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आत्मानुशासनम् .... [श्लो० १५७आशाखनिरगाधेयमधःकृतजगत्त्रया। उत्सर्योत्सर्प्य तत्रस्थानहो सद्भिः समीकृता ॥ १५७ ॥ विहितविधिना देहस्थित्यै तपांस्युपळहय
नशनमपरभक्त्या दत्तं क्वचित्कियदिच्छति ।। उत्सर्योत्सl त्यक्त्वा त्यक्त्वा । तत्रस्थान् आशागर्तस्थितान्, यत्र विषये आशा प्रवर्तते तं तं विषयं परित्यजे (ज्ये) त्यर्थः ॥१५७॥ निम्रन्थतामवलम्ब्य प्रतिज्ञातव्रतस्य परिग्रहाहणाभावादित्यमेवास्याः समीकरणं युक्तमिति दर्शयन् विहितेत्यादिश्लोकद्वयमाह-- विहितविधिना अकृताकारिताननुमोदिताद्यागमोक्तविधिना । उपद्व्हयन् वृद्धि नयन् । अथाह है। फिर भी यह आश्चर्यकी बात है कि उक्त आशारूप खानमें स्थित धनादिकोंका उत्तरोत्तर परित्याग करके सज्जन पुरुषोंने उसे समान कर दिया है। विशेषार्थ--प्राणीकी आशा या इच्छा एक प्रकारका गड्ढा है जो इतना गहरा है कि यदि उसमें तीनों ही लोकोंकी सम्पदा भर दी जाय तो भी वह पूरा नहीं होगा। यहां इस बातपर आश्चर्य प्रगट किया गया है कि इतने गहरे भी उस आशारूप गड्ढेमें स्थित पदार्थोंको उसमें से बाहिर निकालकर सज्जन पुरुषोंने उसे पृथिवीतलके समान कर दिया है । सो है भी यह आश्चर्यकी-सी बात । कारण कि लोकमें तो ऐसा देखा जाता है कि जिस गड्ढेके भीतरसे मिट्टी, पत्थर या चांदी-सोना आदि जितने अधिक प्रमाणमे बाहिर निकाला जाता है उतना ही वह गड्ढा और भी अधिक गहरा होता जाता है। परन्तु सज्जन पुरुषोंने उस आशारूप गड्ढेमें स्थित (अभीष्ट) पदार्थोंको उससे बाहिर निकालकर गहरा करनेके बदले उसे पूरा कर दिया है । अभिप्राय यह है कि जितनी जितनी इच्छाकी पूर्ति होती जाती है उतनी ही अधिक तृष्णा और भी बढती जाती है । इसीलिये विवेकी मनुष्य जब उस तृष्णाको बढानेवाले विषयभोगोंकी आशा ही नहीं करते हैं तब उनका वह आशारूप गड्ढा क्यों न पूर्ण होगा? अवश्य ही पूर्ण होगा ।। १५७ ॥ तपोंको बढानेवाला मुनि आगममें कही गई विधिके अनुसार शरीरको स्थिर रखनेके लिये किसी कालविशेष (चर्याकाल) में दूसरोंके (श्रावकोंके)