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प्रस्तावना
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और न नष्ट भी होती है, क्योंकि, उन दोनों ही अवस्थाओंमें स्पष्टतया सामान्य स्वरूपका अन्वय देखा जाता है-सुवर्णघटको नष्ट करके उससे बनाये गये मुकुटमें भी उस सुवर्णका अस्तित्व पाया जाता है। [ इससे वस्तुमें ध्रौव्य या नित्यताकी सिद्धि होती है। ] वस्तु जो नष्ट और उत्पन्न होती है वह विशेष (पर्याय) की अपेक्षा ही होती है । इस प्रकार एक ही वस्तुमें एक साथ ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय इन तीनोंके रहनेका नाम सत् या द्रव्य है १ । हेतु (उपादान कारण) के नाशका नाम ही कार्यकी उत्पत्ति है, क्योंकि, उन दोनोंके एक हेतुताका नियम है- जो दण्ड घटके विनाशका हेतु होता है वही ठीकरोंकी उत्पत्तिका भी हेतु हुआ करता है । परन्तु अपने अपने असाधारण लक्षणकी अपेक्षा वे दोनों- विनष्ट घट और उत्पन्न ठीकरे- भिन्न ही होते हैं। इस प्रकार लक्षणसे भिन्न होनेपर भी वे दोनों सर्वथा भिन्न नहीं हैं- कथंचित् अभिन्न भी हैं,क्योंकि,उनमें मिट्टी या सुवर्णत्व जाति आदिका अवस्थान देखा जाता है । ये तीनों परस्पर सापेक्ष होकर ही वस्तुमें रहते हैं, अन्यथा उनका आकाशकुसुमके समान सद्भाव ही नहीं रह सकेगा। इसको स्पष्ट करनेके लिये वहां ये दो उदाहरण दिये गये हैं
१. क्रमसे घट, मुकुट और सुवर्णमात्रके अभिलाषी तीन व्यक्ति किसी सुनारके यहां जाते हैं । उस समय उन्हें सुनार घटको तोडकर मुकुटको बनाता हुआ दिखता है । यह देखकर घटका अभिलाषी खिन्न और मुकुटका अभिलाषी हर्षित होता है। परन्तु सुवर्णसामान्यका अभिलाषी व्यक्ति न तो खिन्न होता है और न हर्षित भी, वह मध्यस्थ रहता है । यह अवस्था उनकी निर्हेतुक नहीं है। इससे प्रगट है कि घट और मुकुटमें जैसे पर्यायकी अपेक्षा भेद है वैसे द्रव्य (सुवर्ण की अपेक्षा भेद नहीं है-सुवर्णसामान्यकी अपेक्षा वे दोनों अभिन्न हैं ।
२. जिस व्यक्तिने यह नियम किया है कि मैं आज दूधको ही ग्रहण करूंगा वह दहीको नहीं खाता है, जिसने यह नियम किया है
१. सद्रव्यलक्षणम् । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । त.सू.५.२९-३० आ.प्र.६