १३६ ॥ प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ल्हादते । प्रशस्तेषु । एष्वेव अमृतमयूखाद्यर्थेषु । साध्वी शोभना प्रीतिः । मदनमधुमदान्धे मदन एव मधु मद्यं तेन मदान्धे । प्रायश: बाहुल्येन । को विवेक: न कोऽपि ॥ १३६ ॥ मनःपूर्विका च स्त्रोशरोरे रति पुंपाम्, तेन च नपुंसकेन कथं तेषामभिभवो युक्त: इत्याह--प्रियामित्यादि स्वयं प्रियामनुभवत् सत् कातरम् अधीरं भवति । केवलं परम् एकाकी वा। परेषु चक्षुरादिषु प्राण्यन्तरेषु विषयिषु अनुभवत्सु । तां प्रियाम् । ल्हादते उल्लासं गच्छति । नपुंसकं त्वितिनपुंसकमिति पुनः न शब्दतः न केवलं शब्दतो नपुंसकम् अर्थतश्च वाच्यापेक्षयापि । हिताहितका विवेक नहीं रहता है । इसलिये वे मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण स्त्रीके उस निन्द्य शरीरमें तो अनुराग करते हैं, किन्तु उन व्रत-संयमादिमें अनुराग नहीं करते जो कि उन्हें संसारके दुःखसे उद्धार करानेवाले हैं ।। १३६ ॥ जो मन प्रियाका अनुभव करते हुए केवल अधीर होता हैउसे भोग नहीं सकता है, तथा जो दूसरे विषयी जनोंको--इन्द्रियोंको.. उसका भोग करते हुए देखकर भले प्रकार आनन्दित होता है, वह मन तो शब्दसे और अर्यसे भी निश्चयतः नपुंसक है । फिर इस नपुंसक मनके द्वारा जो सुधी (उत्तम बुद्धिका स्वामी) शब्द और अर्थ दोनों ही प्रकारसे पुरुष है वह कैसे जीता जाता है ? अर्थात् नहीं जीता जाना चाहिये था ॥ विशेषार्थ-- जो लोग यह कहा करते हैं कि मन अतिशय बलिष्ठ है, उसकी प्रेरणासे ही प्राणियोंकी प्रवृत्ति विषयभोगादिमे होती है। उन्हें यह समझना चाहिये कि वह मन जिस प्रकार शब्दकी दृष्टिसे- व्याकरणकी अपेक्षा- नपुंसक (नपुंसकलिंग) है उसी प्रकार वह अर्थसे भी नपुंसक है। कारण यह कि लोकमें नपुंसक वही गिना जाता है जो कि पुरुषार्थमें असमर्थ होता है । सो वह मन ऐसा ही है, क्योंकि जिस प्रकार नपुंसक स्त्रीके भोगनेकी अभिलाषा रखता हुआ भी इन्द्रियकी विकलतासे उसे Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३८] नपुंसकेन मनसा पुमान् जीयते मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः सुधीः कथमनेन सन्नुमयथा पुमान् जीयते ॥ १३७ ॥ राज्यं सौजन्ययुक्तं श्रुतवदुस्तपः पूज्यमत्रापि यस्मात् त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन् न लघुर तिलघुः स्यात्तपः प्रोह्य राज्यम् । १३१ सुधीः सुविवेकी । उभयया च शब्दतोऽर्थतश्च । पुमान् सन् अनेन उभयथा नपुंसकेन मनसा कथं जीयते ।। १३७ ।। तस्मान्मनोऽभिभूय सुविवेकिना सम्यक्तप: कर्तव्यम्, तत्कुर्वतः परमपूज्यतो पत्तेरित्याह-- राज्यमित्यादि । सौजन्ययुक्तं दुष्ट निग्रहशिष्ट पाळनोपेतम् । श्रुतवदुरुतपः आगमज्ञानपूर्वकं महातपः अत्रापि स्वयं तो भोग नहीं सकता है, परन्तु दूसरे जनों को भोगते हुए देख-सुनकर वह आनन्दित अवश्य होता है; उसी प्रकार वह मन भी स्त्रीके भोगके लिये व्याकुल तो होता है, पर भोग सकता नहीं है, भोगती वे स्पर्शनादि इन्द्रिया हैं जिन्हें कि भोगते हुए देखकर वह प्रसन्न होता है । इस प्रकार वह मन शब्द और अर्थ दोनोंसे ही नपुंसक सिद्ध है । अब जरा पुरुषकी भी अवस्थाको देखिये- वह शब्द और अर्थं दोनोंसे ही पुरुष है । वह शब्दसे पुरुष ( पुल्लिंग) है, यह तो व्याकरणसे सिद्ध ही है । साथ ही वह अर्थसे भी पुरुष है । कारण यह कि वह सुधी है-विवेकी है - इसलिये जब वह अपने स्वरूपको समझ लेता है, तब लौकिक साधारण स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, वह तो मुक्ति - रमणीके भी भोगने में समर्थ होता है । अतएव यह समझना भूल है कि मन पुरुषके ऊपर प्रभाव डालता है । वस्तुस्थिति तो यह है कि पुरुष ही उसे अपने नियन्त्रण में रखता है । अभिप्राय यह हुआ कि जो पुरुष कहला करके भी यदि अपने मन के ऊपर नियन्त्रण नहीं रख सकता है तो वह वास्तवमें पुरुष कहलाने के योग्य नहीं है ॥ १३७ ॥ सुजनता ( न्याय-नीति ) से सहित राज्य और शास्त्रज्ञान से सहित महान् तप, दोनो यहां पूज्य हैं । परन्तु इन दोनोंमें भी चूंकि राज्यको छोडकर तपश्चरण करनेवाला मनुष्य लघु नहीं रहता - महान् हो जाता है, और इसके विपरीत तपको छोडकर राज्य Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ आत्मानुशासनम् [श्लो० १३८राज्यात्तस्मात्प्रपूज्यं तप इति मनसालोच्य धीमानुदग्रं कुर्यादार्यः समग्रं प्रभवभयहरं सत्तपः पापभीरुः ॥ १३८॥ पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि । पश्चात्पादोऽपि नास्पाक्षीत् किं न कुर्याद् गुणक्षतिः ॥ १३९ ॥ अनयोरपि राज्यतपसोमध्ये । प्रोहय त्यक्त्वा। राज्यं कुर्वन् । उदग्रं महत् । समग्रं बाह्यम् आभ्यन्तरं च । प्रभवभयहरं संसारभयस्फेटकम् ॥ १३८ ।। तपोलक्षणगुणक्षतेलघुत्वं भवतीति अमुमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राहपुरेत्यादि । अम्लानता-सुगन्धतालक्षणगुणक्षते: पूर्वम् । विबुधैरपि देवैरपि । पश्चात् गुणक्षतेरुत्तरकालम् । नास्पाक्षीत् न स्पृष्टवान् ॥ १३९ ।। करनेवाला मनुष्य अतिलघु- अतिशय निन्द्य-- माना जाता है; इसीलिये राज्यकी अपेक्षा तप अतिशय पूज्य है। इस प्रकार मनसे विचार करके जो बुद्धिमान् मनुष्य पापसे डरता है उसे, जो तप संसारके भयको नष्ट करनेवाला एवं महान् है उस समीचीन सम्पूर्ण तपको करना चाहिये ।।१३८॥ जिन पुष्पोंको पहिले देव भी शिरपर धारण करते हैं उनको पीछे पांव भी नहीं छूता है। ठीक ही है-- गुणकी हानि क्या नहीं करती है ? अर्थात् वह सब कुछ अनर्थ करती है ॥ विशेषार्थ---- पूर्व श्लोकमें यह बतलाया था कि जो साधु तपको छोडकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगता है वह अतिलघु- अतिशय निन्दांका पात्र-- बन जाता है । इसी बातको पुष्ट करनेके लिये यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार जबतक फूल मुरझाते नहीं और अपनी सुगन्धिको नहीं छोडते हैं तबतक उन्हें देव भी शिरपर धारण करते हैं, किन्तु वे ही जब मरझाकर सुगन्धिसे रहित हो जाते हैं तब उन्हें कोई पांवसे भी नहीं छूता है । ठीक इसी प्रकारसे जबतक साधु तप-संयम आदिमें स्थित रहता है तबतक साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, किन्तु महान देव भी उसकी पूजा करते हैं । परन्तु पीछे यदि वही तपसे भ्रष्ट होकर विषयोंमें प्रवृत्त हो जाता है तो फिर उसको कोई भी नहीं पूछता है- सभी उसकी निन्दा करते हैं । अभिप्राय यह है कि पूजा-प्रतिष्ठाका कारण गुण हैं, न कि बाह्य धन-सम्पत्ति आदि ॥ १३९ ॥ हे चन्द्र ! तू मलिनतारूप दोषसे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचुरगुणेषु दोषलेशोऽपि निन्द्यः हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एवं नाभूः । कि ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ॥१४०॥ - १४० ] १३३ प्रचुरेष्वपि गुणेषु दोषत्वलेशस्यापि अवस्थानं न श्रेष्ठम् । तदवस्थाने वा तन्मयतै ब श्रेष्ठेत्यन्योक्त्या दर्शयन्नाह--- हे चन्द्रम इत्यादि । लाञ्छनवान् लाञ्छत मलिनतादोषः तद्युक्तः अभूः संजातः । तद्वान् लाञ्छनवान् । तन्मय एव । किं ज्योत्स्नया पदार्थप्रकाशरूपतया । न किमपि तया तव प्रयोजनम् । किं कुर्वत्या । घोषयन्त्या । किम् । मलं काञ्छनरूपं मलिनताम् । अलम् अत्यर्थेन । कस्य । तव 1 तथा सति तन्मयत्वे सति । मासि लक्ष्य: न भवसि कस्यचिदपि ग्राह्यः । किंवत् । स्वर्भानुवत् राहुवत् || १४०|| विद्यमाने दोषे सहित क्यों हुआ ? यदि तुझे मलिनतासे सहित ही होना था तो फिर पूर्णरूपसे उस मलिनतास्वरूप ही क्यों नहीं हुआ ? तेरी उस मलिनताको अतिशय प्रगट करनेवाली चांदनीसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं । यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होता तो वैसी अवस्थामें राहुके समान देखने में तो नहीं आता || विशेषार्थ - यहां चन्द्रको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुकी निन्दा की गई है जो कि साधुके वेषमें रहकर उसको (साधुत्वको ) मलिन करता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमें आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुणोंके होनेपर भी उसमें जो थोडी-सी कालिमा दृष्टिगोचर होती है वह उसके अन्य गुणों की प्रतिष्ठा नहीं होने देती है । इतना ही नहीं, बल्कि वह उस थोडे-से दोष के कारण कलङ्की कहा जाता है ! यदि वह कदाचित् राहुके समान पूर्णरूपसे काला होता तो फिर उसकी ओर किसीका ध्यान भी नहीं जाता। उसकी इस मलिनताको प्रगट करनेवाली उसकी ही वह निर्मल चांदनी है । ठीक इसी प्रकारसे जो साधु व्रत-संयमादिक पालन करते हुए भी यदि उस सावुत्व को मलिन करनेवाले किसी दोषसे संयुक्त होता है तो फिर वह उक्त चन्द्रमाके समान कलंकी (निन्द्य) हो जाता है । इससे ती यदि कहीं वह Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आत्मानुशासनम् [ श्लो० १४१ दोषान् कांश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं साधं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात्करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरु गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लधूंश्च स्फुटं ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥ १४१ ॥ प्रकाशकप्रच्छादकयोर्दुर्जनाचार्ययोः उपकारकापकारत्वाभ्याम् आराध्यानाराध्यत्वे दर्शयन्नाह--- दोषानित्यादि । तान् चारित्राद्य तिचाररूपान् । प्रवर्तकतय अविवेकतया । प्रच्छाद्य अप्रकाश्य । गच्छति प्रवर्तते । अयं गुरुः । सार्धं सह । तैः दोषः । न गुरु: गुरु: आचार्य: न गुरु: आराध्यः । लघुरच लघूनपि दोषान् । गुरुतरान् अतिशयेन महतः कृत्वा । सद्गुरुः शोभनगुरुः परदया ( ? ) दोष विशुद्धिहेतुत्वात् ॥ १४१ ॥ ननुः शिष्यस्य चिन्ता (त्ता) प्रसत्तिप्रति -- गृहस्थ होता तो अच्छा था वैसी अवस्थामें उसकी ओर किसीकी दृष्टि भी नहीं जाती । कारण इसका यह है कि बहुत से गुणोंके होनेपर यदि कोई दोष होता है वह लोगों की दृष्टिमें अवश्य आ जाता है । जैसे कि यदि किसी स्वच्छ कपडेपर कहीं से काला धब्वा पड जाता है तो वह अवश्य ही देखने में आ जाता है, किन्तु वैसा ही धब्बा यदि किसी मलिन वस्त्रपर पड जाता है तो न तो प्रातः वह देखने में ही आता है और न कोई उसके ऊपर किसी प्रकारकी टीका-टिप्पणी भी करता है । तात्पर्य यह है कि साधुको अपने निर्मल मुनिधर्मको सुरक्षित रखनेके लिये छोटे-से भी छोटे दोष से बचना चाहिये, अन्यथा उसे इस लोकमें निन्दा और परलोक में दुर्गतिका पात्र बनना ही पडेगा ।। १४० ।। यदि यह गुरु शिष्यके उन किन्हीं दोषोंको प्रवृत्ति कराने की इच्छासे अथवा अज्ञानता से आच्छादित करके - प्रकाशित न करके-चलता है और इस बीच में यदि वह शिष्य उक्त दोषोंके साथ मरणको प्राप्त हो जाता है तो फिर यह गुरु पोछे क्या कर सकता है ? कुछ भी उसका भला नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में वह शिष्य विचार करता है कि मेरे दोषों को आच्छादित करनेवाला वह गुरु वास्तव में मेरा गुरु ( हितैषी आचार्य) नहीं है । किन्तु जो दुष्ट मेरे क्षुद्र भी दोषोंको निरन्तर सूक्ष्मतासे देख करके Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४२] कठोरा अपि गुरूक्तयः प्रमोदजनकाः विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः ।। रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥१४२॥ षेधार्थम् आचार्या दोषं प्रच्छाद्य गच्छन्तीत्याशङक्याह-- विकाशयन्तीत्यादि । मन एव मुकुलं बोण्डिका तत् । विकाशयन्ति प्रल्हादयन्ति प्रबोधयन्ति वा का: । गुरूक्तयः गुरुवचनानि । किविशिष्टाः कठोराश्च विषयप्रवृत्तिनिषेधोपवासप्रायश्चित्तादिविधायकत्वेन कठोरा कर्कशा अपि के इव और उन्हें अतिशय महान् बना करके स्पष्टतासे कहता है वह यह दुष्ट ही मेरा समीचीन गुरु है । विशेषार्थ-गुरु वास्तव में वह होता है जो कि शिष्यके दोषोंको दूर करके उसे उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित करता है। इस कार्यमें यदि उसे कुछ कठोरताका भी व्यवहार करना पडे, जो कि उस समय शिष्यको प्रतिकूल भी दिखता हो तो भी उसे इसको चिन्ता नहीं करना चाहिये । कारण कि ऐसा करने से उस शिष्य का भविष्य कल्याण ही होनेवाला है। परंतु इसके विपरीत जो गुरु शिष्यका दोषोंको देखता हुला भी यह सोचता है कि यदि अभी इन दोनोंको दूर कराने का प्रयत्न करूंगा तो शायद वह अभी उन्हें दूर न कर सके या क्रुद्र होकर संघसे अलग हो जावे, ऐसी अवस्थामें संघकी प्रवृत्ति नहीं चल सकेगी; इसी विचारसे जो उसके दोषोंको प्रकाशमें नही लाता है वह गुरु वास्त. वमें गुरु पदके योग्य नहीं है। कारण यह कि मृत्युका समय कुछ निश्चित नहीं है, ऐसी भवस्थामें यदि इस बीच में उन दोषोंके रहते हुए शिष्यका मरण हो गया तो वह दुर्गतिमें जाकर दुःखी होगा। इसीलिये ऐसे गुरुकी अपेक्षा उस दुष्टको ही अच्छा बतलाया है जो कि भले ही दुष्ट अभि-- प्रायसे भी दूसरेके सूक्ष्म भी दोषोंको बढ़ा-चढाकर प्रगट करता है । कारण यह कि ऐसा करनेसे जो आत्महितका अभिलाषी है वह उन दोषोंको दूर करके आत्मकल्याण कर लेता है ॥१४१॥ कठोर भी गुरुके वचन भव्य जीवके मनको इस प्रकारले प्रफुल्लित (आनन्दित) करते हैं जिस प्रकार कि सूर्यको कठोर (सन्तापजनक) भी किरणें कमलकी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् .. - [इलो० १४२ कस्य । रवेरिव अंशव: किरणाः कठोराश्च विकाशयन्ति । अरविन्दस्य पदस्य मुकुलम् ।।१४२॥ तथाभूतोक्तिभिश्च धर्म प्रतिपादयितुं प्रतिपत्तुं च सांप्रतं प्रविरलाः कलीको प्रफुल्लित किया करती हैं। विशेषार्थ- पूर्व श्लोक शिष्यके दोषोंको प्रगट न करनेवाले जिस गुरुकी निन्दा की गई है उसके विषयम यह शंका उपस्थित हो सकती थी कि वह जो अपने शिष्यके दोषोंको प्रगट नहीं करता है वह इस कारणसे कि शिष्य किसी प्रकारको चिंतामें न पडे या ऐसा करनेसे उसे किसी प्रकारका कष्ट न हो । अतएव वह गुरु निन्द्य नहीं कहा जा सकता है । इस शंकाके उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सूर्यको किरणें अन्य प्राणियोंके लिये यद्यपि कठोर (संतापकारक) प्रतीत होती हैं तो भी उनसे कमलकलिका तो प्रफुल्लित ही होती है। इसी प्रकार जो शिष्य आत्म हितसे विमुख हैं उन्हें ही गुरुके हितकारक भी वचन कठोर प्रतीत होते हैं, किन्तु जो शिष्य आत्महितको अभिलाषा रखते हैं उनको तत्क्षग कठोर प्रतीत होनेवाले भी वे वचन परिणाममें आनन्दजनक ही प्रतीत होते हैं-उन्हें इन कठोर वचनोंसे किसी प्रकारको चिन्ता व खेद नहीं होता है। इसके अतिरिक्त यह नीति भी तो प्रसिद्ध है कि “ हितं मनोहारि च दुर्लभं वच:"। इस नीतिके अनुसार छद्मस्थ प्राणियोंके जो वचन परिणाममें हितकारक होते हैं वे प्रायः मनोहर नहीं प्रतीत होते हैं और जो ववन बाह्य में मनोहर प्रतीत होते हैं वे परिणाममें हितकारक नहीं होते हैं । अतएव शिष्यके हितको चाहनेवाले गुरुको उसे योग्य मार्गपर ले जानेके लिये यदि कदाचित् कठोर व्यवहार भी करना पडे तो दयाचित्त होकर उसे भी करना ही चाहिये । इस प्रकारसे वह अपने कर्तव्यसे च्युत नहीं होता है-- उसका पालन ही करता है ॥ १४२ ॥ पूर्व कालमें जिस धर्मके आचरणसे इस लोक और परलोक दोनों ही लोकोमें हित होता है उस धर्मका व्याख्यान Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४४] दोषोद्भावनं मतिमतां प्रीतये भवति १३७ लोकद्वयहितं वक्तुं श्रोतुं च सुलभाः पुरा । दुर्लभाः कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः॥१४३॥ गुणागुणविवेकिर्मिविहितमप्यलं दूषणं भवेत् सदुपदेशवन्मतिमतामतिप्रीतये । कृतं किमपि धाष्टर्यतः स्तवनमप्यतीर्थोषितैः न तोषयति तन्मनांसि खलु कष्टमझानता ॥ १४४ ॥ प्राणिनाः इत्याह-- लोकेत्यादि । लोकद्वयहितं इहलोकपरलोकोपकारकम् । अद्यत्वे इदानींतनकाले ॥ १४३ ॥ ननु लोकद्वयहितं ब्रुवाणः परेषां दोषान् प्रतिपाद्य ततो व्यावृत्ति: कारयितव्या तथाचानिष्टप्रसंगान किंचित्सन्मार्गे प्रवर्तते इत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह- गुणेत्यादि । विहितम् उद्भावितम् । दूषणमपि किंचित् । धाष्टर्यतः धृष्टत्वमवलम्ब्य । अतीर्थोषितैः आगमानभिज्ञैः। तन्मनांसि मतिमतां मनांसि ॥१४४ ॥ उद्भाविते च दूषणे दोषदर्शनात्यागो गुणदर्शनाच्योपादानं प्रज्ञावतां। कर्तव्यमित्याह-- त्यक्तेत्यादि । गुणदोषदर्शनलक्षणा करनेके लिये तथा उसे सुनने के लिये भी बहुतसे जन सरलतासे उपलब्ध होते थे, परन्तु तदनुकूल आचरण करनेके लिये उस समय भी बहुत जन दुर्लभ ही थे। किन्तु वर्तमानमें तो उक्त धर्मका व्याख्यान करनेके लिये और सुननेके लिये भी मनुष्य दुर्लभ हैं, फिर उसका आचरण करनेवाले तो दूर ही रहे ॥ १४३ ॥ जो गुण और दोषका विचार करनेवाले सज्जन हैं वे यदि कदाचित् किसी दोषको भी अतिशय प्रगट करते हैं तो वह बुद्धिमान् मनुष्योंके लिये उत्तम उपदेशके समान अत्यन्त प्रीतिका कारण होता है। परन्तु जो आगमज्ञानसे रहित हैं ऐसे अविवेकी जनोंके द्वारा यदि धृष्टतासे कुछ प्रशंसा भी की जाती है तो वह उन बुद्धिमान् मनुष्योंके मनको सन्तुष्ट नहीं करती है। निश्चयसे वह अज्ञानता ही दुःखदायक है ॥ १४४ ॥ जो अन्य कारणोंको अपेक्षा न करके केवल गुणके कारण किसी वस्तु (सम्यग्दनादि) को ग्रहण करता है और दोष के कारण उसका (मिथ्यात्व 1 ज स प्रेक्षवतां । . - - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आत्मानुशासनम् [श्लो० १४५त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ गुणदोषनिबन्धनौ। यस्यादानपरित्यागौ स एव विदुषां वरः ॥ १४५ ॥ हितं हित्वाऽहिते स्थित्वा दुर्छार्दुखायसे भृशम् । विपर्यये तयोरेधि त्वं सुखायिष्यसे सुधीः ॥ १४६ ॥ इमे दोषास्तेषां प्रभवनभमीभ्यो नियमतः गुणाश्चते तेषामपि भवनमेतेभ्य इति यः । खेतोः अन्यो हेतुर्हेत्वन्तरं रागद्वेषादि, त्यक्ता हेत्वन्तरे अपेक्षा ययोस्तो त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ। गुणदोषनिबन्धनौ गुणा: सुगतिसुखहेतुत्वादिः, दोषो दुर्गतिदुःखहेतुत्वादिः । आदानपरित्यागौ आदानं सम्यदर्शनादे:, परित्यागो मिथ्यादर्शनादेः ।।१४५।। विपक्षे दूषणमाह-- हितमित्यादि । हितं सम्यग्दर्शनादि । हित्वा त्यक्त्वा । अहिते मिथ्यादर्शनादौ स्थित्वा । दुर्थी: विपर्यस्तबुद्धिः । दु:खायसे दुःखमात्मन: करोषि । विपर्यय तयोरेधि एधि भव । क्व । तयोविपर्यये हिताहितयोः स्थानपरित्यागौ । सुखायिष्यसे सुखम् आत्मनः करिष्यसि ॥ १४६ ।। हिते स्थानम् अहिते त्यागश्च गुणदोषयोः सहेतुकयो: ज्ञातयोरेवं आदिका)परित्याग करता है वही विद्वानोंमें श्रेष्ठ गिना जाता है ॥१४५।। हे भव्य ! तू दुर्बुद्धि (अज्ञानी) होकर जो सम्यग्दर्शन आदि तेरा हित करनेवाले हैं उनको तो छोडता है और जो मिथ्यादर्शनादि तेरा अहित करनेवाले हैं उनमें स्थित होता है । इस प्रकारसे तू अपने आपको दुःखी करता है । तू विवेकी होकर इससे विपरीत प्रवृत्ति कर, अर्थात् अहितकारक मिथ्यादर्शनादिको छोडकर हितकारक सम्यग्दर्शनादिको ग्रहण कर । इस प्रकारसे तू अपनेको सुखी करेगा ॥ १४६ ॥ ये (मिथ्यादर्शन आदि) दोष हैं और इनकी उत्पत्ति नियमतः इनसे (दर्शनमोहनीय आदिसे) होती है, तथा ये (सम्यग्दर्शनादि) गुण हैं और उनकी भी उत्पत्ति इनसे (दर्शनमोहनीयके उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिसे) होती है, ऐसा निश्चय करके जो छोडने योग्य कारणोंको छोडता है और हितके कारणोंको स्वीकार करता है वह विद्वान् है, वही सम्यक्चारित्रसे सम्पन्न है, और 1 ज स सुगतिः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४७] गुण-दोषपरिज्ञाने हिताहितप्रवृत्ति-निवृत्ती १३९ त्यजस्त्याज्यान हेतून् झटिति हितहेतून् प्रतिभजन् स विद्वान् सवृत्तः स हि स हि निधिः सौख्ययशसोः ॥ १४७ ॥ भवतीति दर्शयन्नाह -- इमे इत्यादि । इमे प्रतीयमाना मिथ्यावर्शनादयो, रागादयश्च । तेषां मिथ्यादर्शनादीनां प्रभवनम् उत्पत्तिः । अमीभ्यो दर्शनमोहादिभ्यो मिथ्योपदेशादिभ्यश्च विषयेभ्यश्च! वा चारित्रमोहादिभ्यश्च । नियमतः अवश्यंभावेन । गुणा: सम्यग्दर्शनादयो वीतरागत्वादयश्च । एते प्रतीयमानाः । तेषामपि गुणानामपि । भवनम् उत्पत्तिः । एतेभ्यो दर्शनमोहक्षयोपशमादिभ्य: निसर्गाधिगमादिभ्यश्च चारित्रमोहक्षयोपशमादिभ्यश्च परिग्रहपरित्यागादिभ्यश्च । त्याज्यान् हेतून् दोषजनकान् । हितहेतून् गुणजनकान् । प्रतिभजन स्वीकुर्वन् ॥१४७॥ विवेकिना हिताहितयोवृद्धिनाशौ कर्तव्यो, ततोऽन्यत्र वृद्धिनाशयोः वही सुख एवं कोर्तिका घर भी है ॥ विशेषार्थ-- जिसे गुण और दोषके विषयमें विवेक उत्पन्न हो चुका है उसे यह निश्चय हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि गुण हैं, क्योंकि वे आत्माका कल्याण करनेवाले हैं; तथा इनके विपरीत मिथ्यादर्शन आदि दोष हैं, क्योंकि वे आत्माका अहित करनेवाले हैं। कहा भी है- न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।। अर्थात् तीनों काल और तीनों लोकोंमें सम्यक्त्वके समान दूसरा कोई प्राणियोंका हितकारक नहीं है और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई अहितकारक नहीं है । र. श्रा. ३४. इस प्रकार गुण-दोषोंका निश्चय हो जानेपर जो दोषोंके कारणोंको- मिथ्या उपदेश एवं विषयकांक्षा आदिको-खोजकर उन्हें छोड देता है और गुणोंके कारणोंको- सदुपदेश एवं विषयतृष्णानिवृत्ति आदिको-- खोजकर उन्हें ग्रहण कर लेता है वह मोक्षमार्गका पथिक हो जाता है। कारण यह कि उसे जो विवेकपूर्वक गुण-दोषका परिज्ञान हुआ है वह तो हुआ सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान; तथा गुणके कारणोंका ग्रहण और दोषके कारणोंका परित्याग यह हुआ सम्यक्चारित्र; इस प्रकारसे वह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर शीघ्र ही अविनश्वर सुखको प्राप्त कर लेता है ॥ १४७ ॥ पूर्व जन्ममें संचित किये गये पुण्य और पाप कर्मके 1 ज · विषयेभ्यश्च ' इति नास्ति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आत्मानुशासनम् साधारण सकलजन्तुषु बुद्धिनाशौ जन्मान्तराजितशुभाशुभकर्मयोगात् । धीमान् स यः सुगतिसाधनवृद्धिनाशः तद्वचत्ययाद्विगतधीरपरोऽभ्यधायि ॥ १४८ ॥ [ श्लो० १४८ सकलप्राणिसाधारणत्वात् इत्याह-- साधारणावित्यादि । साधारणौ सकलजन्तुषु विद्यमानौ । आयु: शरीर-संपदादीनां वृद्धिनाशौ । कस्मात् । जन्मान्तराजितशुभाशुभकर्मयोगात् पूर्वभवोपार्जितपुण्य-पापसद्भावात् । सुगतीत्यादि । सुगतेर्मुक्ते : माधने सिद्धौ वृद्धिनाशौ यस्य । वृद्धि: सम्यग्दर्शनादीनाम्, नाशो मिथ्याज्ञानादीनाम् । तद्वधत्ययात् दुर्गतिसाधनवृद्धिनाशात् । अभ्यधायि प्रतिपादितः ॥ १४८ ॥ ये च सुगतिसाधनवृद्धिकरास्ते प्रविरला इति उदयसे जो आयु, शरीर एवं धन-सम्पत्ति आदिकी वृद्धि और उनका नाश होता है वे दोनों तो समस्त प्राणियों में हीं समानरूपसे पाये जाते हैं । परन्तु जो सुगति अर्थात् मोक्षको सिद्ध करनेवाले वृद्धि एवं नाशको अपनाता है वह बुद्धिमान्, तथा दूसरा इनकी विपरीततासे - दुर्गति के साधनभूत वृद्धि-नाशको अपनाने से - निर्बुद्धि ( मूर्ख) कहा जाता है ॥ विशेषार्थ ---- लोकमें जिसके पास धन-सम्पत्ति आदिकी वृद्धि होती है। वह बुद्धिमान् तथा जिसके पास उसका अभाव होता है वह मूर्ख माना जाता है । परन्तु यथार्थ में यह अज्ञानता है, क्योंकि धन-सम्पत्ति आदिको वृद्धिका कारण बुद्धि नहीं है, बल्कि प्राणी के पूर्वोपार्जित पुण्यका उदय ही उसका कारण है । इसी प्रकार उक्त सम्पत्तिके नाशका कारण भी मूर्खता नहीं है, बल्कि प्राणी के पूर्वोपार्जित पापका उदय ही उसका कारण है । बुद्धिमान् तो वास्तवमें उसे समझना चाहिये कि जो समीचीन सुख (मोक्ष) के साधनभूत सम्यग्दर्शनादिको बढाता है तथा उसमें बाधा पहुंचानेवाले मिथ्यादर्शनादिको नष्ट करता है । और जो इसके विपरीत आचरण करता है-- नरकादि दुर्गतिके साधनभूत मिथ्यादर्शनादिको बढाता है तथा उसको रोकनेवाले सम्यग्दर्शनादिको नष्ट करता है - उसे वास्तवमें मूर्ख समझना चाहिये ॥ १४८ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुचरिताः साधवः प्रविरलाः कलो दण्डो नोतिः स च नृपतिमिस्ते नृपतयो नयन्त्ययं तं न च धनमदोऽस्त्याश्रमवताम् । दर्शयन्नाह-कलावित्यादि । अर्थार्थम् अर्थनिमित्तम् । तं दण्डम् । नयन्ति कुर्वन्ति । अदः एतद्दण्डहेतुभूतं धनम् । अस्ति न व आश्रमवतां यतीनाम् । तपःस्थेषु मध्ये तपस्विषु इस कलिकालमें (पंचम कालमें) एक दण्ड ही नीति है, सो वह दण्ड राजाओंके द्वारा दिया जाता है । वे राजा उस दण्डको धनका कारण बनाते हैं और वह धन वनवासी साधुओंके पास होता नहीं है । इधर वन्दना आदिमें अनुराग रखनेवाले आचार्य नम्रीभूत शिष्य साधुओंको सन्मार्गपर चला नहीं सकते हैं । ऐसी अवस्थामै तपस्वियोंके मध्यमें समुचित साधुधर्मका परिपालन करनेवाले शोभायमान मणियोंके समान अतिशय विरल हो गये हैं-बहुत थोडे रह गये हैं ॥ विशेषार्थ-वर्तमानमें जो जीवोंकी सन्मार्ग में कुछ प्रवृत्ति देखी जाती है, वह प्रायः दण्डके भयसे ही देखी जाती है। परंतु वह दण्ड राजाके आश्रित है-वह जिनसे धनादिका लाभ देखता है उन्हें दण्डित करता है। इससे यद्यपि साधा. रण जनतामें कुछ सदाचारकी प्रवृत्ति हो सकती है, तथापि उस दण्डके भयसे साधुजनोंमें उसकी सम्भावना नहीं की जा सकती है। कारण यह है कि साधुओंके पास धन तो रहता नहीं है जिससे कि राजा उनकी मोर दृष्टिपात करे । दूसरे, धर्मनीतिके अनुसार यह कार्य राजाके अधिकारका है भी नहीं । ऐसी अवस्था उक्त साधुओंको यदि सन्मार्गम प्रवृत्त करा सकते हैं तो उनके आचार्य ही. करा सकते हैं । परंतु वे भाचार्य वर्तमानमें आत्मप्रतिष्ठाके इच्छुक अधिक हैं,इससे वे शिष्यों को यथेच्छ प्रवृत्तिको देख करके भी उन्हें दण्ड नहीं देते हैं । इसका कारण यह है कि दण्ड देते हुए उन्हें यह भय रहता है कि यदि दण्ड देनेसे वे शिष्य असंतुष्ट हो गये तो फिर मुझे प्रणाम आदि न करेंगे । इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि वे मेरे संघसे पृथक् हो जाय । ऐसी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १४९ नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधुचरिताः तपास्येषु श्रीमन्मणय इव जाताः प्रविरलाः ॥१४९॥ एते ते मुनिमानिनः कवलिताः कान्ताकटाक्षेक्षण रङगालम्नशरावसन्नहरिणप्रख्या भ्रमन्त्याकुलाः । मध्ये ॥१४९।। ये चाचार्गणामनुक्नता: स्वेच्छाचारिणस्तैः सह सांगत्यं न कर्तव्यमित्याह--- एते इत्यादि । कविलता: ग्रस्ताः । कटाक्षेक्षणैः कटाक्षः ईक्षणानि अवलोकितानि ते: । अङगेत्यादि- अङग आलग्गः च असौ शरश्च बाणस्तेन अवसन्नः पीडित: स चासो हरिणश्च तेन प्रख्याः सदृशाः । आकुला: विक्षिप्तचित्ताः। संघर्तुं व्यवस्थापयितुम् । विषयेत्यादिविषया एव अटव्याः स्थलम् उच्चैः प्रदेशः, तस्य तले उपरितनभागे स्वान् आत्मनः । मरु-- अवस्थामें मेरे इस आचार्य पदकी क्या प्रतिष्ठा रहेगी? बस इसी भयसेवे उन्हें दण्ड देनेमें असमर्थ हो जाते हैं । परिणाम इसका यह होता है कि उनकी उच्छृखल प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढती ही जाती है और इस प्रकारसे मुनिव्रतोंको उत्तम रीतिसे परिपालन करनेवाले विरले ही दिखने लगे हैं। यह साधुओंको दुरवस्था ग्रन्थकार श्री गुण भद्राचार्यके भी समयमें हो चुकी थी। इसीलिये उन्होंने यहां यह स्पष्ट संकेत किया है कि प्रतिष्ठा लोलुपी आचार्योंका अपने संघोंपर सघुचित शासन न रह सकनेसे समीचीन साधुधर्मका आवरण करनेवाले साधु कान्तिमान् मणियोंके समान बहुत ही थोडे रह गये हैं ॥१४९॥ ये जो अपनेको मुनि माननेवाले साधु हैं वे स्त्रियोंके कटाक्षपूर्ण अवलोकनोंके ग्रास बनकर शरीरमें लगे हुए बाणोंसे खेदको प्राप्त हुए हरिणोंके समान व्याकुल होकर परिभ्रमण करते हैं । परन्तु खेद है कि वे विषयल्प वनस्थलीके मध्यमें अपनेको कहींपर भी स्थिर रखनेके लिये समर्थ नहीं होते हैं । हे भव्य! तू वायुसे साडित हुए मेघोंके समान अस्थिरताको प्राप्त हुए इन साधुओंको संगतिको प्राप्त नहो॥विशेषार्थ-जिस प्रकार अहेरीके द्वारा मारे गये बाणोंसे भ्यथित हुए हिरण इधर ऊधार वनमें भागते हैं परन्तु कहीं भी अपनेको यस ये चार्याणां । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याञ्चानिषेधः संघतुं विषयाटवीस्थलतले स्वान् क्वाप्यहो न क्षमाः व्राजन्मरुदाहता चपलैः संसर्गमेभिर्भवान् ॥ १५०॥ -२५१] गेहं गुहाः परिदधासि दिशो विहायः संव्यानमिष्टमशनं 2 तपसोऽभिवृद्धिः । १४३ दित्यादि - मरुता वायुना आहतं च तदभ्रं च तद्वत् चपलैः अप्रतिज्ञातव्रतैः च अस्थिरैः । एभि: शिथिलचारित्रः पुरुषः ॥ १५० ॥ एतैश्च सह संसर्गेस् अगच्छन्नेवंविधां सामग्री प्राप्य याञ्चारहितस्तिष्ठेति शिक्षां प्रयच्छन्नाह - गेहमित्यादि । विहाय : आकाशम् । स्थिर नहीं रख पाते हैं उसी प्रकार मुनिधार्मसे भ्रष्ट होकर भी अपने को मुनि माननेवाले जो साधु स्त्रियोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन से पीडित होकर विषय - वनमें विचरण करते हुए कहींपर भी स्थिर नहीं रहते हैं, किन्तु एकसे दूसरे और दूसरे से तीसरे आदि विषयोंकी सदा अभिलाषा रखकर संतप्त होते हैं, वे मुनि ऐसे अस्थिरचित्त हैं जैसे कि वायु प्रेरित होकर बादल अस्थिर होते । ऐसे साधुओंके संसर्गमें रहकर कोई भी प्राणी आत्महित नहीं कर सकता है । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो भव्य जीव अपना हित करना चाहते हैं उन्हें ऐसे भ्रष्ट साधुओं से दूर ही रहना चाहिये ॥ १५० ॥ हे आगमके रहस्य के जानकार साधु ! तेरे लिये गुफायें ही घर हैं, दिशायें एवं आकाश ही तेरा वस्त्र है उसे तू पहिन, तपकी वृद्धि ही तेरा इष्ट भोजन है, तथा स्त्रीके स्थानमें तू सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे अनुराग कर । इस प्रकार तुझे याचनाके योग्य कुछ भी नहीं है । अतएव तू वृथा ही याचनाजनित दीनताको न प्राप्त हो । विशेषार्थ - याचना करनेसे स्वाभिमान नष्ट होकर मनुष्य में दीनता उत्पन्न होती है । इसीलिये यहां साधुको याचनासे रहित होनेकी प्रेरणा करते हुए यह बतलाया है कि जिन पदार्थों की दूसरोंसे याचना की जाती है वे मु (जै., नि.) गुहा । 2 मु (जं., नि.) संयान० । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ [ क्लो० १५१ आत्मानुशासनम् प्राप्तागमार्थं तव सन्ति गुणा: कलत्रमत्रार्थ्यवृत्तिरसि यासि वृथैव याञ्चाम् ॥ १५१ ॥ परमाणोः परं नाल्पं नभसो न महत्परम् । इति ब्रुवन् किमद्राक्षीनेनौ दीनाभिमानिनौ ॥ १५२ ॥ संव्यानम् उत्तरीयं वस्त्रम् । हे प्राप्तागमार्थ । अनावृत्तिः न विद्यते प्रार्थी प्रार्थनीये वृत्तिरस्येति अत्रावृत्तिः । असि भवसि त्वम् ।। १५१ ।। अनेन प्रकारेण यो हिमाञ्चां करोति स लघुर्यस्तु न करोति सोऽतिगुरुरिति दर्शयन्नाह - परमाणोरित्यादि । तेरे पास स्वाभाविक हैं । यथा - मनुष्य दूसरोंसे अर्थ (धन) की याचना करता है, सो तेरे लिये आगमका अर्थ (रहस्य) प्राप्त है ही । यह उस लौकिक छानसे अधिक कल्याणकारी है । इसके अतिरिक्त तुझे रहने के लिये गुफायें विद्यमान हैं, अतएव घरकी याचना करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । दिशायें ही तेरे लिये वस्त्र हैं। लौकिक वस्त्र तो चिन्ताका कारण है, अतएव उसको छोडकर दिगम्बर रह और निश्चिन्त होकर तपकी वृद्धि कर | यह तपकी वृद्धि तेरे अभीष्ट भोजनका काम करेगी । स्त्री के स्थान में तेरे पास उत्तमक्षमा आदि गुण विद्यमान हैं, तू इनसे अधिक से अधिक अनुराग कर। इस प्रकार तेरे पास सब आवश्यक सामग्री विद्यमान है, अतएव दीन बनकर व्यर्थ में किसीसे याचना मत कर । याचना करनेसे मनुष्य श्रीहीन होकर निर्लज्ज बन जाता है, उसकी बुद्धि और धैर्य नष्ट हो जाता है, तथा अपयत बढता है । किसी ने यह ठीक कहा है - देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्चदेवताः । मुखान्निर्गत्य गच्छन्ति श्री ही धी- धृति कीर्तयः ॥ अर्थात् ' देहि (मुझे कुछ दो ) ' इस वचनको सुनकर शोभा, लज्जा, बुद्धि, धैर्य और कीर्ति ये शरीररूप भवनमें रहनेवाले पांच देवता 'देहि' इस वचन के साथ ही मुखसे निकल कर चले जाते हैं । अतएव ऐसी याचनाका परित्याग करना ही योग्य है ।। १५१ ।। परमाणुसे दूसरा कोई छोटा नहीं है और आकाशसे दूसरा कोई बडा नहीं है, ऐसा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ १४५ -१५३] याञ्चतो गौरवहानिः याचितुगौरवं दातुर्मन्ये संक्रान्तमन्यया । तदवस्थौ कथं स्यातामेतो गुरुलघू तदा ॥१५३॥ इति एवम् अल्पबहुत्वे नियम ब्रुवन् । किम् अद्रासीत् दृष्टवान् न इमो दीनाभिमानिनौ। परमाणोहि परं नाल्पम् इत्युक्तं (इत्ययुक्तं) दीनस्य याचिः ततोऽप्यतिलघुत्वसंभवात् । तथा नमसो न परं महत् इत्यप्यसन् , अभिमानिनोऽयाचकस्य ततोऽप्यतिमहत्त्वसंमवात् ॥,१५२॥ ननु याचितुः गौरवं क्व गतं येनाल्पत्वं तस्य स्यात् इत्याह-याचितुरित्यादि । तदवस्थौ सा याचनदानलक्षणावस्था ययोः ॥ १५३ ॥ तदा याचनदानकाले ग्रहीतुर्दानुश्व कहलानेवाले क्या इन दीन और अभिमानी मनुष्योंको नहीं देखा है ?॥ विशेषार्थ-- लोकमें सबसे छोटा परमाणु समझा जाता है। परन्तु विचार करें तो याचकको उस परमाणुसे भी छोटा (तुच्छ)समझना चाहिये। कारण यह कि याचना करनेसे उसके सब ही उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं । वह दीन बनकर सबके मुंहकी ओर देखता है, परन्तु उसको ओर कोई दृष्टिपात भी नहीं करता। इस प्रकार उसकी सब प्रतिष्ठा जाती रहती है । इसके विपरीत आकाशले कोई बड़ा नहीं माना जाता है । परन्तु यथार्यमें देखा जाय तो जो स्वाभिमानी दूसरेसे यावना नहीं करता है उसे इस आकाशसे भी बडा (महान्) सनझना चाहिये । इस अधावक वृतिमें उसके सब गुग सुरक्षित रहते हैं । स्वाभिमानी संकटमें पडकर भी उस दुख को साहसपूर्वक सहता है, किन्तु कभी किसोसे यावना नहीं करता। अभिप्राय यह कि याचनाको वृत्ति मनुष्यको अतिशय हीन बनानेवाली है ॥ १५२ ॥ यावक पुरुषका गौरव दाताके पास चला जाता है, ऐसा मैं मानता हूं। यदि ऐसा न होता तो फिर उस समय देनेरूप अवस्थासे संयुक्त दाता तो गुरु (महान्) और ग्रहण करनेरूप अवस्यासे संयुक्त याचक लत्रु (क्षुद्र) कैसे दिखता? अर्थात् ऐसे नहीं दिखने चाहिये थे। विशेषार्य-- जिस समय याचक किसी दाताके यहां पहुंचकर उससे कुछ याचना करता है और तदनुसार वह दाता उसे कुछ देता भी है उस समय उन दोनों के मा. १० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आत्मानुशासनम् ..... [ श्लो० १५४अधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्ध्वमजिघृक्षवः।। इति स्पष्टं वदन्तौ वा नामोन्नामौ तुलान्तयोः ॥ १५४॥ तस्वमाशासते सर्वे न स्वं तत्सर्वपि यत् । अर्थिवमुख्यसंपादिसस्वत्वानिःस्वता वरम् ॥ १५५ ॥ गतिविशेषं दर्शयन्नाह-- अध इत्यादि । जिघृक्षवः अतृप्तचित्ततया गृहीतुमिच्छ वो याचकाः । अजिवृक्षवः त्यागिनः दातारः । वदन्तौ (वा) वदन्तौ इव ।। १५४ ।। याचकानां वाञ्छितार्थासंपादकादैश्वर्यादारिद्रघं सुन्दरमिति दर्शयन्नाह-- मुखपर अलग अलग भाव अंकित दिखते हैं। उस समय जहां याचकके मुखपर दीनता, संकोच एवं कृतज्ञताका भाव दृष्टिगोचर होता है वहां दाताके मुखपर प्रफुल्लता एवं अभिमानका भाव स्पष्टतया देखनेमें आता है। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उस समय मानों याचकका आत्मगौरव उसके पाससे निकलकर दाताके पास ही चला जाता है। तभी तो उन दोनोंमें यह विषमता देखो जाती है, अन्यथा इसके पूर्वमें तो दोनों समान ही थे । तात्पर्य यह कि याचनाका कार्य अतिशय हीन एवं निन्द्य है ॥ १५३ ।। तराजूके दोनों ओर क्रमसे होनेवाला नीचापन और ऊंचापन स्पष्टतया यह प्रगट करता है कि लेनेकी इच्छा करनेवाले प्राणो नीचे और न लेनेकी इच्छा करनेवाले ऊपर जाते हैं । विशेषार्थ-- जिस प्रकार तराजुके एक ओर जब कोई वस्तु रक्खी जाती है तो उधरका भाग नोचा और दूसरी ओरका खाली भाग ऊंचा हो जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य दूसरेसे याचना करके कुछ ग्रहण करता है वह नीचेपन (हीनता) को प्राप्त होता है तथा जो दाता देता है वह उत्कृष्टताको प्राप्त करता है। इस प्रकारसे तराजू भी मानों यही शिक्षा देती है ॥ १५४ ॥ जो मनुष्य धनसे सहित होता है उससे सब लोग आशा रखते हैं- मांगनेकी इच्छा करते हैं। परन्तु ऐसा वह धन नहीं है जो कि सब ही याचकोंको सन्तुष्ट कर सके। अतएव याचक जनकी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५६] आशा मानधनेन निरस्यते १४७ आशाखनिरतीवाभूदगाधा निधिभिश्च या। सापि येन समीभूता तत्ते मानधनं धनम् ।। १५६ ॥ सस्वमित्यादि । सह स्वेन द्रव्येण वर्तते य: सस्वः, तं सस्वं सद्रव्यं पुरुषम् आशासते याचितुं वाञ्छन्ति । सर्वपि सर्वतृप्तिकरणशीलम् । अर्थिवैमुख्यसंपादि याचकप्रार्थनाभाकरम् ॥१५५ ॥ ये च सस्वमाशासते तेषामाशाखनि: कीदृशीत्याह-- आशेत्यादि। आशाखनि: आशागतः। अगाधः अयाघ:1 । निधिभिश्च निधिभिरपि कृता या न समीभूता न पूरिता। सापि आशाखनि: येन मानधनेन अयाचकत्वप्रतिज्ञालक्षणेन कृत्वा समीभूता ॥ १५६ ॥ कथं सा मानधनेन समीभूतेत्याह-- आशेत्यादि । विमुखताको उत्पन्न करनेवाले धनाढयपनेकी अपेक्षा तो कहीं निर्धनता ही श्रेष्ठ है ॥ विशेषार्थ- जिसके पास धन रहता है उसके पाससे धन प्राप्त करनेकी बहुत जन अपेक्षा करते हैं। परन्तु उसके पास कितना भी अधिक धन क्यों न हो, रहेगा वह सीमित ही । और उधर याचक असीमित तथा अभिलाषा भी उनकी असीमित ही रहती है। ऐसी अवस्थामें यदि वह धनवान् अपने समस्त ही धनको याचकोंमें वितीर्ण कर दे तो भी क्या वे सब याचक तृप्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसलिये जो मनुष्य यह सोचकर धनके कमानेमें उद्यत होता है कि मैं धनका संचय करके याचकोंको दूंगा और उनकी अभिलाषाको पूर्ण करूंगा, उसका वैसा विचार करना अज्ञानतासे परिपूर्ण है। अतएव ऐसे धनकी अपेक्षा निर्धन (निर्ग्रन्थ) रहना ही. अधिक श्रेष्ठ है। कारण कि ऐसा करनेसे जो निराकुलता धनवान्को कभी नहीं प्राप्त हो सकती है वह इस निर्धन (साधु) को अनायास ही प्राप्त हो जाती है और इस प्रकारसे वह आत्यन्तिक सुखको भी प्राप्त कर लेता है ।। १५५ ॥ जो अत्यन्त गहरी आशारूप खान (गड्ढा) निधियोंके द्वारा भी समान (पूर्ण) नहीं हो सकती है वह तेरे जिस स्वाभिमानरूप धनसे समान हो सकती है वह स्वाभिमानरूप धन ही तेरा यथार्थ धन है ॥ १५६ ॥ तीनों लोकोंको नीचे करनेवाली यह आशारूप खान 14 अथाधः। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आत्मानुशासनम् .... [श्लो० १५७आशाखनिरगाधेयमधःकृतजगत्त्रया। उत्सर्योत्सर्प्य तत्रस्थानहो सद्भिः समीकृता ॥ १५७ ॥ विहितविधिना देहस्थित्यै तपांस्युपळहय नशनमपरभक्त्या दत्तं क्वचित्कियदिच्छति ।। उत्सर्योत्सl त्यक्त्वा त्यक्त्वा । तत्रस्थान् आशागर्तस्थितान्, यत्र विषये आशा प्रवर्तते तं तं विषयं परित्यजे (ज्ये) त्यर्थः ॥१५७॥ निम्रन्थतामवलम्ब्य प्रतिज्ञातव्रतस्य परिग्रहाहणाभावादित्यमेवास्याः समीकरणं युक्तमिति दर्शयन् विहितेत्यादिश्लोकद्वयमाह-- विहितविधिना अकृताकारिताननुमोदिताद्यागमोक्तविधिना । उपद्व्हयन् वृद्धि नयन् । अथाह है। फिर भी यह आश्चर्यकी बात है कि उक्त आशारूप खानमें स्थित धनादिकोंका उत्तरोत्तर परित्याग करके सज्जन पुरुषोंने उसे समान कर दिया है। विशेषार्थ--प्राणीकी आशा या इच्छा एक प्रकारका गड्ढा है जो इतना गहरा है कि यदि उसमें तीनों ही लोकोंकी सम्पदा भर दी जाय तो भी वह पूरा नहीं होगा। यहां इस बातपर आश्चर्य प्रगट किया गया है कि इतने गहरे भी उस आशारूप गड्ढेमें स्थित पदार्थोंको उसमें से बाहिर निकालकर सज्जन पुरुषोंने उसे पृथिवीतलके समान कर दिया है । सो है भी यह आश्चर्यकी-सी बात । कारण कि लोकमें तो ऐसा देखा जाता है कि जिस गड्ढेके भीतरसे मिट्टी, पत्थर या चांदी-सोना आदि जितने अधिक प्रमाणमे बाहिर निकाला जाता है उतना ही वह गड्ढा और भी अधिक गहरा होता जाता है। परन्तु सज्जन पुरुषोंने उस आशारूप गड्ढेमें स्थित (अभीष्ट) पदार्थोंको उससे बाहिर निकालकर गहरा करनेके बदले उसे पूरा कर दिया है । अभिप्राय यह है कि जितनी जितनी इच्छाकी पूर्ति होती जाती है उतनी ही अधिक तृष्णा और भी बढती जाती है । इसीलिये विवेकी मनुष्य जब उस तृष्णाको बढानेवाले विषयभोगोंकी आशा ही नहीं करते हैं तब उनका वह आशारूप गड्ढा क्यों न पूर्ण होगा? अवश्य ही पूर्ण होगा ।। १५७ ॥ तपोंको बढानेवाला मुनि आगममें कही गई विधिके अनुसार शरीरको स्थिर रखनेके लिये किसी कालविशेष (चर्याकाल) में दूसरोंके (श्रावकोंके) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५८] मुनिराहारादृते नान्यत् किंचिद् गृहन्ति १४९ नदपि नितरां लज्जाहेतुः किलास्य महात्मनः कथमयमहो गण्हात्यन्यान् परिग्रहदुर्ग्रहान् ॥१५८॥ क्वचित् चर्याकाले । कियत् । अक्षवृक्षणमात्रम् । त पि भक्त्या दतं कियद् गृहीतमपि । किलेत्याश्चर्ये । अन्यान् धन--सतिकादीन् । परिग्रहदुर्ग्रहान् परिग्रहा एव दुर्ग्रहा: दुष्टा ग्रहा: प्राणिनासपकारकत्वात् ॥ १५८६. दातार इत्यादि । तदत्र-- तत् धनन्, अत्र पात्रे। सर्वोपकारे-- द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये कुछ थोडे-से आहारको ग्रहण करनेकी इच्छा करता है।वह भी इस महात्माके लिये अतिशय लज्जाका कारण होता है। फिर आश्चर्य है कि यह महात्मा अन्य परिग्रहरूप दुष्ट पिशाचोंको कैसे ग्रहण कर सकता है ? नहीं करता है। विशेषार्य- तमको वृद्धिका कारण शरीर है। यदि शरीर स्वथ होमा तो उसके आश्रयसे अनशनादि तपोंको भले प्रकार किया जा सकता है, और यदि वह स्वस्थ नहीं हैअशक्त है-तो फिर उसके आश्रयसे तपश्चरण करना सम्भव नहीं है। इसीलिये साधु तपश्चरणकी अभिलाषासे शरीरको स्थिर रखने के लिये दाताके द्वारा नवधा भक्तिपूर्वक दिये गये आहारको स्वल्य मात्रा में ग्रहण करता है । इसके लिये भी वह स्वयं आहारको नहीं बनाता है और अन्यसे भी नहीं बनवाता है सो तो ठीक ही है,किन्तु वह अपने निमित्तसे बनाये गये (उद्दिष्ट) भोजनको भी नहीं ग्रहग करता है । साथ ही वह इन्द्रियदमन और सहनशीलता प्राप्त करने के लिये एक-दो गृह आदिका नियम भी करता है। इस प्रकारसे यदि उसे निरंतराय आहार प्रान होता है तो वह उसे ग्रहण करता है, अन्यथा वापिस चला आता है और इससे किसी प्रकारके खेदका अनुभव नहीं करता है-निरंतराय आहारके न प्राप्त होनेसे वह दाताको बुरा नहीं समझ सकता है । उक्त प्रकारसे प्राप्त हुए आहारको ग्रहग करता हुआ भो साधु इस परवशताके लिये कुछ लज्जाका अनुभव करता है । ऐसी स्थिति में वह साधु आहारके अतिरिक्त अन्य (धन अथवा वसतिका आदि) किसी वस्तुको अपेक्षा करेगा,यह तो सर्वथा ही असम्भव हैं ॥१५८॥ दाता तो गृहस्थ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आत्मानुशासनम् . [ श्लो० १५९ वातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं गृहन्तः स्वशरीरतोऽपि विरताः सर्वोपकारेच्छया । लज्जव मनस्विनां नन पुनः कृत्वा कथं तत्फलं रामद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५९॥ च्छया गृण्हन्ति । लज्जैव- एषा सर्वोपकारमङगीकृत्य अशनग्रहणेच्छा लज्जैव । मनस्विनां पण्डितानो मानिनां वा । तत्फलं तत् अशनमात्रं च फलं निमित्तं कृत्वा । दाता हि तं निमित्तं कृत्वा अहमेवोत्कृष्टो दाता, अन्ये तु निकृष्टा: इत्यादि प्रकारं रामद्वेषादिकं करोति । यतिः पुनः अनेन उत्कृष्टम् अशनं दत्तम् अनेन निकृष्टम् इत्यादिरूपतयेति । चक्रेश्वरत्वं प्रभुत्वम् ॥१५९॥ रागद्वेषाधीनता च कर्मणा क्रियते, तेन च कर्ममा भवत: कि हैं और वह देय धन (देने योग्य धन) यहां पात्रके लिये भक्तिपूर्वक दिया जानेवाला भोजन है । सबके उपकारको इच्छासे जो उस आहाररूप धनको ग्रहण करनेवाले साधु हैं वे अपने शरीरसे भी विरत (निःस्पृह) होते हैं । यह आहारग्रहणकी इच्छा भी उन स्वाभिमानियोंके लिये लज्जाका ही कारण होती है। फिर भला उस आहारको निमित्त बना करके वे (साधु और दाता) राग-द्वेषके वशीभूत कैसे होते हैं ? वह इस पंचम कालका ही प्रभाव है । विशेषार्थ-दानके निमित्त तीन हैं-दाता, पात्र और देय । सो यहां दाता तो गृहस्थ, पात्र मुनि और देय धन आहार मात्र है । जो मनि उस आहारको ग्रहण करते हैं वे भी केवल इस विचारसे करते हैं कि इससे शरीर स्थिर रहेगा, जिससे कि हम तपश्चरण आदि करके आत्महितके साथ ही सदुपदेशादिके द्वारा दूसरोंका भी हित कर सकेंगे। इतनेपर भी जो स्वाभिमानी विद्वान् हैं वे उस आहार मात्रके ग्रहण करने में भी लज्जित होते हैं। यह है सत्पात्र और निरभिमानी सद्गृहस्थ दाताओंको स्थिति । इसके विपरीत जो दाता उस आहारदानके निमित्तसे यह समझता है कि मैं ही उत्कृष्ट दाता हूं, अन्य दाता निकृष्ट हैं, तथा मैं इन साधुओंपर उपकार कर रहा हूं; वह दाता निन्दनीय है। इसी प्रकार जो साधु भी उस आहारके निमित्तसे किसी दाताकी प्रशंसा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६० ] - कर्मकृता हानिः आमृष्टं सहजं तव त्रिजगतोबोधाधिपत्यं तथा सौख्यं चात्मसमुद्भवं विनिहतं । निर्मूलतः कर्मणा । कृतमित्याह - आमृष्टमित्यादि । आमृष्टं लुप्तम्। विनिहतं स्फेटितम् । निर्मूलतः निःसैषतः सत्कारणभूतात्मविशुद्धिविशेषेण सह इत्यर्थः । दैन्यात् चारित्रमोहोदयप्रभवविषय १५१ 1 करता है कि इसने उत्तम आहार दिया है, तथा अन्य दाताकी निन्दा करता है कि इसने निष्कृष्ट आहार दिया है, वह भी जो इस प्रकार से राग व द्वेष के वशीभूत होता है उसका कारण इस कलिकाल के प्रभाव को ही समझना चाहिये । अन्यथा पूर्व में जहां दाता यह समझता था कि सत्पात्रको दान देना यह गृहस्थका आवश्यक कर्तव्य है तथा इस गृहस्थ जीवनकी सफलता भी इसी में है, वह सुअवसर मुझे पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है आदि; वहां वे सत्पात्र (साधु) भी दाताके द्वारा जैसा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन प्राप्त होता था उसीमें संतुष्ट होते थे-दाताके प्रति कभी भी राग-द्वेष नहीं करते थे । वे दाता और पात्र आज नहीं उपलब्ध होते हैं । इससे यही निश्चय होता है कि दाता और पात्रोंकी जो वर्तमानमें यह दुरवस्था हो रही है वह कलिकालके ही प्रभावसे हो रही है ।। १५९।। हे आत्मन् ! तीनों लोकोंको विषय करनेवाले ज्ञान (केवलज्ञान) के ऊपर तेरा जो स्वाभाविक स्वामित्व था उसे इस कर्मने लुप्त कर दिया है तथा पर पदार्थों की अपेक्षा न करके केवल आत्मा मात्रसे उत्पन्न होनेवाले तेरे उस स्वाभाविक सुखको भी उक्त कर्मने पूर्णरूपसे नष्ट कर दिया है । जो तू चिरकालसे उपवासादिके कष्टपूर्वक कुत्सित भोजनों (नीरस एवं नमकसे हीन आदि) के बन्धनमें स्थित रहा है वही तू निर्लज्ज होकर उस कर्मके द्वारा किये गये इन्द्रियसुखों ( विषयसुखों) से दीनतापूर्वक संतुष्ट होता है ।। विशेषार्थं जीव स्वभाव से अनन्तज्ञान एवं अनन्त सुखसे संपन्न है । किन्तु कर्मका आवरण रहनेसे वह प्रगट नहीं है-- लुप्त हो रहा है । जो प्राणी अज्ञानतासे अपनी अनन्त शक्तिका अनुभव नहीं करते हैं वे ही उस कर्मके द्वारा 1 ज विनिहितं । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आत्मानुशासनम् [ श्लो० १६० देन्यात्तद्विहितैस्त्वमिन्द्रियसुखः संतृप्यसे निस्त्रपः स त्वं यश्चिरयातनाकदशनैर्बद्धस्थितस्तुष्यसि । ॥ १६०॥ प्रार्थनावशात् । तद्विहितैः कर्म वृतैः । चिरयातनाकदशनैः चिरं बहुतरं कालं पूर्वयातनाम् उपवासादिकदर्थनां कारयित्वा पश्चात् कदशनानि अलवण--- कोद्रव - काञ्जिकादीनि a: बद्धस्थित: गुप्तो बन्धने स्थितः ॥ १६० ।। अस्तु चेन्द्रियसुखाभिलाषः तथापि यत्र विशिष्टा इन्द्रियनिर्मित तुच्छ इन्द्रियसुखों ( आहारादिजनित ) से सन्तुष्ट होते हैं । इसमें वे अपनी दीनताको प्रगट करते हुए लज्जित भी नहीं होते हैं । ऐसे इन्द्रियलोलुपी जीव उपवास आदिके कष्टको सहकर जैसा कुछ रूखासूखा भोजन प्राप्त होता है उसमें सन्तुष्ट होते हैं । यदि वे अपनी स्वाभाविक आत्मशक्तिका अनुभव करें तो ऐसे दीनतापूर्ण आचरण में उन्हें संतोष के स्थान में लज्जाका हीं अनुभव होगा। उदाहरणार्थ यदि कोई बलवान् मनुष्य किसी अन्य व्यक्तिको सम्पत्ति आदिका अपहरण करके उसको अपने आधीन रखता हुआ अपनी ही इच्छासे भोजन आदि देता है तो आधीनस्थ मनुष्य यदि कायर है तब तो वह अपना सर्वस्व खो करके भी उसके द्वारा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन आदि दिया जा रहा है उसपर सन्तुष्ट होता है और किसी प्रकारको लज्जाका अनुभव नहीं करता है । किन्तु जिसे अपनी शक्तिका अभिमान है वह अन्य के द्वारा दिये जानेवाले भोजन आदिके लिये लज्जित होता है तथा उस अवसरकी खोज में रहता है कि जब कि उस अपने शत्रुको नष्ट करके अपनी हरी गई सम्पत्तिको वापिस प्राप्त कर ले। ठीक इसी प्रकारसे जो अविवेकी प्राणी हैं वे कर्मरूप शत्रुके द्वारा जो अपनी स्वाभाविक सम्पत्ति ( अनन्त ज्ञानादि ) हरी गई है उसे प्रात करनेका उद्योग नहीं करते, बल्कि उक्त कर्मके द्वारा दिये जानेवाले तुच्छ एवं क्षणिक इन्द्रिय सुखमें ही सन्तुष्ट होते हैं । किन्तु जो विवेकी जीव हैं वे उस कर्म -- शत्रु के द्वारा लुप्त की गई अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्तिको प्राप्त करनेका निरंतर उद्योग करते हैं और वह जब तक उन्हें प्राप्त नहीं होती है तबतक उसकी | मुस्थितिस्तुष्यसि । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६१] भोगाभिलाषिणा स्वर्गाय यतितव्यम् १५३ तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो सहस्वाल्पं स्वरेव ते । प्रतीक्ष्य पाकं कि पीत्वा पेयं भुक्ति विनाशयः ॥ १६१॥ विषयाः सन्ति तद्दर्शयन्नाह- तृष्णेत्यादि । सहस्त्र प्रतीक्षस्व । अल्पं स्तोकं व्रतानुष्ठानकालं यावत् । स्वरेव स्वर्ग एव । ते भोगाः ॥ १६१।। कर्मणा प्राप्तिके साधनभूत शरीरको स्थिर रखनेके लिये उक्त कर्मके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भोजनको ग्रहण तो करते हैं, किन्तु उसे स्वाभिमानपूर्वक लज्जाके साथ ही ग्रहण करते हैं, न कि निर्लज्ज व दीन बनकर । इस प्रकारसे अन्तमें वे अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्ति (अनन्तचतुष्टय) को अवश्य प्राप्त कर लेते हैं ॥ १६० ॥ हे साधो! यदि तुझे भोगोंके विषयमें अभिलाषा है तो तू कुछ समयके लिये व्रतादिके आचरणसे होनेवाले थोडे-से कष्टको सहन कर । ऐसा करनेसे तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा, वे भोग वहांपर ही हैं । तू पाकको प्रतीक्षा करता हुआ पानी आदिको पी करके क्यों भोजनको नष्ट करता है ? ॥विशेषार्थ-- जो साधु बाह्य विषयभोगोंकी अभिलाषा करता है उसको लक्ष्यमें रखकर यहां यह कहा गया है कि यदि तुझे विषयभोगोंकी ही अभिलाषा है तो तू कुछ समयके लिये व्रतादिके आचरणसे जो थोडा-सा कष्ट होनेवाला है उसे स्थिरतासे सहन कर । कारण यह कि ऐसा करनेसे तुझे तेरी ही इच्छाके अनुसार स्वर्ग में उन विषयभोगों की प्राप्ति हो जावेगी। फिर तू सागरोपम कालतक उस विषयसुखका अनुभव करते रहना। और यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर तेरी ऐसी अवस्था होगी जैसी कि अवस्था उस मनुष्यको होती है जो कि थोडे-से काल के लिये. भोजनके परिपाक की प्रतीक्षा न करके भूखसे पीडित होता हुआ पानी आदिको पी करके ही उस भखको नष्ट करके भोजनके आनन्दको भी नष्ट कर देता है । अभिप्राय यह है कि जो विषयतृष्णाके वशीभूत होकर व्रतादिके आचरणको छोड़ देता है उसे मोक्षसुख मिलना तो दूर ही रहा, किन्तु वह विशिष्ट विषयसुख भी उसे प्राप्त नहीं होता जो कि स्वर्गादिमें जाकर प्राप्त किया जा सकता था ॥ १६१॥ जिन साधुओंके निर्धनता (उत्तम आकिंचन्य) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आत्मानुशासनम् [श्लो० १६२निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानकचक्षुषाम् ॥ १६२॥ चेन्द्रियसौख्यानि जीवितं च विधीयते । ये चैवंविधा मुनयस्तेषां किं करोति कर्मेति दर्शयनिर्धनत्वमित्याह-- निर्धनत्वमित्यादि । निर्धनत्वं नि:संगता । धनं विभूतिः अभिप्रेतप्रयोजनप्रसाधकत्वात् । मृत्युरेव हि संन्यासेन प्राणत्यागः । जीवितं प्रीतिकरं विशिष्टजीवितहेतुत्वात् ॥ १६२ ।। केषां तर्हि विधिः ही धन है तथा मृत्यु ही जिनका जीवन है उन ज्ञानरूप अद्वितीय नेत्रको धारण करनेवाले साधुओंका भला कर्म क्या अनिष्ट कर सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता है। विशेषार्थ--- जिस प्रकार अन्य जनोंको प्राणोंसे अधिक धन प्रिय होता है उसी प्रकार साधुओंको भी निर्धनता (दिगम्बरत्व) अधिक प्रिय होती है । कारण कि उनका वही एक अपूर्व धन है, जिसकी कि वे सदासे रक्षा करते हैं । ऐहिक सुखकी अभिलाषा करनेवाले प्राणियोंको जैसे जीवन प्रिय होता है वैसे ही परमार्थिक सुखकी अभिलाषा रखनेवाले साधु पुरुषोंको मरण प्रिय होता है । वे वृद्धत्व एवं किसी असाध्य रोग आदिके उपस्थित होनेपर धर्मका रक्षण करते हुए प्रसन्नतासे समाधिमरणको स्वीकार करते हैं। उन मनस्वियोंको किंचित् भी मरणका भय नहीं होता। उसका भय तो केवल अज्ञानी जीवोंको ही हुआ करता है । ऐसी अवस्थामें देव भला उनका क्या अनिष्ट कर सकता है ? कुछ भी नहीं । कारण यह कि दैव यदि कुछ अनिष्ट कर सकता है तो यही कर सकता है कि वह धनको नष्ट कर देगा, इससे भी अधिक कुछ अनिष्ट वह कर सकता है तो प्राणोंका अपहरण कर लेगा । सो यह उक्त मनस्वी जीवोंको इष्ट ही है । तब उसने उनका अनिष्ट किया ही क्या ? कुछ नहीं ॥ १६२ ॥ जिन जीवोंके जीवनकी अभिलाषा और धनकी अभिलाषा रहती है उन्हीं जीवोंका कर्म कुछ अनिष्ट कर सकता है- वह उनके प्रिय जीवन और धनको नष्ट करके हानि कर सकता है। परन्तु जिन जीवोंकी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६४] विषयाशया तपस्त्यजतां निन्दा १५५ जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिविधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता ॥१६३॥ परां कोटि समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः । यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया ॥१६४॥ स्वकार्यकर्ता स्यादित्याह- जीविताशेत्यादि । विधिविधिः विधिः कर्म, विधि स्रष्टा । आशानिराशता आशाया: निराशता नि:काङ्क्षता, सर्वथा विषयाशारहिततेत्यर्थः ॥ १६३ ॥ साम्राज्यं त्यक्त्वा आशानिराशतामवलम्ब. मानस्थ, तपश्च त्यक्त्वा साम्राज्यमाश्रयत: फलमादर्शयन् परामित्यादिश्लोकद्वयमाह- परां कोटिं परमप्रकर्षम् । तपसे तपोनिमित्तम् । चक्र चक्रवर्तित्वम् ॥ १६४ ॥ त्यजत्वित्यादि । स्वोत्यं विषयनिरपेक्षं कर्मविविक्तात्मआशा- जीनेकी इच्छा और विषयतृष्णा- निःशेषतया नष्ट हो चुकी है उनका वह कर्म भला क्या अनिष्ट कर सकता है ? कुछ भी नहीं- यदि वह उनके जीवन और धनका अपहरण करता है तो वह उनके अभीष्टको ही सम्पादित करता है ॥ १६३ ॥ जो मनुष्य तपके लिये चक्रवर्तीकी विभूतिको छोडता है तथा इसके विपरीत जो विषयोंकी अभिलाषासे उस तपको छोडता है वे दोनों ही क्रमशः स्तुति और निन्दाकी उत्कृष्ट सीमापर पहुंचते हैं ॥ विशेषार्थ--- जो विवेकी जीव चक्रवर्ती जैसी विभूतिको पाकर भी उसे आत्महितमें बाधक जानकर तुच्छ तृणके समान छोड देता है और निग्रन्थ होकर दुर्धर तपको स्वीकार करता है वह सबसे अधिक प्रशंसाके योग्य है । इसके विपरीत जो कारण पाकर विर. वितको प्राप्त होता हुआ प्रथम तो राज्यवैभवको छोडकर तपको स्वीकार करता है, और फिर पीछे उन्हीं पूर्वभुक्त भोगोंकी अभिलाषासे उस दुर्लभ तपको छोडकर पुनः उस सम्पत्तिका उपभोग करने लगता है, वह सबसे अधिक निन्दाका पात्र है-- उसकी अज्ञानताको धिक्कार है ॥ १६४ ।। चूंकि तपका फल जो सुख है वह सुख अनुपम-- समस्त संसारी जीवोंको दुर्लभ, कर्मकी अपेक्षा न करके केवल आत्ममात्रकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला, और सदा रहनेवाला (अविनश्वर) है; सी. लिये यदि चक्रवर्ती उस तपके लिये साम्राज्यको छोड़ देता है तो वह Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ [ श्लो० १६५ आत्मानुशासनम् त्यजतु तपसे चक्रं चत्री यतस्तपसः फलं सुखमनुपमं स्वोत्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् । इदमिह महच्चित्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भक्तुं जहाति महत्तपः ॥ १६५ ॥ शय्यातलादपि तुकोऽपि भयं प्रपातात् तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् । चित्रं त्रिलोकशिखरादपि दूरतुङ्गाद् धीमान् स्वयं न तपसः पतनाद्विभेति ॥ १६६ ॥ स्वरूपप्रभवम् । विषं विषयात्मकं विषयरूपं विषम् । जहाति त्यजति । १६५ ।। तपस्त्यजतां च विस्मयं कुर्वन्नाह - शय्यातलादिति । तुक्रोऽपि बालोऽपि I भयं गच्छति । कस्मात् । प्रपातात् प्रपतनात् । तुङ्गात् महतः । ततः शय्यातलात् । दूतुङ्गात् अतिशयेन महतः कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । आश्चर्य तो महान् इस बातका है कि जो बुद्धिमान् पूर्व में विषयोंको विष के समान घातक समझकर छोड़ देता है और तत्पश्चात् उन्हीं छोडे हुए विषयोंको फिरसे भोगने के लिये ग्रहण किये हुए उस महान् तपको भी छोड देता है ।। १६५ ।। देखो, बालक भी ऊंचे शय्यातल ( पलंग ) से गिर जानेपर होनेवाली अपनी पीडाको देखकर निश्चयतः उससे भयको प्राप्त होता है । परन्तु आश्चर्य है कि बुद्धिमान् साधु तीन लोकके शिखरसे भी अतिशय ऊंचे (महान्) उस तपसे स्वयं च्युत होता हुआ भयको प्राप्त नहीं होता है ॥ विशेषार्थ -- तप तीनों लोकोंमें अतिशय पूज्य एवं अविनश्वर सुखका कारण है, इसीलिये उसे तीन लोकके शिखरसे भी उन्नत बतलाया गया है । जो बालक हिताहित विवेकसे रहित होता है वह भी जब ऊंचे किसी पलंग - या पालने आदिमें स्थित होता है तब वहांसे गिर पडनेकी आशंका से भयभीत होता है । परन्तु जो साधु विवेकी है और इसीलिये जिसने विषयतृष्णा को छोडकर तपको स्वीकार किया था वह फिरसे भी उस उच्छिष्टक समान विषयसुख के उपभोगके लिये आतुर होता हुआ ग्रहण किए हुए उस तपको छोडकर दुर्गतिमें पडनेसे भयभीत नहीं होता, यह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो हीनपुण्याः संयमं त्यजन्ति विशुद्धयति दुराचारः सर्वोऽपि तपसा ध्रुवम् 1 करोति मलिनं तच्च किल सर्वाधरः परः ॥१६७५ सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु कि तु -२६४ ] विस्मापकं तदलमेतदिह द्वयं नः । पीत्वामृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्याः संप्राप्य संयमनिधि यदि च त्यजन्ति ॥ १६८ १५७ इन्द्रादिभिर्वन्द्यात् तपसः ।। १६६ ॥ येन च तपसा महापापप्रक्षालनं भवति तदपि मलिनतां नयन्ति नीचा इत्याह-विशुद्धयतीत्यादि । दुराचारः ब्रह्महत्यादिविधायी । ध्रुवं निश्चितम् । तच्च तपः । मलिनं सातिचारम् । किल इत्याश्चयें -सर्वाधरः निकृष्ट: । पर: अपरः अन्यः ॥ १६७॥ आश्चर्यहेतूनां मध्ये तपस्त्यागिने : अत्याश्चर्यहेतुत्वं दर्शयन्नाह - सन्त्येवेत्यादि । विस्मापकं विस्मयजनकम् । नः अस्माकम् । तत् कौतुकम् । अलम् अत्यर्थेन । इह जगति | एतद्वक्ष्यमाणद्वयम् । विसृष्टपुण्याः परित्यक्तपुण्याः || १६८ ।। तस्मात्संयम - कितने आश्चर्य की बात है । ऐसे साधुको उस अज्ञान बालकसे भी अधिक मूर्ख समझना चाहिये ॥१६६॥ जिस तपके द्वारा नियमतः सब ही दुष्ट आचरण शुद्धिको प्राप्त होता है उस तपको भी दूसरा निकृष्ट मनुष्य मलिन करता है ॥ विशेषार्थ - जो जल वस्तुकी मलिनता को दूर कर उसे शुद्ध करता है उस जलको ही यदि कोई गंदला करता है तो वह जिस प्रकार निन्दाका पात्र होता है, उसी प्रकार जो तप पूर्वोपार्जित पापको नष्ट करके आत्माको शुद्ध करनेवाला है उसे ही यदि कोई दुश्चरित्र साधु अपने पापाचरणसे मलिन करता है तो वह सबसे नीच हीं कहा जावेगा । इस प्रकारके दुराचरण से न जाने उसको कितने महात् दुख सहने पडेंगे ।। १६७।। लोकमें आश्चर्यजनक सैकडों कौतुक हैं, परन्तु उनमें से ये दो कार्य हमें अतिशय आश्चर्यजनक प्रतीत होते हैं । प्रथम तो आश्चर्य हमको उनपर होता है जो कि पहिले तो अमृतका पान करते हैं और फिर पीछे वमन करके उसे निकाल देते हैं । दुसरा आश्चर्य उनके ऊपर होता है जो कि पूर्वमें तो विशुद्ध संयमरूप निधिको ग्रहण 1. मु सर्वाधरोऽपरः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १६९ इह विनिहतबह्वारम्भबाह्योरुशत्रोस्पचितनिजशक्तेनपिरः कोभ्यपाय:। अशनशयनयानस्थानदत्तावधान:कुरु तव परिरक्षामान्तरान् हन्तुकामः ॥१६९ निधिम् अपरित्यजन्तः सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा रागनिर्मलनाय यतन्तामिति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-इहेत्यादि । तव नापरः कोऽप्यपाय : दुःखहेतुकः । कथंभूतस्येत्याहविनिहतेत्यादि। बहोः सावद्यकर्मण: आरम्भः बहारंभः विनिहतो बह्वारंभ एव बाह्य ऊरुर्महान् शत्रुर्येन। उपचितनिजशक्तेः उपचिता पुष्टि नीता संयमानुष्ठानेन निजा शक्तिर्येन । दत्तावधानः प्रयत्नपरः सन् । कुरु परिरक्षां संयमस्य । आन्तरान् रागादीन् ॥१६९।। मनसो नियन्ऋगो चात्मनो रक्षा रागादिप्रक्षयश्च स्यात् । तस्य च करते हैं और तत्पश्चात् उसे छोड भी देते हैं । अभिप्राय यह है कि पूर्वमें तप-संयमादिको स्वीकार करके भी जो पीछे फिरसे विषयोंमें अनुरक्त होकर उसे छोड़ देता है इस प्रकारका हीन मनुष्य समझना चाहिये जो कि पूर्वमें अमृतको पी करके फिर पीछे उसे वमन द्वारा बाहिर निकाल देता है ॥१६८॥ हे भव्य ! बहुत पापकर्मके आरम्भरूप बाहिरी शत्रुको नष्ट करके अपनी आत्मीक शक्तिको बढा लेनेवाले तेरे लिये अन्य कोई भी दुखका कारण नहीं हो सकता है । तू राग-द्वेषादिरूप आन्तरिक शत्रुओंको नष्ट करनेका अभिलाषी होकर भोजन,शयन, गमन एवं स्थिति आदि क्रियाओंके विषयमें सावधान होता हुआ अपने संयमकी रक्षा कर ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार राजाको राज्यको भ्रष्ट कर देनेवाले बाह्य और अभ्यन्तर दो प्रकारके शत्र होते हैं उसी प्रकार मुनियोंको भी उस पदसे भ्रष्ट कर देनेवाले वे ही दो प्रकारके शत्रु होते हैं । यदि राजा बुद्धिमान है तो वह जिस प्रकार अपने बाह्य शत्रुओंकोविद्वेषी अन्य राजा आदिको- अपने अधीन रखता है, उसी प्रकार वह अपने काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष रूप अन्तरंग शत्रुओं ( अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानाम तरङगोऽरिषड्वर्गः । नी. वा. अरिषड्वर्गसमुद्देश १. ) को भी वशमें Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७० ‘मनसो नियन्त्रणमित्] कतव्यम् अवेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिबिनते वचःपर्णकोणे विपुलनयशाखाशतयुते । नियन्त्रणमित्यं कर्तव्यमित्याह-. अनेकान्तेत्यादि । अनेकान्तो धर्म आत्मा स्वरूपं येषां ते च ते अश्वि ते एव प्रसवफेलानि पुष्पफलानि, तेषां भारः संघातस्तेन विनते । वच:- पाकीणे वांसि संस्कृतप्राकृतवचनानि सान्येव पनि तै: आकीर्षे युक्ते । विपुलेत्यादि---विपुला: प्रचुराः ते च से रखता है । इस प्रकारसे उसका राज्य निःसन्देह सुरक्षित रहता है। इसी प्रकारसे जो विवेकी साधु मुनिपदसे भ्रष्ट करनेवाले हिंसाजनक आरम्भादिरूप बाह्य शत्रुओंसे रहित होकर राग-द्वेषादिरूप अन्तरङग शत्रुओंको भी जीतनेके लिये भोजन-शयनादि क्रियाओंमें सदा सावधान रहता हैसंयम व तपसे भ्रष्ट नहीं होता है-वह भी निश्वयसे अपने साधुपदको सुरक्षित रखकर निराकुल सुखको प्राप्त करता है ।।१६९।। जो श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलोंके भारसे अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्तोंसे व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूपे सैकडो शाखाओंसे युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जडसे स्थिर है उस श्रुतस्कन्धरूप वृक्षके ऊपर बुद्धिमान साधुके लिये अपने मनरूपी बंदरको प्रतिदिन रमाना चाहिये ॥विशेषार्थ-जिसे प्रकार बंदर स्वभावसे यद्यपि अतिशय चंचल होता है, परंतु यदि उसे फल-फूलोंसे परिपूर्ण कोई विशाल वृक्ष उपलब्ध हो जाता है तो वह उपद्रवं करना छोडकर उसके ऊपर रम जाता है। इसी प्रकार प्राणियोंकर मन भी अतिशय चंचल होता है, उसके निमित्तसे ही प्राणी बाह्य पर पदार्थोमें इष्टानिष्टकी कल्पना करके राग-द्वेषको प्राप्त होते हैं। साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, किन्तु कभी कभी साधुओंका भी मन चंचल हो उठता है-वे भोजनादिके विषयमें राग-द्वेषका अनुभव करने लगते हैं। इसीलिये यहां ऐसे ही साधुको लक्ष्य करके यह उपदेश दिया गया है कि वह बन्दरके समान चंचल अपने मनको श्रुतरूप वृक्षके ऊपर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8E0 आत्मानुशासनम् समुसुङगे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥ १७० ॥ [ क्लो० १७० नयारच ते एव शाखाशतानि तै: युक्ते संयुक्ते समुत्तुङगे बृहति । सम्य ततमतिमूले सम्यक् समीचीना प्रतता विस्तीर्णा चासौ मतिश्च सा मूलं कारणं यस्य ' मतिपूर्वश्रुतम् " इत्यभिधानात् । अथ वा समीचीनं प्रततं प्रहृतं मतिरेक मूलं यस्य ॥ १७० ॥ रमावे - उसके चिन्तन में प्रवृत्त करें । जिस प्रकार वृक्ष फूलों और फलों के भारसे झुका हुआ होता है उसी प्रकार वह श्रुतरूप वृक्ष भी अनेक धर्मात्मक पदार्थों के भारसे ( विचारसे) नम्रीभूत है, वृक्ष यदि पत्रोंसे व्याप्त होता है तो यह श्रुतरूप वृक्ष भी पत्तोंके समान अर्धमागधी आदि भाषाओरूप वचनोंसे व्याप्त हैं, वृक्षमें जहां अनेकों शाखाओं का विस्तार होता है वहां इस श्रुतरूप वृक्षमें भी उन शाखाओंके समान नयोंका विस्तार अधिक है, जैसे वृक्ष उन्नत ( ऊंचा ) होता है वैसे ही श्रुतवृक्ष भी उन्नत (महान् साधारण जनोंको दुर्लभ ) है, तथा जिस प्रकार वृक्षको स्थिर रखनेवाली उसकी कितनी ही जड़ें फैली होती हैं, तथा उसी प्रकार अनेक (३३६) भेदोंरूप जो विस्तृत मतिज्ञान है वह इस श्रुतरूप वृक्षकी गहरी जडके समान है जिसके कि निमित्तसे वह स्थिर होता है । इस प्रकार उस चंचल मनको बाह्य विषयोंकी ओरसे खींचकर इस श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमानेसे - श्रुतके अभ्यासमें लगानेसे - उसके निमित्त से होनेवाली राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है । इससे कर्मोंकी संवरपूर्वक निर्जरा होकर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है ।। १७० ।। वह जीवादिरूप वस्तु तदतत्स्वरूप अर्थात् नित्यानित्यादिस्वरूपको प्राप्त होकर विरामको नहीं प्राप्त होती है, इस प्रकार समस्त तत्त्वका जानकार विश्वकी अनादिनिधनताका विचार करे ॥ विशेषार्थ ---- पूर्व श्लोक में यह निर्देश किया था कि साधुके लिये अपने चंचल मनको श्रुतके अभ्यास में लगाना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण करते हुए यहां यह बतलाया है कि - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७१] मनोनियन्त्रणार्थ तत्त्वं विचारणीयम् तदेव तदतद्रूपं प्राप्नुवन्न विरंस्यति । इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित् सदा ॥ १७१॥ श्रुतस्कन्धे मनो रमयन् इत्थं तत्त्वं भावयेत् इत्याह-- तदेवेत्यादि । तदेव जीवादिलक्षणं वस्तु । तदतद्रूपं नित्यानित्यरूपं सदसदादिरूपं वा । प्राप्नुवन् न विरंस्यति सावधि न भविष्यति न2 विनश्यति वा। इति एवं । विश्वं जीवादिवस्तुप्रपञ्च:3 । अनाद्यन्तम् आद्यन्तविहीनम् ।। १७१ ॥ म्रान्तमिदं ज्ञानं आगममें वर्णित जीवजीवादि पदार्थों से प्रत्येक विवक्षाभेदसे भिन्न भिन्न स्वरूपवाला है । जैसे- एक ही आत्मा जहां द्रव्यकी प्रधानतासे नित्य है वहां वह पर्यायकी प्रधानतासे अनित्य भी है। कारण यह कि आत्माका जो चैतन्य द्रव्य है उसका कभी नाश सम्भव नहीं है, वह उसकी समस्त पर्यायमें विद्यमान रहता है। जैसे-सुवर्णसे उत्तरोत्तर उत्पन्न होनेवाली कडा, कुण्डल एवं सांकल आदि पर्यायोंमे सुवर्णसामान्य विद्यमान रहता है। अतएव वह द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे नित्य कहा जाता है। परन्तु वही चूंकि पर्यायकी अपेक्षा अनेक अवस्थाओंमें भी परिणत होता है- एक रूप नहीं रहता, इसीलिये पर्यार्थिक नयको अपेक्षा उक्त आत्माको अनित्य भी कहा जाता है । लोकव्यवहारमें भी कहा जाता है कि अमुक मनुष्य मर गया है, अमुकके यहां पुत्रजन्म हुआ है, आदि । यद्यपि नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों ही धर्म परस्पर विरुद्ध अवश्य दिखते हैं तो भी विवक्षाभेदसे उनके मानने में कोई विरोध नहीं आता । जैसे- एक ही देवदत्त नामका व्यक्ति अपने पुत्रकी अपेक्षा जिस प्रकार पिता कहा जाता है उसी प्रकार वह अपने पिताको अपेक्षा पुत्र भी कहा जाता है। इस प्रकारका व्यवहार लोकमें स्पष्टतया देखा जाता है, इसमें किसीको भी विरोध प्रतीत नहीं होता। परन्तु हां, यदि कोई जिस पुत्रकी अपेक्षा किसोको पिता कहता है उसी पुत्रकी ही अपेक्षासे यदि उसे पुत्र भी कहता है तो उसका वैसा कहना निश्चित ही विरुद्ध होगा और इसीलिये वह निन्दाका पात्र होगा ही। इसी प्रकार जिस द्रव्यको अपेक्षा वस्तुको 1 प तदतद्रूपं नित्यानित्यस्वरूपं वा । 2 प 'न' इत्येतन्नास्ति । 3 प प्रपंचं । आ. ११ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ [ श्लो० १७२ आत्मानुशासनम् एकमेकक्षणे सिद्धं प्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकम् । अबाधितान्यतत्प्रत्ययान्यथानुपपत्तितः ॥ १७२ ॥ भविष्यतीत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह-- एकमित्यादि । एकं जीवादि वस्तु । एकक्षणे एकस्मिन् समये । ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकं सिद्धम् - सिद्धं निर्णीतं धौव्यात्मकं द्रव्यापेक्षया, उत्पाद-व्ययात्मकं पर्यायापेक्षया । कुतस्तदात्मकं तत्सिद्धम् इत्याह नित्य माना जाता है उसी द्रव्यकी अपेक्षा यदि कोई उसे अनित्य समझले तो उसके समझने में अवश्य ही विरोध रहेगा । परन्तु एक ही वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य माननेमें किसी प्रकार के भी विरोधकी सम्भावना नहीं रहती। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुको अपेक्षाभेदसे सत् और असत्, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न आदि स्वरूपों के माननेमें किसी प्रकारका विरोध नहीं होता; बल्कि इसके विपरीत उसे दुराग्रहवश एक ही स्वरूप माननेमें अवश्य विरोध होता है । इस प्रकार साधुको श्रुतके चिन्तन में- वस्तुस्वरूप के विचार में - अपने मनको लगाना चाहिये। ऐसा करनेस वह साथ निठल्ले 'मनके द्वारा उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषमय प्रवृत्तिसे अवश्य ही रहित होगा ।। १७१ ।। एक ही वस्तु विवक्षित एक ही समय में ध्रौव्य, उत्पाद और नाशस्वरूप सिद्ध है; क्योंकि इसके बिना उक्त बस्तुमें जो भेद और अदरूप निर्बाध ज्ञान होता है वह घटित नहीं हो सकता है ॥ विशेषार्थबाह्य और आभ्यन्तर निमित्तको पाकर जीव और अजीव द्रव्य अपनी जातिको न छोडते हुए जो अवस्थान्तरको प्राप्त होते हैं, इसका नाम उत्पाद है- जैसे अपनी पुद्गल जातिको न छोडकर मिट्टीकै पिण्डक घट पर्यायको `प्राप्त करना । उक्त दोनों ही कारणोंसे द्रव्यकी जो पूर्व अवस्थाका नाश होता है इसे व्यय ( नाश) कहा जाता है - जैसे उस घटकी उत्पत्ति में उसी मिट्टी के पिण्डकी पिण्डरूप पूर्व पर्यायका नाश । अनादि पारिणामिक स्वभावसे वस्तुका उत्पाद और नाशसे रहित होकर स्थिर रहनेका नाम धौव्य है । ये तीनों ही अवस्थायें प्रत्येक वस्तुमें प्रति Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७२] वस्तुनो ध्रौव्योत्पादव्ययात्मकत्वसिद्धिः १६३ अबाधितेत्यादि । अबाधिती च तो अन्यतत्प्रत्ययौ च भेदाभेदप्रत्ययौ तयोः अन्यथानुपपत्तितः । उक्तं च-- " भेदज्ञानात् प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि । अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित् ॥" ॥१७२।। ननु ध्रौव्यादित्रितयात्मकत्वं वस्तुनोऽनुपपन्नम् सर्वथानित्यायेकक समय रहती हैं। कारण यह कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है, अतएव जहां विशेषरूपसे वस्तु (घट) का उत्पाद होता है वहीं उसका (मृत्पिण्डका) नाश भी होता है। परन्तु सामान्य (पौद्गलिकत्व) स्वरूपसे न वस्तुका उत्पाद होता है और न नाश भी- वह सामान्य (पुद्गल) स्वरूपसे दोनों (घट और मृत्पिड) ही अवस्थाओंमें विद्यमान रहती है । इस बातका समर्थन स्वामी समन्तभद्राचार्यने निम्न दृष्टान्तके द्वारा किया है- घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ अर्थात् किसी सुनारने सुवर्णके घटको तोडकर उससे मुकुटको बनाया। इसको देखकर जो व्यक्ति घटको चाहता था वह तो पश्चात्ताप करता है, जो मुकुटको चाहता था वह हर्षित होता है, और जो सुवर्ण मात्रको चाहता था वह हर्ष-विषाद दोनोंसे रहित होकर मध्यस्थ ही रहता है ॥ आ. मी. ५९. इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक् समयमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप है । ऐसा माननेपर ही उसके विषयमें होनेवाली भेदबुद्धि और अभेदबुद्धि संगत होती है, अन्यथा वह घटित नहीं हो सकती है; और वैसी बुद्धि होती अवश्य है। तभी तो भेदबुद्धिके कारण घटको टूटा हुआ देखकर उसका अभिलाषी दुखी और मुकुटका अभिलाषी हर्षित होता है। किन्तु उन दोनों ही अवस्थाओंमें अभेदबुद्धिके रहनेसे सुवर्णका अभिलाषी न दुखी होता है और न हर्षित भी। इसलिये प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है; ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ १७२॥ जीव-अजीव आदि प नित्यायेक। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [श्लो० १७३ आत्मानुशासनम् न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमानं नाभावमप्रतिहतप्रतिभासरोधात् । रूपत्वात्तस्येत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह-- नेत्यादि । न स्थास्नु न सर्वथा नित्यकरूपं सांख्यादिकल्पितं जीवादितत्त्वम् । न क्षणविनाशि न सर्वथा क्षणिकरूपं बौद्धकल्पितम् । न बोधमात्रं ज्ञानाद्वैतवादिकल्पितम् । नाभावं न अभावमात्रं सकलशून्यवादिकल्पितं तत्त्वम् । कुतः । कोई भी वस्तु न सर्वथा स्थिर रहनेवाली (नित्य) है, न क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाली (अनित्य) है, न ज्ञानमात्र है, और न आत्मस्वरूप ही है; क्योंकि वैसा निर्बाध प्रतिभास नहीं होता है। जैसा कि निर्बाध प्रतिभास होता है, तदनुसार वह वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाले तदतत्. स्वरूप अर्थात् नित्य-अनित्यादिस्वरूपसे संयुक्त व अनादिनिधन है । जिस प्रकार एक तत्त्वं नित्यानित्य, एक-अनेक एवं भेदाभेद स्वरूपवाला है उसी प्रकार समस्त तत्त्वोंका भी स्वरूप समझना चाहिये ॥ विशेषार्थ---- (१) सांख्य दर्शनमें वस्तुको सर्वथा नित्य स्वीकार किया गया है। उसका निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया है कि वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है। यदि वस्तु सर्वथा नित्य ही होती तो वह सदा एक स्वरूपमें ही देखनेमें आना चाहिये थी, परन्तु ऐसा है नहींसमयानुसार वह परिवर्तित रूपमें ही देखी जाती है । जो पूर्वमें दूध था वह कारण पाकर दहीके रूपमें परिणत देखा जाता है तथा जो पूर्वमें बालक था वह समयानुसार कुमार, युवा एवं वृद्ध भी देखा जाता है । यह अनुभूयमान परिवर्तन कूटस्थ नित्य अवस्थामें सम्भव नहीं है । वैसी अवस्थामें तो जो वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार जितने प्रमाणमें हैं उतने ही प्रमाणमें सदा उपलब्ध होनी चाहिये, सो वैसा है नहीं । अतएव वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है । (२) बौद्ध प्रत्येक वस्तुको क्षणनश्वर स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि वस्तु प्रत्येक क्षणमें भिन्न ही होती है, पूर्व पर्यायसे उत्तर पर्यायका कुछ भी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुनः सर्वथानित्यानित्यत्वादिनिषेधः तत्त्वं प्रतिक्षणभवत्त्वदतत्स्वरूपमाद्यन्तहीनमखिलं च तथा यकम् ॥१७३ १७३] १६५ अप्रतिहतप्रतिभासरोधात् अबाध्यमानप्रतिभासाभावात् । यदि ईदृशं तन्न भवति हि कीदृशं तदित्याह --- तस्वं जीवादि क्स्तु । प्रतिक्षणं प्रतिसमय भवन्ति जायमानानि तत्स्वरूपाणि नित्यानित्यादिस्वरूपाणि ) यस्य 1 सम्बन्ध नहीं है । बौद्ध दर्शन में पूर्वोत्तर पर्यायोंमें अभ्वयस्वरूप से प्रतिभासमान सामान्यको वस्तुभूत नहीं स्वीकार किया गया है, किन्तु वहां स्वलक्षणस्वरूप विशेषको ही वस्तुभूत माना गया है । इसे बौद्धाभिप्रायको असंगत बतलाते हुए यहां यह निर्देश किया है कि तत्त्व सर्वयो क्षणनश्वर भी नहीं है, क्योंकि उक्त वस्तु जैसे सर्वया नित्य प्रतिभासितं नहीं होती है वैसे ही वह सर्वथा (पुद्गलस्वरूप से भी ) भिन्न ही हों तो विना दुधके भी दहीकी उत्पत्ति होनी चाहिये थी । परन्तु ऐसा नहीं है, जो पूर्व में किसी न किसी स्वरूपसे सत् है वही उत्तर काल में दूसरी पर्यायस्वरूपसे परिणत होता है । यदि पूर्वोतर पर्यायोंको सर्वथा भिन्न ही माना जायगा तो मिट्टी से ही घढकी उत्पत्ति हो और तन्तुओंसे ही पटकी उत्पत्ति हो, ऐसा कुछ भी उपादानका नियम नहीं रह सकेगा - वैसी अवस्था में तो कोई भी वस्तु किसी भी उपादान से उत्पन्न हो सकेगी 1 परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, भिन्न भिन्न कार्योंकी उत्पत्तिके लिये बुद्धिमान् मनुष्य भिन्न भिन्न कारणों ( उपादन) का ही अन्वेषण करते देखे जाते हैं - बालुसे तेल निकालनेका प्रयत्न कोई भी बुद्धिमान् नहीं करता है । इसके अतिरिक्त बस्तुको सर्वथा अनित्य माननेपर ' यह वही देवदत्तं है जिसे कि दस वर्ष पूर्व में देखा था ' ऐसा अनुभवसिद्ध प्रत्यभिज्ञान भी 1 जसं यथा तथैकं । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आत्मानुशासनम् [श्लो० १७३ कृतस्तदित्थंभूतं सिद्धमित्याह-- अप्रतिहतप्रतिभासरोधात् अबाध्यमानानुभव - स्वीकारात् । किं कदाचित्ततादृशमित्याह-- आद्यन्तहीनम् । अनाद्यन्तरूपतया जीवादिरूपं तादृशम् । अस्तु नाम एकं किंचित्तत्त्वं 2 न तु सर्वमित्याह -- नहीं हो सकेगा । परन्तु वह होता अवश्य है अतएव वस्तु जिस प्रकार सर्वथा नित्य नहीं है उसी प्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं है । किन्तु द्रव्य ( सामान्य ) की अपेक्षासे वह कथंचित् नित्य और पर्याय (विशेष) की अपेक्षासे कथंचित् अनित्य भी है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । कारण कि ऐसी ही निर्बाध प्रतीति भी होती हैं । ( ३ ) विद्वानाद्वैतवादी एक मात्र विज्ञानको ही स्वीकार करते हैं - विज्ञान को छोड़कर अन्य कोई. पदार्थ उनके यहां वस्तुभूत नहीं माने गये हैं । उनका अभिप्राय है कि घटपटादि जो भी पदार्थ देखने में आते हैं वे काल्पनिक हैं - अवस्तुभूत हैं । इस कल्पनाका कारण बनादि अविद्यावासना है । उनके इस अभिप्रायका निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया है कि वस्तुतत्त्व केवल ज्ञानमात्र ही नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है । इसके अतिरिक्त एक मात्र विज्ञानको ही वस्तुभूत स्वीकार करनेपर कारक और क्रिया आदिका जो भेद देखा जाता है वह विरोधको प्राप्त होगा। जो भी उत्पन्न होते हुए कार्य देखे जाते हैं, कोई भी कार्य अपने आपसे नहीं उत्पन्न हो सकता है । दूसरे, जिस अविद्याकी वासनासे अनुभूयमान पदार्थोंको अवस्तुभूत माना जाता है वह अविद्या भी यदि अवस्तुभूत है तब तो उसके निमित्तसे उक्त पदार्थोंको अवस्तुभूत नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, अवस्तुभूत गधेके सींग किसीको कष्ट देते हुए नहीं देखे जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त अद्वैतको कल्पनामें पुण्य - पाप, सुख-दुःख, लोक-परलोक, विद्या अविद्या और बन्ध - मोक्ष आदिकी व्यवस्था न बन सकनेसे समस्त लोकव्यवहार ही समाप्त हो जाता है । अतएव विज्ञानाद्वैतके समान [ पुरुषाद्वैत, 1 ज स नित्यानित्यादिस्वरूपाणि ' इति नास्ति । 2 प नामैकं चित्तत्त्वम् । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुनः सर्वेथानित्यानित्यत्वादिनिषेधः ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावमेज्ज्ञानभावनाम् ॥१७४॥ -१७४] १६७ अखिलं च यथा एकं जीवादितत्त्वं श्रीव्योत्पादव्ययात्मकं तथा अखिलें च अखिलमपि ॥ १७३ ।। यद्येवंविधं सर्व वस्तु साधारण स्वरूपं तदात्मनः कीदृशम साधारणं स्वरूपं यद्भाव्यमानें तस्य मुक्ति चित्राद्वैत एवं शब्दाद्वैत आदि कोई भी अद्वैत युक्तिसंगत नहीं है; ऐसा समझना चाहिये । (४) माध्यमिक (शून्यैकान्तवादी ) चराचर जगत्को शून्य या अभावस्वरूप मानते हैं । उनका कहना है कि जिस प्रकार स्वप्न में विविध प्रकारकी वस्तुएँ एवं कार्य आदि देखने में आते हैं, किन्तु निद्राभंग होते ही वे सब विलीन हो जाते हैं - अवस्तुभूत प्रतिभासित होने लगते हैं, उसी प्रकार घटपटादिस्वरूपसे प्रतिभासित होनेवाले समस्त ही पदार्थ स्वप्न में देखे हुए पदार्थों के ही समान अवस्तुभूत हैं । उनका वैसा प्रतिभास अज्ञानतासे होता है । इस मतका खण्डन करते हुए यहां यह कहा है कि तत्त्व अभावस्वरूप भी नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नही होती है । किंतु वह प्रतीति उसके विपरीत ही होती है - प्रत्यक्ष में देखे जानेवाले समस्त पदार्थ और उनके निमित्तसे होनेवाला सारा लोकब्यवहार यथार्थ ही प्रतीत होता है, न कि स्वप्न के समान अयथार्थ । यदि जगत्को सर्वथा शून्य ही माना जावे तो फिर शून्यैकान्तवादी न तो अपनेही अस्तित्वको सिद्ध कर सकेंगे और न अन्य श्रोताओं के भी । ऐसी अवस्थामें जगत्की उस शून्यताको कौन और किसके प्रति सिद्ध करेगा, यह सब ही सोचनीय हो जाता है । इस प्रकार मुक्तिसे विचार करनेपर तत्त्वको सर्वथा आभावस्वरूप स्वीकार करना भी उचित नहीं प्रतीत होता । तत्त्वकी यथार्थ व्यवस्था तो अनेकान्त के आश्रय से विवक्षा भेदके अनुसार- ही हो सकती है, न कि सर्वथा एकान्तस्वरूपसे ॥१७३॥ आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है और उस अनंतज्ञानादि स्वभावकी जो प्राप्ति है, यही उस आत्माकी अच्युति अर्थात् मुक्ति है । इसलिये मुक्तिकी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आत्मानुशासनम् .. । श्लो० १७४ प्रसाधयेदित्यह- ज्ञानस्वभाव इत्यादि । स्वभावावाप्तिः कर्मापाय प्रादुर्भ-- वानन्तचतुष्टयस्वरूपप्राप्तिः । अच्युतिः मुक्तिः।।१७४॥ ननु ज्ञाने श्रुतभावनास्वभाके अभिलाषा करनेवाले भव्यको उस ज्ञानभावनाका चिन्तन करना काहिये ॥ विशेषार्थ-पूर्व श्लोकमें यह बतलाया था कि जितने भी जीवाजीवादि पदार्थ हैं वे सब ही विवक्षाभेदसे नित्यानित्यादि अनेक स्वभाववाले हैं। यह कथंचित् नित्यानित्यादिरूपता उक्त सब ही पदार्थोंका साधारण स्वरूप है । इसपर प्रश्न उपस्थित होता है कि जब यह समस्त पदार्थोंका साधारण स्वरूप है तब आत्माका असाधारण स्वरूप क्या है जिसका कि चिन्तन किया जा सके। इसके उत्तर स्वरूप यहां यह बतलाया है कि आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान है और वह अविनश्वर है । जो भी जिस पदार्थका असाधारण स्वरूप होता है वह सदा उसके साथ ही रहता है-जैसे कि अग्निका उष्णत्व स्वरूप । इस प्रकार यद्यपि आत्माका स्वरूप ज्ञान है और वह अविनश्वर भी है तो भी वह अनादि कालसे ज्ञानावरण एवं मोहनीय आदि कर्मोंके निमितसे विकृत (राग-द्वेषबुद्धिस्वरूप) हो रहा है जैसे कि अग्निके संयोगसे जलका शीतल स्वभाव विकृत होता है। अग्निका संयोग हट जानेपर जिस प्रकार वह. जल अपने स्वभावमें स्थित हो जाता है उसी प्रकार शानावरणादि कर्मोके हट जानेपर आत्मा भी अपने स्वाभाविक अनन्तचतुष्टयमें स्थित हो जाता है। बस इसीका नाम मोक्ष है। इसीलिये यहां मुमुक्षु जनसे यह प्रेरणा की गई है कि आप लोग यदि उस मोक्षकी अभिलाषा करते हैं तो आत्माका स्वरूप जो शान है उसीका वार वार चिन्तन करें,क्योंकि,एक मात्र वही अविनश्वर स्वभाव उपादेय है-शेष सब विनश्वर पर पदार्थ (स्त्री-पुत्र एवं धन आदि) हेम हैं । इस प्रकारको भावनासे उस मोक्षकी प्राप्ति हो सकेगी ॥१७४।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७५] श्रुतभावनायाः फलं ज्ञानमेव ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥ १७५॥ पृथक्त्वैकरूपशुक्लध्यानात्मके च भाग्यमाने किं फलं स्यादित्याशङ्याह-- ज्ञानमित्यादि । अनश्वरम् अनन्तम् । अन्यदपि अणिमामहिमादि लामपूजादि वा। अत्र ज्ञाने ।। १७५ ॥ श्रुतज्ञानभावनायां प्रवृत्तयो व्याभव्ययोः किं फलं ज्ञानस्वभावका विचार करनेपर प्राप्त होनेवाला उसका फल भी वही ज्ञान है जो कि प्रशंसनीय एवं अविनश्वर है। परन्तु आश्चर्य है कि अज्ञानी प्राणी उस ज्ञानभावनाका फल ऋद्धि आदिको प्राप्ति भी खोजते हैं, यह उनके उस प्रबल मोहकी महिमा है। विशेषार्थ- उक्त ज्ञानभावनाके चिन्तनसे क्या फल प्राप्त हो सकता है, इस जिज्ञासाकी पूर्तिस्वरूप यहां यह बतलाया है कि उक्त ज्ञानभावना (श्रुतचिन्तन) का फल भी उसी ज्ञानको प्राप्ति है । कारण यह कि श्रुतज्ञानका विचार करनेपर साक्षात फल तो उन उन पदार्थो के विषय में जो अज्ञान था वह नष्ट होकर तद्विषयक ज्ञानको परिप्राप्ति है, तथा उसका पारम्परित फल निर्मल एवं अविनश्वर केवलज्ञानकी प्राप्ति है। इस तरह दोनों भी प्रकारसे उसका फल ज्ञानको ही प्राप्ति है । उसका फल जो ऋद्धि-सिद्धि आदि माना जाता है वह अज्ञानतासे ही माना जाता है। कारण यह कि जिस प्रकार खेतीका वास्तविक फल अन्नका उत्पादन होता है, न कि भूसा आदि- वह तो अन्नके साथमें अनुषंगस्वरूपसे होनेवाला ही है । इसी प्रकार श्रुतभावनाका भी वास्तविक फल केवलज्ञानकी प्राप्ति ही है, उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली ऋद्धियों आदिकी प्राप्ति तो उक्त भूसेके समान उसका आनुषंगिक फल है । अतएव जिस प्रकार कोई भी किसान भूसप्राप्तिके विचारसे कभी खेती नहीं करता है, किन्तु अन्नप्राप्तिके ही विचारसे करता है। उसी प्रकार विवेकी जनोंको भी उक्त केवलज्ञानकी प्राप्तिके विचारसे ही श्रुतभावनाका चिन्तन करना चाहिये, न कि ऋद्धि आदिकी प्राप्ति इच्छासे ॥ १७५ ।। । प.स्यादित्याह । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आत्मानुशासनम् [श्लो० १७६ - शास्त्राग्नौ मणिवद्भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः। अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ॥ १७६ ॥ स्यादित्याह- शास्त्रेत्यादि । शास्त्रमेव अग्निः यथावद्वस्तुस्वरूपप्रकाशकत्वात् संसाराटवीदाहहेतुत्वाच्च । मणिवत् पुष्परागादिरत्नवत् । विशुद्धो निर्मलो। भाति शोभते । निर्वृतः सुखीभूतो मुक्तो वा सन् । खल: अभव्य: । दीप्त: शास्त्राग्निना प्रकाशमानः । मली मिथ्याज्ञानेन मलिनः । उभयत्र वा-शब्द: परस्परसमुच्चये । भस्म दर्शनमोहोदये(न) अनन्तानुबन्धि क्रोधाद्युदयेन च भस्म वा भवेत् पदार्थप्रकाशशून्यो भवेदित्यर्थः ॥ १७६ ॥ ध्यानसामग्री दर्शयन्नाह-- मुहुरित्यादि । मुहुः प्रसार्य पुन: विस्तीर्य। प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । अध्यात्मवित् शास्त्ररूप अग्निमें प्रविष्ट हुआ भव्य जीव तो मणिके समान विशुद्ध होकर मुक्तिको प्राप्त करता हुआ शोभायमान होता है। किन्तु दुष्ट जीव (अभव्य) उस शास्त्ररूप अग्निमें प्रदीप्त होकर मलिन व भस्मस्वरूप हो जाता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार पद्मरागादि मणिको अग्निमें रखनेपर वह मलसे रहित होकर अतिशय निर्मल हो जाता है और सदा वैसा ही रहता है उसी प्रकार श्रुतभावनाका विचार करनेपर भव्य जीव भी राग-द्वेषादिरूप मलसे रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है और सदा उसी अवस्थामें प्रकाशमान रहता है। इसके विपरीत जिस प्रकार अग्निके मध्यमें स्थित अंगार यद्यपि उस समय अतिशय दैदीप्यमान होता हैं तो भी पीछे वह मलिन कोयला अथवा भस्म बन जाता है उसी प्रकार उक्त श्रुतभावनाके विवारसे अभव्य जीव भी यद्यपि उस समय ज्ञानादिके प्रभावसे प्रकाशमान होता है तो भी वह मिथ्याज्ञानसे पदार्थोंको जान करके मलिन तथा मिथ्यादर्शन व अनन्तानुबन्धीके प्रभावमें उनमें राग-द्वेषबुद्धिको प्राप्त होकर भस्मके समान पदार्थज्ञानसे रहित हो जाता है । यहां शास्त्रमें जो अग्निका आरोप किया गया है वह इसलिये किया गया है कि जिस प्रकार अग्नि वस्तुको प्रकाशित करती है और इन्धनको जलाती भी है उसी प्रकार शास्त्र भी वस्तुस्वरूपको 1प विस्तार्य । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्य भवभ्रमणे मन्थनदण्डदृष्टान्तः मुहुः प्रसार्य संज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ ॥ वेष्टनोद्वेष्टने यावत्तावद् भ्रान्तिर्भवार्णवे । आवृत्तिपरिवृत्तिभ्यां जन्तोन्यानुकारिणः ॥ १७८ ॥ - १७८] १७१ आत्मस्वरूपवेदको मुनिः ।। १७७ । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य कुतो ध्यायेदिति चेत् तयोः संसारनिबन्धनकर्मो गर्जन हेतुत्वात् एतदेवाह -- वेष्टनेत्यादि । वेष्टनोद्वेष्टने कर्मणो बन्ध-निर्जरे मन्यवत्त्रसिद्धं (द्धे) प्रीत्यप्रीतिवशान् खलु कर्मण प्रकाशित करता है और कर्मरूप इन्धनको जलाता भी है । इस प्रकार उन दोनोंमें प्रकाशकत्व एवं दाहकत्वरूप समान धर्मोंको देखकर ही वैसा आरोप किया गया है ।। १७६ ।। आत्मतत्त्वका जानकार मुनि बार बार सम्यग्ज्ञानको फैलाकर जैसा कि पदार्थोंका स्वरूप है उसी रूपसे उनको देखता हुआ राग और द्वेषको दूर करके ध्यान करे | विशेषार्थ -- अभिप्राय यह है कि आत्महितैषी जीवको सबसे पहिले सम्यग्ज्ञानके द्वारा जीवाजीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूपको जाननेका प्रयत्न करना चाहिये । ऐसा होनेपर आत्मस्वरूपकी जानकारी हो जानेसे उसकी उस ओर रुचि होगी । इसके अतिरिक्त बाह्य पर पदार्थों में इष्टानिष्टबुद्धि के न रहनेसे रागद्वेषरूप प्रवृत्ति भी नष्ट हो जावेगी जिससे कि वह एकाग्र चित्त होकर ध्यानमें लीन हो सकेगा । कारण यह कि राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिके होते हुए उस ध्यानकी सम्भावना नहीं है ।। १७७ ॥ मथनीका अनुकरण करनेवाले जीवके जबतक रस्सी बंधने और खुलनेके समान कर्मोका बन्ध और निर्जरा ( सविपाक ) होती है तबतक उक्त रस्सीके खींचने और ढीली करने के समान राग और द्वेषसे उसका संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण होता ही रहेगा ॥ विशेषार्थ -- यहां जीवको मन्थनदण्ड ( मथानी ) के समान बतलाया है । उससे सम्बद्ध कर्म उस मन्थनदण्डके ऊपर लिपटी हुई रस्सीके समान हैं, उसकी राग और द्वेषमय प्रवृत्ति उक्त रस्सीको एक Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आत्मानुशासनम् ... [श्लो० १७८ उपार्जननिर्जरे । ते वेष्टनोद्वेष्टने यावत् तावत् जन्तोः भ्रान्तिः भ्रमणम् । भवार्णवे संसारसमुद्रे । काभ्याम् । आवृत्तिपरिवृत्तिभ्यां गमनागमनाभ्याम् आकर्षण-मोचनाभ्याम् इत्यन्यत् ॥ १७८ ।। ओरसे खींचने और दूसरी ओरसे कुछ ढीली करनेके समान है, तथा उससे होनेवाला बन्ध और सविपाक निर्जरा उस रस्सीके बंधने और उकलनेके समान है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मथानीमें लिपटी हुई रस्सीको एक ओरसे खींचने और दूसरी ओरसे ढीली करनेपर वह रस्सी बंधती व उकलती ही रहती है तथा इस प्रकारसे वह मथनदण्ड बराबर घूमता ही रहता है- उसे विश्रान्ति नहीं मिलती। हां, यदि उस रस्सीको एक ओरसे सर्वथा छोडकर दूसरी ओरसे पूरा ही खींच लिया जाय तो फिर उसका इस प्रकारसे बंधना और उकलना चालू नहीं रह सकेगा। तब मन्थनदण्ड स्वयमेव स्थिर-- परिभ्रमणसे रहित--हो जावेगा। ठीक इसी प्रकारसे जबतक जीवकी राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति चालू रहती है तबतक वह कर्मोंका बन्ध करके और उनका फल भोगकर निर्जरा भी करता ही रहता है । कारण यह कि राग-द्वेषसे जिन नवीन कर्मोका बन्ध होता है उनके उदयमें आनेपर जीव तत्कृत सुखदुःखरूप फलको भोगता हुआ फिर भी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है । इस प्रकारसे यह क्रम जबतक चालू रहता है तबतक प्राणी चतुर्गतिरूप इस संसारमें परिभ्रमण करता ही रहता है । परन्तु यदि वह रागद्वेषसे बांधे गये उन कर्मोको तपश्चरणादिके द्वारा अविपाक निर्जरास्वरूपसे नष्ट कर देता है तो फिर राग-द्वेषरूप परिणतिसे रहित हो जानेके कारण उसके नवीन कर्मोंका बन्ध नहीं होता है । और तब संवर एवं निर्जराके आश्रयसे उसका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि जबतक प्राणी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है तक उसका चित्त स्थिर नहीं रह सकता है, और जबतक चित्त स्थिर नहीं होता है तबतक ध्यानकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतएव ध्यानकी प्राप्तिके लिये राग-द्वेषसे रहित होना अनिवार्य है ॥ १७८ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभ्रमण विरामेऽपि स एव दृष्टान्तः मुच्यमानेन पाशेन भ्रान्तिर्बन्धश्च मन्त्रवत् । जन्तोस्तथासौ मोक्तव्यो येनाभ्रान्तिरबन्धनम् ॥ १७९॥ -१७९] १७३ उद्देष्टनं किंचिज्जिन्तोर्भ्रान्तिबन्धस्य च कारणं किचिन्नेति दर्शयन्नाह-मुच्यमानेनेत्यादि । मुच्यमानेन उद्वेष्टथमानेन ! निर्जीर्यमाणेनेत्यर्थः । पाशेन कर्मबन्धेन । भ्रान्तिर्ब्रन्थश्च भ्रान्तिः संसारे पर्यटनं बन्धश्च पूर्वकर्मोपार्जनं रागद्वेषसद्भावात् प्रसिद्धं अन्यत्र तथा 2 रागद्वेषपरिहारतः संवरविधानेन । असौ पाश: ।। १७९ ।। कथं पुनर्जन्तोर्बन्धोऽबन्धश्चेत्याह---- छोडी जानेवाली रस्सीकी फांसी के द्वारा मथानी के समान जीवके नवीन बन्ध और परिभ्रमण चालू रहता है । अतएव उसको इस प्रकार से छोडना चाहिये कि जिससे फिरसे बन्धन और परिभ्रमण न हो सकें ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार मधानी में फांसीके समान लिपटी हुई रस्सी यदि एक ओरसे खींचने के साथ दूसरी ओरसे ढीली की जाती है तब तो मथानीका बंधना व घूमना बराबर चालू ही रहता है । किन्तु यदि उस रस्सीको दोनों ओरसे हो ढीला कर दिया जाता है तो फिर मथानी के घूमने की क्रिया सर्वथा बन्द हो जाती है । ठीक इसी प्रकारसे जीवकी फांसी स्वरूप सम्बद्ध कर्मको यदि सविपाक निर्जराके द्वारा राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिके साथ छोडते हैं- निर्जीर्ण करते हैं- तब जो जीवकें नवीन कर्मोंका बन्ध और संसार परिभ्रमण पूर्ववत् बराबर चालू रहता है । परन्तु यदि उक्त कर्मरूप फांसीको अविपाक निर्जरापूर्वक राग-द्वेषसे रहित होकर छोडा जाता है तो फिर उसके नवीन कमका बन्ध और संसारपरिभ्रमण दोनो ही रुक जाते है । अतएव सविपाक निर्जरा हेय और अविपाक निर्जरा उपादेय है, यह अभिप्राय महां ग्रहण करना चाहिये ॥ १७९ ॥ राग और द्वेषके द्वारा की गई प्रवृत्ति और निवृत्तिसे जीवके बन्ध होता है तथा तत्त्वज्ञानपूर्वक की गई उसी प्रवृत्ति और निवृत्तिके द्वारा उसका मोक्ष देखा जाता है । 1 ज स ' उद्वेष्टयमानेन ' इति नास्ति । 2 प तथा ' इति नास्ति । 1 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ आत्मानुशासनम् (श्लो० १८० रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोबंन्धः प्रवृत्त्यवृत्तिभ्याम्। तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ॥१८॥ रागेत्यादि । प्रवृत्त्यवृत्तिभ्यां प्रवृत्तिः स्त्र्यादौ व्रतग्रहणादौ वा रागेण,अप्रवृत्ति तक भोजनादौ च द्वेषेण । तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्याम् एव प्रवृत्त्यवृत्तिभ्यामेव । तत्कृता हि प्रवृत्ति: व्रतसमितिगृप्त्यादौ अप्रवृत्तिः पुनः अव्रतादौ ।।१८०॥ ननु बन्धो भवति विशेषार्थ-जीव जबतक बाह्य पर पदार्थों में इष्ट और अनिष्टकी कल्पना करता है तबतक उसके जिस प्रकार इस पदार्थ के संयोगमें हर्ष और उसके वियोगमें विषाद होता है उसी प्रकार अनिष्ट पदार्थके संयोगम द्वेष और उसके क्यिोगमें हर्ष भी होता है। इस प्रकारसे जबतक उसकी इष्ट वस्तुके ग्रहणादिमें प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तुके विषयमें निवृत्ति होती है तबतक उसके कर्मोका बन्ध भी अवश्य होता है । इसके विपरीत जब कह तत्त्वज्ञानपूर्वक अनिष्ट हिंसा आदिके परिहार और इष्ट (तप-संयम आदि) के ग्रहण में प्रक्त होता है तब उसके नवीन कर्मोके बन्धका अभाव (संवर) और पूर्वसंचित कर्मोकी निर्जरा होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है । इसलिये यह ठीक ही कहा गया है कि 'रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते ।' अर्थात् रागी जीव तो कर्मको बांधता है और वीतराग उससे मुक्त होता है-निर्जरा करता है। इसी प्रकार पुरुषार्थसिद्धयुपाय (२१२-२१४) में भी रागको बन्धका कारण और रत्नत्रयको बन्धाभावका कारण बतलाया गया है ॥ १८० ॥ गुणके निमित्तसे की गई द्वेषबुद्धि तथा दोषके निमित्तसे की गई अनुरागबुद्धि, इनसे पापका उपार्जन होता है। इसके विपरीत गुणके निमित्तने होनेवाली अनुरागबुद्धि और दोषके निमित्तसे होनेवाली द्वेषबुद्धिसे पुण्यका उपार्जन होता है । तथा उन दोनोंसे रहित-अनुराग 1जस प्रवृत्त्यप्रवृत्तिभ्यां । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८१] पाप-पुण्ययोस्तन्मोक्षे च कारणम् १०५ द्वेषानुरागबुद्धिर्गुणदोषकृता करोति खलु पापम् । तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहितं तयोर्मोक्षम् ॥१८१॥ पापरूपः पुण्यरूपश्च, स च कुतो जायते कुतो वा तदुभयाभावः इत्याशझ्याह-- द्वेषेत्यादि । मुणे सम्यग्दर्शनादौ द्वेषबुद्धिः त्यामबुद्धिः कृता, मिथ्य'दर्शनादौ अनुरागबुद्धिः उपादानबुद्धिः कृता । तद्विपरीता गुणेऽनुरामबुद्धिः दोषे द्वेषवुद्धिः । तदुभयरहिता राग--द्वेषरहिता । तयोः पुण्यपापयोः । मोक्षम् आस्रवनिरोधं निर्जरां च ॥ १८१ ।। यदि राम--द्वेषयोः उक्तप्रकार-. बुद्धि और द्वेषबुद्धि के विना-उन दोनों (पाप-पुण्य) का मोक्ष अर्थात् संवरपूर्वक निर्जरा होती है ॥ विशेषार्थ--जीवकी प्रवृत्ति तीन प्रकारको होती है-अशुभ, शुभ और शुद्ध । इनमें अशुभ प्रवृत्ति व्रत-संयमादिसे द्वेष रखकर दुर्व्यसनादिमें अनुराग रखनेसे होती है और वह पापबंधनकी कारण होती है । इसके विपरीत शुभ प्रवृत्ति उन दुर्व्यसनादिको अनिष्ट समझकर व्रत-संयमादिमें अनुराग रखनेसे होती है और वह पुण्यबन्धको कारण होती है । इनके अतिरिक्त राग और द्वेष इन दोनोंसे ही रहित होकर जो आत्मध्यानरूप जीवकी प्रवृत्ति होती है वह है उसको शुद्ध प्रवृत्ति और वह उपर्युक्त पाप और पुण्य दोनों के ही नाशका कारण होती है । यह अन्तिम प्रवृत्ति (शुद्धोपयोग) ही जीवको उपादेय है । परंतु जबतक वह शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति सम्भव नहीं है तबतक जीवके लिये उस अशुभ प्रवृत्तिको छोडकर शुभप्रवृत्तिको अपनाना भी योग्य है । परंतु अशुभ प्रवृत्ति तो सर्वथा और सर्वदा हेय ही है। उदाहरणके रूपमें जैसे ब्रह्मचर्य सर्वदा और सर्वथा ही उपादेय है। परंतु जो उसका सर्वथा पालन नहीं कर सकता है उसके लिये यह भी अच्छा है कि किसी योग्य कन्याको सहधर्मिणीके रूपमें स्वीकार करके अन्य स्त्रियोंकी ओरसे विरक्त होता हुआ केवल उसीके साथ अनासक्तिपूर्वक विषयसु. खका अनुभव करे । इसके विपरीत स्वस्त्री और परस्त्री आदिका भेद न करके स्वेच्छाचारितासे आसक्तिके साथ विषयभोग करना, यह सर्वथा निन्द्य ही समझा जाता है-उसकी प्रशंसा कभी भी किसीके द्वारा नहीं की जाती है । यही भाव यहां अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगके भी विषयमें समझना चाहिये ३१८१॥ जिस प्रकार बीजसे जड और Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० १८२मोहबीजाद्रतिद्ववौ बीजान्मूलाङ्कुराविव । तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतो निर्दिधिक्षणा ॥१९॥ पुराण ग्रहदोषोत्यो गम्भीरः सगतिः सरुक । त्यागजात्यादिना मोहवणः शुद्धयति रोहति ॥१८॥ बन्धहेतुत्वं तदा कुतस्तयोः प्रादुर्भाव इत्याह-मोह इत्यादि । मोह एव बीजं कारणं तस्मात् । तत् मोहबीज। एतौ रति-द्वेषौ। निर्दिधिक्षुणा दग्धमिच्छना ।।१८२॥ स च अनयो/जभूतो मोहः कीदृशः किं च तद्विनाशे कारणमित्याह-पुराण इत्यादि। मोह एव व्रणो मोहवणः । कीदृश: । पुराण: अनादिकालीनो बहुकालीनश्च । ब्रहदोषोत्थ:-मोहपक्षे परिग्रहग्रहणलक्षणदोषादुत्थानं यस्य व्रणपक्षे तु ग्रहदोष, उत्था उत्थानं प्रादुर्भाको यस्य । गम्भीरः महान् । सगति: नरकादिगतियुक्तः, अन्यत्र नाडीयुक्तः । सरुक् पीडायुक्तः । त्यागः सर्वसंगपरित्यागः स एव जात्यादि घृतं तेन मोहवणः शुद्धयति रोहति, व्रणस्तु जात्यादिघृतेन ।। १८३॥ मोहव्रणं शोधयितुं चेच्छता विपन्नेष्वपि बन्धुषु शोको न अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोहरूप बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । इसलिये जो इन दोनों (राग-द्वेष) को जलाना चाहता है उसे ज्ञानरूप अग्निके द्वारा उस मोहरूप बोजको जला देना चाहिये । विशेषार्थ- जिस प्रकार वृक्षकी जड और अंकुरका कारण बीज है उसी प्रकार राग और द्वेषकी उत्पत्तिका कारण मोह (अविवेक) है अतएव जो वृक्षके अंकुर और जडको नहीं उत्पन्न होने देना चाहता है वह जिस प्रकार उक्त वृक्षके बीजको ही जला देता है। उसी प्रकार जो आत्महितैषी उन राग और द्वेषको नहीं उत्पन्न होने देना चाहता है उसे उनके कारण भूत उस मोहको ही सम्यग्ज्ञानरूप अग्निके द्वारा जलाकर नष्ट कर देना चाहिये । इस प्रकारसे वे राग-द्वेष फिर न उत्पन्न हो सकेंगे ॥१८२॥ मोह एक प्रकारका घाव है, क्योंकि वह घावके समान ही पीडाकारक है । जिस प्रकार पुराना (बहुत समयका), शनि आदि ग्रहके दोषसे उत्पन्न हुमा, गहरा, नससे सहित और पीडा देनेवाला घाव औषधयुक्त पी (मलहम) आदिसे शुद्ध होकर-- पीव आदिसे रहित होकर-- भर जाता है उसी प्रकार पुराना अर्थात् अनादिकालसे जीवके साथ रहने14 तस्माद् मोहबीज। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ -१८४] इष्टवियोगे शोको न कर्तव्यः १७७ सुहृदः सुखयन्तः स्युर्दुःखयन्तो यदि द्विषः । सुहृदोऽपि कथं शोच्या द्विषो दुःखयितुं मृताः ॥ १८४॥ कर्तव्य इत्याह-- सुहृद इत्यादि । सुहृदः मित्राणि । सुखयन्तः सुखं कुर्वन्तः । दुःखयन्तः दुःखं कुर्वन्तः । द्विषः शत्रवः । द्विषो दुःखयितुं मृताः दु:खं कर्तु मृताः सन्तो द्विषः ॥ १८४ ।। सुहृदां मरणे चोत्पन्नदुःखो भवान् किं करोतीत्याह-- वाला, परिग्रहके ग्रहणरूप दोषसे उत्पन्न हुआ, गम्भीर (महान्), नरकादि दुर्गतिका कारण और आकुलतारूप रोगसे सहित ऐसा वह घावके समान कष्टदायक मोह भी उक्त परिग्रहके परित्यागरूप मलहमसे शुद्ध होकर (नष्ट होकर) ऊर्ध्वगमन (मुक्तिप्राप्ति) में सहायक होता है ॥ १८३ ॥ यदि सुखको उत्पन्न करनेवाले मित्र और दुखको उत्पन्न करनेवाले शत्रु माने जाते हैं तो फिर जब मित्र भी मर करके वियोगजन्य दुखको करनेवाले हैं तब वे भी शत्रु ही हुए। फिर उनके लिये शोक क्यों करना चाहिये? नहीं करना चाहिये ॥ विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि जो प्राणोको सुख देता है वह मित्र माना जाता है और जो दुख देता है वह शत्रु माना जाता है। यह लोकप्रसिद्ध बात है । अब यदि विचार करें तो प्राणी जिन पिता, पुत्र एवं बन्धु आदिको मित्रके समान सुखदायक मानता है वे भी सदा सुख देनेवाले नहीं होते । कारण कि जब उनका मरण होता है तब उनके वियोगमें वह अत्यधिक दुखी होता है । ऐसी अवस्थामें वे मित्र कैसे रहे- दुखदायक होनेसे वे भी शत्रु ही हुए। फिर उनके निमित्त जो यह प्राणी शोकसंतप्त होता है वह अपनी अज्ञानताके कारण ही होता है । अतएव अज्ञानताके कारणभूत उस मोहको ही नष्ट करना चाहिये ॥ १८४ ॥ जो जडबुद्धि जीव दूसरे स्त्री, पुत्र एवं मित्र आदिके अपरिहार्य मरणके होनेपर उन्हें अपना समझ करके रोता हुआ अतिशय विलाप करता है तथा अपने मरणके भी उपस्थित होनेपर जो उसी प्रकारसे विलाप करता है आ. १२ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आत्मानुशासनम् [श्लो० १८५अपरमरणे मत्वात्मीयानलयतमे रुदन् विलपति तरां स्वस्मिन् मृत्यो तथास्य जडात्मनः । विभयमरणे भयः साध्यं यशः परजन्म वा कथमिति सुधीः शोकं कुर्यान्मृतेऽपि न केनचित् ॥ १८५॥ अपरेत्यादि। अपरेषां मित्र-पुत्रकलत्रादीनां मरणे । कथंभूते। अलभ्यतमे अतिशयेन अशक्यप्रतिविधाने । मत्वा आत्मीयान् मदीया एते इति मत्वा । रुदन् । तथा स्वस्मिन् मृत्यो सति विलपति तराम् अतिशयेन आक्रन्दति बिभयमरणे गलगजितं कृत्वा (आक्रन्दति गलगजितं कृत्वा । विभयमरणे) संन्यासमरणे सति । यत्साध्यं भूयो महत् यशः परजन्म वा तत्कथम् अस्य जडात्मन: स्यात् । इति हेतोः । सुधी: शोकं न कुर्यात् । केनचित् केनापि प्रकारेण ॥ १८५ ॥ मृतेऽपि उस जडबुद्धिके निर्भयतापूर्वक मरण (समाधिमरण) को प्राप्त होनेपर जिस महती कीर्ति और परलोककी सिद्धि हो सकती थी वह कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है। अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको मरणके प्राप्त होनेपर किसी प्रकारसे शोक नहीं करना चाहिये । विशेषार्थ-- जिसने जन्म लिया है वह मरेगा भी अवश्य- कोई भी उसके मरणको रोक नहीं सकता है । इस प्रकार जब यह एक निश्चित सिद्धान्त है तब जो स्त्री, पुत्र एवं मित्र आदि प्रत्यक्षमें अपनेसे भिन्न हैं- अपने नहीं हैं- उन्हें अपना मानकर यह प्राणी उनका मरण होनेपर क्यों रोता व शोक करता है, यह शोचनीय है। इसी प्रकार जब वह स्वयं भी मरणोन्मुख होता है तब भी विलाप करता है। इससे उसकी अपकीर्ति तो होती ही है, साथ ही परलोक भी बिगडता है। अतएव यदि वह निर्भयतापूर्वक समाधिमरणको स्वीकार करता है तो इससे उसकी कीतिका भी प्रसार होगा, साथ ही परलोकमें स्वर्गादि अभ्युदयकी भी सिद्धि अवश्य होगी। इसीलिये विवेकी जनका यह कर्तव्य है कि जब मरण सबका अनिवार्य है तब वह अपने और अन्य किसी सम्बन्धीके भी मरणके समय शोक न करे।। १८५ ॥ इष्ट वस्तुकी हानिसे शोक और फिर उससे दुख होता है तथा उसके लाभसे राग Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८७] सर्वसंगपरित्याग एव सुखम् १७९ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेनः हानावशोकः सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधीः ॥ १८६॥ सुखी सुखमिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकलसंन्यासो दुःखं तस्य विपर्ययः ॥ १८७॥ फस्मिश्चिदात्मीये कुतश्चायं शोको जायते किंहेतुश्चेत्याह!- हानेरित्यादि । सुखी स्यात्सर्वदा सुधी: सुविवेकी सर्वदा अभिलषितार्थानां संपत्तिविपत्त्यवस्ययोः सुखी स्यात् ।। १८६ । य: अत्र सुखी स: अन्यत्र कीदृश इत्याह- सुखीत्यादि । समश्नुते और फिर उससे सुख होता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्यको इष्टको हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिये । विशेषार्थ--- दुखका कारण शोक और उस शोकका भी कारण इष्टसामग्रीका अभाव है। इसी प्रकार सुखका कारण राग और उस रागका भी कारण उक्त इष्टसामग्रीकी प्राप्ति है। परन्तु यथार्थमें यदि विचाग करें तो कोई भी बाह्य पदार्थ न तो इष्ट है और न अनिष्ट भी.- यह तो अपनी रुचिके अनुसार प्राणीकी कल्पना मात्र है। कहा भी हैअनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता। सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना ।। अर्थात् संसार अनादि है । उसमें जो किसी समय बन्धु रहा है वहीं अन्य समयमें शत्रु भी रह सकता है। इससे यही निश्चित होता है कि इस अनादि संसारमें न तो वास्तवमें कोई मित्र है और न कोई शत्रु भी। यह सब प्राणीकी कल्पना मात्र है । क्ष. च. १-६१. इसीलिये विवेकी जन ममत्वबुद्धिसे रहित होकर इष्टकी हानिमें कभी शोक नहीं करते । इससे वे सदा ही सुखी रहते हैं ।। १८६ ॥ जो प्राणी इस लोकमें सुखी है वह परलोकमें भी सुखको प्राप्त होता है तथा जो इस लोकमे दुखी है वह परलोकमें भी दुखको प्राप्त करता है। कारण यह कि समस्त इन्द्रियविषयोंसे विरक्त होनेका नाम सुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुख है ॥ विशेषार्थ---- आकुलताका नाम ___ 1 ज कस्यायं हेतुश्च । . . . . . . ---- Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . आत्मानुशासनम् [श्लो० १८८- मृत्योर्मृत्यन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् । तत्र प्रमुदितान् मन्ये पाश्चात्ये पक्षपातिनः ॥ १८८॥ प्राप्नोति । सकलसंन्यासः सर्वसंगपरित्यागः । तस्य विपर्ययः सर्वसंगपरित्यागाभावः ॥ १८७ ॥ ननु पुत्रादिमृत्योः शोकः तदुत्पत्तेस्तु प्रमोदस्तत्र केयमुत्पत्तिर्नामेत्याह-- मृत्योरित्यादि । मृत्योः पूर्वशरीरत्यागात् । मृत्यन्तरप्राप्ति: उत्पत्तिः- उत्पत्ते: उत्तरमृत्युना अविनाभावित्वादुपचारादुत्पत्तिरेव दुख और उसके अभावका नाम सुख है। जो प्राणी विषयभोगोंकी तृष्णासे युक्त होकर अपनी इच्छानुसार उन्हें प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है वह व्याकुल होकर जैसे इस लोकमें परिश्रमजन्य दुखको सहता है वैसे ही वह उक्त विषयोंके लाभालाभमें हर्ष व विवादको प्राप्त होता हुआ पापकर्मको उपार्जित करके परलोकमें भी दुर्गतिके दुखको सहता है । इसके विपरीत जो स्वेच्छासे उन विषय-भोगोंकी अभिलाषा न करके उन्हें छोड देता है और तप-संयमको स्वीकार करता है वह निराकुल रहकर जैसे इस लोक में सुखका अनुभव करता है वैसे ही वह राग-द्वेषसे रहित हो जानेके कारण पाप कर्मसे रहित होकर परलोक (स्वर्गादि) में भी सुखका अनुभव करता है ।। १८७ ॥ यहां संसार में एक मरणसे जो दूसरे मरणकी प्राप्ति है, यही प्राणियोंकी उत्पत्ति है। इसलिये जो जीव उत्पत्तिमें हर्षको प्राप्त होते हैं वे पीछे होनेवाली मृत्युके पक्षपाती हैं, ऐसा मैं समझता हूं ॥ विशेषार्थ-- लोकमें जब किसीके यहां पुत्रादिका जन्म होता है तब तो कुटुम्बी जन अतिशय हर्षको प्राप्त होकर उत्सव मनाते हैं और जब किसी इष्टका मरण होता है तब वे दुखी होकर रुदन करते हैं। वे यह नहीं विचार करते कि वह जन्म क्या है, आखिर आगे होनेवाली मृत्युका ही तो वह निमन्त्रण है । फिर जब वे पुत्रादिके जन्मम उत्सव मनाते हैं तो यही क्यों न समझा जाय कि वे आगे होनेवाली उसकी मृत्युका ही उत्सव मना रहे हैं। कारण यह कि जब वह उत्पन्न हुआ है तो मरेगा भी अवश्य ही। कहा भी है-- संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः । किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसंगो हि निवर्तते ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८९] तपःश्रुतयोः फलं न लाभपूजादिकम् अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् १८१ भृत्यन्तरशब्देनोच्यते, तस्य प्राप्तिः । तस्मिन् मृत्यन्तरे । पाश्चात्ये पश्चोत्रे ५। १८८।। अभेदानीं सर्वसंगत्यागिनो मृत्यूत्पस्षोः समानचेतसः सर्वशास्त्रविदः अर्थात् जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग भी अवश्यंभावी है । अन्यकी तो बात ही क्या है, किन्तु प्राणी सब कुछ यहींपर छोडेकर इस शरीर से भी अकेला ही निकलकर जाता है । क्ष. चू. १-६० अभिप्राय यह है कि प्राणीकी मृत्यु और जन्म ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । अतएव विवेकी जीवको न तो जम्म में हर्षित होना चाहिये और न मरणसे दुखी भी । अन्यथा वह इस भवमें तो दुखी है ही, साथ ही इस प्रकार से आसातावेदनीय आदिका बन्ध करके परभवमें भी दुखी ही रहनेवाला है | ॥ १८८ ।। समस्त आगमका अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि उन दोनों का फल तू यहां सम्पत्ति आदिका लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है तो समझना चाहिये कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्ष के फूलको ही नष्ट करता है । फिर ऐसी अवस्था में तू उसके सुन्दर व सुस्वादु पके हुए रसीलें फलको कैसे प्राप्त कर सकेगा ? नहीं कर सकेगा ॥ विशेषार्थ - जिसे प्रकार कोई मनुष्य वृक्षको लगाता है, जलसिंचन आदिसे उसे बढाता है, और आपत्तियोंसे उसका रक्षण भी करता है । परन्तु समयानुसार जब उसमें फूल आते हैं तब वह उन्हें तोड लेता है और इसीमें संतोषका अनुभव करता है । इस प्रकारसे वह मनुष्य भविष्य में आनेवाले उसके फलोंसे वंचित ही रहता है। कारण यह कि फलों की उत्पत्तिके कारण तो वे फूल ही थे जिन्हें कि उसने लोडकर नष्ट कर दिया है। ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी आगमका अभ्यास करता है और घोर तपश्चरण भी करता है परंतु यदि वह उनके फलस्वरूप प्राप्त हुई ऋद्धियों एवं पूजा-प्रतिष्ठा 1 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आत्मानुशासनम् ........ - [श्लो० १८९ छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्वं फलम् ॥१८९॥ तथा श्रुतमधीष्व शश्वदिह लोकपंक्ति विना शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः । कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान् शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तफःशास्त्रयोः ॥१९०॥ दुर्धरतपोऽनुष्ठायिनो मुनेः शिक्षा प्रयच्छन्नधीत्येत्यादिश्लोकद्वयमाह- अधीत्येत्यादि । उपास्य आराध्य । घोरं दुष्करम् । तयोः तपःश्रुतयोः । प्रसवं पुष्पम् । कथम् । न कथमपि । अस्य प्रसवस्य ।। १८९ ॥ तथेत्यादि । पङ्क्ति व्यवहारं वञ्चना वा । प्रथितानि प्रसिद्धानि । कषायविषयद्विषः कषायाश्च विषयाश्च त एव द्विषः शत्रवः । शमं रागाद्युपशमम् । आमनन्ति प्रतिपादयन्ति ।। १९० ।। आदिमें ही सन्तुष्ट हो जाता है तो उसको उस तपका जो यथार्थ फल स्वर्ग-मोक्षका लाभ था वह कदापि नहीं प्राप्त हो सकता है । अतएव तपरूप वृक्षके रक्षण एवं संवर्धनका परिश्रम उसका व्यर्थ हो जाता है। अभिप्राय यह हुआ कि यदि तपसे ऋद्धि आदिको प्राप्तिरूप लौकिक लाभ होता है तो इससे साधुको न तो उसमें अनुरक्त होना चाहिये और न किसी प्रकारका अभिमान भी करना चाहिये । इस प्रकारसे उसे उसके वास्तविक फलस्वरूप उत्तम मोक्षसुखकी प्राप्ति अवश्य होगी ॥१८९॥ हे भव्यजीव ! तू लोकपंक्तिके विना अर्थात् प्रतिष्ठा आदिकों अपेक्षा न करके निष्कपटरूपसे यहां इस प्रकारसे निरन्तर शास्त्रका अध्ययन कर तथा प्रसिद्ध कायक्लेशादि तपोंके द्वारा शरीरको भी इस प्रकारसे सुखा कि जिससे तू दुर्जय कषाय एवं विषयरूप शत्रुओंको जीत सके । कारण कि मुनिजन राग-द्वेषादिकी शान्तिको ही तप और शास्त्राभ्यासका फल बतलाते हैं ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय इतना ही है कि प्राप्त हुए विशिष्ट आगमज्ञान एवं तपके निमित्तसे किसी प्रकारके अभिमान भादिको न प्राप्त होकर जो राग-द्वेष एवं विषयवांछा आदि परमार्थ सुखकी प्राप्तिमें बाधक हैं उन्हें ही नष्ट करना चाहिये। यही उस आगमज्ञान एवं तपका फल है ॥१९०॥ हे भव्य ! तू विषयी जनको देखकर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९१] विषयाभिलाषो महदनर्थकरः १८३ दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोऽप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्तेहाद्युपकमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ॥१९१॥ मनु सशृङगारलोकावलोकनाद्विषयाभिलाषोत्सत्तेः कयं कषायादिविजय: स्यादि. स्याह--- दृष्ट्वेत्यादि । असौ विषयाभिलाषः । महदिति क्रियाविशेषणम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषः स्नेहादेः अनुवासादेर्दधिदुग्धघृतादेर्वा । उपक्रमस्य आरम्भस्य । जुषः प्रीत्या सेवकस्य । निषिद्धाचरणं निषिद्धानुष्ठानम् । इतरस्य यथेष्टवृत्तस्य ॥ १९१ ॥ अपकारके च वस्तुनि प्राणिमात्रस्णपि द्वेषो2 भवति स्वयं विषयकी अभिलाषाको क्यों प्राप्त होता है ? कारग कि थोडी-सी भी वह विषयाभिलाषा तेरे अधिक अनर्थ (अहित) को उत्पन्न करती है । ठीक ही है-जिस प्रकार कि तेल आदि स्निग्ध पदार्थों का सेवन करनेवाले रोगी मनुष्यके लिये दोष जनक होने से उनका सेवन करना निषिद्ध नहीं है उस प्रकार वह दूसरेके लिये नहीं है । विशेषार्थ- जो विषयोंसे विरक्त होकर तपमें प्रवृत्त हुआ है वह यदि स्त्रीजन आदिको देखकर फिरसे विषयको इच्छा करता है तो इससे उसका बहुत अधिक अहित होनेवाला है । जैसे कि कोई रोगी यदि तेल-घी आदि अपथ्य वस्तुओंका सेवन करता है तो इससे उसका रोग अधिक ही बढता है और तब वह इसने भी अधिक कष्टमें पडता है । परन्तु जो स्वस्थ है उसके लिये उन घी-तेल आदि पदार्थोंका सेवन निषिद्ध नहीं है । कारण कि वह उनको पचा सकता है । इसी प्रकार यदि कोई गहस्य स्त्री आदिको देखकर विषयसुखकी इच्छा करता है तो इससे उसका कुछ विशेष अहित होनेवाला नही है । कारण यह कि बह गृहस्थ अवस्थामें स्थित है-अभी वह उनका परित्याय नहीं कर सका है। परन्तु जो साधु अवस्था में स्थित है और जो उनका परित्याय कर चुका है वह यदि फिरसे उनमें अनुरक्त होता है तो यह उसके लिये लज्जाजनक तो है ही, साथ ही इससे उसकी परलोकमें भी बहुत अधिक हानि होनेवाली है ।।१९१॥ अहित 1.प यथेष्टाप्रवृत्तस्य। 2 ज स दोषो। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ [ श्लो० १९२ आत्मानुशासनम् अहित विहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाद्दोषं समीक्ष्य भवे भवे विषयविषवद्यासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः ॥ १९२॥ 1 विषयाश्च भवतो भूयोऽपकारं कृतवन्तोऽतः कथं तत्राभिलाषो युक्त इत्याह- अहितेत्यादि । अयम् अपि अहितविहितप्रीतिः जनः । सद्यः स्वयं जह्यति । किं तत् कलत्रम् । कथंभूतम् । प्रीतमपि वल्लभमपि । किं कृत्वा । अपकृतं श्रुत्वा कृतापराधम् आकर्ण्य । कथम् । सकृत् एकवारम् । भवान् पुनः बुधः स्वहितनिरतः भवे भवे विषयाणां साक्षाद्दोषं समीक्ष्य विषया एक विषवद्यासस्तस्याभ्यासं पुनः पुनः सेवां कथं कुरुते ।। १९२ ।। यदा च तदभ्यास कुरुते भवांस्तदा कीदृशोऽन्यदा च कीदृशः इत्याह-- आत्मन्नित्यादि । हे आत्मन् । आसीस्त्वं कारक विषयोंमें अनुराग करनेवाला यह अज्ञानी मनुष्य भी यदि एक बार भी दुराचरणको सुनता है तो वह अतिशय प्यारी स्त्रीको भी शीघ्र छोड देता है । फिर हे भव्य ! तू विद्वान् एवं आत्महित में लीन हो करके प्रत्यक्षमें अनेक भवोंमें विषयोंके दोषको देखता हुआ भी उन विषयोंरूप विषमिश्रित ग्रासका वार वार कैसे सेवन करता है ? ॥ विशेषार्थ - जो मनुष्य हिताहित विवेकसे रहित होकर विषयोंमें अनुरक्त रहता है वह भी यदि कभी अपनी प्यारी स्त्रीके विषय में कुछ दुराचरण आदिको सुनता है तो उस स्त्रीका परित्याग कर देता है । परन्तु आश्चर्य है कि जो विद्वान् आत्महितमें तत्पर है तथा जिसने एक भवमें ही नहीं, बल्कि अनेक भवोंमे विषयोंसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका प्रत्यक्षमें अनुभव भी कर लिया है; वह विषके समान अनिष्ट उन विषयोंको नहीं छोड़ता है । इससे अधिक लज्जाकी बात भला और क्या हो सकती है ॥ १९२॥ हे आत्मन् ! तू आत्मस्वरूपको नष्ट करनेवाले अपने आचरणोंके द्वारा चिर 'कालसे दुरात्मा अर्थात् बहिरात्मा रहा है अब तू आत्माका हित करनेबाले ऐसे अपने समस्त आचरणोंको अपनाकर उनके द्वारा उत्तम आत्मा अर्थात् अन्तरात्मा हो जा । इससे तू अपने आपके द्वारा प्राप्त करने योग्य Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९३] बहिरात्मादीनां स्वरूपम् आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरितैरात्मीकृतरात्मनः । दुरात्मा बहिरात्मा चिरम् । कैः कृत्वा । आत्मविलोपनात्मचरितः आत्मा विशेषेण लोप्यते निजस्वरूपात्प्रच्याव्यते तानि च तानि आत्मचरितानि, आत्मचरितानि च विषयादिप्रवृत्तयः तैः । स्वात्मा स्या: शोभन आत्मा अन्तरात्मा स्याः भवे त्वम् । कैः कृत्वा । सकलात्मनीनचरितः आत्मने हितानि आत्मनीनानि, तानि च तानि सकलानि च तानि आत्मचरितानि च तैः । आत्मीकृतः । कस्य संबन्धिभिः तैः । आत्मनः स्वस्य । आत्मेत्यां आत्मना प्राप्याम् । प्रतिपतन् गच्छन् । प्रत्यात्मविद्यात्मक: केवलज्ञानरूपः । स्वात्मोत्थात्म परमात्मा अवस्थाको प्राप्त हो करके केवलज्ञानस्वरूपसे संयुक्त,विषयादिकी अपेक्षा न करके केवल अपनी आत्माके आश्रयसे ही उत्पन्न हुए आत्मीक सुखका अनुभव करनेवाला और अपनी आत्माद्वारा प्राप्त किये गये निज स्वरूपसे सुशोभित होकर सुखी हो सकता है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि यह प्राणी अनादि कालसे बहिरात्मा- आत्म-अनात्मके विवेकसे रहित- रहा है। इसीलिये उस समय उसका समस्त आचरण आत्मस्वरूपका घातक- हेय-उपादेयके विचारसे रहित-होकर राग-द्वेषादिसे परिपूर्ण रहा है। जब इसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब उसके आत्मपरका विवेक उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये उसके आचरणमें भी परिवर्तन हो जाता है। तब वह ऐसी ही क्रियाओंको करता है जिनसे कि आत्माका हित होनेवाला है । यद्यपि चारित्रमोहनीयका उदय विद्यमान रहनेसे वह जब तब विषयोपभोगमें भी प्रवृत्त होता है, फिर भी वह उसे हेय ही समझता है-- उपादेय नहीं समझता और न आसक्तिके साथ भी वह उन विषयोंमें प्रवृत्त होता है । तब उसकी अन्तरात्मा संज्ञा हो जाती है । यही अन्तरात्मा जब संसारके कारणभूत विषयोंसे पूर्णतया विरक्त होकर तप-संयमको स्वीकार करता है तब वह उनके द्वारा संवर और निर्जराको प्राप्त होता हुआ चार घातिया कर्मोका क्षय करके आर्हन्त्य 1.ज ‘बहिरात्मा' नास्ति । -- -.. आ. १२ अ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आत्मानुशासनम् [श्लो० १९३आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥ १९३ ॥ अनेन सुचिरं पुरा त्वमिह दासवद्वाहित स्ततोऽनशनसाभिभक्तरसवर्जनादिक्रमः। सुखः स्वात्मोत्थं न विषयोत्थम् आत्मसुखं निजसुखं यस्य । निषीदसि सुखी भवसि । लसन् शोभमानः । अध्यात्मनि स्वस्वरूपे । अध्यात्मना विशुद्धात्मस्वरूपेण ॥ १९३ ।। सा च परमात्मता सिद्धावस्थालक्षणा शरीरभावे भविष्यति, अतः सर्वदा अपकारकस्य शरीरस्य आगमोक्तविधिना अभावविधानाय यत्नः कर्तव्य इति दर्शयन्नाह- अनेनेत्यादि । अनेन शरीरेण । साभिभक्तम् अवस्थाको प्राप्त करता है । उस समय वह सकल परमात्मा कहा जाता है । तत्पश्चात् वह शेष चार घातिया कर्मोंको भी नष्ट करके निकल परमात्मा (सिद्ध) हो जाता है। इस समय जो निराकुल सुख उसे प्राप्त होता है वह आत्माके द्वारा आत्मामें ही उत्पन्न किया गया आत्मीक सुख है जो शाश्वतिक (अबिनश्वर) है। इस प्रकार यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे आत्मन् ! तू अनादि कालसे बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) रहा है। उस समय तूने न्याय-अन्यायका विचार न करके जो मनमाना आचरण किया है उसके कारण अनेक दुःखोंको सहा है। इसलिये अब तु सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके अन्तरात्मा बन जा और जो व्रत-संयम आदि आत्माके हितकारक हैं उनमें प्रवृत्त होकर परमात्मा बननेका प्रयत्न कर । ऐसा करनेपर ही तुझे वास्तविक सुख प्राप्त हो सकेगा ॥ १९३ ॥ पूर्व समयमें इस शरीरने तुझे संसारमें बहुत कालतक दासके समान घुमाया है। इसलिये तू आज इस घृणित शरीरको हाथमें आये हुए शत्रुके समान जबतक कि वह नष्ट नहीं होता है तबतक अनशन, ऊनोदर एवं रसपरित्याग आदिरूप विशेष तपोंके द्वारा क्रमसे कृश कर ।। विशेषार्थ- लोकमें जो जिसका अहित करता है वह उसका शत्रु माना जाता है। इस स्वरूपसे तो यह शरीर ही अपना वास्तविक शत्रु सिद्ध होता है । कारण यह कि शत्रु तो कभी किसी विशेष समयमें ही प्राणीको कष्ट देता है, परन्तु यह शरीर तो जीवको अनादि कालसे अनेक योनियों में परिभ्रमण कराता Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ -१९५] शरीरमनर्थपरंपरायाः मूलम् १८७ क्रमेण विलयावधि स्थिरतपोविशेषैरिदं कदर्थय शरीरकं रिपुभिवाद्य हस्तागतम् ॥ १९४॥ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मान! हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु मूलं ततस्तनुरनर्थपरंपरागाम् ॥ १९५॥ अवमोदर्यम् । विलयावधि मरणपर्यन्तम् । शरीरकं2 कुत्सितं शरीरम् । अद्य सांप्रतम ।।१९४।। अत्र संसारे या काचित् अनर्थपरंपरा तस्याः साक्षात् परंपरया वा शरीरमेव कारणमतस्तदुक्तप्रकारेण कदर्थनीयमेवेत्याह-- आदावित्यादि । आदौ प्रथमम् । तत्र तनौ । हतेन्द्रियाणि निकृष्टेन्द्रियाणि ॥१९५।। एवंविधं शरीरं पोषयित्वा कि हुआ कष्ट देता रहा है । अतएव जिस प्रकार वह लोकप्रसिद्ध शत्रु जब मनुष्यके हाथमें आ जाता है तब वह उसे पूर्ण भोजन आदि न दे करके अथवा अनिष्ट भोजन आदिके द्वारा संतप्त करके नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार तू भी इस शरीरको उस शत्रुसे भी भयानक समझकर उसे अनशनादि तपोंके द्वारा क्षीण करनेका प्रयत्न कर। इस प्रकारसे तू उसके नष्ट होनेके पूर्वमें अपने प्रयोजन (मोक्षप्राप्ति) को सिद्ध कर सकेगा। और यदि तूने ऐसा न किया तथा वह बीच में ही नष्ट हो गया तो वह तुझे फिर भी अनेक योनियोंमें परिभ्रमण कराकर दुखी करेगा। अभिप्राय यह है कि जब यह दुर्लभ मनुष्यशरीर प्राप्त हो गया है तो इसे यों ही नष्ट नहीं कर देना चाहिये, किन्तु उससे जो अपना अभीष्ट सिद्ध हो सकता है- संयमादिके द्वारा मुक्तिलाभ हो सकता है- उसे अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥ १९४ ॥ प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीरमें दुष्ट इन्द्रियां होती हैं, वे अपने अपने विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय मानहानि (अपमान), परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देनेवाले हैं। इस प्रकारसे समस्त अनर्थोकी परम्पराका मूल कारण वह शरीर ही है ॥ १९५ ॥ अज्ञानी जन शरीरको पुष्ट मु (.) मानं, म (नि.) मान: 2 ज स अबमोदर्य तं शरीरकं । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आत्मानुशासनम् [श्लो० १९६शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छन्ति जीवितुम् ॥ १९६ ॥ इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावयाँ यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥ १९७ ॥ वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः ॥ १९८॥ कुर्वन्तीत्याह-- शरीरमित्यादि । पुष्णन्ति पोषयन्ति ॥ १९६।। शरीरं च कदर्थयन्तो गिरिगव्हरादीनि कायक्लेशस्थानानि परित्यज्य कालवशेन ग्रामसमीपे मुनयो वसन्ति इति दर्शयन्नाह-- इत इत्यादि । विभावर्या रात्रौ । उपग्राम ग्रामसमीपे । कलो पञ्चमकाले ।। १९७ ॥ तथा कलो तपो गृहीत्वा स्त्रीवशवर्तिनां गृहस्थावस्थैव श्रेष्ठेत्याह-- वरमित्यादि । वरं श्रेष्ठम् । किं तत् । गार्हस्थ्यमेव गृहस्थरूपतव । कस्मात् । तपसः पञ्चममहाव्रतादिरूपात् । किविशिष्टात् । भाविजन्मनः प्रवर्धमानसंसारात्। 'भाविजन्म यत्' इति पाठः, तत्र गार्हस्थ्य विशेषणमिदम्। पुनः कथंभूतादित्याह--श्व इत्यादि । अयमर्थ:- अद्य गृहीतात्तपसः श्वः प्रातः स्त्रीकटाक्षा एव लुण्टाकाश्चौराः तैर्लोप्यवैराग्यसंपदः तपसः । ततो गार्हस्थ्यमेव वर करते हैं और विषयोंका भी सेवन करते हैं । ठीक है-- ऐसे मनुष्योंको कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है-- वे सब ही अकार्य कर सकते हैं। वे वैसा करते हुए मानो विषसे जीवित रहनेकी इच्छा करते हैं ॥ १९६ ॥ जिस प्रकार हिरण वनमें इधर उधर दुखी होकर-- सिंहादिकोंसे भयभीत होकर- रात्रिमें उस वनसे गांवके निकट आ जाते हैं उसी प्रकार इस पंचम कालमें मुनिजन भी वनमें इधर उधर दुखी होकर-- हिंसक एवं अन्य दुष्ट जनोंसे भयभीत होकर-- रात्रिमें वनको छोडकर गांवके समीप रहने लगे हैं, यह खेदकी बात है ॥ १९७ ॥ आज जो तप ग्रहण किया गया है वह यदि कल स्त्रियोंके कटाक्षोंरूप लुटेरोंके द्वारा वैराग्यरूप सम्पत्तिसे रहित किया जाता है तो जन्मपरम्परा (संसार) को नहानेवाले उस तपकी अपेक्षा तो कहीं गृहस्थ जीवन ही श्रेष्ठ था। मशेषार्थ--- अभिप्राय यह है कि जिसने पूर्व में विषयोंसे विरक्त होकर समस्त परिग्रहके परित्यागपूर्वक तपको स्वीकार किया है वह यदि पीछे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरं कलत्रं वा त्वां नान्वेति १८९ स्वार्थभ्रंशं त्वमविगणयंस्त्यक्तलज्जाभिमानः संप्राप्तोऽमिन् परिभवशतैर्दुःखमेतत्कलत्रम् । नान्वेति त्वां पदमपि पदाद्विप्रलब्धोऽसि भयः सख्यं साधो यदि हि मतिमान् मा ग्रहीविग्रहेण ॥१९९॥ मिति ॥१९८।। अस्तु तर्हि इदं चेत्याह-- स्वार्थेत्यादि । स्वस्यार्थ: प्रयोजनं तप: तस्य भ्रंशं विनाशम् । अविगणयन् अमन्यमानः। अस्मिन् शरीरेसति परिभवः मानखण्डनम् । दुःखं! सकलदुःखहेतुत्वात् । कलत्रं भार्या । नान्वेति त्वां नानुगच्छति त्वया सह । विप्रलब्ध: वञ्चितः । सख्यं मैत्रीम् अभेदरूपताम् ॥ १९९ ॥ मूर्तानामपि हि पदार्थानामन्योन्यस्वरूपस्वीकारेणा-- स्त्रियोंके कटाक्षपात एवं हाव-भावादिसे पीडित होकर उस वैराग्यरूप सम्पत्तिको नष्ट करता है और अनुरागको प्राप्त होता है तो वह अतिशय निन्दाका पात्र बनता है । इससे तो कहीं वह गृहस्थ ही बना रहता तो अच्छा था । कारण कि इससे उसकी संसारपरम्परा तो न बढती जो कि गृहीत तपको छोड देनेसे. अवश्य ही बढनेवाली है ॥१९८॥ हे भव्य ! इस शरीरके होनेपर ही तूने इस दुखदायक स्त्रीको स्वीकार किया है और ऐसा करते हुए तूने लज्जा और स्वाभिमानको छोडकर-निर्लज्ज एवं दीन बनकर-उसके निमितसे होनेवाले न तो सैकडों तिरस्कारों को गिना और न अपने आत्मप्रयोजनसे-तप-संयमादिको धारण करके उसके द्वारा प्राप्त होनेवाले मोक्षसुखसे-भ्रष्ट होनेको भी गिना। वह शरीर और स्त्री तेरे साथ निश्चयसे एक पद (कदम) भी जानेवाले नहीं हैं इनसे अनुराग करके तू फिरसे भी धोका खावेगा। इसलिये हे साधो! यदि तू बुद्धिमान् है तो उस शरीरसे मित्रताको न प्राप्त हो-उसके विषय ममत्मबुद्धिको छोड दे ।।१९९।। कोई भी अन्य गुणवान् किसी अन्य गुगवान् के साथ अभेदस्वरूपताको नहीं प्राप्त होता है । परन्तु तू (अरूपी) किसो कर्म के वश उन रूपी शरीरादिके साथ अभेदको प्राप्त हो रहा है । जिन शरीरादिको तू अभिन्न मानता है वे वास्तवमें तुझ स्वरूप नहीं हैं । इसीलिये 1ज परिभवमानपंडनां दुःखं । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् .. [श्लो० २०० न कोऽप्यन्योऽन्येन व्रजति समवायं गुणवता गुणी केनापि त्वं समुपगतवान् रूपिभिरमा । न ते रूपं ते यानुफ्त्रजसि तेषां गतमतिः ततश्च्छेद्यो भेद्यो भवसि बहुदुःखो भववने ॥२०॥ भेदरूपता न प्रतीता, किं पुनर्मतामूर्नयोः सा भविष्यतीत्याह--नेत्यादि । न कोऽपि घटादिर्गुणी । अन्यो भिन्न: अन्येन भिन्नेन पटादिना गुणवता । समवायम एकत्वं व्रजति । केनापि कर्मणा । रूपिभिः शरीरादिपुद्गलैः । अमा सह । समवायत्वं समुपगतवान् समाश्रितवान् । न ते रूपं ते तव न ते पुद्गला: रूपं स्वरूपम् । यान् शरीरादिपुदगलान् । उपव्रजसि अभेदबुद्धया प्रतिपद्यसे । कथंभूतः । तेषां गतमतिः तेषु आसक्तमतिः । तत: तदभेदप्रतिपत्तेः तदासक्तमतेश्च ॥ २० ॥ तथा यदीदृग्भूतं शरीरं तस्या बुद्धिरपि तू उनमें ममत्वबुद्धिको प्राप्त होकर आसक्त रहनेसे इस संसाररूप वनमें छेदा भेदा जाकर बहुत दुखी होता है । विशेषार्थ-लोकमें जो भी घटपटादि भिन्न भिन्न वस्तुएं देखनेमें आती हैं वे मूर्तिकरूपसे समान होकर भी एक दूसरेके साथ अभेदरूपताको प्राप्त नहीं होती हैं। परन्तु यह अज्ञानी प्राणी स्वयं अमूर्तिक होकर भी अपनेसे भिन्न स्त्री-पुत्र एवं धन सम्पत्ति आदि मूर्तिक पदार्थों के अभेदको प्राप्त होता है- उन्हें अपना मानता है । यह उसके कर्मोदयका प्रभाव समझना चाहिये । जब जीव स्वयं रूप-रसादिसे रहित (अमूर्तिक) एवं चैतन्यरूप है तब उसकी एकता रूपादिसहित (मतिक) एवं जडस्वरूप उन स्त्री-पुत्रादिके साथ भला कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। फिर जो यह अपनी अज्ञानतासे उक्त भिन्न पदार्थोको अपना समझकर उनके साथ अनुरागको प्राप्त होता है उसका फल यह होगा कि उसे नरक और तिर्यंच गतियोंमें जाकर छेदने भेदने आदिके दुस्सह दुःखोंको सहना पडेगा ॥