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प्रस्तावना
गंद पानीसे ही वे परिपूर्ण होती हैं; उसी प्रकार शुद्ध धनसे कभी सत्पुरुषोंके भी सम्पत्ति नहीं बढती है, किन्तु वह अन्यायोपार्जित धनसे ही बढती है जो सत्पुरुषोंको इष्ट नहीं है । इस अन्यायोपार्जित धनकी निन्दा इष्टोपदेशमें इस प्रकार से की गई है
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलिम्पति १ ॥ १६ ॥
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अभिप्राय यह है कि जो निर्धन व्यक्ति यह सोचकर धनका संचय करता है कि मैं उससे पुण्यवर्धक दानादि सत्कार्यों को करूंगा उसका ऐसा करना उस मूर्खके समान है जो यह सोचकर कि में स्नान करूंगा, अपने निर्मल शरीरको कीचडसे लिप्त करता है । कारण यह कि धनका संचय कभी न्याय्य वृत्तिसे नहीं हुआ करता है ।
श्लोक ५० में जीवको संबोधित करके यह कहा गया है कि जिस विषयसुखको विषयी जनोंने भोगकर विरक्त होते हुए छोड दिया है उसीको तू उच्छिष्ट (वान्ति) के समान फिर भी भोगना चाहता है । इसमें तुझे ग्लानि नहीं होती ? जबतक तू उस विषयतृष्णाको नष्ट नहीं करता है तबतक तुझे शान्ति प्राप्त नाहीं हो सकती है । यह भाव प्रकारान्तरसे इष्टोपदेशके निम्न श्लोकमें भी निहित है
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ||३०||
आशय इसका यह कि अनादि कालसे संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने सब पुद्गलोंको वार वार भोगकर छोड दिया है । फिर जब आज वह विवेक उत्पन्न हो चुका है तब उच्छिष्टके समान उन्हीं पुद्गलों को फिर से भोगने की इच्छा मुझे क्यों करना चाहिये ? नहीं करना चाहिये ।
१. इस श्लोककी टीका करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजीने वहां आत्मानुशासन के उक्त श्लोकको उद्धृत भी किया है ।