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आत्मानुशासनम्
क्रमसे ही किया जाता है । स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा युगपत् विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य ही है, क्योंकि स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा एकसाथ शब्दके द्वारा वस्तुका कथन करना अशक्य है । ये चार भंग हुए । इस अवक्तव्य भंगके साथ अपने अपने हेतुसे शेष तीन भंग और भी संभव हैं। जैसे -- स्वचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर एक साथ चूंकि वस्तुका कथन नहीं किया जा सकता है अतएव वह कथंचित् सत् अवक्तव्य ही है । परचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर चूंकि उसे कहा नहीं जा सकता है अतएव वह कथंचित् असत् अवक्तव्य ही है । क्रमसे स्व- परचतुष्टयकी अपेक्षा होनेपर चूंकि एकसाथ उसे नहीं कहा जा सकता है अतएव वह कथंचित् सत् असत् अवक्तव्य ही है । आत्मानुशासनके उपर्युक्त श्लोकमें इसी सप्तभंगीकी सूचना की गई है ।
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इसके आगे १७२ वें श्लोकके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय में उत्पाद, व्यय और धौव्य ( सत्) स्वरूप है; क्योंकि, इसके विना उसमें एकसाथ जो भेद और अभेदका निर्बाध ज्ञान होता है वह संगत नहीं हो सकता है ।
उपर्युक्त विवेचनकी आधारभूत देवागमकी निम्न कारिकायें रहीं प्रतीत होती हैं
न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात् ते सहैकत्रोदयादि सत् ।। ५७ ।। कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात् पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८ ॥ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पाद- स्थितिष्वयम् । शोक- प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ५९ ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ६० ॥ आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके मतम
कोई भी वस्तु सामान्य स्वरूपसे - द्रव्यकी अपेक्षा - न तो उत्पन्न होती है