२००। इस शरीरकी उत्पत्ति तो माता है, मरण पिता है, आधि (मानसिक दुख) एवं व्याधि (शारीरिक दुख) सहोदर (भाई) हैं, तथा अन्तमें प्राप्त होनेवाला बुढापा पासमें रहनेवाला मित्र है; फिर भी उस निन्द्य शरीरके Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०२] शरीरेणात्माऽशुचीक्रियते माता जातिः पिता मृत्युराधिव्याधी सहोद्गतौ । प्रान्ते जन्तोर्जरा मित्रं तथाप्याशा शरीरके ॥ २०१ ॥ शुद्धोऽप्यशेषविषयावगमोऽप्यमूर्तोsप्यात्मन् त्वमप्यतितराम शुचीकृतोऽसि । १९१ alta med caus कथमित्याह -- मातेत्यादि । जाति: उत्पत्तिः । मृत्यु: पूर्वानन्तरभवे प्राणत्यागः । आधि: मन:पीडा । सहोद्गतौ भ्रातरौ । प्रान्ते अवसाने तथापि एवंविधदुःखहेतु सामग्री समन्वितोऽपि ॥ २०१ ।। तथा शुद्धादिस्वरूपोऽपि त्वं शरीरेण अशुद्धादिरूपतां नीतोऽसीत्याह -- शुद्धोऽपीत्यादि । शुद्धोऽपि अमलिनोsपि I अशेष विषयावगमोऽपि हेयोपादेयत स्वपरिज्ञानबानपि अमूर्तोऽपि निरुपलेपोऽपि । हे आत्मन् । इत्थंभूतस्त्वमपि येन शरीरेण अतितरां 1 विषय में प्राणी आशा करता है ॥ विशेषार्थ - यदि किसी कुटुम्बमें स्थित व्यक्ति के माता-पिता, भाई-बन्धु एवं मित्र आदि सब ही प्रतिकूल स्वभाववाले हों तो ऐसे कुटुम्ब से सम्बन्ध रखनेवाले उस व्यक्ति से किसीको भी अनुराग नहीं रहता है । परन्तु आश्चर्य की बात है कि यह अज्ञानी प्राणी ऐसे प्रतिकूल कुटुम्बके बीच में रहनेवाले शरीरसे भी कुछ आशा रखता हुआ उससे अनुराग करता है । उस शरीर के कुटुम्ब में उत्पत्ति ( जन्म ) माता और मरण पिता है जो परस्पर खूब अनुराग रखते हैंएकके विना दूसरा नहीं रहना चाहता है । जीवको जो शारीरिक एवं मानसिक कष्ट होते हैं वे उस शरीर के सहोदर हैं- उसके साथ में ही उत्पन्न होनेवाले हैं । बुढापा उसका प्यारा मित्र है । अभिप्राय यह है कि जिस शरीरके साथ जीवको निरन्तर जन्म-मरण, रोग, चिंता एवं बुढापा आदिके दुःसह दुख सहने पडते हैं उससे अनुराम न रखकर उसे सदाके लिये ही छोड देने ( मुक्त होने) का प्रयत्न करना चाहिये || २०१ ॥ हे आत्मन् ! . तू स्वभावसे शुद्ध, समस्त विषयोंका ज्ञाता और रूप-रसादिसे रहित ( अमूर्तिक) हो करके भी उस शरीरके द्वारा अतिशय अपवित्र किया गया है । ठीक है -- बह मूर्तिक, सदा अपवित्र और जड शरीर Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आत्मानुशासनम् [श्लो० २०३ मूतं सदाशुचि विचेतनमन्यदत्र कि वा न दूषयति धिग्धिगिदं शरीरम् ॥२०२॥ हा हतोऽसि तरां जन्तो येनास्मिस्तव सांप्रतम् । ज्ञानं कायाशुचिज्ञानं तत्त्यागः किल साहसम् ॥२०३॥ अशचीकृत: असि तच्छ रीरं मूर्त सदा अशुचि विचेतनं सत् । अत्र संसारे । अन्यत् कुकुमकर्पूरादि किं ना दूषयति । अपि तु दूषयति अशुचीकरोत्येव । अतो धिक् ॥२०२।। अतिशयेन निन्द्यमिदं शरीरम्, तत्र अनिन्द्यत (त्व) बुद्धया त्वं नष्टोऽसीस्याह--हेत्यादि । हा कष्टम् । हतोऽसि तराम् अतिशयेन नष्टोऽसि । येन कारणेन । अस्मिन् शरीरे । सांप्रतम् इदानीम् । उक्तशरीररूपावगमे तव युक्तं ज्ञानं प्रमाणम् । किंविशिष्टम् । कायाशुचिज्ञानं काय: अशुचिरिति ज्ञानं परिच्छि - त्तिर्यत्र तत्त्यागस्तस्य ज्ञानस्य त्यागः कार्य: (कायः) शुचिरिति विपरीतज्ञानम् । किल अहो । साहसम् अत्यद्भुतं कर्म । अथ वा हतोऽसि कदर्थोतोऽसि । येन शरीरेण । अस्मिन् संसारे । सांप्रतं तब ज्ञान युक्तम् । कयंभूतम् । कायाशुचिज्ञानम् । एतच्च न साहसम् । तत्त्यागस्तस्य शरीरस्य त्यागः किल साहसम् ।। २०३ ।। यहां कौन-सी पवित्र वस्तु (गन्ध विलेपनादि) को मलिन नहीं करता है ? अर्थात् सबको ही वह मलिन करता है । इसलिये ऐसे इस शरीर को वार बार धिक्कार है ॥२०२॥ हे प्राणी ! तू चूंकि इस शरीरके विषयमें अतिशय दुखी हुआ है इसीलिये उस शरीरके सम्बन्धमें जो तुझे इस समय अपवित्रताका ज्ञान हुआ है वह योग्य है। अब उस शरीरका परित्याग करना,यह तेरा अतिशय साहस होगा। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जो शरीर अत्यन्त अपवित्र है उसे पवित्र मानकर यह अज्ञानी प्राणी अब तक दुखी रहा है । इसलिये उसका कर्तव्य है कि उक्त शरीरके विषयमें प्रथम तो वह 'यह अपवित्र है' ऐसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करे और तत्पश्चात् उसे साहसपूर्वक छोडनेका प्रयत्न करे । इस प्रकारसे वह शरीरके निमित्तसे जो दुख सह रहा था उससे छुटकारा पा जावेगा ॥२०३।। साधु अतिशय वृद्धिको प्राप्त हुए भी रोगादिकोंके 1 ज कर्पूरादिकं न । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०५] आमये निष्प्रतीकारे शरीरं त्यजनीयम् १९३ अपि रोगादिभिवृद्धर्न यतिः1 खेदमृच्छति । उडुपस्थस्य कः क्षोभः प्रवृद्धेऽपि नदीजले ॥२०४॥ जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा मो चेतनुं त्यजतु वा द्वितयी गतिः स्यात् । लग्नाग्निमावसति वन्हिममोह्य गेहं निर्याय2 वा व्रजति तत्र सुधी किमास्ते ॥ २०५॥ ननु अस्तु कायेऽशुचिविज्ञानम् उचितम्, तथा प्रबलरोगाद्युदयाचितविक्षेपो भविष्यतीत्याशक्य अपीत्यादिश्लोकद्वयमाह-- अपीत्यादि । वृद्धरपि महद्भिः अपि । उडुपस्थस्य नावि स्थितस्य ज्ञानस्थस्य च ।। २०४ ॥ जातामय इत्यादि । जात: उत्पन्न: आमयो व्याधिः यस्य । प्रतिविधाय औषधादिना रोगप्रतीकारं कृत्वा । नो चेत् औषधादिना रोगाप्रतीकारे । २०५॥ प्रेक्षावतामुद्वेगः द्वारा खेदको नहीं प्राप्त होता है। ठीक है- नावमें स्थित प्राणीको नदीके जलमें अधिक वृद्धि होनेपर भी कौन-सा भय होता है ? अर्थात् उसे किसी प्रकारका भी भय नहीं होता है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार स्थिर नावमें बैठे हुए मनुष्यको नदीमें जलके बढ जानेपर भी किसी प्रकारका खेद नहीं होता है। कारण कि वह यह समझता है कि नदीके जलमें वृद्धि होनेपर भी मैं इस नावके सहारेसे उसके पार जा पहुँचूंगा । ठीक उसी प्रकारसे जिसको शरीरका स्वभाव ज्ञात हो चुका है कि वह अपवित्र, रोगादिका घर तथा नश्वर है; वह विवेकी साध उक्त शरीरके कठिन रोगसे व्याप्त हो जानेपर भी किसी प्रकारसे खेदको नहीं प्राप्त होता है ॥ २०४ ॥ रोगके उत्पन्न होनेपर उसका औषधादिके द्वारा प्रतीकार करके उस शरीरमें स्थित रहना चाहिये । परन्तु यदि रोग असाध्य हो और उसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता हो तो फिर उस शरीरको छोड देना चाहिये, यह दूसरी अवस्था है। जैसे- यदि घर अग्निसे व्याप्त हो चुका है तो यथासम्भव उस अग्निको बुझाकर प्राणी उसी घरमें रहता है। परन्तु यदि वह अग्नि नहीं बुझाई जा सकती है तो फिर उसमें रहनेवाला प्राणी उस घरसे निकलकर चला जाता है। क्या कोई 1 म मुनिः। 2 मु निर्हाय। भा. १३ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० २०६ - शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः । शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥ २०६॥ यावदस्ति प्रतीकारस्तावत्कुर्यात्प्रतिक्रियाम् । तथाप्यनुपशान्तानामनुद्वेगः प्रतिक्रिया ॥२०७॥ कर्तुमनुचित इत्याह-- ॥२०६ ।। तदेवाह-- यावदित्यादि । अनुपशान्तानां व्याधीनाम् । अनुद्वेगः शरीरे उदासीनता ।।२०७॥ कुतस्तत्रोदासीनता बुद्धिमान् प्राणी उस जलते हुए घरमें रहता है ? अर्थात् नहीं रहता है ॥२०५॥ शिरके ऊपर स्थित भारको उतारकर और उसे प्रयत्नपूर्वक कन्धेके ऊपर करके अज्ञानी प्राणी उस शरीरस्थ भारसे सुखकी कल्पना करता है ॥ विशेषार्थ-- जिस प्रकार कोई मनुष्य शिरके ऊपर रखे हुए बोझसे पीडित होता हुआ उसे प्रयत्नपूर्वक शिरसे उतारकर कन्धेके ऊपर रखता है और उस अवस्थामें अपनेको सुखी मानता है । परन्तु वह अज्ञानी प्राणी यह नहीं सोचता कि वह बोझा तो अभी भी शरीरके ही ऊपर स्थित है। भेद इतना ही हुआ है कि उसे शिरसे उतारकर कन्धेपर रख लिया है और ऐसा करनेसे उसके कष्टमें कुछ थोडी-सी कमी अवश्य हुई है । परन्तु वास्तवमें इससे उसे सुखका लेश भी नहीं प्राप्त हुआ है। ठीक इसी प्रकारसे यह अविवेकी प्राणो भी शरीरमें उत्पन्न हुए रोगको यथायोग्य औषधि आदिसे नष्ट करके अपनेको सुखी मानता है। परन्तु वह यह नहीं विचार करता कि रोगोंका घर जो शरीर है उसका संयोग तो अभी भी बना है, ऐसी अवस्थामें सुख भला कैसे प्राप्त हो सकता है ? सच्चा सुख तो तब ही प्राप्त हो सकेगा जब कि उसका शरीरके साथ सदाके लिये सम्बन्ध छूट जायगा । उसकी उपर्युक्त सुखकी कल्पना तो ऐसी है जैसे कि शिरसे बोझको उतारकर उसे कन्धेके ऊपर रखनेवाला मनुष्य सुख की कल्पना करता है ।। २०६ ।। जबतक रोगोंका प्रतीकार हो सकता है तबतक उसे करना चाहिये। परन्तु फिर भी यदि वे नष्ट नहीं होते हैं तो इससे खेदको प्राप्त नहीं होना चाहिये । यही वास्तवमें उन रोगोंका प्रतीकार है ॥ २०७।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरेणात्माऽस्पृश्यः क्रियते यदादाय भवेज्जन्मी त्यक्त्वा मुक्तो भविष्यति । शरीरमेव तत्त्याज्यं किं शेषैः क्षुद्रकल्पनैः ॥ २०८ ॥ -२०९] १९५ नयेत् सर्वाशुचिप्रायः 2 शरीरमपि पूज्यताम् । सोप्यात्मा येन न स्पृश्यो दुश्चरित्रं धिगस्तु तत् ॥ २०९ ॥ कर्तव्येति चेलरित्याज्यत्वात् । एतदेवाह -- यदित्यादि । यच्छरीम् आदान गृहीत्वा । जन्मी संसारी | क्षुद्रकल्पनै: लघुविकल्पैः ॥ २०८ ॥ उपकारकेऽप्यात्मनि प्रतिकूलप्रवृत्तित्वाच्वेदं शरीरं त्याज्यमित्याह-- नयेदित्यादि । येन शरीरेण । न स्पृश्यो नानुकृतः सुविशुद्धचेतनत्वादिधर्मः । दुश्चरित्रं तत्प्रसिद्ध चेष्टितं यस्य दुश्चरित्रं अथवा दुःखं चरित्रं मिथ्यानुष्ठानं तत्प्रसिद्धम् । येन दुश्चरित्रेण ॥ २०९ ॥ एवं विधशरीरादिभागत्रयसमन्वितः संसारीति दर्शयन् जिस शरीरको ग्रहण करके प्राणी जन्मवान् अर्थात् संसारी बना हुआ है तथा जिसको छोडकर वह मुक्त हो जावेगा उन शरीरको ही छोड़ देना चाहिये । अन्य क्षुद्र विचारोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? कुछ भी नहीं ॥ २०८ ॥ जो आत्मा प्रायः करके सब ओरसे अपवित्र ऐसे उस शरीरको भी पूज्य पदको प्राप्त कराता है उस आत्माको भी जो शरीर स्पर्शके योग्य भी नहीं रहने देता है उसको धिक्कार है ॥ विशेषार्थ -- जीव जब संयम और तप आदिको धारण करता है तब उसका शरीर लोकवन्द्य बन जाता है । इस प्रकारसे जो आत्मा उस घृणित एवं अपवित्र शरीरको लोकपूज्य बनाता है उसका अनुकरण न कर वह शरीर उसे निन्द्य चाण्डालादि पर्यायमें प्राप्त कराकर स्पर्श करनेके योग्य भी नहीं रहने देता है । इस तरह उस शरीरको देव - मनुष्यादिके द्वारा पूज्य बनाकर आत्मा तो उसका उपकार करता है, परन्तु वह शरीर कृतघ्न होकर उस उपकारी आत्माके साथ इतना दुष्टतापूर्ण आचरण करता है कि उसे निन्द्य पर्यायमें प्राप्त कराकर ऐसा हीन बना देता है कि विवेकी जन उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहते हैं । अभिप्राय यह है कि जब आत्मा उस शरीर के सम्बन्धसें ही लोक निन्द्य होकर अनेक प्रकारके दुःखोंको सहता है तब ऐसे अहितकर शरीरके सम्बन्धको सदाके लिये देना चाहिये ॥ २०९ ॥ संसारी प्राणीका रस आदि सात धातुओं 1 मु यदा यदा भवे । 2 मुप्रायं । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [श्लो० २१० रसादिराद्यो भागः स्याज्जानावृत्त्यादिरन्वतः । ज्ञानादयस्तृतीयस्तु संसार्येवं त्रयात्मकः ॥ २१०॥ भागत्रयमयं नित्यमात्मानं बन्धवर्तिनम् । भागद्वयात्पृथक् कर्तुं यो जानाति स तत्त्ववित् ॥ २११॥ करोतु न चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान । चित्तसाध्यान् कषायारीन् न जयेद्यत्तदज्ञता ॥ २१२॥ रसादिरित्यादिश्लोकद्वयमाह-- रसादिरिति। रसादि सप्तधातुमयो देहः । आद्य: प्रथमः । ज्ञानावृत्त्वादिरष्टप्रकारः । अतो रसादिभागात् । अनु पश्चात् । द्वितीयो भागः स्यात् ॥ २१०॥ भागेत्यादि। बन्धवर्तिनं कर्मबन्धसहितम् । भागद्वयात् शरीर-ज्ञानावरगादिलक्ष गात् ।। २११॥ ननु भागद्वयात्पृथक्करणमात्मनो दुर्धरतपोऽनुष्ठातात् तच्च दुःशक्यमित्याह-- करोत्विरूप पहिला भाग है, इसके पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मो रूप उसका दूसरा भाग है, तथा तीसरा भाग उसका ज्ञानादिरूप है; इस प्रकारसे संसारो जीव तीन भागस्वरूप है ॥ २१० ॥ इस प्रकार इन तीन भागोंस्वरूप व कर्मबन्धसे सहित नित्य आत्माको जो प्रथम दो भागोंसे पृथक करनेके विधानको जानता है उसे तत्त्वज्ञानी समझना चाहिये । विशेषार्थ-- ऊपर संसारी जीवको जिन तीन भागोंस्वरूप बतलाया है उनमें प्रथम दो भाग- सप्तधातुमय शरीर और कार्मण शरीर-आत्मस्वरूपसे भिन्न, जड एवं पौद्गलिक हैं तथा तीसरा भाग जो ज्ञानादिस्वरूप है वह आत्मस्वरूप चेतन है और वही उपादेय है। इस प्रकार जो जानता है तथा तदनुरूप आचरण भी करता है वह तत्त्वज्ञ है। इसके विपरीत जो प्रथम दो भागोंको ही आत्मा समझता है और इसीलिये जो उनसे आत्माको पृथक् करनेका प्रयत्न नहीं करता है वह अज्ञानी है ॥ २११ ॥ यदि तू कष्टको न सहनेके कारण घोर तपका आचरण नहीं कर सकता है तो न कर । परन्तु जो कषायादिक मनसे सिद्ध करने योग्य हैं- जीतने योग्य हैं-- उन्हें भी यदि नहीं जीतता है तो वह तेरी अज्ञानता है ।। विशेषार्थ--- तपश्चरणमें भूख आदिके दुखको सहना पडता है, इसलिये यदि अनशन आदि तपोंको नहीं किया जा सकता है तो न भी किया परन्वितः । 2 बस त्रितयस्तु । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१४] कषायोपशमेन विना सिद्धिर्दुलभा हृदयसरसि यावनिर्मलेऽप्यत्यगाधे वसति खलु कषायग्राहचकं समन्तात् । श्रयति गुणगुणोऽयं तन्न तावद्विशङ्कं सयमशमविशेषस्तान् विजेतुं यतस्व ॥२१३॥ हित्वा हेतुफले किलात्र सुधियस्ता सिद्धिमामुत्रिकी वाञ्छन्तः स्वयमेव साधनतया शंसन्ति शान्तं मनः । त्यादि । क्लेशासहो यत: । चित्तसाध्यान् मनसा निर्जेतुं शक्यान् ।।२१२॥ कपायाणामजये मुक्तिहेतुगुणानां उत्तमक्षमादीनां प्राप्तिरतिदुरीमा इत्याह-हृदयेत्यादि । हृदयसरसि हृदय रोवरे । गुणगणः उतमक्षमादिगुग संघातः । अयं मोक्षहेतुतयाभित्रेतः । तत् हृदयसरः । विशझं निःशङ्कर सपनरा विशेषैः सह यमेन व्रतेन वर्तन्ते इति सयमास्ते च ते शमविशेषाश्च तीव्र-मन्द-मध्यमा उपशम भेदाः । यतस्त्र उद्यतो भव ॥ २१३ ॥ कषायविजयं मोझहेतुतया स्वयं प्रतिपाद्य पुनः कषायाधीनतां गतानुपहसन्नाह--- हित्वेत्यादि । हित्वा त्यक्त्वा । के । हेतुफले विषय--तत्सुखे, अथवा हेतुनिःसंगत्वादिः फलं तत्कार्य शान्तं मनः । जाय । परन्तु जो राग,द्वेष,एवं क्रोधादि आत्माका अहित करनेवाले हैं उनको तो भले प्रकारसे जीता जा सकता है । कारण कि उनके जीतनेमें न तो तपके समान कुछ कष्ट सहना पडता है और न मनके अतिरिका किसी अन्य सामग्रीकी अपेक्षा भी करनी पड़ती है । इसलिये उक्त रागद्वेषादिको तो जीतना ही चाहिये । फिर यदि उनको भी प्रागो नहीं जीतना चाहता है तो यह उसकी अज्ञानता ही कही जावेगी ॥२१२।। निर्मल और अयाह हृदयरूप सरोवरमें जब तक कषायोंरूप हिंस्र जल. जन्तुओंका समूह निवास करता है तब तक निश्वयसे यह उतम क्षमादि गुणोंका समुदाय निःशंक होकर उस हृदयरूम सरोवरका आश्रय नहीं लेता है । इसीलिये हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीत्र-मध्यमादि उपशम. भेदोंसे उन कषायोंके जीतनेका प्रयत्न कर ॥२१३॥ जो विद्वान् परिग्रहके त्यागरूम हेतु तथा उसके फलभूत मनकी शान्तिको छोडकर उस पारलौकिक सिद्धिकी अभिलाषा करते हर स्वयं ही उसके साधनस्वरूपसे शान्त मनकी प्रशंसा करते हैं उनका यह कार्य आखु-बिडालिकाके समान Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आत्मानुशासनम् [ श्लो० २१४ तेषामाखुबिडालिकेति तदिदं धिधिक्कलेः प्राभवं येनैतेऽपि फलद्वयप्रलयना दूरं विपर्यासिताः ॥२.१४॥ उद्युक्तस्त्वं तपस्यस्यधिकमभिभवं त्वामगच्छत् कषायाः प्राभद्बोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ कि तु दुर्लक्ष्यमन्यैः । frocreat | आमुत्रिकीं पारलौकिकीम् । शंसन्ति श्लाघन्ते । शान्तं मनः उपशान्तं चित्तम् । अथ च कषायवशवर्तनं न परित्यजन्ति तेषाम्माखुबि - डालिकेति - आखुश्च मूषकः बिडालश्च तयोरिव वैरम् । प्राभवं । प्रभुत्वम् ॥ येन प्राभवेन । एतेऽपि सुधियोऽपि फलद्वयप्रलयनात् ऐहिक - पारत्रिकफलद्वयविनाशात् । दूरं विपर्यासिताः अतिशयेन वञ्चिताः ॥ २१४ ॥ कषायविनिग्रहं च कुर्वता त्वया सातिशयतपोज्ञानसंपन्नेन मात्सर्यलेशोऽप्युन्मूलयितव्य इति है । यह सब कलि कालका प्रभाव है, उसके लिये धिक्कार हो । इस aforma प्रभावसे ये विद्वान् भी इस लोक और परलोक सम्बन्धी फलको नष्ट करने से अतिशय ठगे जाते हैं । विशेषार्थ - जिन्होंने न तो परिग्रहको छोड़ा है और न कषायों को भी उपशान्त किया है वे विद्वान् पारलौकिक सिद्धिकी अभिलाषा करके उसके साधनभूत अपने शान्त मनकी केवल प्रशंसा करते हैं । उनके इन दोनों कार्यों में बिल्ली और चूहे के समान परस्पर जातिविरोध है । कारण कि जब तक परिग्रह और राग-द्वेषादिका परित्याग नहीं किया जाता है तब तक मन शान्त हो ही नहीं सकता । ऐसे लोग इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों के सुखको नष्ट करते हैं । इस लोकके सुखसे तो वे इसलिये वंचित हुए कि उन्होंने बाह्य विषयों को छोड़ दिया है। साथ ही चूंकि वे अपने मनको शान्त कर नहीं सके हैं, इसलिये पाप कर्मका उपार्जन करनेसे परलोकके भी सुखसे वंचित होते हैं ॥ २१४॥ हे भव्य ! तू तपश्चरणमें उद्यत हुआ है, कषायों का तूने अतिशय पराभव कर दिया है, तथा समुब्रमें स्थित आगाध जलके समान तेरेमें अगाध ज्ञान भी प्रगट हो चुका 1 ज स प्रभावं । 2 ज स प्रभावेन । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्सर्य त्यजनीयम् निर्व्यूढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्न देशेष्ववश्यं मात्सर्यं ते स्वतुल्ये भवति परवशाद् दुर्जयं तज्जहीहि ॥ २१५५ -२१६ ] चित्तस्थमप्यनवबुद्ध्य हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङगबुद्धया । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २१६ ॥ | / १९९ शिक्षां प्रयच्छन्नाह-- उद्युक्त इत्यादि । उद्युक्तः उद्यतः । अधिकम् अभिभवमे अतिशयेन नाशम् । प्राभूद्बोधोऽप्यगाध: उत्पन्नो बोधोऽपि महान् । दुर्लक्ष्यं मात्सर्यम् । मनाक् ईषत् । परवशात् कर्मवशात् ।। २१५ ।। ननु कषायेषु सत्सु arrer कोsपकारस्याद्येनावश्यं ते जेतव्याः इत्याशङक्य कोअरेदयेऽपकारं दर्शयंश्चित्तस्थमित्याह - चित्तस्थेत्यादि । चित्तस्थमपि अनङगम् । घोरां बहुतरापमानकरीम् । अवाप प्रापितवान् । स हि स हरः, हि स्फुटम् । तेन अनङगेन ॥ २१६ ॥ है; तो भी जैसे प्रवाह सूख जानेपर भी कुछ नींचे के भाग में पानी अवश्य रह जाता है जो कि दूसरोंके द्वारा नहीं देखा जा सकता है, वैसे ही कर्मके वशसे जो अपने समान अन्य व्यक्ति में तेरे लिये मात्सर्य ( ईर्ष्या भाव) होता है वह दुर्जय तथा दूसरों के लिये अदृश्य है । उसको तू छोड दे ॥ विशेषार्थ - जो जीव घोर तपश्चरण कर रहा है, कष । योंको शान्त कर चुका है, तथा जिसे अगाध ज्ञान भी प्राप्त हो चुका है, फिर भी उसके हृदय में अपने समान गुणवाले अन्य व्यक्ति के विषय में जब कभी मात्सर्यभावका प्रादुर्भाव हो सकता है जो कि दूसरोंके द्वारा नहीं देखा जा सकता है । जैसे- जलप्रवाह के सूख जानेपर भी कुछ नीचे के भागों में जल शेष रह जाता है । उस मात्सर्य भावको भी छोड देनेका यहां उप देश दिया गया है || २१५ ॥ जिस महादेवने क्रोधको वश होते हुए अज्ञानतासे चित्त में भी कामदेवको न जानकर उस कामदेव के भ्रमसे किसी बाह्य वस्तुको जला दिया था वह महादेव उक्त कामके द्वारा की गई भयानक अवस्थाको प्राप्त हुआ है । ठीक है- क्रोधके कारण किसके कार्यकी हानि नहीं होती है ? अर्थात् उसके कारण सब ही जनके Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आत्मानुशासनम् चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहु संस्थ यत्त्राव्रजन्ननु तदेव स तेन मुञ्चेत्' । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हति महतीं करोति ॥ २१७॥ [ श्लो० २१६ मानोदयेऽपकारं दर्शयन्नाह - - (चक्रं) विहायेत्यादि । विहान त्यक्त्वा । स तेन स बाहुबली, तेन प्रव्रजनेन तपसा वा । मुञ्चेत् मुक्तो भवेत् । चिराय कार्य की हानि होती है ॥ विशेषार्थ - जब महादेव तपस्या कर रहे थे तब उनको प्रसन्न करनेके लिये पार्वती कामदेवके साथ वहां पहुंची और नृत्यादिके द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करने लगी, इधर कामदेवने भी वसन्त ऋतुका निर्माण कर उनके ऊपर पुष्पबाणों को छोडना प्रारम्भ कर दिया । इससे क्रोधित होकर महादेवने तीसरे नेत्र से अग्निको प्रगट कर उक्त कामदेवको भस्म ही कर दिया । ऐसी कथा महाकवि कालिदासकृत कुमारसम्भव आदिमें प्रसिद्ध है । इसी कथाको लक्ष्य रखकर यहां बतलाया है कि महादेवने जिस कामदेवको क्रोध के वश होकर भस्म किया था वह तो वास्तवमें कामदेव नहीं था, सच्चा कामदेव तो उनके हृदय में स्थित था जिसे उन्होंने जाना ही नहीं । इसीलिये उस कामदेवने पीछे पार्वतीके साथ विवाह हो जानेपर उनकी वह दुरवस्था की थी । यह सब अनर्थ एक क्रोध के कारण हुआ । अतएव ऐसे अनर्थ कारी क्रोधका परित्याग ही करना चाहिये ॥ २१६ ॥ अपनी दाहिनी भुजाके ऊपर स्थित चक्रको छोडकर जिस समय बाहुबलीने दीक्षा ग्रहण की थी उसी समय उन्हें उस तपके द्वारा मुक्त हो जाना चाहिये था । परन्तु वे चिरकाल तक उस क्लेशको प्राप्त हुए । ठीक है - थोडा-सा भी मान बड़ी भारी हानिको करता है ।। विशेषार्थ भरत चक्रवर्ती जब भरत क्षेत्रके छहों खण्डोंको जीतकर वापिस अयोध्या आये तब उनका चक्ररत्न अयोध्या नगरीके मुख्य द्वारपर ही रुक गया वह उसके भीतर प्रविष्ट न हो सका । कारणका पता लगानेपर भरतको यह ज्ञात हुआ कि मेरा 1 मु (जै. नि.) मुक्तः । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१७] मानात् कीदृशी हानिर्गवति २०१ बहुतरकालम् ॥ २१७॥ गुणमहत्त्वपरंपरां पश्यतां च विवेकिनां न मानो मनागपि छोटा भाई बाहुबली मेरी अधीनता स्वीकार नहीं करता है । एतदर्थ भरतने अपने दूतको भेजकर बाहुबलीको समझानेका प्रयत्न किया, किन्तु वह निष्फल हुआ- बाहुबलीने भरतकी अधीनता स्वीकार नहीं की । अन्तमें युद्ध में निरर्थक होनेवाले प्राणिसंहारसे डरकर उन दोनोंके बुद्धिमान् मंत्रियों द्वारा भरत और बाहुबलीके बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध ये जो तीन युद्ध निर्धारित किये गये थे, उन तीनों ही युद्धोंमें भरत तो पराजित हुए और बाहुबली विजयी हुए। इस अपमानके कारण क्रोधित होकर भरतने चक्ररत्नका स्मरण कर उसे बाहुबलीके ऊपर चला दिया । परन्तु वह उनका घात न करके उनके हाथमें आकर स्थित हो गया। इस घटनासे बाहुबलीको विरक्ति हुई । तब उन्होंने समस्त परिग्रहको छोडकर जिनदीक्षा धारण कर ली। उस समय उन्होंने एक वर्षका प्रतिमायोग धारण किया । तबतक वे भोजनादिका त्याग करके एक ही आसनसे स्थित होते हुए ध्यान करते रहे। इस प्रतिमायोगके समाप्त होनेपर भरत चक्रवर्तीने आकर उनकी पूजा की और तब उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। इसके पूर्व उनके हृदयमें कुछ थोडी-सी ऐसी चिन्ता रही कि मेरे द्वारा भरत चक्रवर्ती संक्लेशको प्राप्त हुआ है । इसीलिये सम्भवतः तबतक उन्हें केवलज्ञान नहीं प्राप्त हुआ और भरतचक्रवर्तीके द्वारा पूजित होनेपर वह केवलज्ञान उन्हें तत्काल प्राप्त हो गया (देखिए महापुराण पव ३६) । पउमचरिउ (५, १३, १९) के अनुसार ‘में भरतके क्षेत्र (भूमि) में स्थित हूं' ऐसी थोडी-सी कषायके विद्यमान रहनेसे तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई । बाहुबलीका हृदय मानकषायसे कलुषित रहा, ऐसा उल्लेख 'देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥' इस भावप्राभृतको गाथामें भी पाया जाता है। इस प्रकार देखिये कि थोडा-सा भी अभिमान कितनी भारी हानिको प्राप्त कराता है ।। २१७॥ आ. १४ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् [ श्लो० २१८ सत्यं वाचमतौ श्रुतं हृदि दया शौर्यं भुजे विक्रमे । लक्ष्मीर्दानमवूनर्मार्थनिचये मार्गो गतौ निर्वृतेः ३ । येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहंकाराः श्रुतेर्गोचराः चित्रं संप्रति लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ॥ २१८ ॥ कर्तुमुचित इति दर्शयन् सत्यमित्यादिश्लोकद्वयमाह -- अनूनं 4 परिपूर्णम् । अर्थिनिचये याचकसंघाते । मार्गः सम्यग्दर्शनादिः । गतौ गत्यर्थः । प्रागजनि एतत्सर्वं पूर्व संजातम् । चित्रम् आश्चर्यम् । तेषां प्रागुक्तानाम् । संबन्धिनो गुणाः उद्धता गर्विताः ।। २१८ ॥ वसतीत्यादि । अन्येर्धनवातादिभिः । साच भूः । ते च वायवः | अपरस्य आकाशस्य । तदपि आकाशमपि । पूर्व में यहां जिन महापुरुषोंके वचनमें सत्यता, बुद्धिमें आगम, हृदयमें दया, बाहुमें शूरवीरता, पराक्रममें लक्ष्मी, प्रार्थी जनों के समूहको परिपूर्ण दान तथा मुक्ति मार्ग में गमन; ये सब गुण रहे हैं वे भी अभिमान रहित थे; ऐसा आगम ( पुराणों) से जाना जाता है । परन्तु आश्चर्य है कि इस समय उपर्युक्त गुणोंका लेश मात्र भी न रहनेपर मनुष्य अतिशय गर्वको प्राप्त होते हैं ।। २१८ || जिस पृथिवी के ऊपर सब ही पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरोंके द्वारा - घनोदधि, घन और तनु वातवलयोंके द्वारा -- धारण की गई है। वह पृथिवी और वे तीनों ही वातवलय भी आकाशके मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञानके एक कोने में विलीन है । ऐसी अवस्था में यहां दूसरा अपने से अधिक गुणवालों के विषयमें कैसे गर्व धारण करता है ? ॥ विशेषार्थ -- व्यक्ति जिस विषय में अभिमान करता है उस विषय में उसका अभिमान तभी उचित कहा जा सकता है जब कि वह प्रकृत विषय में परिपूर्णताको प्राप्त हो । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि लोकमें प्रत्येक विषय में एक से दूसरा और दूसरे से तीसरा इस क्रमसे अधिकाधिक पाया जाता है । जैसेपृथिवी महाप्रमाणवाली है, उसमें जगत्की सब ही वस्तुएं समायी हुई हैं । परन्तु वह विशाल पृथिवी भी वातवलयोंके आश्रित है । उस 1 - २०२ 1 मु (जै. नि.) विक्रमो । 2 ज मु (जै. नि.) मार्गे । 3मु (जै. नि. ) गतिर्निर्वृते । 4 ज अन्यूनं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१९] मानस्य अकरणीयत्वप्रदर्शनम् २०३ वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यः उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य । तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु ॥ २१९॥ वहति करोति धरति वा ।। २१९ ॥ मायाकषायादपकारं दर्शयन् यशो मारीचीय पथिवी और उन वातवलयोंसे भी महान् आकाश है जो उन सबको भी अपने भीतर धारण करता है । तथा इस आकाशसे भी महान् प्रमाणवाला सर्वज्ञका ज्ञान है जो उस अनन्त आकाशको भी अपने विषय स्वरूपसे ग्रहण करता है। इस प्रकार सर्वत्र ही जब उत्कर्षको तरतमता पायी जाती है तब कोई भी किसी विषयमें पूर्णताका अभिमान नहीं कर सकता है । २१९॥ यह मरीचिकी कीर्ति सूवर्णमगके कपटसे मलिन की गई है, 'अश्वत्थामा हतः' इस वचनसे यधिष्ठिर स्नेही जनोंके बीचमें हीनताको प्राप्त हुए, तथा कृष्ण वामनावतारमें कपटपूर्ण बालकके वेषसे श्यामवर्ण हुए- अपयशरूप कालिमासे कलंकित हुए । ठीक है- थोडा-सा भी वह कपटव्यवहार महान् दूधमें मिले हुए विषके समान घातक होता है । विशेषार्थ-- मायाव्यवहारके कारण प्राणियोंको किस प्रकारका दुख सहना पडता है यह बतलाते हुए यहां मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्णके उदाहरण दिये गये हैं । इनमें इन्हीं गुणभद्राचार्यके द्वारा विरचित उत्तरपुराणमें (देखिए पर्व ६८) मरीचिका वह कथानक इस प्रकार पाया जाता है- अयोध्यापुरीमें महाराज दशरथ राजा राज्य करते थे। किसी समय अवसर पाकर रामचन्द्र और लक्ष्मणने प्रार्थना की कि वाराणसी पुरी पूर्वमें हमारे आधीन रही है । इस समय उसका कोई शासक नहीं है। अतएव यदि आप आज्ञा दे तो हम दोनों उसे वैभवसे परिपूर्ण कर दें। इस प्रकार उनके अतिशय आग्रहको देखकर दशरथ राजाने कष्टपूर्वक उन्हें वाराणसी जानेकी आज्ञा दे दी। वाराणसी जाते Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आत्मानुशासनम्__ यशो मारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः । [ श्लो० २२० मित्यादिश्लोकत्रयमाह - यश इत्यादि । मरीचेरिदं मारीचीयम् । प्रणयिलघुः प्रणयिन । 1 समय दशरथने रामचन्द्रको राजपद और लक्ष्मणको युवराजपद प्रदान किया । वे दोनों वहां जाकर न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए उसके स्नेहभाजन बन गये । उधर लंकामें प्रतापी रावण राज्य कर रहा था । उसे तीन खण्डोंके अधिपति होनेका बडा अभिमान था । उसके पास एक दिन नारदजी जा पहुंचे। रावण द्वारा आगमनका कारण पूछनेपर वे बोले कि मैं आज वाराणसीसे आ रहा हूं। वहां दशरथ राजाका पुत्र रामचन्द्र राज्य करता है । उसे मिथिलाके स्वामी राजा जनकने यज्ञ के बहाने वहां बुलाकर अपनी रूपवती सौभाग्यशालिनी कन्या दी है । वह आपके योग्य थी। राजा जनकने आप जैसे तीन खण्डोंके अधिपतिके होते हुए भी रामचन्द्रको कन्या देकर आपका अपमान किया है। यह मुझे सहन नहीं हुआ । इसीलिये स्नेहवश इधर चला आया । यह सुनकर रावण कामसे संतप्त हो उठा । तब उसने अपने मारीच नामक मंत्रीको बुलाकर उससे कहा कि दशरथ राजाके पुत्र राम और लक्ष्मण बहुत अभिमानी हो गये हैं, वे मेरे पदको प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव उन दोनोंको मारकर रामचन्द्रकी पत्नी सीताके हरणका कोई उपाय सोचो । इसपर मारीचने रावणको बहुत कुछ समझाया। पर जब वह न माना तो सीताकी इच्छा जाननेके लिये उसके पास सूर्पणखाको भेजा गया । उस समय वसन्त ऋतुका समय होनेसे रामचन्द्र सीताके साथ चित्रकूट नामके उद्यान में जाकर क्रीडा कर रहे थे । वहां जब वह सूर्पणखा स्त्रीका रूप धारण कर सीताके पास पहुंची तब अन्य रानियां उसकी हंसी करने लगी । यह देखकर वह उनसे बोली कि आप सब बहुत सौभाग्यशालिनी Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२०] मायातो हानिप्रदर्शनम् २०२ सकृष्णः कृष्णोऽभूत्कपटबदुवेषेण नितरामपि च्छमाल्पं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ॥२२०॥ स्नेहिनां मध्ये लघुः । सकृष्ण मषीवर्णः कृष्णः वासुदेवः । कपटबटुः माबाबदुः। अपि हैं । आप लोगोंने पूर्वमें कौन-सा पुण्यकार्य किया है, उसे मुझे बतलाइये । मैं भी तदनुसार अनुष्ठान करके इस राजाको पत्नी होना चाहती हूं। यह सुनकर स्त्री-पर्यायकी निन्दा करते हुए सीताने जो उसे उपदेश दिया उससे हतोत्साह होकर वह वापिस चली गई । उसे निश्चय हो गया कि कदाचित् सुमेरु विचलित हो सकता है, पर सीताका मन विचलित नहीं हो सकता है ।सूर्पणखासे यह समाचार जानकर रावण उसके ऊपर क्रोधित होता हुआ, मारीचके साथ पुष्पक विमानपर आरूढ हुआ और उधर चल दिया। इस प्रकार चित्रकूट उद्यान में जाकर उसने मारीचको मणिमय सुन्दर हरिण बनकर सीताके सामनेसे जानेकी आज्ञा दी। तदनुसार उसके सीताके सामनेसे निकलनेपर उसे देखकर सीताकी उत्सुकता बढ गई । उसकी उत्सुकताको देखकर रामचन्द्र उसे पकडनेके लिये उसके पीछे चल पडे । इस प्रकार बहुत दूर जानेपर वह कपठी हरिण आकाशमें उडकर चला गया । उधर रावग रामचन्द्रके वेषमें सीताके पास पहुंचा और बोला कि हे प्रिये ! मैंने उस हरिणको पकड़ कर भेज दिया है। अब सन्ध्या हो गई है, इसलिये पालकी में सवार होकर नगरको वापिस चलें । यह कहते हुए उसने मायासे पुष्पक विमा. नको पालकोके रूपमें परिणत कर दिया और अपने आपको इस प्रकार दिखलाया जैसे रामचन्द्र घोडेपर चढकर पृथिवीपर चल रहे हों। इस प्रकार भोली सीता अज्ञानतासे उसपर चढ गई और तब रावण उसे संका ले गया। इस प्रकार सीताके अपहरणका कारण मारीचका वह कपटपूर्ण व्यवहार ही था जिसके कारण पृथिवीपर उसका अपयश फैला। 'अश्वत्थामा हतः' इस वाक्यका उच्चारण करनेवाले युधिष्ठिरका Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आत्मानुशासनम् श्लो० २२ छद्माल्पं छद्म माया । अल्पमपि तत् छद्म। विषमिव दूषणकं भवति॥२२०॥