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प्रस्तावना
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श्लोक १७१ में बतलाया है कि जीवादि प्रत्येक पदार्थ स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा तत्स्वरूप- विवक्षित जीव आदि स्वरूप - भी हैं तथा परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वह अतत्स्वरूप • अजीव आदि स्वरूप- भी है । इस प्रकार उत्तरोत्तर सूक्ष्मतासे विचार करनेपर उसका अन्त नहीं आता
इस विषयकी विशेष प्ररूपणा स्वामी समन्तभद्रने देवागमस्तोत्रमें विस्तारसे को है । यथा--
कथंचित् ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १४ ॥ सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥
अर्थात् हे भगवन् ! आपको जीव आदि विवक्षित पदार्थ कथंचित् सत् ही इष्ट है, कथंचित् असत् ही इष्ट है, कथंचित् उभय (सत्असत्) ही इष्ट है, और कथंचित् अबक्तव्य ही इष्ट है। यह सब आपको नयके सम्बन्धसे ही इष्ट है, न कि सर्वथा । कारण कि ऐसा कौन-सा बुद्धिमान् है जो स्वरूपचतुष्टयसे- अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा- वस्तुको सत् ही न माने तथा इसके विपरीत पररूपचतुष्टयसेदूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा- उसे असत् ही न माने । यदि ऐसा नहीं मानता है तो फिर वह वस्तुस्वरूपकी व्यवस्था भी नहीं कर सकता है- ऐसा माननेके विना चेतन व अचेतन आदि पदार्थोंकी पृथक् पृथक् व्यवस्था नहीं बन सकती है । क्रमसे विवक्षित स्ववतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा वह वस्तु उभय (सत्-असत्) ही है । कारण कि शब्दके द्वारा जब कभी भी वस्तुका कथन किया जाता है तब वह
१. इसका विशेष विवेचन तत्त्वार्थवातिक (१, ६, ५. और ४, ४२, १५.) आदिमें भी किया गया है ।