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आत्मानुशासनम् .
कि मैं आज दहीको ही लूंगा वह दूधको नहीं लेता है, तथा जिसने यह नियम लिया है कि मै आज गोरसको ग्रहण नहीं करूंगा वह दूध और दही दोनोंको ही नहीं ग्रहण करता है । इस प्रकार गोरस (सामान्य) स्वरूपसे अभिन्नं होनेपर भी जब दूध और दही ये दोनों अवस्थाविशेषसे भिन्न समझे जाते हैं तभी उक्त तीनों व्यक्तियोंका वैसा आचरण संगत होता है। इससे सिद्ध है कि वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों स्वरूप है ।
इसके पश्चात् १७३ वें श्लोकमें यह कहा गया है कि वस्तु न नित्य है, न क्षणनश्वर (क्षणिक) है, न ज्ञानमात्र है और न अभाव स्वरूप (शून्य) भी है; क्योंकि, वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है, जैसी कि निर्बाध प्रतीति होती है तदनुसार वस्तु कथंचित् नित्यानित्यादिस्वरूप ही सिद्ध होती है। यह अवस्था जैसे एक वस्तुकी है वैसे ही वह अनादिअनन्त समस्त वस्तुओंकी ही समझना चाहिये ।
इस संक्षिप्त विवेचनका आधार भी वह देवागमस्तोत्र रहा है । वहां ३७-५४ कारिकाओंमें नित्यत्व और अनित्यत्व एकान्तवादोंका निराकरण करके ५६वीं कारिका द्वारा कथंचित् नित्यानित्यत्वको सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार२४-२७कारिकाओंमें सामान्य अद्वैतवादका निराकरण करके ७९-८० कारिकाओंके द्वारा विज्ञानाद्वैतका तथा १२ वो कारिकाके द्वारा अभावरूपता (शून्यकान्त)का भी निषेध किया है ।
आत्मानुशासन व पूज्यपादसाहित्य इष्टोपदेश और समाधिशतक ये दो ग्रंथ आध्यात्मिक हैं जो पूज्यपाद स्वामीके द्वारा रचे गये हैं । इन दोनों ही ग्रंथोका प्रभाव आत्मानुशासनपर दृष्टिगोचर होता है यथा--
आत्मानुशासनके ४५वें श्लोकमें यह बतलाया है कि जिस प्रकार नदियां कभी शुद्ध जलसे परिपूर्ण नहीं होती है, किन्तु नालियों आदिके
१. स्वामी समन्तभद्रविरचित युक्त्यनुशासनमें भी श्लोक १८-२४ में विज्ञानाद्वैतका, ८-९ श्लोकोंमें नित्यत्वका,११-१७श्लोकोंमें. क्षणिकत्वका तथा २५वें श्लोकमें अभावकान्त (शून्यवाद) का विचार किया गया है।