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प्रस्तावना
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः । ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः१ ॥ २३ ॥
अर्थात् अज्ञान एवं अज्ञानी जनकी उपासना अज्ञानको तथा ज्ञानमय निज आत्मा और ज्ञानी गुरु आदिको उपासना ज्ञानको देती है । ठीक है- जो जिसके पास होता है उसे ही वह देता है, यह एक प्रसिद्ध उक्ति है। ___श्लोक १७८-७९ में जीवको मथानी तथा उसमें लपेटी जानेवाली रस्सी (नेती) के दोनों छोरोंको राग-द्वेषके समान बतलाकर यह कहा गया है कि जिस प्रकार मथानीमें लिपटी हुई रस्सीको जबतक एक ओरसे खींचते तया दूसरी ओरसे ढीली करते रहते हैं तबतक वह रस्सी बंधती व उकलती रहती है तथा मथानी भी तबतक घूमती ही रहती है। उसी प्रकार जीव जबतक एकसे, राग और दूसरेसे द्वेष करता है तबतक रस्सी के समान उसका कर्म बंधता और उकलता (सविपाक निर्जरासे निर्जीर्ण होता) रहता है तथा जीव भी तबतक संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करता ही रहता है। परन्तु जब उस रस्सीको एक ओरसे ढीली करके दूसरी ओरसे पूरा खींच लिया जाता है तब जिस प्रकार उसका बंधना व उकलना तथा मथानीका घूमना भी बंद हो जाता है उसी प्रकार राग-द्वषको छोड देनेसे कर्मका बंधना और फल देकर निर्जीर्ण होना तथा जीवका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है । यह विवेचन इष्टोपदेशके निम्न श्लोकसे कितना अधिक प्रभावित है, यह ध्यान देनेके योग्य है
राग-द्वेषद्वयी-दीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात् सुचिरं जीवः संसाराब्धी भ्रमत्यसौ ॥११॥
यहां उसी मथानीका दृष्टान्त देकर राग-द्वेषरूप लंबी रस्सीके खींचनेसे जीव संसार-समुद्र में अपनी अज्ञानताके वश चिर कालतक परिभ्रमण किया करता है, यही भाव दिखलाया गया है।
१. इसकी.टोकामें पं. आशाधरजीने उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है।