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आत्मानुशासनम् ..... [ श्लो० १५४अधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्ध्वमजिघृक्षवः।। इति स्पष्टं वदन्तौ वा नामोन्नामौ तुलान्तयोः ॥ १५४॥ तस्वमाशासते सर्वे न स्वं तत्सर्वपि यत् । अर्थिवमुख्यसंपादिसस्वत्वानिःस्वता वरम् ॥ १५५ ॥
गतिविशेषं दर्शयन्नाह-- अध इत्यादि । जिघृक्षवः अतृप्तचित्ततया गृहीतुमिच्छ वो याचकाः । अजिवृक्षवः त्यागिनः दातारः । वदन्तौ (वा) वदन्तौ इव ।। १५४ ।। याचकानां वाञ्छितार्थासंपादकादैश्वर्यादारिद्रघं सुन्दरमिति दर्शयन्नाह--
मुखपर अलग अलग भाव अंकित दिखते हैं। उस समय जहां याचकके मुखपर दीनता, संकोच एवं कृतज्ञताका भाव दृष्टिगोचर होता है वहां दाताके मुखपर प्रफुल्लता एवं अभिमानका भाव स्पष्टतया देखनेमें आता है। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उस समय मानों याचकका आत्मगौरव उसके पाससे निकलकर दाताके पास ही चला जाता है। तभी तो उन दोनोंमें यह विषमता देखो जाती है, अन्यथा इसके पूर्वमें तो दोनों समान ही थे । तात्पर्य यह कि याचनाका कार्य अतिशय हीन एवं निन्द्य है ॥ १५३ ।। तराजूके दोनों ओर क्रमसे होनेवाला नीचापन और ऊंचापन स्पष्टतया यह प्रगट करता है कि लेनेकी इच्छा करनेवाले प्राणो नीचे और न लेनेकी इच्छा करनेवाले ऊपर जाते हैं । विशेषार्थ-- जिस प्रकार तराजुके एक ओर जब कोई वस्तु रक्खी जाती है तो उधरका भाग नोचा और दूसरी ओरका खाली भाग ऊंचा हो जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य दूसरेसे याचना करके कुछ ग्रहण करता है वह नीचेपन (हीनता) को प्राप्त होता है तथा जो दाता देता है वह उत्कृष्टताको प्राप्त करता है। इस प्रकारसे तराजू भी मानों यही शिक्षा देती है ॥ १५४ ॥ जो मनुष्य धनसे सहित होता है उससे सब लोग आशा रखते हैं- मांगनेकी इच्छा करते हैं। परन्तु ऐसा वह धन नहीं है जो कि सब ही याचकोंको सन्तुष्ट कर सके। अतएव याचक जनकी