________________
८४
आत्मानुशासनम्
श्लोक ११० में १ यह उपदेश दिया गया है कि हे भव्य ! तू यह समझ कि यहां संसारमें मेरा कुछ भी नहीं है । यदि तू इस प्रकार से रहता है तो शीघ्र ही तीनों लोकोंका स्वामी ( परमात्मा ) हो जावेगा । वह वह परमात्माका रहस्य है जिसे केवल योगी ही जानते हैं, अन्य कोई भी नहीं जानता । इस प्रकार यहां निर्ममत्व भावको मोक्षका कारण बतलाकर उसे स्वीकार करनेका प्रेरणा की गई है। अब इष्टोपदेश के निम्न पद्यको देखिये कितनी समानता है
बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निममत्वं विचिन्तयेत् २ ||२६| इसमें भी यही बतलाया गया है कि समम जीव - शरीर एवं अन्य बाह्य पदार्थों में ममत्वबुद्धि रखनेवाला प्राणी - कर्मबंधको प्राप्त होता है। तथा इसके विपरीत निर्मम जीव- मेरा यहां कुछ भी नहीं और न मैं भी किसीका हूं, इस प्रकारकी ममत्वबुद्धिसे रहित हुआ भव्य जीव-. मुक्तिको प्राप्त होता है । इसीलिये प्रयत्नपूर्वक उस निर्ममत्वभावका - अकिंचनताका--चिन्तन करना चाहिये । यही बात समाधिशतकके निम्न श्लोक में भी कही गई है
परत्राहंमतिः स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नमतिरच्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ||४३ ॥
अर्थात् शरीरादि परपदार्थोंमें 'अहं' बुद्धिको रखनेवाला अज्ञानी प्राणी तो निश्चयतः कर्मको बांधता है तथा आत्मामें आत्मबुद्धि रखनेकाला विवेकी जीव नियमतः उस कर्मसे छुटकारा पाता है ।
१७५ वें श्लोकमें यह बतलाया है कि ज्ञानभावनाके चिन्तनका फल प्रशस्त अविनश्वर ज्ञान (केवलज्ञान ) की प्राप्ति है परन्तु अज्ञानी जन मोहके प्रभाव से उसका फल लाभ-पूजादिमें खोजते हैं । इसपर इष्टोपदेशके निम्न पद्यका प्रभाव स्पष्ट दिखता है ।
१. इसके अतिरिक्त १८०-१८१ और २४३-४४ श्लोकोंको भी देखिये, उनमें भी यही भाव निहित है ।
२. इसकी टीकामें पं. आशाधरजीने उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है।