भयमित्यादि वह वृत्तान्त महाभारत (द्रोण पर्व अध्याय १९०-९२) में इस प्रकार पाया जाता है-महाभारत युद्ध में जब पाण्डव द्रोणा वार्यके बाणोंसें बहुत त्रस्त हो गये थे और उन्हें जयकी आशा नहीं रही थी तब उन्हें पीडित देखकर कृष्ण अर्जुनसे बोले कि द्रोणाचार्यको संग्राममें इन्द्र के साथ देव भी नहीं जीत सकते हैं। उन्हें युद्ध में मनुष्य तब ही जीत सकते जब कि वे शस्त्रसंन्यास ले लें। इसके लिये हे पाण्डवो ! धर्मको छोडकर कोई उपाय करना चाहिये । मेरी समझसे अश्वत्थामाके मर जानेपर वे युद्ध न करेंगे और इस प्रकारसे तुम सबकी रक्षा हो सकती है । इसके लिय कोई मनुष्य युद्धमें उनसे अश्वत्थामाके मरनेका वृत्तान्त कहे । यह कृष्णकी सम्मति अर्जुनको नहीं रुचो,युधिष्ठिरको वह कष्टके साथ रुची, परंतु अन्य सबको वह खूब रुची । तब भीमने मालव इन्द्रवर्मा के अश्वत्थामा नामक भयंकर हाथीको अपनी गदाके प्रहारसे मार डाला और युद्धमें द्रोणाचार्य के सामने जाकर अश्वत्थामा हतः- अश्वत्थामा मर गया' इस वाक्यका जोरसे उच्चारण किया। उस समय चूंकि अश्वत्थामा नामका हाथी मर ही गया था, अतः ऐसा मनमें सोचकर भोमने यह मिथ्या भाषण किया। इस वाक्यको सुनकर यद्यपि द्रोणाचार्यको खेद तो बहुत हुआ फिर भी अपने पुत्रके पराक्रमको देखते हुए उस वाक्यके विषयमें संदिग्ध होकर उन्होंने धैर्यको नहीं छोडा। उस समय उन्होंने धृष्टद्युम्नके ऊपर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की । यह देखकर बीस हजार पंचालोंने युद्ध में उन्हें बाणोंसे ऐसा व्याप्त कर दिया जैसे कि वर्षा ऋतुमें मेघोंसे सूर्य व्याप्त हो जाता है । तब द्रोणाचार्यने क्रोधित होकर उन सबके बधके लिये ब्रह्म अस्त्र उत्पन्न किया और उन हजारों सुभटोंके साथ दस Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२०] मायातो हानिप्रदर्शनम् २०७ २०७ हजार हाथियों और इतने ही घोडोंको मारकर उनके शवोसे पृथिवीको व्याप्त कर दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्यको क्षत्रियोंसे रहित पृथिवीको करते हुए देखकर अग्निको आगे करते हुए विश्वमित्र,जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम,वसिष्ठ कश्यप और अत्रि आदि ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक में ले जानेकी इच्छासे वहां शीघ्र ही आ पहुंचे। वे सब उनसे बोले कि हे द्रोग ! तुमने अधर्मसे युद्ध किया है, अब तुम्हारी मृत्यु निकट है, अतएव तुम युद्धमें शस्त्रको छोडकर यहां स्थित हम लोगोंकी ओर देखो । अब इसके पश्चात् तुम्हें ऐसा अतिशय क्रूर कार्य करना योग्य नहीं है । तुम वेदवेदांगके वेत्ता और सत्य धर्म में लवलीन हो । इसलिये और विशेषकर ब्राह्मण होनेसे तुम्हें यह कृत्य सोभा नहीं देता। तुमने शस्त्रसे अनभिज्ञ मनुष्योंको ब्रह्मास्त्रसे दग्ध क्रिया है । हे विप्र ! यह जो तुमने दुष्कृत्य किया है वह योग्य नहीं है । लब तुम युद्ध में आयुधको छोड दो। इस प्रकार उन महर्षियोंके वचनोंको सुनकर तथा भीमसेनके वाक्य (अश्वस्थामा हतः) का स्मरण करके द्रोणाचार्य युद्धको ओरसे उदास हो गये। तब उन्होंने भीमके वचनमें सन्दिग्ध होकर अश्वत्थामाके मरने वन मरने बावत युधिष्ठिरसे पूछा । कारण यह है कि उन्हें यह दृढ विश्वास था युधिष्ठिर कभी असत्य नहीं बोलेगा । इधर कृष्णको जब यह ज्ञात हुआ कि द्रोणाचार्य पृथिवीको पाण्डवोंसे रहित कर देना चाहते हैं तर वे दुखित होकर धर्मराज (युधिष्ठिर) से बोले कि यदि द्रोणाचार्य क्रोधित होकर आधे दिन भो युद्ध करते हैं तो मैं सच कहता हूं कि तुम्हारी सब सेना नष्ट हो जावेगी। इसलिये आप हम लोगोंकी रक्षा करें । इस समय सत्यकी अपेक्षा असत्य बोलना कहीं अधिक प्रशंसनीय होगा । जो जीवितके लिये असत्य बोलता है वह असत्यजनित पापसे लिप्त नहीं होता है । कृष्ण और युधिष्ठिरके इस उपर्युक्त वार्तालापके समय भीमसेन युधिष्ठिरसे बोला कि हे महाराज ! द्रोणा. चार्यके बधके उपायको सुनकर मैने मालव इन्द्रवर्माके अश्वत्थामा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आत्मानुशासनम् श्लो० २२० मामसे प्रसिद्ध हाथीको मार डाला और तब द्रोणाचार्यसे कह दिया कि हे ब्रह्मन्! अश्वत्थामा मर गया है,अब तुम युद्धसे विमुख हो जाओ। परंतु उन्होंने मेरे कहनेपर विश्वास नहीं किया । अब आप कृष्णके वचनोंको मानकर विजय की इच्छासे द्रोणाचार्यसे अश्वत्थामाके मर जाने बाबत कह दें । हे राजन् ! आपके वैसा कह देनेसे द्रोगाचार्य कभी भी युद्ध नहीं करेंगे। कारण कि आप तीनों लोकोंमें सत्यवक्ताके रूपमें प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार भीमसेनके कथनको सुनकर और कृष्णको प्रेरणा पाकर युधिष्ठिर वैसा कहने को उद्यत हो गये। तब उन्होंने 'अश्वत्थामा हतः' इस वाक्यांशको जोरसे कहकर पोछे अस्पष्ट स्वरसे यह भी कह दिया कि 'उत कुञ्जरो हत:-अश्वत्थामा मरा है अयवा हाथो मरा है। जब तक युधिष्ठिरने उक्त वाक्यका उच्चारण नहीं किया था तब तक उनका रथ पथिवीसे चार अंगुल ऊंचा था। परंतु जैसे ही उन्होंने उसका उच्चारण किया कि वैसे ही उनके उस रथके घोडे पृथिवीका स्पर्श करने लगे। उधर युधिष्ठिरके मुखसे उस वाक्यको सुनकर द्रोणाचार्य पुत्रके मरणसे संतप्त होते हुए जीवनकी ओरसे निराश हो गये। उस समय वे ऋषियोंके कथनानुसार अपनेको महात्मा पाण्डवोंका अपराधी समझने लगे। इस प्रकार वे पुत्रमरणके समाचारसे उद्विग्न एवं विमनस्क होकर धृष्टद्युम्नको देखते हुए भी उससे युद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं हुए। यह कथानक संक्षेपमें कुछ थोडे-से परिवर्तनके साथ श्री शुभचन्द्रविरचित पाण्डवपुराण (पर्व २०, श्लोक २१८-२३३) तथा देवप्रभसूरिविरचित पाण्डवचरित्र (१३, ४९८-५१४). में भी पाया जाता है । कृष्णके कपटपूर्ण बटुवेषका उपाख्यान वामनपुराण (अ.३१) में इस प्रकार पाया जाता है-विरोचनका पुत्र एक बलि नामका दैत्य था,जो अतिशय प्रतापी था। उसके अशना नामकी पत्नीसे सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। एक समय वह यज्ञ कर रहा था। उस समय अकस्मात् पर्वतोंके साथ समस्त Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२० ] मायातो हानिप्रदर्शनम् २०९ पृथिवी क्षुभित हो उठी थीं । पृथिवी के इस प्रकार से क्षुभित देखकर बलिने शुक्राचार्यको नमस्कार कर उनसे इसका कारण पूछा । उत्तरमें वे बोले कि भगवान् कृष्णने वामनके रूपमें कश्यपके यहां अवतार लिया है । वे तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं। उनकी पादप्रक्षेपसे पृथिवो विचलित हो उठी है । यह उस जगद्धाता कृष्णकी माया है । शुक्राचार्यके इन वचनोंको सुनकर बलिको बहुत हर्ष हुआ, उसने अपनेको अतिशय पुण्यशाली समझा । उनका यह वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी समय कृष्ण वामनके वेष में वहां आ पहुंचे । तब बलिने अर्घ लेकर उनकी पूजा करते हुए कहा कि मेरे पास सुवर्ण, चांदी, हाथी, घोडे, स्त्रियां, अलंकार एवं गायें आदि सब कुछ हैं, इनमेंसे जो कुछ भी मांगो उसे मैं दूंगा । इसपर हंसकर कृष्णने वामन के रूपमें कहा कि तुम मुझे तीन पाद मात्र पृथिवी दो । सुवर्ण आदि तो उनको देना जो उनके ग्रहणकी इच्छा करते हो । इसे स्वीकार करते हुए बलिने उनके हाथपर जलधारा छोडी । उस जलधारा के गिरते ही कृष्णने वामनाकारको छोड़कर अपने सर्व देवमय विशाल रूपको प्रकट कर दिया । इस प्रकारसे कृष्णने तीन लोकोंको जीतकर और प्रमुख असुरोंका संहार कर उन तीनों लोकोंको इन्द्र के लिये दे दिया । इसके साथ ही उन्होंने सुतल नामक पाताल बलिके लिये भी दिया । उस समय वे बलिसे बोले कि तुमने जलधारा दी है और मैंने उसे हाथसे ग्रहण किया है, अतएव तुम्हारी आयु कल्पप्रमाण हो जावेगी, वैवस्वत मनुके पश्चात् सार्वाणक मनुके प्रादुर्भूत होनेपर तुम इन्द्र होओगे, इस समय मैंने समस्त लोक इन्द्रको दे दिया है । जब तुम देवों और ब्राह्मणोंसे विरोध करोगे तब तुम वरुणके पाशसे बंधे जाओगे । इस समय जो तुमने बहुत दानादि सत्कार्य किये हैं वे उस समय अपना फल देंगे । इस प्रकार कृष्णने मायापूर्ण व्यवहारसे बलिपर विजय पायी थी, अतएव वे अपयशरूप कालिमासे लिप्त हुए ।। २२० ॥ म. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. आत्मानुशासनम् [श्लो० २२१-.. भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिल्लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमायः ॥ २२१॥ प्रच्छन्नकर्म मम कोऽपि न वेति धीमान ध्वंसं गुणस्य महतोऽपि हि मेति मंस्थाः । भेयं भयं कर्तव्यम् । मायामहागांत मायैव महागत: अन्धकपः तस्मात् । कथंभूतात् । मिथ्याघनतमोमयात् मिथ्या असत्यं तदेव धनं निबिडं तमस्तेन निर्वृत्तात् । यस्मिन् मायामहागर्ने। लीनास्तिरोहिताः। क्रोधादिविषमाहयः क्रोधादय एव विषमा रौद्रा अहयः सर्पाः ।। २२१॥ प्रच्छन्नेत्यादि । प्रच्छन्नम् अप्रकटकम् । ध्वंसं विनाशम् । मेति मंस्थाः इत्येवं मा बुध्यस्व । कामम् जो मायाचाररूप बडा गढ्ढा मिथ्यात्वरूप सघन अन्धकारसे परिपूर्ण है तथा जिसके भीतर छिपे हुए क्रोधादि कषायोंरूप भयानक सर्प देखनेमें नहीं आते हैं उस मायारूप गड्ढेसे भयभीत होना चाहिये ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार सघन अन्धकारसे परिपूर्ण एवं सादिकोंसे व्याप्त गहरे गड्ढेमें यदि कोई प्राणी असावधानीसे गिर जाता है तो उससे उसका उद्धार होना अशक्य है- सादिकोंके द्वारा काटनेसे वहां ही वह मरणको प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह मायाचार भी एक प्रकारका गहरा गड्ढा ही है- गड्ढा यदि अन्धकारसे पूर्ण होता है तो वह मायाचार भी असत्यसम्भाषणादिरूप अन्धकारसे पूर्ण है तथा गड्ढेमें जहां दुष्ट सर्पादि छिपे रहते हैं वहां मायाचारमें भी उक्त सर्पोके समान कष्टप्रद क्रोधादि कषायें छिीं रहती हैं । अतएव आत्महितैषी जीवोंको उस भयानक मायाचाररूप गड्ढेसे दूर ही रहना चाहिये ॥ २२१ ॥ हे भव्य ! कोई भी बुद्धिमान् मेरे गुप्त पापकर्मको तथा मेरे महान् गुणके नाशको भी नहीं जानता है, ऐसा तू न समझ । ठीक है- अपनी धवल किरणोंके द्वारा प्राणियोंके संतापको दूर करनेवाले चन्द्रको अतिशय ग्रसित करनेवाला गुप्त 1 मुद्रितप्रतिपाठोऽयम्, ज प प्रच्छन्नपापमम, स प्रच्छन्नपापममि । 2 ज स निवृत्तात् । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ -२२३] लोभतो हानिप्रदर्शनम् कामं गिलन् धवलदीधितिधौतदाहं। गूढोऽप्यबोधि न विधुं2 स विधुन्तुदः कः ॥ २२२॥ वनचरभयाद्भावन देवाल्लताकुलबालधिः किल जडतया' लोलो बालबजेऽविचलं स्थितः । अत्यर्थम् । धवलदीधितीत्यादि-धवलदीधितिभिः शुभ्रकिरणः धौत: स्फेटितो दाहो येन विधुना तम् । गूढ: दुर्लक्ष्यः। अबोधिः। विधुं+ चन्द्रम् ।। २२२ ॥ लोभकषायादपकारं दर्शयन्नाह-- वनेत्यादि । वनचरः भिल्ल: व्याघ्रादिर्वा । लताकुलबालधि: लतायां आलग्नपुच्छः । जलतया जडतया । लोल: लोभवान् । क्व । भी वह राहु किनके द्वारा नहीं जाना गया है ? अर्थात् वह सभीके द्वारा देखा जाता है ॥ विशेषार्थ-- मायावो मनुष्य प्रायः यह समझता है कि मैं जो यह कपटपूर्ण आचरण कर रहा हं न उसे ही कोई जानता देखता है और न उसके कारण होनेवाली गुणकी हानिको भी। परन्तु यह समझना उसकी भूल है । देखो, जो चन्द्र अपनी निर्मल शीतल किरणोंसे संसारके संतापको दूर करके उसे आल्हादित करता है उसे राहु कितनी भी गुप्त रीतिसे क्यों न ग्रसित करे, परन्तु वह लोगोंकी दृष्टिमें आ ही जाता है- वह छिपा नहीं रहता है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य जो कपटपूर्ण व्यवहार करता है वह तत्काल भले ही प्रगट न हो, किन्तु कालान्तरमें वह प्रगट हो ही जाता है। अतएव ऐसा समझकर मायापूर्ण व्यवहार कभी भी न करना चाहिये ।। २२२ ॥ बनमें संचार करनेवाले सिंहादि अथवा भीलके भयसे भागते हुए जिस चमर मृगकी पूंछ दुर्भाग्यसें लतासमूहमें उलझ गई है तथा जो अज्ञानतासे उस पूंछके बालोंके समूहमें लोभी होकर वहींपर निश्चलतासे खडा हो गया है, वह मृग खेद है कि उक्त सिहादि अथवा व्याधके द्वारा प्राणोंसे भी रहित किया जाता है। ठीक है- जिनकी तृष्णा वृद्धिंगत 1 मु (जै. नि.) दाहो। 2 मु (ज. नि.) विधुः। 3 ज स अबोधि बुधः (बुधः) विधं 1 4 प म (ज. नि.) जडतया । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आत्मानुशासनम् [श्लो० २२३बत स चमरस्तेन प्राणरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ॥ २२३ ॥ विषयविरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रहः शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यमः । नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिजिनेषु दयालुता भवति कृतिनः संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ॥ २२४॥ बालबजे बालसमूहे। अविचलं यथा भवत्येवं स्थितः। तेन वनचरेण । प्राणरपि-- न केवलं बालव्रजेन, अपि तु प्राणैरपि स प्रकर्षण प्रवियोजितः । परिणततृषां प्रवृद्धतृष्णानाम् । विपत्तय: आपदः ॥ २२३ ।। तस्मात्कषायानेवंविधापकारकान् विनिजित्य आसन्नभव्य: एवंविधां सामग्री लमते इति दर्शयन् विषयेत्यादिश्लोकद्वयमाह--विषयेत्यादि । संगः परिग्रहः । तत्त्वाभ्यास: सप्ततत्त्वभावना । नियमिता नियन्त्रिता ॥ २२४ ॥ यमनियमेत्यादि-- है उनके लिये प्रायः करके ऐसी ही विपत्तियां प्राप्त होती हैं। विशेषार्थ-- लोभी प्राणीको कैसा कष्ट भोगना पडता है, इसका उदाहरण देते हुए यहां यह बतलाया है कि देखो जो चमर मृग दौडने में अतिशय प्रवीण होता है उसकी पूंछ जब व्याधादिक भयसे दौडते हुए लताओंमें फंस जाती है तब वह बालोंके लोभसे-- मेरी पूंछके सुन्दर बाल टूट न जावें इस विचारसे- दौडना बंद करके वहींपर रुक जाता है और इसीलिये वह व्याधादिके द्वारा केवल उन बालोंसे ही रहित नहीं किया जाता है, किन्तु उनके साथ प्राणोंसे भी रहित किया जाता है । इसी प्रकार सभी लोभी जीवोंको उक्त लोभके कारण दुःसह दुःख सहन । पडता है ।। २२३ ॥ इन्द्रियविषयोंसे विरक्ति, परिग्रहका त्याग, कषायोंका दमन, राग-द्वेषकी शान्ति, यम-नियम, इन्द्रियदमन, सात तत्त्वोंका विचार, तपश्चरणमें उद्यम, मनकी प्रवृत्तिपर नियन्त्रण,जिन भगवान्में भक्ति, और प्राणियोंपर दयाभाव; ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीवके होते हैं जिसके कि संसाररूप समुद्रका किनारा निकटमें आ चुका है ॥ २२४ ।। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२६] कीदृशो मुनयो विमुक्तेर्माजनम् २१३ यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥२२५॥ समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः कमिह न विमुक्तेर्जिनं ते विमुक्ताः ॥२२६॥ यम-नियमनितान्तः यमो यावज्जीवं व्रतम्, नियमो नियतकालव्रतम्, तयोनितान्त: तत्परः । शान्तबाह्मान्तरात्मा सान्त: उपशान्तः व्यावृत्तो बाह्ये वस्तुनि अन्तरात्मा मनो यस्य । परिणमितसमाधि: स्थिरतां गतसमाधिः । सर्वसत्त्वानुकम्पी सर्वप्राणिषु कारणिकः । विहितहितमिताशी विहितम् आगमोक्तं हितं परिणामपथ्यं नित स्तोकम् अश्नातीत्येवंशीलः । क्लेशजालं क्लेशसंघात:(-तं)। समूलं तत्कारणभूतकमंणा सह । निश्चिताध्यात्मसारः अनुभूतशुद्धात्मस्वरूपः ॥२२५॥ ये चैवविध गुणसंपन्ना मुनयः ते मुक्तेर्भाजनं भवन्त्येवेत्याह-समधिगतेत्यादि । समधिगतं परिज्ञानं समस्तं हेयोपादेयतत्त्वं यः । स्वहितनिहितचित्ताः स्वहिते रत्नत्रये निहित स्थापितं चित्तं यः । शान्तसर्वप्रचाराः शान्ता उपशमं गताः सर्वप्रचारा: सन्द्रियप्रवृत्तयः येषाम् । स्व-परसफलजल्पा: स्व-परयोः सफल: उपकारक: जल्पो वचनव्यापारो येषाम् । विमुक्ता मुनयः ।। २२६ ।। मुक्तिभाजनतामात्मनो वाञ्छता भवता जो यम-यावज्जीवन किये गये व्रत,तथा नियममें-परिमित काल के लिये धारण किये गये व्रतमें-उद्यत है,जिसको अन्तरात्मा (अन्तःकरण ) बाह्य इन्द्रियविषयोंसे निवृत्त हो चुकी है, जो ध्यानमें निश्चल रहता है, सब प्राणियोंके विषयमें दयाल है, आगमोक्त विधिसे हितकारक (पथ्य) एवं परिमित भोजनको ग्रहण करनेवाला है,निद्रासे रहित है,तया जो अध्यात्मके रहस्यको जान चुका है। ऐसा जीव समस्त क्लेशोंके समूहको जडमूलसे नष्ट कर देता है ॥२२५।। जो समस्त हेय-उपादेय तत्त्वके जानकार हैं, सब प्रकारकी पापक्रियाओंसे रहित हैं, आत्महितमें मनको लगाकर समस्त इन्द्रियव्यापारको शान्त करनेवाले हैं,स्व और परके लिये हितकर वचनका व्यवहार करते हैं, तथा सब संकल्प-विकल्पोंसे रहित हो चुके हैं; ऐसे वे मुनि यहां कैसे मुक्तिकें पात्र न होंगे ? अवश्य होंगे ॥२२६।। जो विषयरूप राजाकी दासताको प्राप्त हुए हैं तथा जिनका Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ मात्मानुशासनम् [श्लो० २२७ दासत्वं विषयप्रमोर्गतवतामात्मापि येषां परस्तेषां भो गुणदोषशून्यमनसां किं तत्पुनर्नश्यति । भेतव्यं भवतव यस्य भुवनप्रद्योति रत्नत्रयं भ्राम्यन्तीन्द्रियतस्कराश्च परितस्त्वां तन्मुहुर्जागृहि ॥२२७॥ रत्नत्रयवता तद्विलोपे भयं कर्तव्यम् ,(न) पुनविषयासक्तजनवत्तत्र निर्भयेन भवितव्यमित्याह-- दासत्वमित्यादि। परः पराधीनः । परितस्त्वां तव समन्तात् । मुहुजागृहि इन्द्रियचौरैर्यथा नाभिभूयसे तया पुनः पुनर्दत्तावधानो भव ।। २२७ ।। आत्मा भी पर(पराधीन)है ऐसे उन गुण-दोषके विचारसे रहित मनवाले प्राणियोंका भला वह क्या नष्ट होता है ? अर्थात् उनका कुछ भी नष्ट नहीं होता है। परन्तु हे साधो ! चूंकि तेरे पास लोकको प्रकाशित करनेवाले अमूल्य तीन (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) रत्न विद्यमान हैं अतएव तुझको ही डरना चाहिये। कारण कि तेरे चारों ओर इन्द्रियरूप चोर घूम रहे हैं। इसलिये तू निरन्तर जागता रह । विशेषार्थलोकमें देखा जाता है कि जिनके पास कुछ भी नहीं है उन्हें चोर आदिका कुछ भी भय नहीं रहता । वे रात्रिमें निश्चिन्त होकर गाढ निद्रामें सोते हैं । किन्तु जिनके पास धन-संपत्ति आदि होती है वे सदा भयभीत रहते हैं। उन्हें चोर-डाक आदिसे उसकी रक्षा करनी पड़ती है। इसीलिये वे रात्रिमें सदा सावधान रहते हैं-निश्चिन्ततासे नहीं सोते हैं । यदि कोई धनवान् निश्चिन्तासे सोता है तो चोरों द्वारा उसका धन लूट लिया जाता है। इसी प्रकारसे जो प्राणी विषयोंके दास बने हुए हैं उनके पास तो बहुमूल्य संपत्ति (सम्यग्दर्शनादि) कुछ भी नहीं है । इसीलिये वे चाहे सावधान रहे और चाहे असावधान,दोनों ही अवस्थायें उनके लिये समान हैं। परन्तु जिसके पास सम्यग्दर्शनादिरूप अमूल्य संपत्ति है तथा जिसे चुरानेके लिये उसके चारों ओर इन्द्रियरूप चोर भी घूम रहे हैं उसे तो उसकी रक्षा करनेके लिये सदाही सावधान रहना चाहिये । कारण यह कि यदि उसने इस विषयमें थोडी-सी भी असावधानी की तो उसकी यह बडे परिश्रमसे प्राप्त की गई संपत्ति उक्त चोरोंके द्वारा अवश्य लूट ली जावेगीनष्ट कर दी जावेगी । इसीलिये यहां ऐसे ही साधुको लक्ष्य करके यह Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२८] संयमसाधनेषु मोहो न कर्तव्यः रम्येषु वस्तुवनितादिषु वोतमोहो । मुझे वृथा किमिति संयमसाधनेषु । धीमान किमामयभयात्परिहत्य भुक्ति पीत्वौषधि व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥२२८॥ विषयेषु विगतव्यामोहेन च भवता कमण्डलुपिच्छिकाद्युपकरेणष्वपि व्यामोहो न कर्तव्य इति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-रम्येष्वित्यादि। वीतमोहः विनष्टमोहः । मुहयेत् मोहं गच्छेत् । संयमसाधनेषु पिच्छिकाचुपकरणेषु । आमयेत्यादि । यो हि व्याधिभयाद भुक्ति परिहरति स किं व्याधिप्रतीकारार्थ तथा मात्राधिकम् औषधम् । जातुचित् कदाचिदपि पिबति येन अजीर्णं भवति ।।२२८॥ सर्वत्र विमतमोहोऽपि मुनिरित्वं प्रेरणा की गई है कि तू सदा सावधान रहकर अपने रत्नत्रयकी रक्षा कर ॥२२७॥ हे भव्य! जब तू रमणीय बाह्य अचेतन वस्तुओं एवं चेतन स्त्री-पुत्रादिके विषयमें मोहसे रहित हो चुका है तब फिर संयमके साधनभूत पीछी-कमण्डल आदिके विषयमें क्यों व्यर्थमें मोहको प्राप्त होता है ? क्या कोई बुद्धिमान् रोगके भयसे भोजनका परित्याग करता हुआ औषधिको पीकर कभी अजीर्णको प्राप्त होता है? अर्थात् नहीं प्राप्त होता है । विशेषार्थ-- जो बुद्धिमान् मनुष्य रोगके भयसे भोजनका परित्याग करता है वह कभी औषधिको अधिक मात्रामें पीकर उसी रोगको निमंत्रण नहीं देता है । और यदि वह ऐसा करता है तो फिर वह बुद्धिमान् न कहला कर मूर्ख ही कहा जावेगा। इसी प्रकार जो बुद्धिमान् मनुष्य चेतन (स्त्री-पुत्रादि) और अचेतन (धन-धान्यादि) पदार्थोसे मोहको छोडकर महाव्रतोंको स्वीकार करता है वह कभी संयमके उपकरणस्वरूप पीछी एवं कमण्डलु आदिके विषयमें अनुरागको नहीं प्राप्त होता है। और यदि वह ऐसा करता है तो समझना चाहिये कि वह अतिशय अज्ञानी है। कारण कि इस प्रकारसे उसका परिग्रहको छोडकर मुनिधर्मको ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे साधो! जब तू स्त्री आदि समस्त बाह्य वस्तुओंसे अनुराग छोड चुका है तो फिर पीछी कमण्डलु आदिके विषयमें भी व्यर्थमें अनुराग न कर । अन्यथा तू इस लोकके सुखसे तो रहित हो ही चुका है, साथ ही वैसा करनेसे परलोकके भी सुखसे वंचित हो जावेगा ॥ २२८ ॥ बाहिर उत्पन्न Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ [ श्लो० २२९ आत्मानुशासनम् तपः श्रुतमिति द्वयं बहिरुदीर्य रूडं यदा कृषीफलमिवालये समुपलीयते । स्वात्मनि । कृषीवल इवोज्झितः करणचौरबाधादिभिः तदा हि मनुते यतिः स्वकृतकृत्यतां धीरधीः ॥ २२९ ॥ कृतार्थतामात्मनो मन्यते इत्याह-- तप इत्यादि । उदीर्य प्रकाश्य । रूढं प्रवृद्धम् । कृषीवल : कुटुम्बिकः । उज्झितस्त्यक्त: ।। २२९ ॥ श्रुतज्ञानेन अशेषार्थाव होकर वृद्धिगत हुई कृषी के फल (अनाज) को जब चोर आदिकी बाधा - असे सुरक्षित रखकर घर पहुंचा दिया जाता है तब जिस प्रकार धीरबुद्धि किसान अपनेको कृतकृत्य ( सफलप्रयत्न) मानता है, उसी प्रकार बाह्यमें उत्पन्न होकर वृद्धिको प्राप्त हुए तप और आगमज्ञान इन दोनों को इन्द्रियोंरूप चोरोंको बाधाओंसे सुरक्षित रखकर जब अपनी आत्मामें स्थिर करा देता है तब धीरबुद्धि साधु भी अपनेको कृतकृत्य मानता है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार साहसी किसान पहिले योग्य भूमि में बीजको बोता है और जब वह अंकुरित हो जाता है तो वह उसकी पशु आदिसे रक्षा करता है । इस क्रमसे उसके पक जानेपर जब किसान उस चोरों आदिसे बचाकर अपने घर पहुंचा देता है तब ही वह अपने परिश्रमको सफल मानकर हर्षित होता है । इसी प्रकार से जो साधु बाह्यमें तपश्चरण करता है तथा आगमका अभ्यास भी करता है उसके ये दोनों कार्य उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होकर जब इन्द्रियों की वाधाओं से सुरक्षित रहते हुए आत्मामें स्थिरताको प्राप्त हो जाते हैं तब ही उसे अपना परिश्रम सफल समझना चाहिये । ऐसी अवस्थामें ही वह अपने साध्य (मोक्ष) को सिद्ध कर सकता है, अन्यथा नहीं | यहां लोकमें जो ' धीरधी ' (धीरबुद्धि) विशेषण दिया गया है उसका यह भाव है कि जिस प्रकार किसान बीज बोते समय अधीर होकर यह कभीं 1 मु [ जं. नि. ] समुपनीयते । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ -२३०] आशाशत्रुतॊपेक्षणीयः दृष्टार्थस्य न मे किमप्ययमिति ज्ञानावलेपादमुं नोपेक्षस्व जगत्त्रयंकडमरं निःशेषयाशाद्विषम् । पश्याम्भोनिधिमप्यगाधसलिलं बाबाध्यते वाडवः क्रोडीभूतविपक्षकस्य जगति प्रायेण शान्तिः कुतः ॥ २३०॥ गमान्मम न किंचित्कर्तु समर्थोऽयमित्याशा-शत्रो नोपेक्षा कर्तव्येति शिक्षा प्रयच्छन् दृष्टेत्याह-- दृष्टार्थस्य ज्ञातार्थस्य । न मे किमप्ययम्-- अयम् आशा-द्विट् न मे किमपि कर्तु समर्थः । अवलेपात् गर्वात् ।। जगत्त्रयकडमरं जगत्त्रयस्य एकम अद्वितीयं डमरं भयं क्षोभो वा यस्मात् । नि:शेषय स्फेटय । आशा-द्विषम् आशा-शत्रुम् । अगाधसलिलमपि। बाबाध्यते सातिशयेन बाधते । क्रोडीभूतविपक्षकस्य स्वीकृतशत्रोः ॥२३० ।। आशा-शत्रु निर्मूलयता विचार नहीं करता है कि यदि फसल अच्छी तैयार न हुई तो मुझे बीजकी हानि सहनी पडेगी, किन्तु इसके विपरीत वह साहस रखकर फलप्राप्तिकी आशासे ही उसे बोता है । उसी प्रकार जो समस्त बाह्य परिग्रहको छोडकर तपश्चरणको स्वीकार करता है उसे भी अधीर होकर कभी ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि जिस तपके फल (स्वर्ग-मोक्ष) की प्राप्तिकी आशासे में वर्तमान सुखको छोडकर उसे स्वीकार कर रहा हू' वह फल यदि न प्राप्त हुआ तो मुझे व्यर्थ ही कष्ट सहना पडेगा । किन्तु इसके विपरीत उसे यही निश्चय करना चाहिये कि तपका फल जो स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्ति है वह मुझे प्राप्त होगा ही। तदनुसार उसे साहसके साथ उसकी प्रतीक्षा भी करनी चाहिये ॥ २२९ ॥ मैं पदार्थों के स्वरूपको जान चुका हूं, इसलिये यह आशारूप शत्रु मेरा कुछ बिगाड नहीं कर सकता है। इस प्रकार ज्ञानके अभिमानसे तू तीनों लोकोंमे अतिशय भयको उत्पन्न करनेवाले उस आशारूप शत्रुकी उपेक्षा न करके उसे निर्मल नष्ट कर दे। देखो, अथाह जलसे परिपूर्ण भी समुद्रको वाडवाग्नि अतिशय बाधा पहुंचाती है । ठीक है- जिसकी गोदमे (समीपमें) शत्रु स्थित है उसे भला संसारमें प्रायः शान्ति कहांसे प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकती है ॥ २३० ।। जिसका हृदय स्नेह (राग) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आत्मानुशासनम् [श्लो० २३१ - स्नेहानुबबहृदयो ज्ञानचरित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः । बीप इवापादयिता कज्जलमलिनस्य कार्यस्य ॥ २३१॥ रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो बत सीदसि ॥ २३२ ॥ च भवता निर्मोहतव कर्तव्येत्याह-- स्नेहानुबद्धहृदयः अनुरागयुक्तहृदयः । अन्वितोऽपि सहितोऽपि । आपादयिता कर्ता । कज्जलमलिनस्य दुःकर्मणः ।। २३१॥ तदनुबद्धहृदयश्च भवानिष्टानिष्टविषये रत्यरतिभ्यां क्लिश्यतीत्याह-- रतेरित्यादि। रते: अनुरागात् । अरति द्वेषम् । तृतीयं परम् उदासीनतालक्षणम् । बालिश: अज्ञः । सीदसि दु:खितो भवसि ॥२३२॥ से सम्बद्ध है वह ज्ञान और चारित्रसे युक्त होकर भी चूंकि स्नेह (तेल) से सम्बद्ध दीपकके समान कज्जल जैसे मलिन कर्मोंको उत्पन्न करता है अतएव वह प्रशंसाके योग्य नहीं है । विशेषार्थ--जिस प्रकार दीपक स्नेह (तेल) से सम्बन्ध रखकर निकृष्ट काले कज्जलको उत्पन्न करता है उसी प्रकार जो साधु स्नेहसे सम्बन्ध रखता है- हृदयमें बाह्य वस्तुओंसे अनुराग करता है-वह ज्ञान और चारित्रसे युक्त होता हुआ भी उक्त अनुरागके वश होकर कज्जलके समान मलिन पाप कर्मोको उत्पन्न करता है । अतए व उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती है । हां, यदि वह उक्त स्नेहसे रहित होकर- बाग-द्वेषको छोडकर- उन ज्ञान और चारित्रको धारण करता है तो फिर वह चूंकि उक्त मलिन कर्मोको नहीं बांधता है- उनकी केवल निर्जरा ही करता है- अतएव वह लोकका वंदनीय हो जाता है। दीपक भी जब स्नेहसे रहित हो जाता है- उसका तेल जलकर नष्ट हो जाता है- तब वह कज्जलरूप कार्यको नहीं उत्पन्न करता है ॥ २३१ ॥ हे भव्य ! तू रागसे हटकर द्वेषको प्राप्त होता है और तत्पश्चात् उससे भी रहित होकर फिरसे उसी रागको प्राप्त होता है । इस प्रकार खेद है कि तू तीसरे पदको-- राग-द्वेषके अभावरूप समताभावको-- न प्राप्त करके यों ही दुखी होता है ॥ २३२ ॥ हे भव्य ! Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३४] ज्ञान-चारित्रमूल्येन मोक्षः स्वकरे करणीयः २१९ तावद् दुःखाग्नितप्तात्मायःपिण्डः सुखसोकरः । निर्वासि नित्ताम्भोधौ यावत्त्वं न निमज्जसि ॥२३३॥ मञ्जु मोक्षं सुसम्यक्रवसत्यंकारस्वसास्कृतम् । ज्ञानचारित्रसाकल्यमूल्येन स्वकरे कुरु ॥ २३४ ॥ दुःखसंतप्तस्वरूपश्च त्वं मोक्षसुखाप्राप्ती विषयसुखलवेन सुखिनमात्मानं मन्यसे इत्याह- तावदित्यादि । तावदुःखाग्नितप्तात्मा सन् अय:पिण्ड इव तावत्त्वं सुखसीकरः इन्द्रियप्रभवसुखलवैः। (न) निर्वासि न सुखीनवसि । निर्वताम्भोधी मोक्षसुखसमुद्रे ।। २३३ ।। तत्र निमज्जनं च तत्स्वीकारे सति भवतीत्यतो ज्ञानादिमूल्येन तत्स्वीकारः क्रियतामित्याह-- मंक्ष्वित्यादि । मञ्जु शीघ्रम् । मोक्षं स्वकरे कुरु गृहाण । कथंभूतम् । सुसम्यक्त्वसत्यंकार जबतक तू मोक्षसुखरूप समुद्र में नहीं निमग्न होता है तबतक तू दुखरूप अग्निसे तपे हुए लोहेके गोलेके समान विषयजनित क्षणिक लेशमात्र सुखसे सुखी नहीं हो सकता है । विशेषार्थ---- जिस प्रकार अग्निसे संतप्त लोहेके गोलेको यदि थोडे-से पानीमें डाला जाय तो वह उतने मात्रसे शान्त (शीतल) नहीं होता है, किन्तु जब उसे अधिक पानीके भीतर पूरा डुबा दिया जाता है तब ही वह शान्त होता है । इसी प्रकार जन्ममरणादिके अनेक दुःखोंसे संतप्त प्राणीको यदि थोडा-सा विषयजन्य क्षणिक सुख प्राप्त होता है तो इससे वह वास्तवमें सुखी नहीं हो सकता है। वह पूर्णतया सुखी तो तब ही हो सकता है जब कि कर्मबन्धनसे रहित होकर अनन्त शाश्वतिक सुखको प्राप्त कर ले ॥ २३३ ।। हे भव्य ! तू निर्मल सम्यग्दर्शनरूप ब्याना देकर अपने आधीन किये हुए मोक्षको सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप पूरा मूल्य देकर शीघ्र ही अपने हाथमें करले।। विशेषार्थ--- लोकव्यवहारमें जब कोई किसी वस्तुको खरीदना चाहता है तो वह इसके लिये पहिले कुछ ब्याना (मैं निश्चित ही इसे खरीदूंगा, इस प्रकारका वायदा करते हुए उसके मूल्यका कुछ भाग जो पूर्वमें दिया जाता है) देकर उक्त वस्तुको अपने आधीन कर लेता है, जिससे कि उक्त 1 मु (जे.नि.) पिण्ड इव सीदसि । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आत्मानुशासनम् .. .. -- [श्लो० २३५अशेषमद्वैतमभोग्यभोग्यं निवृत्तिवृस्योः परमार्थकोट्याम् । अभोग्यभोग्यात्मविकल्पबुद्धया निवृत्तिमभ्यस्यतु मोक्षकांक्षी ॥ स्वसात्कृतं सम्यक्त्वमेव सत्यकार: संचकार: तेन स्वसात्कृतम् आत्माधीनं कृतम् । साकल्यमूल्येन परिपूर्णमूल्येन ॥ २३४ ॥ सराग-वीतरागप्रकृष्टप्रवृत्ति-निवृत्त्यपेक्षया कीदृशमिदं जगदित्याह-- अशेषमित्यादि । अशेषं जगत् । अद्वैतम् एकरूपम् । अभोग्यभोग्यं सत् । कस्यां सत्यामित्याह-- निवृत्तीत्यादि। अयमर्थ:-- निवृत्तेः परमार्थकोट्यां परमप्रकर्षे सर्वं जगत् अभोग्यरूपमेव । वृत्त प्रवृत्तेः परमार्थकोटयां सर्वं जगत् भोग्यरूपमेव । ततो यदि वस्तुका स्वामी उसे किसी अन्य व्यक्तिको न बेच सके । तत्पश्चात् वह उक्त वस्तुका पूरा मूल्य देकर उसे अपने हाथमें कर लेता है। ठोक इसी प्रकारसे जो भव्य जीव मोक्षको प्राप्त करना चाहता है उसे पहिले ब्यानाके रूपमें सम्यक्त्वको देना चाहिये- धारण करना चाहिये। तत्पश्चात् सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप पूर्ण मूल्यके द्वारा उक्त मोक्षको अपने हाथमें कर लेना चाहिये । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ब्याना देनेसे अभिलषित वस्तु उस ब्याना देनेवालेके लिये निश्चित हो जाती है उसी प्रकार सम्यक्त्वकी प्राप्तिसे अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाणकालके भीतर मोक्षका लाभ भी निश्चित हो जाता है। इतने कालके भीतर जब भी वह पूर्ण मल्यके समान सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको प्राप्त कर लेता है तब ही उसे अपने अभीष्ट उक्त मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥ १३४ ॥ यह समस्त संसार एकरूप है- वास्तवमें भोग्य और अभोग्यकी कल्पनासे रहित है। फिर भी वह प्रवृत्ति और निवृत्तिकी अतिशय प्रकर्षतामें प्रवृत्तिकी अपेक्षा भोग्य और निवृत्तिकी अपेक्षा अभोग्य होता है । जो भव्य प्राणी मोक्षकी इच्छा करता है उसे भोग्य और अभोग्यरूप विकल्पबृद्धिसे निवृत्तिका अभ्यास करना चाहिये । विशेषार्थ---- विश्व एक रूप ही है। किन्तु जो जीत्र राग-द्वेषसे सहित है वह जिसे इष्ट समझता है उसके तो ग्रहण करनेमें प्रवृत्त होता है तथा जिसे वह अनिष्ट समझता है उसके छोडनेमें प्रवृत्त होता है। इस प्रकार वह समस्त विश्वको ही भोगना चाहता है। परन्तु Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३०] प्रवृत्ति-निवृत्त्योः स्वरूपम् २२१ निवृत्ति भावयेद्यावन्निवृत्यं तदभावतः । न वृत्तिन निवृतिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥२३६॥ रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तनिषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसंबद्धौ! तस्मातान् सुपरित्यजेत् ॥२३७॥ मोक्षाभिलाषी भवान् तदा निवृत्तिमभ्यस्यतु । कस्याः । अभोग्य भोग्यात्मविकलबुद्धया अभोग्यभोग्यरूपभेदबुद्धः ॥२३५।। तन्निवृत्त्यभ्यासश्च कियत्कालं कर्तव्य इत्याहनिवृत्तिमित्यादि । यावन्निवृत्त्यर्थं वस्तु विद्यते तावनिवृत्ति भावयेत् । तदभावत: न वृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदम् अव्ययम् ॥२३६।। अथ का प्रवृत्तिः का वा निवृत्तिः किंविषया वा सेत्याह-रायेत्यादि । तान् बाह्यार्थान् ।। २३७ ॥ तत्परित्यागं च जो विवेकी जीव राग-द्वेषसे रहित होता है उसे इष्ट अनिष्टको कल्पना ही नहीं होती । इसीलिये वह एक मात्र अपने चैतन्यस्वरूपको छोडकर अन्य सभी बाह्य वस्तुओंसे निवृत्त रहता है-उसे सब ही अभोग्य प्रतीत होता है । यही निवृतिमार्ग उपादेय है। मोक्ष सुखाभिलाषी जीवको प्रवृतिमार्गसे अलग रहकर इस निवृत्तिमार्गका हो अभ्यास करना चाहिये ।।२३५।। जब तक छोडने के योग्य शरीरादि बाह्य वस्तुओंसे सम्बन्ध है तब तक निवृत्तिका विचार करना चाहिये और जब छोडनेके योग्य कोई वस्तु शेष नहीं रहती है तब न तो प्रवृत्ति रहती है और न निवृत्ति भी । वही अविनश्वर मोक्षपद है ॥ विशेषार्थ-जब तक बाह्य वस्तुओंसे अनुराग है तब तक निवृत्तिका अभ्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् जब उन बाह्य वस्तुओंसे अनुराग नष्ट हो जाता है तब उनका संयोग भी हट जाता है और इसीलिये उस समय प्रवृत्ति ओर निवृत्ति से रहित अविनश्वर मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है ॥२३६॥ राग और द्वेषका नाम प्रवृत्ति तथा इन दोनों के अभावका नाम ही निवृत्ति है। चूंकि वे दोनों (राग और द्वेष) बाह्य वस्तुओंसे सम्बन्ध रखते हैं । अतएव उन बाह्य वस्तुओंका ही परित्याग करना चाहिये ॥ २३७ ।। मैंने संसारस्वरूप 18स संबंधी। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आत्मानुशासनम् [श्लो० २३८ भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥२३८॥ शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट् त्रयम् । हितमायमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥२३९॥ कुर्वन्नहमित्थं भावनां भावयामीत्याह-- भावयामीत्यादि । भावनाः पुनः पुनः चेतसि चिन्तनम् । प्रागभाविता: सम्यग्दर्शनादिभावनाः । भाविताः प्रागनुष्ठिताः मिथ्यादर्शनादिभावनाः । इत्यनेन प्रकारेण भावना: भावये । भवाभावाय संसारविनाशाय ।।२३८।। भावनाविषयभूतं वस्तु किमात्मनो हितं किं वा अहितम् इत्याह-- शुभेत्यादि । शुभाशुभे प्रशस्ताप्रशस्तो वाक्-काय-मनो-व्यापारौ । त्रयमाद्यं शुभं पुण्यं सुखं च । हितमुपकारकम् । अनुष्ठेयं कर्तव्यम् ॥ २३९ ॥ भंवरमें पडकर पहिले कभी जिन सम्यग्दर्शनादि भावनावोंका चिन्तन नहीं किया है उनका अब चिन्तन करता हूं और जिन मिथ्यादर्शनादि भावनाओंका वार वार चिन्तन कर चुकाहूं उनका अब मैं चिन्तन नहीं करता हूं। इस प्रकार में अब पूर्व मावित भावनाओं को छोडकर उन अपूर्व भावनाओंको भाता हूं, क्योंकि, इस प्रकारको भावनायें संसारविनाशकी कारण होती हैं ।।२३८॥ शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप तथा सुख और दुख ; इस प्रकार ये छह हुए । इन छहोंके तीन युगलों से आदिके तोन- शुभ, पुण्य और सुख- आत्माके लिये हितकारक होनेसे आचरणके योग्य हैं । तथा शेष तीन-- अशुभ, पाप और दुख- अहित-- कारक होनेसे छोडनेके योग्य हैं । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनपूजनादिरूप शुम क्रियाओंके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता ह और उस पुण्य कर्मके उदयमें प्राप्त होनेपर उससे सुखकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हिंसा एवं असत्यसंभाषणादिरूप अशुभ क्रियायोंके द्वारा पापका बन्ध होता है और उस पाप कर्मके उदयमें प्राप्त होनेपर उससे दुखको प्राप्ति होती है । इसीलिये उक्त छहमेंसे शुभ, पुण्य और सुख ये तीन उपादेय तथा अशुभ, पाप और दुख ये तीन हेय हैं ।। २३९ ।। पूर्व श्लोकमें जिन तीनको-शुभ, पुण्य और सुखको-हितकारक बतलाया है Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४० ] शुभाशुभे द्वेऽपि त्यजनीये तत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥ २४०॥ शुभादित्रयेऽपि त्यागक्रमं दर्शयन्नाह-- तत्रेत्यादि । तत्रापि आद्यं शुभम् । शेषी पुण्य सुखपदार्थों कारणाभावे ( न ) भवतः । शुद्धे उदासीने भावे स्थित्वा शुभं त्यक्त्वा । अम्ते शुभावसाने 1 त्रये हिते । कार्यानुत्पत्तेः • २२३ 10 उनमें भी प्रथमका (शुभका) परित्याग करना चाहिये । ऐसा करनेसे शेष रहे पुण्य और सुख ये दोनों स्वयं ही नहीं रहेंगे, इस प्रकार शुभको छोडकर और शुद्ध स्वभावमें स्थित होकर जीव अन्त में उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ॥ विशेषार्थ - ऊपर जो इस श्लोकका अर्थ लिखा गया है वह संस्कृत टीकाकार श्री प्रमाचंद्राचार्य के अभिप्रायानुसार लिखा गया है । उपर्युक्त श्लोकका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है - इलोक २३९ में जो अशुभ, पाप और दुख ये तीन अहितकारक बतलाये गये हैं उनमें भी प्रथम अशुभका ही त्याग करना चाहिये । कारण यह कि ऐसा होनेपर शेष दोनों पाप और दुख स्वयमेव नहीं रह सकेंगे, क्योंकि, इनका मूल कारण अशुभ ही है। इन प्रकार जब मूल कारणभूत वह अशुभ न रहेगा तब उसका साक्षात् कार्यभूत पाप स्वयमेव नष्ट हो जावेगा, और जब पाप ही न रहेगा तो उसके कार्यभूत दुखकी भी कैसे सम्भावना की जा सकती है नहीं की जा सकती है । इस प्रकार उक्त अहितकारक तीनके नष्ट हो जानेपर शेष तीन जो शुभादि हितकारक रहते हैं वे भी वास्तव में हितकारक नहीं है (देखिये आगे श्लोक २६२ ) । उनको जो हितकारक व अनुष्ठेय बतलाया गया है वह अतिशय अहितकारी अशुभादिकी अपेक्षा ही बतलाया है । यथार्थमें तो वे भी परत ताके ही कारण हैं । भेद इतना ही है कि जहां अशुभादिक जीवको नारक एवं तिर्यंच पर्यायमें प्राप्त कराकर केवल दुखका ही अनुभव कराते हैं वहां वे शुभादिक उसको मनुष्यों और देवों में उत्पन्न कराकर दुखमिश्रित सुखका अनुभव कराते हैं । इसीलिये यहां यह बतलाया है कि उन अशुभादिक तीनको छोड देनेके पश्चात् शुद्धोपयोगमें स्थित Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आत्मानुशासनम् ... [लो० २४१ अस्त्यात्मास्तमितादिबन्धनमतस्तद्वन्धनान्यास्रवः ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽव्रतात् । परमं पदं मोक्षम् ।।२४०।। ननु आत्मनि सिद्धे तस्य परमपदप्राप्तिः सिद्धयेत् । स चासिद्धो गर्भादिमरणपर्यन्तं चैतन्यव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽभवात् इति चार्वाकाः । सदैवात्मनो मुक्तत्वात् शुभं त्यक्त्वा परमं पदं प्राप्नोतीत्ययुक्तमिति सांख्याः । तान् प्रत्याह--- अस्तीत्यादि। सर्वदा विद्यते आत्मा, जातिस्मरणदर्शन त। होकर उस शुभको भी छोड देना चाहिये। इस प्रकार अन्तमें उस शुभके अविनाभावो पूण्य व सांसारिक सूखके भी नष्ट हो जानेपर जीव उस निर्बाध मोक्ष पदको प्राप्त कर लेता है जो कि अनन्त काल तक स्थिर रहनेवाला है ॥२४०॥ आत्मा है और वह अनादि परम्परासे प्राप्त हुए बन्धनोंमें स्थित है । वे बन्धन मन,वचन एवं शरीरको शुभाशुभ क्रियाओरूप आस्रवोंसे प्राप्त हुए हैं; वे आस्रव क्रोधादि कषायोंसे किये जाते हैं; क्रोधादि प्रमादोंसे उत्पन्न होते हैं, और वे प्रमाद मिथ्यात्वसे पुष्ट हुई अविरतिके निमित्तसे होते हैं । वही कर्म-मलसे सहित आत्मा किसी विशिष्ट पर्यायमें कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर कनसे सम्यग्दर्शन, व्रत, दक्षता अर्थात् प्रमादोंका अभाव, कषायोंका विनाश और योगनिरोधके द्वारा उपर्युक्त बन्धनोंसे मुक्ति पा लेता है। विशेषार्थ-चार्वाक आत्माका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं । उनका अभिप्राय है कि जिस प्रकार कोयला, अग्नि, जल एवं वायु आदिके संयोगसे जो प्रबल बाष्प उत्पन्न होता है वह भारी रेल गाडी आदिके भी चलानेमें समर्थ होता है, उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंके संयोगसे वह शक्ति उत्पन्न होती है जो शरीरको गमनागमनादि क्रियाओं एवं पदाथोंके जानने-देखने आदिमें सहायक होती है । उसे ही चेतना शब्दसे कहा जाता है । और वह जब तक उन भूतोंका संयोग रहता है तभी तक (जन्मसे मरण पर्यन्त) रहती है, न कि उससे पूर्व और पश्चात् भी । 1 ज स जातिस्मरदर्शनात् । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२२५ -२४१) बन्ध-मोक्षकारणानि मिथ्यात्वोपचितात्स एव समल: कालादिलब्धौ क्वचित् सम्यक्त्वव्रतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥ २४१॥ भूतग्रहादेश्च स्व-परपूर्वभवप्रतिपादकत्वप्रतीतेः। स च अस्तमितादिबन्धनगतः अस्तसितो नष्ट: आदिर्येषां तानि च तानि बन्धनानि तत्र गतः अनादिकर्मबन्धनबद्ध इत्यर्थ स्तिमिताबन्धनमत। (इत्यर्थः । स्तिमितादिबन्धनगत:) इति च पाठः । तत्र स्थित्यादिबन्धनस्थितिरित्यर्थः । तद्वन्धनानि अस्तमितादिबन्धनानि । आस्रवै: काय-वाङ्-मनोव्यापारैः । प्रमाद: उनके इस मतके निराकरणार्थ यहां श्लोकमें सबसे पहिले 'अस्त्यात्मा' कहकर यह प्रमाणित किया है कि आत्मा नामसे प्रसिद्ध कोई वस्तु अवश्य है । यदि आत्मा न होता तो बहुतोंको जो अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है वह नहीं होना चाहिये। इसके अतिरिक्त भूत-पिशाचादिकोंको भी अपने और दूसरोंके पूर्वभवोंको बतलाते हुए देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा नामकी कोई वस्तु अवश्य है जो विवक्षित जन्मके पूर्वमें भी था और मरणके पश्चात् भी रहती है। इसी प्रकार सांख्य आत्माको स्वीकार करके भी उसे सर्वदा शुद्ध-कर्मसे अलिप्त मानते हैं । उसके निराकरणार्थ यहां उस आत्माको अनादिबन्धनगत निर्दिष्ट किया है। इसका अभिप्राय यह है कि शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा यद्यपि प्रत्येक आत्मा कर्मसे अलिप्त होकर अपने ही शुद्ध चैतन्यरूप द्रव्यमें अवस्थित है। स्वभावसे एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पडता है । जैसे- सुवर्णमें यदि तांबेका मिश्रण भी हो तो भी सुवर्णपरमाणु सुवर्णस्वरू. पसे और तांबेके परमाणु तत्स्वरूपसे ही अपनी पृथक् पृथक् स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं । यही कारण है जो सुनारके द्वारा उन दोनोंको पृथक् कर दिया जाता है। किन्तु यह द्रव्यके उस शुद्ध स्वभावको अपेक्षा ही सम्भव है, न कि वर्तमान अशुद्ध पर्यायकी अपेक्षा भी। पर्यायकी अपेक्षा तो संसारी आत्मा अनादि सन्तति स्वरूपसे आनेवाले नवीन नवीन कर्मोके बन्धसे सम्बद्ध ही रहता है । और जब वह पर्यायकी अपेक्षा कमबन्धनमें 1 प अमितादिबन्धनगतः । आ. १५ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आत्मानुशासनम् [श्लो० २४१ अप्रयत्नपरता। स प्रमाद: अव्रतात् हिंसादिपरिणतेः। मिथ्यात्वोपचितात मिथ्यात्वेन उपचितं पुष्टं मिथ्यात्वं वा उपचितं पुष्टं यत्र । स एव आत्मैव, न प्रकृतिः। क्वचित् मनुष्यभवे । दक्षता विवेकः । अकलुषता क्रोधादिरहितता। अयोगः कषाया (काया)द्यव्यापारैः कृत्वा। क्रमात् क्रमेण । सम्यक्त्वादिकृतां कर्मनिर्जरामाश्रित्य मुच्यते ॥ २४१ ॥ यः शरीरादे निस्पृहः स निस्पृहः, नान्यतः बद्ध होकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वभावको छोडता हुआ राग-द्वेषादिरूप विभावमें परिणत होता है तब उसको अपने शुद्ध स्वभावमें स्थिर रखनेके लिये प्रयत्न करना भी- तपश्चरण आदि करना भी- उचित है । यदि वह द्रव्यके समान पर्यायसे भी शुद्ध हो तो फिर तपश्चरणादि व्यर्थ ठहरते हैं। अतएव यही समझना चाहिये कि वह आत्मा जिस प्रकार स्वभावसे शुद्ध है उसी प्रकार पर्यायकी अपेक्षा वह अशुद्ध भी है । अब जब वह पर्यायसे अंशुद्ध या कर्मबन्धसे सहित है तब यह प्रश्न उठता है कि बसे वह कर्मबन्धनमें बद्ध है तथा किस प्रकार वह उससे छूट सकता है । इसके उत्तरमें यहां यह बतलाया है कि वह अनादिसे उस कर्मबन्धनमें बद्ध है । उसके इस कर्मबन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं । इनमें पूर्व पूर्व कारणके रहनेपर उत्तर उत्तर कारण अवश्य रहते हैं। जैसे- यदि मिथ्यात्व है तो आगेके अविरति आदि चार कारण अवश्य रहेंगे, इसी प्रकार यदि अविरीत है तो उसके आगेके प्रमाद आदि तीन कारण अवश्य रहेंगे। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये। यही बात यहां प्रकारान्तरसे प्रकृत श्लोकमें निर्दिष्ट की गई है। यह बन्धकी परम्परा बीज और अंकुरके समान अनादिसे है- जिस प्रकार बीजसे अंकुर व उससे पुनः बीज उत्पन्न होता है, इस प्रकारसे जैसे इनकी परम्परा अनादि है उसी प्रकार उपर्युक्त मिथ्यात्वादिसे कर्मबन्ध और फिर उससे पुनः मिथ्यात्वादि उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार यह बन्धपरम्परा भी अनादि है। परन्तु जिस प्रकार बीज या अंकुरमेंसे किसी एकके नष्ट हो जानेपर वह अनादि भी बीजांकुरकी परम्परा नष्ट हो जाती है उसी प्रकार उन मिथ्यत्वादिके विपरीत क्रमसे सम्यग्दर्शन, व्रत, दक्षता (अप्रमाद), अकलुषता (अकषाय) और अयोग अवस्थाके प्राप्त Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममेदभाव ईतिरिव हानिकरः ममेदमहमस्येति प्रीतिरीतिरिवोत्थिता । क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत्काशा तपःफले ॥ २४२ ॥ मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽहमहमेवाहमन्योऽन्योऽहमस्ति न ।। २४३ ॥ -२४३] २२७ अन्य: इत्याह-- ममेत्यादि । ईतिरिव उपद्रवकारिणी मूषकादिसंभूतिरिव । क्षेत्रे आत्मनि । क्षेत्रीयते क्षेत्रिणमिव आत्मानमाचरति । प्रीतिः कर्त्री । काशा न काचिदपि आशा । तपःफले मोक्षे ॥ २४२ ॥ प्रीतिवशाच्च अभेदबुद्धि: संसारहेतु:, तदभावान्मुक्तिरिति दर्शयन्नाह - - मामित्यादि । माम् आत्मानम् अन्यं भिन्नं कायादिकं मत्वा, अन्यं कायादिकं भिन्नं माम् आत्मानं मत्वा । भ्रान्तौ सत्याम् । भ्रान्तः पर्यटितः भवार्णवे । न अन्योऽहम् कायादिर्नाहम् । अहमेव अहम् आत्मैव अहम् । अन्य : हो जानेपर वह अनादि बन्धपरम्परा भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से वह आत्मा मुक्तिको प्राप्त करता है ।। २४१ ।। 'यह मेरा है और मैं इसका हूं ' इस प्रकारका अनुराम जबतक ईतिके समान खेत (शरीर) के विषय में उत्पन्न होकर खेत के स्वामीके समान आचरण करता है तबतक तपके फलभूत मोक्षके विषय में भला क्या आशा की जा सकती है? नहीं की जा सकती है ॥ विशेषार्थ - अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी), चूहा, तोता, स्वचक्र और परचक्र (अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलमा मूषका शुकाः । स्वचक्रं परचक्रं व सप्तैता इतयः स्मृताः ॥ ) ये सात ईति मानी जाती हैं । जिस प्रकार इन इतियोंमें से कोई भी ईति यदि खेत के मध्य में उत्पन्न होती है तो वह उस खेतको (फसलको ) नष्ट कर देती है । इससे वह कृषक कृषीके फल (अनाज) को नहीं प्राप्त कर पाता है । इसी प्रकार तपस्वीको यदि शरीर के विषय में अनुराग है और इसीलिये यदि वह यह समझता है कि यह शरीर मेरा है और में इसका स्वामी हूं तो उसका वह अनुराग ईतिके समान उपद्रवकारी होकर तपके फलको - मोक्षको नष्ट कर देता है ।। २४२ ॥ मुझको (आत्माको ) अन्य शरीरादिरूप तथा शरीरादिको मैं ( आत्मा ) समझकर यह प्राणी उक्त भ्रमके कारण अबतक संसाररूप समुद्र में घूमा है । वास्तवमें में अन्य नहीं हूं- शरीरादि नहीं हूं, मैं में ही हूं और अन्य (शरीसदि ) अन्य ही हैं, अन्य में नहीं Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आत्मानुशासनम् [श्लो० २४४बन्धो जन्मनि येन येन निबिडं निष्पादितो वस्तुना बाह्यार्थंकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः सांप्रतम् । तत्तत्तन्निधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥ २४४ ॥ कायादिः । अन्यो भिन्नः। अन्योऽहमस्ति न कायादि: आत्मा भवति न। अभ्रान्ताविति च पाठः । अभ्रान्तो भवार्णवो अभ्रान्ती ॥२४३ ।। कायादिमनुरागबुद्धया वैराग्यबुद्धया च पश्यत: कर्मबन्धाय तद्विनाशाय भवतीति दर्शयन्नाह-- बन्ध इत्यादि । बाह्यार्थंकरते: बाहयार्थे एका अद्वितीया रतिर्यस्य आत्मनः । पुरा पूर्वम् । परिणतप्रज्ञात्मनः परिणता यथावत्पदार्थपरिच्छेदिका प्रज्ञा आत्म (आत्मा)स्वरूपं यस्य । तन्निधनाय बन्धविनाशाय । हूं; इस प्रकार जब अभ्रान्त ज्ञान (विवेक) उत्पन्न होता है तब ही प्राणी उक्त संसाररूप समुद्रके परिभ्रमणसे रहित होता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जीव जबतक शरीरको ही आत्मा मानता है- शरीरसे भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माको उससे पृथक् नहीं मानता है- तबतक वह इस भ्रमके कारण परपदार्थोमें राग-द्वेष करके कर्मोदयसे संसारमें परिभ्रमण करता हुआ दुख सहता है। और जब उसका उपर्युक्त भ्रम हट जाता है- तब वह आत्माको आत्मा एवं शरीरादिपरपदार्थोंको पर मानने लगता है- तब वह राग-द्वेषसे रहित होकर उक्त संसारपरिभ्रमणसे छूट जाता है ।। २४३ । संसारके भीतर बाह्य पदा र्थोंमें अतिशय अनुराग रखनेवाले जीवके पहिले जिस जिस वस्तुके द्वारा दृढ बन्ध उत्पन्न हुआ था उसीके इस समय यथार्थज्ञानसे परिणत होकर वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्र होनेपर वह वह वस्तु उक्त बन्धके विनाशका कारण हो रही है । विद्वानोंकी वह अलौकिक कुशलता अनुपम ही है जो दुर्बोध है- बडे कष्टसे जानी जाती है ॥ विशेषार्थ- बन्धके कारण राग-द्वेष हैं । जीवके जबतक आत्म-परविवेक प्रगट नहीं होता है तबतक उसके राग-द्वेषकी विषयभूत हुई परवस्तुओंके निमित्तसे बन्ध ही हुआ करता है । परन्तु जब उसके वह आत्म-परविवेक आविर्भूत हो जाता है तब वह पूर्व में जिन वस्तुओंसे राग-द्वेष करके दृढ कर्मबन्ध करता था वे ही, अब उसकी चूंकि उपेक्षाकी विषयभूत हो Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४५ ] बन्ध-मोक्षयोः क्रमः २२९ अधिकः क्वचिदाश्लेषः क्वचिद्धीनः क्वचित्समः । क्वचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ॥२४५॥ काष्ठास्पृशः प्रकर्ष प्राप्तस्य । दुर्बोधं महता कष्टेन बुध्यते । तदन्यदेव तत्कौशलम् अन्यदेव अपूर्वमेव । अप्राकृतम् अलौकिकम् ।।२४४॥ बन्धन-तद्विनाशयोर्थथासंभ वं क्रमं दर्शयन्नाह- अधिक इत्यादि । क्वचित् अभव्ये । अधिक: आश्लेष: कर्मबन्धः । क्वचित् आसन्नभव्ये । हीनः कर्मबन्धः । क्वचिद् दूरभव्यं । समः कर्मबन्ध: उदयकारणसद्भावात् । क्वचिदतीव आसन्नमुक्तिके । विश्लेष एव कर्मबन्धाभाव एवेति । नानात्मापेक्षयेदं व्याख्यानम् । एकात्मापेक्षयापि-- क्वचित् मिथ्यात्वादिगुणस्थाने अधिक: कर्मबन्धः । क्वचित् अविरतसम्यग्दृष्ट्यादौ हीन: कर्मबन्धः । क्वचिन्मिश्रगुणस्थाने समः कर्मबन्ध: । क्वचित्क्षीणक षायादौ विश्लेष एव ।। २४५ ॥ जाती हैं अतएव उन्हींके निमित्तसे अब उक्त बन्धका विनाश-संवर और निर्जरा-होने लगती है । यह ज्ञान और वैराग्यका ही माहात्म्य है ॥२४४।। किसी जीवके अधिक कर्मबन्ध होता है, किसीके अल्प कर्म, बन्ध होता है,किसीके समान ही कर्मबन्ध होता है, और किसीके कर्मका बन्ध न होकर केवल उसकी निर्जरा ही होती है। यह बन्ध और मोक्षका क्रम माना गया है । विशेषार्थ-बन्ध और निर्जराकी हीनाधिकता परिणामोंके ऊपर निर्भर है। यथा-अभव्य जीवके परिणाम चंकि निरन्तर संक्लेशरूप रहते हैं, अतः उसके बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । आसन्नभव्यके परिणाम निर्मल होनेसे उसके बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । दूरभव्यके मध्यम जातिके. परिणाम होनेसे उसके बन्ध और निर्जरा दोनों समानरूपमें होते हैं। तथा जीवन्मुक्त अवस्थामें बन्धका अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । यह बन्ध और निर्जराका क्रम नाना जीवोंकी अपेक्षासे है । यदि उसका विचार एक जीवकी अपेक्षासे करें तो वह इस प्रकारसे किया जा सकता हैमिथ्यात्व गुणस्थानमें बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है, मिश्र गुणस्थानमें बंध और निर्जरा दोनों समानरूपमें होते हैं,तथा क्षीणकषायादि गुणस्थानोंमें बंधका-स्थिति व अनुभागबंधका-अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । वहां जो बंध होता है वह एक मात्र साता वेदनीयका होता है, सो भी केवल प्रकृति और प्रदेशरूप ।।२४५॥ जिस Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आत्मानुशासनम् .. [लो० २४६यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरात्रवः ॥२४६॥ महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा। मर्यादापालिबन्धेऽल्पामप्युपेक्षिष्ट मा क्षतिम् ॥२४७॥ दृढगुप्तिकपाटसंवृतिभृतिभित्तिर्मतिपादसंभृतिः । यतिरल्पमपि प्रपद्य रन्धं कुटिलविक्रियते गृहाकृतिः ॥२४८॥ यस्य च कर्मणां स्वकार्यमकुर्वतामेव विश्लेषो भवति स एव योगीत्याह--- यस्येत्यादि । यस्य परमवीतरागस्य । निःफलं स्वकार्यम् अकुर्वत सत् । गलति उग्रतपःसामर्थ्यावृदयमानीय जीर्यते । न पुनरास्रवो न पुन: कर्मणामागनम्, संवर एव भवतीत्यर्थः ॥२४६।। स च संवरः प्रतिज्ञातव्रतप्रतिपालनाद्भवतीत्याह- महेत्यादि । महातप: पञ्चमहाप्रतानि । संभृतस्य पूर्णस्य । गुणाम्भसा सम्यग्दर्शनादिगुणजलेन । मर्यादा प्रतिज्ञा । उपेक्षिष्ट उपेक्षय ॥ २४७ ॥ क्षतिहेतवश्च भुनेरीदृशस्य एते भवन्तीत्याह- दृढेत्यादि । दृढा अविचला सा चासौ गुप्तिश्च वीतरागके पुण्य और पाप दोनों फलदानके विना स्वयं अविपाक निर्जरा स्वरूपसे निर्जीणं होते हैं वह योगी कहा जाता है और उसके कर्मोका मोक्ष होता है,किन्तु आस्रव नहीं होता है ॥२४६।। हे साधो ! गुणरूप जलसे परिपूर्ण महातपरूप तालाबके प्रतिज्ञारूप पालिबंध (बांध)के विषयमें तू थोडी-सी भी हानिकी उपेक्षा न कर॥ विशेषार्थ-मुनिधर्म एक तालाबके समान है। जिस प्रकार तालाब जलसे परिपूर्ण होता है उसी प्रकार वह मुनिधर्म सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे परिपूर्ण होता है । यदि तालाबका बांध कहीं थोडा सा भी गिर जाता है तो उसमें फिर पानी स्थिर नहीं रह सकता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य सावधानीके साथ उसको ठीक करा देता है । ठीक इसी प्रकारसे यदि साधुधर्ममें भी की गई व्रतपरिपालनकी प्रतिज्ञामें कुछ त्रुटि होती है तो बुद्धिमान् साधुको उसकी उपेक्षा न करके उसे शीघ्र ही प्रायश्चित्त आदिके विधानसे सुधार लेना चाहिये । अन्यथा उसके सम्यग्दर्शनादि गुण स्थिर न रह सकेंगे ॥ २४७ ॥ दृढ गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्नि) रूप किवाडोंसे सहित,धैर्यरूप भित्तियोंके आश्रित और बुद्धिरूप नीवसे परिपूर्ण, इस प्रकार गृहके Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४९] परपरिवादो रागादिजनकः स्वान् दोषान् हन्तुमुधुक्तस्तपोभिरतिदुर्धरैः । तानेव पोषयत्यज्ञः परदोषकथाशनः ॥२४९॥ सैव कपाटं तेन संवृतिः पिधानं यस्य । पादसंभृति: गर्तापूरः । रन्ध्र छिद्रं दोषश्च । कुटिलैः सः रागादिभिश्च । विक्रियते दूष्यते । गृहाकृति: गृहस्यवाकृतिराकारो यस्य ।। २४८ ॥ तांश्च रागादिदोषान् निर्जेतुमुद्यत: परपरि वादैः पुष्टान् करोतीत्याह---- स्वानित्यादि । परदोष कथा एव अशनानि आकारको धारण करनेवाला मुनिपद थोडे-से भी छिद्रको पाकर कुटिल राग-द्वेषादिरूप सर्पोके द्वारा विकृत कर दिया जाता है ॥ विशेषार्थमुनिपद एक प्रकारका घर है । मुनि जिन तीन गुप्तियोंको धारण करते हैं वे ही इस घरके किवाड हैं,धैर्य जो है वही इस घरको भित्ति है,तथा घर जहां दृढ नीवक आश्रित होता है वहां वह मुनिपद भी बुद्धिरूप नीवके आश्रित होता है । इस प्रकार मुनिपदमें घरकी समानताके होनेपर जिस दृढ किवाडों आदिसे संयुक्त भी घरमें यदि कहीं कोई छोटासा भी छिद्र रह जाता तो उसके द्वारा कुटिल सर्पादिक उसके भीतर प्रविष्ट होकर उसे भयानक बना देते हैं । इसी प्रकार उक्त घरके समान मुनिपदमें भी कहीं कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) रहता है तो उक्त छिद्रके द्वारा उस मुनिपदमें भी उन विषैले साँके समान कुटिल रागद्वेषादि प्रवेश करके उस मुनिपदको भी नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । अतएव मोक्षाभिलाषी साधुको यदि अज्ञानता या प्रमादसे कोई दोष उत्पन्न होता है तो उसे शीघ्र ही नष्ट कर देनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥२४८।। जो साधु अतिशय दुष्कर तपोंके द्वारा अपने जिन दोषोंके नष्ट करने में उद्यत है वह अज्ञानतावश दूसरोंके दोषोंके कथन (परनिन्दा)रूप भोजनोंके द्वारा उन्हीं दोषोंको पुष्ट करता है ॥ विशेषार्थ-यदि कोई व्यक्ति अजी र्णादि रोगोंको शांत करने के लिये औषधि तो लेता है,किंतु भोजन छोडता नहीं है-उसे वह बराबर चालू ही रखता है तो ऐसी अवस्थामें जिस प्रकार वे अजीर्णादि रोग कभी शांत नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार जो साधु रागादि दोषोंको शान्त करनेकी इच्छासे घोर तपश्चरण तो करता Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आत्मानुशासनम् [श्लो० २५० दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो दैवानुरोधात्क्वचिज्जातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छनसमस्तं द्रष्टुमन्धोऽप्यलम् । आहारास्तैः ।।२४९।। दोषान् निर्जित्य व्रतमनुतिष्ठतो मुनेः कर्मवशात्कदाचित्समुत्पन्नं दोषं तद्गुणप्रकटितमुद्भावयतो न कश्चिद् गुणातिशयो भवतीत्याह-- दोष इत्यादि । आकरस्य आधारस्य उत्पत्तिहेतोर्वा । महतो गुणोत्कृष्टस्य भवतः। दैवानु है,किन्तु परनिन्दारूप भोजनको छोडता नहीं है; उसके वे रागादि दोष भी कभी नष्ट नहीं हो सकते हैं । कारण कि परनिन्दा करनेवाला ईर्ष्यालु मनुष्य मान कषायके वश हो करके दूसरेमें न रहनेवाले दोषोंको प्रगट करता है तथा जो गुण अपने में नहीं हैं उन्हे वह प्रकाशित किया करता है । इस प्रकार उसके वे राग-द्वेषादि घटनेके बजाय बढते ही हैं।२४९।। समस्त गुणोंके आधारभूत महात्माके यदि दुर्भाग्यवश कहीं चारित्र आदिके बिषयमें कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो चन्द्रमाके लांछनके समान उसको देखनेके लिये यद्यपि अन्धा (मन्दबुद्धि) भी समर्थ होता है तो भी वह दोषदर्शी इतने मात्रसे कुछ उस महात्माके स्थानको नहीं प्राप्त कर लेता है । जैसे-अपनी ही प्रभासे प्रगट किये गये चन्द्रके कलंकको समस्त संसार देखता है, परन्तु क्या कभी कोई उक्त चन्द्रकी पदवीको प्राप्त हुआ है ? अर्थात कोई भी उसकी पदवीको नहीं प्राप्त हुआ है। विशेषार्थ-जहां अनेक गुणोंका समुदाय होता है वहां कभी एक आध दोष भी उत्पन्न हो सकता है। जैसे चन्द्रमें आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुण हैं, फिर भी उनके साथ उसमें एक दोष भी है जो कलंक कहा जाता है । वह दोष भी उसकी ही प्रभा (चांदनी) के द्वारा प्रगट किया जाता है,अन्यथा वह उक्त चन्द्रके पास तक न पहुंच सकनेके कारण किसीकी दृष्टिमें ही नहीं आ सकता था। इसी प्रकार जिस साधुमें अनेक गुणोंके साथ यदि कोई एक आध दोष भी विद्यमान है तो वह अन्य साधारण प्राणियोंकी भी दृष्टिमें अवश्य आ जाता है । परन्तु ऐसा होनेपर भी कोई साधु उसके Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५१] विज्ञाने जाते पूर्वमाचरितं कीदृशं प्रतिभाति २३३ द्रष्टाप्नोति न तावतास्य पदवीमिन्दोः कलङ्कं जगद् विश्वं पश्यति तत्प्रभाप्रकटितं किं कोऽप्यगात्तत्पदम् ॥२५०॥ यद्यद चरितं पूर्व तत्तदज्ञानचेष्टितम् । उत्तरोतरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ॥ २५१॥ रोधात कर्मवशात् । क्वचित चारित्रादौ । अन्धोऽपि स्थूलदृष्टिरपि । तावता दोषदर्शनमात्रेण । अस्य सर्वगुणाकरस्य । पदवीं पदम् । जगत् कर्तृ । विश्वं समस्तम् । तत्प्रभा इन्दुप्रभा । अगात् गतः तत्पदम् इन्दुपदम् ॥ २५० ।। यच्च असूयादिना परस्य दोषोद्भावनं स्वस्य च पूजाद्यर्थमष्टोपवासादिकमाचरितं। तदुत्तरोत्तरपरिणतो कीदृशं प्रतिभातीत्याह-- यद्यदित्यादि । यद्यत् परदोषोद्भावनं स्वगुणख्यापनादिकम् । आचरितं कृतम् । कदा। उत्तरोउस दोषको देखकर यदि अन्य जनोंके समक्ष उसकी निन्दा करता है तो इससे कुछ वह उस महात्माके समान उत्कृष्ट नहीं बन जाता है, बल्कि इसके विपरीत उसके अन्य उत्तमोत्तम गुणोंके ऊपर दृष्टिपात न करके केवल दोषग्रहणके कारण वह हीन ही अधिक होता है। जैसे कि चन्द्रमाके दोषको (कलंकको) देखनेवाले तो बहुत हैं, किन्तु उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो कि उसके समान विश्वको आल्हादित करने वाला हो सके । अभिप्राय यह है कि दूसरोंके दोषोंको देखने और उनका प्रचार करनेसे कोई भी जीव अपनी उन्नति नहीं कर सकता है । कारण कि वह आत्मोन्नति तो आत्मदोषोंको देखकर उन्हें छोडने और दूसरोंके प्रशस्त गुणोंको देखकर उन्हें ग्रहण करनेसे ही हो सकती है । जैसा कि कवि वादीभसिंहने भी कहा है- अन्यदीयमिवा" त्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुवतोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । अर्थात् जो जीव अन्य प्राणियोंके समान अपने भी दोषको देखता है उसके समान कोई दूसरा नहीं हो सकता है । वह यद्यपि शरीरसे संयुक्त है, फिर भी वह मुक्तके ही समान है ॥ २५० ।। पूर्वमें जो जो आचरण किया है- दूसरेके दोषोंको और अपने गुणोंको जो प्रगट किया है- वह सब योगीके लिये आगे आगे विवेकज्ञानकी वृद्धि . 1ज आचरति। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आत्मानुशासनम् [ श्लो० २५२ अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता । इति कृतधियः कृच्छ्रारम्भैश्चरन्ति निरन्तरं चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहाः ॥ २५२ ॥ त्तरविज्ञानात् उत्तरोत्तर प्रकृष्टविवेकात् । योगिनः तत्तत् अज्ञानचेष्टितमिति प्रतिभासते ।। २५१ ।। विशिष्टज्ञान परिणतिरहितानाम् उत्कृष्टतपोयुक्तानामपि शरीरादौ ममेदं बुद्धिसद्भावे किं भवतीत्याह--- अपीत्यादि । केषाम् । सुतपसामपि । तरुणायते तरुणमिवात्मानमाचरति । इति हेतोः । कृतधियः विवेकिनः कृच्छारम्भैः कष्टसाध्यैः त्रिकालादिभिः । चिरपरिचिते देहेऽपि न केवलं पुत्रकलत्रादौ ।। २५२ ।। अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयहोने से अज्ञानतापूर्ण किया गया प्रतीत होता है ॥ विशेषार्थ -- अभिप्राय यह है कि जबतक विवेकबुद्धिका उदय नहीं होता है तबतक ही व्यक्ति दूसरेकी निन्दा और आत्मप्रशंसा आदिरूप हीन आचरण करता है । किन्तु आगे ज्यों ज्यों उसका विवेक बढता है त्यों त्यों उसे वह अपना पूर्व आचरण अज्ञानतावश किया गया स्पष्ट प्रतीत होने लगता है । इसीलिये तब वह दूसरोंके दोषोंपर ध्यान न देकर अपने आत्मगुणों के विकासका ही अधिकाधिक प्रयत्न करता है ।। २५१ ।। जबतक मनरूपी अडके भीतर ममत्वरूप जलसे निर्मित गीलापन रहता है तबतक महातपस्वियोंकी भी आशारूप बेलकी शिखा जवान- सी रहती है । इसीलिये विवेकी जीव चिर कालसे परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निःस्पृह होकरसुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदिमें समान होकर - निरन्तर कष्टकारक आरम्भों में- ग्रीष्मादि ऋतुओंके अनुसार पर्वतकी शिला, वृक्षमूल एवं नदीतट आदिके ऊपर स्थित होकर किये जानेवाले ध्यानादि कार्योंमेंप्रवृत्त रहते हैं । विशेषार्थ -- जिस प्रकार वेलकी जडमें जबतक जलके सिंचनसे गीलापन रहता है तबतक वह अपनी जवानीमें रहती है- हरीभरी बनी रहती है, उसी प्रकार मनमें भी जबतक ममत्वभाव रहता है लबतक बडे बडे तपस्वियोंकी भी आशा ( विषयवांछा) तरुण रहती हैअतिशय प्रबल होती है । इसीलिये विवेकी जीव इस सत्यको जानकर अनादि कालसे साथ में रहनेवाले इस शरीर से भी जब अनुराग छोड देते Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोकविशुद्धयर्थं महामोहस्त्यक्तव्यः क्षीरनीरवदभेदरूपतस्तिष्ठतोरपि च देहदेहिनोः । भेद एव यदि भेदवत्स्वलं बाह्यवस्तुषु वदात्र का कथा ॥ २५३ ॥ तप्तोऽहं देहसंयोगाज्जलं वानलसंगमात् । इति देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणः ॥ २५४॥ अनादिचयसंवृद्धो महामोहो हृदि स्थितः । सम्यग्योगेन यैर्वान्तस्तेषामूध्वं विशुद्धयति ।। २५५ ।। -२५५ ] २३५ मान: प्राह-- क्षीरेत्यादि । अभेदरूपत: अभेदरूपेण । भेदवत्सु आत्मनो व्यतिरिक्तेषु । अलम् अत्यर्थेन । बाहयवस्तुषु पुत्रकलत्रादिषु ॥ २५३ ॥ शरीरसंयोगादात्मनो यज्ज्ञानं तद्दर्शयन्नाह - तप्त इत्यादि, जलं वा जलमिव । शीतीभूताः सुखीभूताः । सुखैषिणः ( शिवैषिणः) मोक्षार्थिनः मुनयः ।। २५४ ।। शरीरादौ ममेदभावकारणस्य महामोहस्य त्यागोपायमाह-- अनादीत्यादि । अनादिश्चासो चयश्च उपचयः तेन संवृद्धः पुष्टः । महामोह: हैं तब भला प्रत्यक्षमें भिन्न दिखनेवाले स्त्री- पुत्रादिसे उनका अनुराग कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता । इस कारण उनकी वह आशा - लता मुरझाकर सूख जाती है ।। २५२ ।। जब कि दूध और पानी के समान अभेदस्वरूपसे रहनेवाले शरीर और शरीरधारी (आत्मा) इन दोनोंमें ही अत्यन्त भेद है तब भिन्न बाह्य वस्तुओंकी - स्त्री, पुत्र, मित्र एवं धन-सम्पत्ति आदिकीतो बात ही क्या है; बताओ । अर्थात् वे तो भिन्न हैं ही ।। २५३ ।। जिस प्रकार अग्निके संयोगसे जल संतप्त होता है उसी प्रकार मैं शरीरके संयोगसे संतप्त हुआ हूं- दुखी हुआ हूं। इसी कारण मोक्षकी अभिलाषा करनेवाले भव्य जीव इस शरीरको छोड करके सुखी हुए हैं ।। २५४ ।। हृदयमें स्थित जो महान् मोह अनादि कालसे समान वृद्धि के द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है उसको जिन महापुरुषोंने समीचीन समाधिके द्वारा वान्त कर दिया है - नष्ट कर दिया है- उनका आगेका भव विशुद्ध होता है ॥ विशेषार्थ- किसी व्यक्तिके उदरमें यदि बहुत कालसे संचित होकर मलकी वृद्धि हो जाती है तो उसका शरीर अस्वस्थ हो जाता है । ऐसी अवस्थामें यदि वह बुद्धिमान् है तो योग्य औषधिके द्वारा वमन विरेचन आदि करके उस संचित मलको नष्ट कर देता है । इससे वह स्वस्थ हो जाता है और उसका आगेका समय भी स्वस्थताके साथ आनन्दपूर्वक Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आत्मानुशासनम् ....... [श्लो० २५६एकश्वर्यमिहकतामभिमतावाप्ति शरीरच्युति दुःखं दुःकृतिनिष्कृति सुखमलं संसारसौल्योज्सनम् । सर्वत्यागमहोत्सवव्यतिकरं प्राणव्ययं पश्यतां किं तद्यन्न सुखाय तेन सुखिनः सत्यं सदा साधवः ॥ २५६ ॥ शरीरादौ ममेदभावः । सम्यग्योगेन स्वस्वरूपे चित्तनिरोधेन औषधसयोगेन च ऊर्ध्व परलोकः, अन्यत्र हृदयादुपरि ।। २५५ ॥ महामोहाभावे सत्येतदित्थं पश्यतां मुनीनामिह किं तद्यन्न सुखायेत्याद्याह-- एकेत्यादि । एकैश्वयं चक्रवतित्वम् । इह जगति । एकताम् एकाकित्वम् । अभिमतावाप्ति वाञ्छितप्राप्तिम् । शरीरच्युति शरीरविनाशम् । दुःखं दुःकृतिनि:कृति दुष्कृतेर्दुःकर्मण: निष्कृति निर्जराम् । सुखं संसारसौख्योज्झनं विषयसुखत्यागः । सर्वत्यागमहोत्सवव्यतिकरं सर्वत्याग एव महोत्सव: परम कल्याणं तस्य व्यतिकरं प्रघट्टकम् । प्राणव्ययं प्राणत्यागम्। किं तत् तन्न सुखाय-- एकाकित्वादीनां मध्ये किं तद्यन्न सुखाय सुखनिमित्तं भवति । तेन कारणेन ।।२५६।। ननु कर्मोदयप्रभवदुःखमनुभवतां चित्तखेदोबीतता है । ठीक इसी प्रकारसे सब संसारी जीवोंके अनादि कालसे महा. मोहकी वृद्धि हो रही है। इससे वे निरन्तर दुखी रहते हैं। उनमें जो विवेकी जीव हैं वे बाह्य वस्तुओंसे राग और द्वेषको छोडकर तपका आचरण करते हुए उस मोहको कम करते हैं । इस प्रकार अन्तमें समीचीन ध्यान (धर्म व शुक्ल) के द्वारा उस महामोहको सर्वथा नष्ट करके वे भविष्यमें अविनश्वर अनुपम सुखका अनुभव करते हैं ।।२५५॥ जो साधुजन संसारमें एकाकीपनको-- अकेले रहनेको-- साम्राज्यके समान सुखप्रद समझते हैं, शरीरके नाशको इच्छित वस्तुकी प्राप्तिके समान आनन्ददायक मानते हैं, दुष्ट कर्मोंकी निर्जराको- उससे प्राप्त होनेवाले क्षणिक विषयसुखको- दुखरूप ही जानते हैं, सांसारिक सुखके परित्यागको अतिशय सुखकारक समझते हैं, तथा जो प्राणोंके नाशको सब कुछ देकर किये जानेवाले महोत्सवके समान आनन्ददायक मानते हैं; उन साधु पुरुषोंके लिये ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सुखकर न प्रतीत होती हो? अर्थात् राग-द्वेषसे रहित हो जानेके कारण उन्हें सब ही अनुकूल व प्रतिकूल सामग्री सुखकर ही प्रतीत होती है । इसी कारण सचमुचमें वे साधु ही निरन्तर सुखी हैं ॥ २५६ ॥ जो विद्वान् साधु पीछे उदयमें आने योग्य कर्मस्वरूप Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५८] सर्वसहा मुनयः शरीरापगमविधि ध्यायन्ति २३७ आकृष्योग्रतपोबलरुदयगोपुच्छं यदानीयते तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः । यातव्यो विजिगीषुणा यदि भवेदारम्भकोऽरिः स्वयं वृद्धिः प्रत्युत नेतुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ॥२५७॥ एकाकित्वप्रतिज्ञाः सकलमपि समुत्सृज्य सर्वसहत्वाद् भ्रान्त्याचिन्त्याः सहायं तनुमिव सहसालोच्य किंचित्सलज्जाः । त्पत्तिसंभवात् कथं सुखित्वमित्याह-- आकृष्येत्यादि । आकृष्य हठात । उदयगोपुच्छं उदयावलिम् । स्वयमागतं स्वयम् उदयप्राप्तम् । विद: विवेकिनः। ततः स्वयम् आगतात् कर्मणः । यातव्य: विग्रहितव्य: । विजिगीषुणा शत्रुणा । आरम्भकः विग्रहप्रारम्भकरः । नेतुः विजिगीषोः ।। २५७ ।। कर्मोदये खेदमकुर्वन्तो मुनयः इत्थंभूताः कर्मनिर्जरां कुर्वन्त: शरीरमपि त्यक्तुं यतन्ते इत्याह-एकाकित्वेत्यादि । भ्रान्त्या का। अचिन्त्याः अविषयीकृताः। सहायमिव । किंचित् मनाक् । सज्जीभूताः प्रगुणीभूता: । स्वकार्ये मोक्षे । तदपगमविधि उदयगोपुच्छको-गायकी पूंछके समान उत्तरोत्तर हीनताको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंको-तीव्र तपके प्रभावसे स्थितिका अपकर्षण करके वर्तमानमें उदयको प्राप्त कराता है वह कर्म यदि स्वयं ही उदयको प्राप्त हो जाता है तो इससे उस साधुको क्या खेद होनेवाला है ? कुछ भी नहीं । ठीक है -जो सुभट विजयकी अभिलाषासे शत्रुके ऊपर आक्रमण करनेके लिये उद्यत हो रहा है उसका वह शत्रु यदि स्वयं ही आकर युद्ध प्रारम्भ कर देता है तो इससे उस सुभटको विना किन्हीं विघ्न-बाधाओंके अपने आप विजय प्राप्त होती है । वैसी अवस्थामें उसके साथ युद्ध करनेमें भला उसकी क्या हानि होनेवाली है ? कुछ भी नहीं ॥२५७॥ जिन योगियोंने सब परिषहोंके सहने में समर्थ होते हुए सब ही बाह्याभ्यभर परिग्रहको छोडकर एकाकी (असहाय) रहनेकी प्रतिज्ञा कर ली है, जिनके विषयमें भ्रांति कुछ सोच ही नहीं सकती है अर्थात् जो सब प्रकारकी भ्रांतिसे रहित हैं, जो शरीर जैसे महायककी सहसा समीक्षा करके कुछ लज्जाको प्राप्त हुए हैं-अर्थात् जो वस्तुतः असहायक शरीरको अब तक सहायक समझनेके कारण कुछ लज्जाका अनुभव करते हैं,तथा जो अपने कार्यमें (मुक्तिप्राप्तिमें)तत्पर हो चुके हैं; वे मनुष्योंमें सिंहके Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आत्मानुशासनम् [ श्लो० २५८सज्जीभूताः स्वकार्ये तदपगमविधि बद्धपल्यङ्कबन्धाः भ्यायन्ति ध्वस्तमोहा गिरिगहनगुहागुह्यगेहे नृसिंहाः ॥२५८॥ येषां भूषणमङगसंगतरजः स्थानं शिलायास्तलं शय्या शर्करिला मही सुविहिता' गेहं गहा द्वीपिनाम् । आत्मात्मीयविकल्पवीतमतयस्त्रुटयत्तमोग्रन्थयः ते नो ज्ञानधना मनांसि पुनतां मुक्तिस्पृहा निस्पृहाः ॥२५९॥ दूरारूढतपोऽनुभावजनितज्योतिःसमुत्सर्पणैर् अन्तस्तत्त्वमदः कथं कथमपि प्राप्य प्रसादं गताः। तस्य शरीरस्य अपगमस्त्यागस्तस्य विधि विधीयते शरीरापगमो येनासौ विधि: परमात्मस्वरूपं रत्न त्रयं वा । गुह्यगेहे एकान्तप्रदेशे । नृसिंहाः पुरुषप्रधानाः ॥२५८।। तदपगमविधिं ध्यायन्तः स्वयम् एवंविधगुणसंपन्नास्तेऽस्माकं पवित्रतानिमित्तं भवन्तु इत्याह-येषामित्यादि । अङगसंगतं शरीरसंबन्धम् (संबद्धम्)। शर्करिला शर्करायुक्ता । सुविहिता सुनिष्पन्ना । द्वीपिनां व्याघ्राणाम् । आत्मेत्यादि-आत्मात्मीयविकल्या: वीता विनष्टा मतो येषाम् । तमोग्रन्थय: अज्ञानविवर्ताः। नि:स्पृहा: यतयः ॥२५९।। पुनरपि कथंभूतास्ते इत्याह-- दूरेत्यादि । दूरारूढं परमप्रकर्षप्राप्तं तच्च तत्तपश्च तस्य अनुभाव: माहात्म्यं तेन जनितं च ज्योतिश्च. ज्ञान तस्य समुत्सर्पणैः समीचीनप्रवर्तनः । अन्तस्तत्वं शरीरातिरिक्तं आत्मरूपम् । समान पराक्रमी योगी मोहसे रहित होकर पर्वत,भयानक वन और गुफा जैसे एकान्त स्थानमें पल्यंक आसनसे स्थित होते हुए उस शरीरके नष्ट करनेके उपायका - परमात्माके स्वरूप या रत्नत्रयका- ध्यान करते हैं ॥२५८॥ शरीरमें लगी हुई धूलि ही जिनका भूषण है, स्थान जिनका शिलाका तलभाग है, शय्या जिनकी कंकरीली भूमि है, भलीभांत रची गई (प्रकृतिसिद्ध) सिंहोंकी गुफा ही जिनका घर है, जो आत्मा और आत्मीयरूप विकल्पबुद्धिसे-ममत्वबुद्धिसे-रहित हो चुके हैं, जिनके अज्ञानकी गांठ खुल चुकी हैं,तथा जो मुक्तिके सिवाय अन्य किसी बाह्य वस्तुकी इच्छा नहीं रखते हैं ; ऐसे ज्ञानरूप धनके धारक वे साधु हमारे मनको पवित्र करें ।।२५९॥ जो अतिशय वृद्धिंगत तपके प्रभावसे उत्पन्न हुई ज्ञानरूप ज्योतिके प्रसारसे येन केन प्रकारेण (कष्टपूर्वक) इस आत्मस्वरूपको प्राप्त करके-जान करके-प्रसन्नताको प्राप्त हुए हैं तथा जो 1 मु (नि) सुविहितं । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६२ ] सर्वारम्भ- परिग्रहत्यागी सतां वन्द्यः विश्रब्धं हरिणी विलोलनयनैरापीयमाना वने धन्यास्ते गमयन्त्यचिन्त्यचरितैर्धीराश्चिरं वासरान् ॥ २६०॥ येषां बुद्धिरलक्ष्यमाणभिदयोराशात्मनोरन्तरं गत्वोच्चैरविधाय भेदमनयोरारान्न विश्राम्यति । यैरन्तविनिवेशिताः शमधनैर्बाडं बहिर्व्याप्तयः तेषां नोऽत्र पवित्रयन्तु परमाः पादोत्थिताः पांसवः ॥२६१॥ यत्प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं तद्देवं तदुदीरणादनुभवन् दुःखं सुखं वागतम् । २३९ . अदः एतत् । कथं कथमपि महता कष्टेन । प्राप्य अनुभूय । प्रसादं प्रसत्तिम् । विश्रब्धं शनैः आपीयमानाः तपःप्रभाव जनितसानुरागबुद्ध्या अवलोकमाना: । अचिन्त्यचरितैः दुर्धरानुष्ठानैः ॥ २६० ॥ तथा बुद्धिर्येषां किं करोतीत्याह - येषामित्यादि । अलक्ष्यमाणभिदयोः अनिश्चीयमानभेदयोः । अन्तरम् अन्तरालं मध्यमित्यर्थः । आरात् अवान्तरे । अविधाय अकृत्वा । अन्तर्विनिवेशिताः आत्मस्वरूप एव प्रक्षिप्ताः । काः । बहिर्व्याप्तयः बाह्यवस्तुविकल्पाः । बाढम् अत्यर्थम् । कथंभूतैः यैः । शमधनैः शमः उपशमो धनं येषाम् ॥ २६१|| बहिर्व्याप्तिनिरोधं कृत्व कर्मफलानुभवनं कुर्वतां परिणामविशेषं प्रशंसयन्नाह-- यदित्यादि । तदुदीरणात् तस्य कर्मण उदीरणम् अपक्वपाचनं तस्मात् । शुभमेव पुण्यमेव । उभयोच्छित्तये मनमें हिरणियों के चंचल नेत्रोंके द्वारा विश्वासपूर्वक देखे जाते हैं - जिनकी शान्त मुद्राको देखकर स्वभावतः भयभीत रहनेवाली हिरणियोंको किसी प्रकारका भय उत्पन्न नहीं होता है - वे ऋषि धन्य हैं । वे अपने अनुपम आचरणोंके द्वारा दिनोंको (समयको) धीरतापूर्वक चिर काल तक बिताते हैं । २६०॥ अज्ञानी जीवोंको आशा और आत्मा इन दोनोंके बीच भेद नहीं दिखता है । परन्तु जिन महर्षियोंकी बुद्धि इन दोनोंके मध्यमें जाकर उनका भेद करनेके विना बीचमें विश्रामको नहीं प्राप्त होती है-भेदको प्रगट करके ही विश्राम लेती है, तथा शांतिरूप अपूर्व धनको धारण करनेवाले जिन महर्षियोंने बाह्य विकल्पोंको आत्म स्वरूपमें स्थापित कर दिया है, उनके चरणोंसे उत्पन्न हुई उत्कृष्ट धूलि यहां हमें पवित्र करें ।।२६१|| प्राणीने पूर्वभवमें जिस पाप या पुण्य कर्मका संचय किया है वह दैव कहा जाता है । उसकी उदीरणासे प्राप्त हुए दुख अथवा सुखका अनुभव करता हुआ जो बुद्धिमान् शुभको ही करता है Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आत्मानुशासनम् .. [ श्लो० २६२ कुर्याद्यः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तूभयोच्छित्तये सर्वारम्भपरिग्रहग्रहपरित्यागी स वन्द्यः सताम् ॥२६२॥ सुखं दुःखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात् कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् । शुभाशुभ विनाशाय । सर्वेत्यादि-सर्वे च ते आरम्भपरिग्रहाश्च त एव ग्रहा: तेषु वा आग्रहः आबन्धः तं परित्यजतीति एवंशीलस्तत्परित्यागी । २६२ ।। ननु सुखदु:खरूपकर्मफलमनुभवताम् अपरशुभेतरकर्मोत्पत्तेः कथमुभयोरिच्छत्तिरित्याह--- सुखमित्यादि । विहितकर्मोदयवशात् उपाजितकर्मोदयानुरोधात् । कर्मोपाधिजाः संसारिसुखादयो नात्मस्वभावा इत्यर्थ: । इति विकल्पात् पापकार्योको छोडकर केवल पुण्यकार्योंको ही करता है-वह भी अभीष्ट है-प्रशंसाके योग्य है । किन्तु जो विवेकी जीव उन दोनों (पुण्य-पाप) को ही नष्ट करनेके लिये समस्त आरम्भ व परिग्रहरूप पिशाचको छोडकर शुद्धोपयोगमें स्थित होता है वह तो सज्जन पुरुषोंके लिये वन्दनीय (पूज्य) है ॥२६२॥ संसारमें पूर्वकृत कर्षके उदयसे जो भी सुख अथवा दुख होता है उससे प्रीति क्यों और खेद भी क्यों, इस प्रकारके विचारसे यदि जीव उदासीन होता है-राग और द्वेषसे रहित होता हैतो उसका पुराना कर्म तो निर्जीर्ण होता है और नवीन कर्म निश्चयसे बन्धको प्राप्त नहीं होता है । ऐसी अवस्थामें यह संवर और निर्जरासे सहित जीव अतिशय निर्मल मणिके समान प्रकाशमान होता है-स्व और परको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानसे सुशोभित होता है । विशेषार्थपूर्वमें जिस शुभ अथवा अशुभ कर्मका बन्ध किया है उसका उदय आनेपर सुख अथवा दुख. प्राणीको प्राप्त होता ही है । किंतु जो अज्ञानी जीव है वह चूंकि पुण्यके फलस्वरूप सुखमें तो अनुराग करता है और पापके फलभूत दुखमें द्वेष करता है, इसीलिये उसके पुनः नवीन कर्मोंका बन्ध होता है । परन्तु जो जीव विवेकी है वह यह विचार करता है कि . पूर्वकृत पुण्यके उदयसे यह जो सुख प्राप्त हुआ है वह अस्थायी है-सदा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर-निर्जरावतः केवलज्ञानं प्रादुर्भवति उदासीनस्तस्य प्रगलति पुराणं न हि नवं समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव ॥ २६३ ॥ सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन् ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा । -२६४] एवंविधभावनाया: । एष प्रकृष्टसंवर- निर्जरावानात्मा । स्फुरति सकलस्व- पररूप प्रकाशयति । सुविदग्ध अतिनिर्मल सुष्ठुविवेकी ।। २६३ ।। पुराणस्य कर्मणो निर्जरायाम् अभिनवस्य च संवरे यज्जातं तद्दर्शयन्नाह--- सकलेत्यादि । सकलविमलबोधः केवलज्ञानम् । देहगेहे देह एव गेहं तत्र । विनिर्यन् विनिर्गच्छन्, अर्हदावस्थायां प्रादुर्भवन् इत्यर्थः प्रज्वलति । प्रकाशते तदभावे देहगेहाभावे सिद्धावस्थायां पुनरपि सकलविमलबोधः प्रज्वलति । उज्ज्वलो निर्मलः सन् । किं कृत्वा । भस्मयित्वा विनाशयित्वा । किं तत् । काष्ठम् । काष्ठमिव काष्ठम् अचेतनशरीरम् । कथं भस्मयित्वा । निष्ठुरं निर्दयं यथा भवति, निःशेषं विनाशेत्यर्थः । क रहनेवाला नहीं है । इसलिये उसमें अनुराग करना उचित नहीं है । इसी प्रकार दुख पापकर्मके उदयसे होता है । यदि पूर्वमें पापकर्मका संचय किया है तो उसके फलको भोगना ही पडेगा । फिर भला उसमें खेद क्यों ? इस प्रकार के विचारसे विवेकी जीव सुख और दुखमें चूंकि हर्ष और विषादसे रहित होता है, अतएव उसके पुनः नवान कर्मका बन्ध नहीं होता है । साथ ही उसके पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है । इस प्रकारसे वह संवर एवं निर्जरासे युक्त होकर समस्त कर्मोंसे रहित होता हुआ मुक्त हो जाता है || २६३ ।। सम्पूर्ण निर्मल ज्ञान ( केवलज्ञान ) शरीररूप गृहमें प्रगट होकर जिस प्रकार लकडी में प्रगट हुई अग्नि निर्दयतापूर्वक उस लकडीको भस्म करके उसके अभाव में फिर भी निर्धूम जलती रहती है उसी प्रकार वह भी शरीरको पूर्णतया नष्ट करके उसके अभावमें भी निर्मलतया प्रकाशमान रहता है । ठीक है - मुनियोंका चरित्र सब प्रकारसे आश्वर्यंजनक है ।। विशेषार्थ- जिस प्रकार लकडीमें लगी हुई अग्नि जबतक वह लकडी शेष रहती है तबतक तो जलती ही है, किन्तु उसके पश्चात् भी - उक्त लकडीके निःशेष हो जानेपर भी - वह - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आत्मानुशासनम् [श्लो० २६४पुनरपि तदभावे प्रज्वलत्युज्ज्वलः सन् भवति हि यतिवृत्तं सर्वथाश्चर्यभूमिः ॥ २६४ ॥ गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तलाश इष्यते। अत एव हि निर्वाणं शून्यमन्यविकल्पितम् ॥ २६५ ॥ इध ज्वलन इव । अयमर्थ:-- यथा ज्वलन: काष्ठे विनिर्यन् ज्वालावस्थायां प्रज्वलति, पश्चात् स ज्वलन् काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा । तदभावे काष्ठाभावे अंगारावस्थायां पुनरपि प्रज्वलतीति । अतः शरीरावस्थायाम् अशरीरावस्थायां च सकलविमलबोधप्रकाशहेतुत्वात् । भवति । हि स्फुटम् । यतिवृत्त यतेः क्षीणकषायस्य अयोगिनश्च वृत्तं यथाख्यातचारित्रम् । भूमिः स्थानम् ।। २६४ ॥ तत्र मुक्तेतरावस्थासाधारणात्मस्वरूपे विप्रतिपत्ति निराकुर्वन गुणीत्यादिश्लोकद्वयमाह-- योगमते हि गुणा ज्ञानादय: आत्मनोऽध्यन्तभित्राः । ते मुक्तावस्थायाम् अत्यन्तं निर्व. त्यन्त, पात्लेव के पात्र तिष्ठतीति । बाह-गो गुणमयः । गुगी आत्मा गुगमयो ज्ञासादिगालः । तस्य गुगस्थ नाशस्तनारा: गुणिनाशः । अत एव गुणनाशे गुणिनो निर्मलतासे जलतो ही रहती है, उसी प्रकार शरीरमें प्रगट हुआ केवलज्ञान जबतक वह शरीर रहता है तब भी- आर्हन्त्य अवस्थामें भी- प्रकाशित रहता है तथा उस शरीरके नष्ट हो जानेपर सिद्धावस्थामें भी वह स्पष्टतया अनन्त कालतक प्रकाशित रहता है । यह क्षीणकषाय एवं अयोगी जिनके उस यथाख्यातचारित्रका प्रभाव है जो छद्मस्थ जीवोंको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला है ॥ २६४ ॥ गुणवान् आस्मा गुणस्वरूप है- गुणसे अभिन्न है । अतएव गुणके नाशका मानना गुणीके ही नाशका मानना है । इसीलिये अन्य वादियोंने (बौद्धोंने) आत्माके निर्वाणको शून्यके समान कल्पित किया है तथा जैनोंने उस निर्वाणको अन्य राग-द्वेषादिरूप शुभाशुभ भावोंसे शून्य कल्पित किया है । विशेषार्थ-- नैयायिक और वैशेषिक गुण और गुणीमें सर्वथा भेदको स्वीकार करते हैं। उनके मतानुसार गुणीमें गुण समवाय सम्बन्धसे रहते हैं । वह समवाय नित्य, व्यापक और एक है । वे मुक्तावस्थामें आत्माके बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ 1 प यथाख्यातचारित्रं भवति स्थानम् । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६६] कीदृशो जीवः २४३ अजातोऽनरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः।। देहमात्रो मलैर्मुक्तो गरवोवमचलः प्रभुः ॥ २६६ ॥ नाशादेव । शून्यं निर्वाणं प्रदीपनिर्वाणतुल्यम् । अन्यबौद्धः प्रकल्पितम् । उक्तं च--" दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥" स्वमते तु अन्यः शुभाशुभ रागादिभिर्वा शून्यं निर्वाणम् ॥ २६५ ॥ अजात इत्यादि । अजातः द्रव्यापेक्षया अनादि (दिः) मुक्तः सन् पुन: संसारे वा अनुत्पन्नः। अनश्वरः अनिबन्धन: (अनिधन:) द्रव्यापेक्षयैव अनश्वरो वा पर्यायापेक्षया विनश्वरः । अमत : रूपादिरहितः। कर्ता शुभाशुभकर्मणाम्, उत्तरोत्तरस्वपरिणतेर्वा जनकः । भोक्ता स्वकृतकर्मगुणोंका नाश मानते हैं । परन्तु उपर्युक्त प्रकारसे गुण और गुणी में सर्वथा . भेद मानना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर आत्मा स्वरूपतः ज्ञानादि गुणोंसे रहित होनेके कारण जड (अचेतन) सिद्ध होता है जो योग्य नहीं है । इसलिये आत्माको उक्त ज्ञानादि गुणोंसे अभिन्न मानना चाहिये । और जब वह आत्मा ज्ञानादि गुणोंसे अभिन्न सिद्ध है तब भला मुक्तावस्थामें उन ज्ञानादि गुणोंका नाश स्वीकार करनेसे आत्माका भी नाश क्यों न स्वीकार करना पडेगा? परन्तु वह बौद्धोंके समान वैशेषिकोंको इष्ट नहीं है । वैसी मुक्ति तो बौद्ध ही स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार तेलके समाप्त हो जानेपर विनष्ट हुआ दीपक न किसी दिशाको जाता है, न किसी विदिशाको जाता है, न पृथिवीमें जाता है; और न आकाशमें भी जाता है, किन्तु वह केवल शान्तिको प्राप्त होता है। उसी प्रकार मुक्तिको प्राप्त हुआ जीव भी कहीं न जाकर केवल शान्तिकोशून्यताको-प्राप्त होता है । इस प्रकार उन्होंने जीवके निर्वाणको प्रदीपके निर्वाणके समान शून्यरूप माना है। अतएव गुण और - गुणीमें कथंचित् भेदाभेदको स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा उपर्युक्त प्रकारसे बौद्धमतका प्रसंग दुनिवार होगा ।। २६५ ॥ आत्मा द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा जन्मसे और मरणसे भी रहित होकर अनादिनिधन है। वह शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा अमूर्त होकर रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्शसे रहित है। वह व्यवहारकी अपेक्षा शुभ व अशुभ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आत्मानुशासनम् [श्लो०.२६७स्वाधीन्याद्दुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ॥ २६७ ॥ फलस्य अनन्तसौख्यस्य वानुभविता । ननु भोक्तृत्वेऽप्यात्मनः सुखज्ञानयोरभावस्तयोः प्रकृतिधर्मत्वात मुक्ती सर्वथा असंभवाच्चेति वदन्तं सांख्यं प्रत्याह-- सुखी बुधः सुखी सुखात्मकः बुधो ज्ञानात्मकः, तदभावे आत्मनोऽप्यभावः उपयोगलक्षणत्वात्तस्य । एतेनेदं प्रत्याख्यातम्-"अकर्ता निर्गुण: शुद्धो नित्य: सर्वगतोऽक्रिय:। । अमूर्तव्चेतनो भोक्ता आत्मा कपिलशासने ।।" देहमात्रः शरीरपरिमाणः, न पुनः सर्वगतः । मलैमुक्तः सकलकर्मरहितः । गत्वोर्ध्वमचल: ऊर्ध्वलोकाग्र गत्वा अचल : स्थिर: आस्ते, नान्यत्र गच्छति अत्र वा पुनरागच्छतीति वा । प्रभुः ऐहिक-पारत्रिककार्येषु समर्थः, मुक्त: सन् सर्वजगद्वन्द्यो वा ।। २६६ ।। ननु सिद्धानां सुखसंपत्ति कारणाभावात्कथं सुखित्वमित्याह-- स्वाधीन्यादित्यादि । दुःखमपि कायक्लेशादिलक्षणं तपस्विनां यदि सुखमासीत् । कस्मात । स्वांधोन्यात् पराधीनत्वाभावात । तदधीनता हि दुःखम् , 'को नरक: परवशता' इत्यभिधानात् । तदा स्वाधीनसुखसंपन्ना' स्वाधीनम् इन्द्रिकर्मोंका कर्ता तथा निश्चयसे अपने चेतन भावोंका ही कर्ता है। इसी प्रकार वह व्यवहारसे पूर्वकृत कर्मके फलभूत सुख व दुखका भोक्ता तथा निश्चयसे वह अनन्त सुखका भोक्ता है । वह स्वभावसे सुखी और ज्ञानमय होकर व्यवहारसे प्राप्त हुए हीनाधिक शरीरके प्रमाण तथा निश्चयसे वह असंख्यातप्रदेशी लोकके प्रमाण है । वह जब कर्ममलसे रहित होता है तब स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करके तीनों लोकोंका प्रभु होता हुआ सिद्धशिलापर स्थिर हो जाता है ॥ २६६ ।। तपस्वी जो स्वाधीनतापूर्वक कायक्लेशादिके कष्टको सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुखसे सम्पन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे। विशेषार्थ- ऊपरके श्लोकमें सिद्धोंको सुखी बतलाया गया है। इसपर यह शंका हो सकती थी कि सुखकी साधनभूत जो सम्पत्ति आदि है वह तो सिद्धोंके पास है नहीं, फिर वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इसके उत्तरमें यहां यह बतलाया है कि पराधीनताका जो अभाव है वही वास्तवमें सुख है, और वह सिद्धोंके पूर्णतया विद्यमान 1 प ज सर्वगतक्रियः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६८ ] ग्रंथोपसंहार इति कतिपयवाचां गोचरीकृत्य कृत्यं रचितमुचितमुच्चैश्चेतसां चित्तरम्यम् । इदमविकलभन्तः संततं चिन्तयन्तः सपदि विपदपेतामाश्रयन्ते श्रियं ते ॥ २६८॥ २४५ याद्यतायतं कर्मविविक्तात्मस्वरूपत्यं तच्च तत्सुखं च तत्संपन्नं जातं येषाम् तेन वा संपन्ना युक्ताः | २६७ ॥ ग्रन्थार्थमुपसंहृत्य तदर्थानुष्ठातृणां फलमुपदर्शयन्नाह - इतीत्यादि । इति एवमुक्तप्रकारेण । कतिपयवाचां स्वल्पवचनानाम् । गोचरीकृत्य वाचां विषयं कृत्वा । कृत्यम् अनुष्ठेयं चतुर्विवाराधनास्वरूपम् । उचितं योग्य मुक्तिप्रसाधने | उच्चैश्चेतसाम् उदारचितानाम् । चित्तरम्यं हृदयाल्हादकरम् । इदम् उक्त प्रकारमनुष्ठेयत्वम् | अविकलं परिपूर्णम् । अन्तः हृदयमध्ये | सपादि झटिति । विपदपेतां शाश्वतीम् । श्रियं मोक्षलक्ष्मीम् । ते संततम् अन्तश्चिन्तकाः । आश्रयन्ते प्राप्नुवन्ति ॥ २६८ ॥ ग्रन्थकारो ग्रन्थसमाप्ती स्वगुरोर्नामपूर्वक -- है । सम्पत्ति आदिके संयोगसे जो सुख होता है वह पराधीन है । इसलिये तदनुरूप पुण्यके उदयसे जब तक उन पर पदार्थों की अनुकूलता है तभी तक वह सुख रह सकता है - इसके पश्चात् वह नष्ट ही होनेवाला है | परन्तु सिद्धोंका जो स्वाधीन सुख है वह शाश्वतिक है- अविनश्वर है । देखो, साधुजन अपनी इच्छानुसार कायक्लेशादिरूप अनेक प्रकारके दुखको सहते हैं, परन्तु इसमें उन्हें दुखका अनुभव न होकर सुखका अनुभव होता है । इस प्रकार स्वाधीनतासे सहा जानेवाला दुख भी जब उनको सुखस्वरूप प्रतिभासित होता है तब भला प्राप्त हुए उस स्वाधीन सुखसे सिद्ध जीव क्यों न सुखी होंगे? वे तो अतिशय सुखी होंगे ही || २६७ ।। इस प्रकार कुछ थोडे-से वचनोंका विषय करकेउनका अश्रय ले करके जो यह योग्य कृत्य - अनुष्ठानके योग्य चार प्रका की आराधनाका स्वरूप- रचा गया है वह उदार विचारवाले मनुष्योंके चितको आनन्द देनेवाला है । जो भव्य जीव इसका निरन्तर पूर्णरूपसे चितमें चिन्तन करते हैं वे शीघ्र ही समस्त विपत्तियोंसे रहित मोक्षरूप लक्ष्मीका आश्रय करते हैं || २६८ || जिन भगवान्‌की सेनारूप साधुओंके . आ. १६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आत्मानुशासनम् जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभवन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ॥ २६९॥ [ श्लो० २६९ मात्मीयनामकरणं कुर्वाणो जिनसेनाचार्येत्याद्याह-- भदन्तानां पूज्यानाम् || २६९॥ मोक्षोपायमनल्पपुण्यममलज्ञानोदयं निर्मलं भव्यार्थं परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नः पवैः । व्याख्यानं वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदत: सूक्तार्थेषु कृतादरैर हरहश्चेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥ ।। इति श्रीपण्डितप्रभाचन्द्रविरचितात्मानुशासनटीका समाप्ता ॥ आचार्यस्वरूप जो गणधर देव हैं उनके चरणोंके स्मरण में चित्तको लगानेबाले एवं कल्याणकारी अनेक गुणोंसे संयुक्त ऐसे पूज्य आचार्योंकी यहआत्मस्वरूपके विषय में शिक्षा देनेवाली कृति ( रचना ) है । दूसरा अर्थ - श्री जिनसेनाचार्य के चरणोंके स्मरणमें चित्तको अर्पित करनेवाले गुणभद्रायह आत्मानुशासन नामक कृति है- ग्रन्थ रचना है ॥ २६९ ॥ समाप्त Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुशासनम् टीकान्तर्गत ग्रन्थान्तरोंके अवतरण श्लोक २६६ ५४ अवतरण १ अकर्ता निर्गुणः शुद्धो २ अन्तस आदेर: ( ? ) ३ एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः ४ कुमारात्प्राथम्ये अण् ५ ' को नरकः परवशता' इत्यभिधानात् १०९ ६ क्षुधा तृषा भयं द्वेषो ७ 'जननी जन्मभूमि च प्राप्य को न सुखायते' इत्यभिधानात् १३४ ८ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ९ तस्मिन् इति सप्तमी समाप्तौ अभिना योगे द्वितीया भवति १० त्याज्यस्य (व्यस्य ) वा कर्तरि ११ दिशं न कांचित् १८ मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ १९ विस्मयो जननं निद्रा २६७ १२ परोपकाराय सतां हि चेष्टितम्' इति वचनात् १३ प्रज्ञाश्रद्धावृत्तिभ्यो णः १४ 'प्रोपात्समां (प्रोपोत्सं ) पादपूरणे' इति वचनात् १५ भेदज्ञानात्प्रतीयेते १६ ' मतिपूर्वं श्रुतम्' इत्यभिधानात् १७ मतिरप्राप्तिविषया २० व्रीह्यादेः २१ 'शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः' इत्याभिधानात् २२ सेनाया वा ९७ २४७ १.० तत्त्वार्थ. १-४ ४० १३० ( पर्यभि.. ) जैनेंद्र १।४ । ३ । जैनेंद्रम्. १।४।७५। २६५ ( सौन्दरनन्द काव्य १६-२८ ( य. चंपू ६, पृ. २७० ११२ १७२ १७० अन्यत्र कहाँ य. चंपू ५, पृ. २५० य. चंपू ६, पृ. २७४ जैनेन्द्रम्. ४।१।२८ शाकटायन २|३|६| न्या. वि. ११४-१५ तत्त्वार्थ सूत्र ९-२० १० य. चंपू ६, पृ. ३२४ ९ य. चंपू ६, पृ. २७४ ८६ जैनेन्द्रम् ४।१।४२। ६९ ३२ जैनेन्द्रम्. ३।३।१६६। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आत्मानुशासनम् ५ टीकाकारके समक्ष विद्यमान ग्रन्थगत पाठभेद श्लोक मुद्रित पाठ पाठान्तर ४० माभूभौतिक मा भूदिति पाठे.... ६४ रूपादिविश्वाय (?) रूपदिविश्वायेति पाठे... ९५ लोकाधिपाः 'लोकाधिका वा पाठः ९७ इदं इमां इति पाठे... १९८ भाविजन्मनः भावि जन्म यत् इति पाठः २४१ अस्त्यात्मास्तमितादिबंधनगत इत्यर्थस्तमितादिबंधनमत इति च पाठः २४३ मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ अभ्रान्ताविति च पाठः टीकान्तर्गत ग्रन्थान्तरोंके अवतरण अवतरण श्लोक अन्यत्र कहाँ १ अकर्ता निर्गुणः शुद्धो २६६ य. चंपू ५, पृ. २५० Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ जिनवाणी स्तुति माँ जिनवाणी ममता न्यारी, प्यारी प्यारी गोद है थारी । आँचल में मुझको तू रख ले, तू तीर्थंकर राजदुलारी ।।टेक।। वीर प्रभो पर्वत निर्झरणी, गौतम के सुख कंठ झरी हो । अनेकान्त और स्याद्वाद की, अमृतमय माता तुम ही हो । भव्यजनों की कर्णपिपासा, तुझसे शमन हुई जिनवाणी ।।१।। माँ जिनवाणी................. सप्तभंग मय लहरों से माँ, तू ही सप्त तत्व प्रकटाये । द्रव्य गुणों अरू पर्यायों का, ज्ञान आतमा में करवाये । हेय ज्ञेय अरु उपादेय का, भान हुआ तुमसे जिनवाणी ।।२।। माँ जिनवाणी. तुझको जानूँ तुझको समझू, तुझसे आतम बोध को पाऊँ । तेरे आँचल में छिप-छिपकर दुग्धपान अनयोग को पाऊँ । माँ बालक की रक्षा करना, मिथ्यातम को हर जिनवाणी ।।३।। गाँ जिनवाणी.. धीर बनूँ मैं वीर बनूँ माँ, कर्मबली को दल-दल जाऊँ । ध्यान करूँ स्वाध्याय करूँ बस, तेरे गुण को निशदिन गाऊँ । अष्ट करम की हान करे यह, अष्टम क्षिति को दे जिनवाणी ।।४।। माँ जिनवाणी............. ऋषि मुनि यति सब ध्यान धरे माँ, शरण प्राप्त कर कर्म हरें। सदा मात की गोद रहूँ मैं, ऐसा शिर आशीष फले । नमन करें "स्याद्वादमती" नित, आत्म सुधारस दे जिनवाणी ।।५।। माँ जिनवाणी......... पाणा ........... -गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी द्वारा लिखित एवं सम्पादित १. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग १ २. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग २ ३. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग ३ ४. स्याद्वाद बाल शिक्षा. भाग ४ नैतिक संस्कार भाग १, २, ३ भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तरी ५. ६. ७. छहढाला प्रश्नोत्तरी ८. द्रव्यसंग्रह प्रश्नोत्तरी रत्नकरण्ड श्रावकाचार (सम्पादन, अनुवाद) ९. १०. लघु पञ्चस्तोत्र . ११. मोक्षशास्त्र प्रश्नोत्तरी १२. अमोल रत्न १३. अद्भुत शक्ति (नारी) १४. कर्त्तव्य पथ की ओर १५. मर्यादा की रक्षा १६. दुखों का मूल १७. मानव जीवन १८. तत्त्वार्णव (सप्त तत्व) १९. वैराग्य की ओर (नाटक) २०. मान्य खेट के हीरे (नाटक) २१. सत् पथ की ओर (नाटक) २२. युगल आचार्य पूजा २३. रयणसार (सम्पादन, अनुवाद) २४. ध्यान सूत्राणि (सम्पादन, अनुवाद) २५. भक्ति मुक्ति सोपान २६. विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका (वि० भक्ति अर्थ ) २७. श्रीमद् भगवद् जिनसहस्रनाम पूजा विधान २८. सुभौम चक्रवर्ती २९. शील- कलश (उपन्यास) ३०. जिनदत्त चरित्र ३१. वात्सल्य रत्नाकर भाग १, २, (सम्पादन) ३२. बालबोध स्तुति शिक्षा (अनुवाद) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् के प्रकाशन १. सिद्धचक्र विधान (संस्कृत) ४४. जीवकचिन्तामणि ८७. युगल आचार्य पूजा २. विमल भक्ति (षष्ठम) |४५. आप्तमीमांसा ८८. सर्वार्थसिद्धि (मूल) ३. धर्ममार्गसार (द्वि०) ४६. मेरुमन्दरपुराण ८९. बालबोध स्तुति शिक्षा (च०) ४. आराधना कथाकोष (द्वि०) |४७. युक्त्यनुशासन ९०. छहढाला (प्रश्नोल्टी० षष्ठम) ५. रत्नाकर की लहरें ४८. सूर्यप्रकाश ग्रन्थ ९१. चारित्रचक्रवर्ती ६. अष्टपाहुड (द्वि०) ४९. भाव संग्रह ९२. शान्तिनाथ विधान ७. पंचास्तिकाय (द्वि०) ५०. लघुतत्त्वस्फोट ९३. नित्यपाठावली ८. पंचस्तोत्र संग्रह (द्वि०) ५१. रत्नकरण्डश्रावकाचार-टीका ९४. कल्याणमन्दिर स्तोत्र विधान ९. पुरुषार्थसिद्धयुपाय (द्वि०) ५२. अमरसेनचरिउ ९५. चौबीस ठाणा १०. चर्चासागर ५३. मूलाचार भाषा वचनिका ९६. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका ११. चन्द्रप्रभ चरित ५४. पद्मपुराण ९७. सुशीला उपन्यास १२. सम्यक्त्वकौमुदी (द्वि०) ५५. प्रमेयरत्नमाला ९८. हनुमानचरित १३. परीक्षामुख (द्वि०) ५६. यशस्तिलकचम्पू भाग-१ ९९. अलौकिक दर्पण १४. क्षत्रचूड़ामणि (द्वि०) ५७. यशस्तिलचम्पू भाग-२ १००. प्रशांत वाणी (द्वि०) १५. तत्त्वानुशासन (द्वि०) ५८. अर्थप्रकाशिका १०१. जैनशासन १६. योगसार ५९. निजात्मशुद्धिभावना २०२. धर्मपरीक्षा १७. नीतिसार समुच्चय ६०. आत्मानुशासन (द्वि०) १०३. शान्तिनाथ पुराण १८. परमात्मप्रकाश ६१. सुधर्मध्यान प्रदीप. १९. न्यायदीपिका (द्वि०) ६२. मंगलघट के भीतर अमृत १०४. महावीर पुराण २०. शान्तिसुधासिन्धु ६३. भक्ति मुक्ति सोपान १०५. प्रद्युम्नचरित २१. इन्द्रनंदि नीतिसार ६४. अंगपण्णत्ति १०६. चौबीसी पुराण २२. इष्टोपदेश (तृ०) ६५. पाश्र्वाभ्युदय १०७. पुण्यास्रवकथाकोश २३. समाधितन्त्र (तृ०) ६६. मल्लिनाथपुराण (द्वि०) १०८. मदनजुद्ध काव्य २४. वरांगचरित (संस्कृत, हिन्दी) |६७. विमलनाथपुराण (द्वि०) १०९. भाववयफलदर्शी २५. भरतेश वैभव (भाग-१,२)द्वि०६८. नेमिनाथपुराण (द्वि०) ११०. श्रेणिकचरित २६. वैरागमणि माला ६९. प्रवचनसार २२१. तीर्थराज पर आचार्य २७. ध्यानसूत्राणि (तृ०) ७०. धन्यकुमार चरितम् विमलसागर कृतित्व २८. श्रुतावतार ७१. सिद्धप्रिय स्तोत्र ११२. श्रीमद्भगवद् जिनसहस्रनाम २९. अमितगतिश्रावकाचार ७२. सुदर्शनचरित ११३. भक्तामर विधान ३०. महामृत्युंजय पूजा विधान ७३. अमृतशीति ११४. णमोकार मंत्र कल्प ३१. स्वयंभूस्तोत्र (द्वि०) ७४. रयणसार ११५. विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका (दि.) ३२. द्रव्यसंग्रह प्रश्नोत्तर (टीका ष०)/७५. मोक्षशास्त्र (प्रश्नो० टीका ४०)११६. भारत का भरत (द्रि०) ३३. धम्मरसायन ७६. मर्यादा की रक्षा (तृ०) ११७. मान्यखेट के हीरे ३४. सार समुच्चय ७७. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-१ ११८. सम्मेदशिखर माहात्म्य (द्वि०) ३५. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ७८. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-२ ११९. सत्पथ की ओर ३६. आलापपद्धति (द्वि०) ७९. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-३ १२०. जिनाभिषेक ३७. मदनपराजय ८०. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-४ १२१. सम्मेदशिखर पूजा विधान ३८. वसुनन्दिश्रावकाचार ८१. पंचामृताभिषेक पाठ (द्वि०) ११२. जिनवाणी ३९. सागारधर्मामृत (द्वि०) ८२. वात्सल्यरत्नाकर भाग १,२,३ /१२३. ऋषिमण्डल विधान ४०. बोधामृतसार ८३. नैतिक संस्कार भाग-१-३ १२४. जिनदत्त चरित ४१. पाण्डवपुराण (द्वि०) ८४. सुभोम चरित्र १२५. नागकुमार चरितम् ४२. आप्तपरीक्षा (द्वि०) ८५. पदापुराण हिन्दी १२६. मरण मुक्ति का द्वार : सल्लेखना ४३. पाश्वचरितम् (द्वि) ८६. भक्तामर स्तोत्र (प्रश्नोल्टी०) १२७. शीलकलश । विमा Page #365 --------------------------------------------------------------------------  Page #366 -------------------------------------------------------------------------- _