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आत्मानुशासनम् [श्लो० १३८राज्यात्तस्मात्प्रपूज्यं तप इति मनसालोच्य धीमानुदग्रं कुर्यादार्यः समग्रं प्रभवभयहरं सत्तपः पापभीरुः ॥ १३८॥ पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि । पश्चात्पादोऽपि नास्पाक्षीत् किं न कुर्याद् गुणक्षतिः ॥ १३९ ॥
अनयोरपि राज्यतपसोमध्ये । प्रोहय त्यक्त्वा। राज्यं कुर्वन् । उदग्रं महत् । समग्रं बाह्यम् आभ्यन्तरं च । प्रभवभयहरं संसारभयस्फेटकम् ॥ १३८ ।। तपोलक्षणगुणक्षतेलघुत्वं भवतीति अमुमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राहपुरेत्यादि । अम्लानता-सुगन्धतालक्षणगुणक्षते: पूर्वम् । विबुधैरपि देवैरपि । पश्चात् गुणक्षतेरुत्तरकालम् । नास्पाक्षीत् न स्पृष्टवान् ॥ १३९ ।। करनेवाला मनुष्य अतिलघु- अतिशय निन्द्य-- माना जाता है; इसीलिये राज्यकी अपेक्षा तप अतिशय पूज्य है। इस प्रकार मनसे विचार करके जो बुद्धिमान् मनुष्य पापसे डरता है उसे, जो तप संसारके भयको नष्ट करनेवाला एवं महान् है उस समीचीन सम्पूर्ण तपको करना चाहिये ।।१३८॥ जिन पुष्पोंको पहिले देव भी शिरपर धारण करते हैं उनको पीछे पांव भी नहीं छूता है। ठीक ही है-- गुणकी हानि क्या नहीं करती है ? अर्थात् वह सब कुछ अनर्थ करती है ॥ विशेषार्थ---- पूर्व श्लोकमें यह बतलाया था कि जो साधु तपको छोडकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगता है वह अतिलघु- अतिशय निन्दांका पात्र-- बन जाता है । इसी बातको पुष्ट करनेके लिये यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार जबतक फूल मुरझाते नहीं और अपनी सुगन्धिको नहीं छोडते हैं तबतक उन्हें देव भी शिरपर धारण करते हैं, किन्तु वे ही जब मरझाकर सुगन्धिसे रहित हो जाते हैं तब उन्हें कोई पांवसे भी नहीं छूता है । ठीक इसी प्रकारसे जबतक साधु तप-संयम आदिमें स्थित रहता है तबतक साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, किन्तु महान देव भी उसकी पूजा करते हैं । परन्तु पीछे यदि वही तपसे भ्रष्ट होकर विषयोंमें प्रवृत्त हो जाता है तो फिर उसको कोई भी नहीं पूछता है- सभी उसकी निन्दा करते हैं । अभिप्राय यह है कि पूजा-प्रतिष्ठाका कारण गुण हैं, न कि बाह्य धन-सम्पत्ति आदि ॥ १३९ ॥ हे चन्द्र ! तू मलिनतारूप दोषसे