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याञ्चतो गौरवहानिः याचितुगौरवं दातुर्मन्ये संक्रान्तमन्यया । तदवस्थौ कथं स्यातामेतो गुरुलघू तदा ॥१५३॥
इति एवम् अल्पबहुत्वे नियम ब्रुवन् । किम् अद्रासीत् दृष्टवान् न इमो दीनाभिमानिनौ। परमाणोहि परं नाल्पम् इत्युक्तं (इत्ययुक्तं) दीनस्य याचिः ततोऽप्यतिलघुत्वसंभवात् । तथा नमसो न परं महत् इत्यप्यसन् , अभिमानिनोऽयाचकस्य ततोऽप्यतिमहत्त्वसंमवात् ॥,१५२॥ ननु याचितुः गौरवं क्व गतं येनाल्पत्वं तस्य स्यात् इत्याह-याचितुरित्यादि । तदवस्थौ सा याचनदानलक्षणावस्था ययोः ॥ १५३ ॥ तदा याचनदानकाले ग्रहीतुर्दानुश्व
कहलानेवाले क्या इन दीन और अभिमानी मनुष्योंको नहीं देखा है ?॥ विशेषार्थ-- लोकमें सबसे छोटा परमाणु समझा जाता है। परन्तु विचार करें तो याचकको उस परमाणुसे भी छोटा (तुच्छ)समझना चाहिये। कारण यह कि याचना करनेसे उसके सब ही उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं । वह दीन बनकर सबके मुंहकी ओर देखता है, परन्तु उसको ओर कोई दृष्टिपात भी नहीं करता। इस प्रकार उसकी सब प्रतिष्ठा जाती रहती है । इसके विपरीत आकाशले कोई बड़ा नहीं माना जाता है । परन्तु यथार्यमें देखा जाय तो जो स्वाभिमानी दूसरेसे यावना नहीं करता है उसे इस आकाशसे भी बडा (महान्) सनझना चाहिये । इस अधावक वृतिमें उसके सब गुग सुरक्षित रहते हैं । स्वाभिमानी संकटमें पडकर भी उस दुख को साहसपूर्वक सहता है, किन्तु कभी किसोसे यावना नहीं करता। अभिप्राय यह कि याचनाको वृत्ति मनुष्यको अतिशय हीन बनानेवाली है ॥ १५२ ॥ यावक पुरुषका गौरव दाताके पास चला जाता है, ऐसा मैं मानता हूं। यदि ऐसा न होता तो फिर उस समय देनेरूप अवस्थासे संयुक्त दाता तो गुरु (महान्) और ग्रहण करनेरूप अवस्यासे संयुक्त याचक लत्रु (क्षुद्र) कैसे दिखता? अर्थात् ऐसे नहीं दिखने चाहिये थे। विशेषार्य-- जिस समय याचक किसी दाताके यहां पहुंचकर उससे कुछ याचना करता है और तदनुसार वह दाता उसे कुछ देता भी है उस समय उन दोनों के मा. १०