________________
-१५६] आशा मानधनेन निरस्यते १४७
आशाखनिरतीवाभूदगाधा निधिभिश्च या।
सापि येन समीभूता तत्ते मानधनं धनम् ।। १५६ ॥ सस्वमित्यादि । सह स्वेन द्रव्येण वर्तते य: सस्वः, तं सस्वं सद्रव्यं पुरुषम् आशासते याचितुं वाञ्छन्ति । सर्वपि सर्वतृप्तिकरणशीलम् । अर्थिवैमुख्यसंपादि याचकप्रार्थनाभाकरम् ॥१५५ ॥ ये च सस्वमाशासते तेषामाशाखनि: कीदृशीत्याह-- आशेत्यादि। आशाखनि: आशागतः। अगाधः अयाघ:1 । निधिभिश्च निधिभिरपि कृता या न समीभूता न पूरिता। सापि आशाखनि: येन मानधनेन अयाचकत्वप्रतिज्ञालक्षणेन कृत्वा समीभूता ॥ १५६ ॥ कथं सा मानधनेन समीभूतेत्याह-- आशेत्यादि । विमुखताको उत्पन्न करनेवाले धनाढयपनेकी अपेक्षा तो कहीं निर्धनता ही श्रेष्ठ है ॥ विशेषार्थ- जिसके पास धन रहता है उसके पाससे धन प्राप्त करनेकी बहुत जन अपेक्षा करते हैं। परन्तु उसके पास कितना भी अधिक धन क्यों न हो, रहेगा वह सीमित ही । और उधर याचक असीमित तथा अभिलाषा भी उनकी असीमित ही रहती है। ऐसी अवस्थामें यदि वह धनवान् अपने समस्त ही धनको याचकोंमें वितीर्ण कर दे तो भी क्या वे सब याचक तृप्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसलिये जो मनुष्य यह सोचकर धनके कमानेमें उद्यत होता है कि मैं धनका संचय करके याचकोंको दूंगा और उनकी अभिलाषाको पूर्ण करूंगा, उसका वैसा विचार करना अज्ञानतासे परिपूर्ण है। अतएव ऐसे धनकी अपेक्षा निर्धन (निर्ग्रन्थ) रहना ही. अधिक श्रेष्ठ है। कारण कि ऐसा करनेसे जो निराकुलता धनवान्को कभी नहीं प्राप्त हो सकती है वह इस निर्धन (साधु) को अनायास ही प्राप्त हो जाती है और इस प्रकारसे वह आत्यन्तिक सुखको भी प्राप्त कर लेता है ।। १५५ ॥ जो अत्यन्त गहरी आशारूप खान (गड्ढा) निधियोंके द्वारा भी समान (पूर्ण) नहीं हो सकती है वह तेरे जिस स्वाभिमानरूप धनसे समान हो सकती है वह स्वाभिमानरूप धन ही तेरा यथार्थ धन है ॥ १५६ ॥ तीनों लोकोंको नीचे करनेवाली यह आशारूप खान
14 अथाधः।