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प्रचुरगुणेषु दोषलेशोऽपि निन्द्यः
हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एवं नाभूः । कि ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ॥१४०॥
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प्रचुरेष्वपि गुणेषु दोषत्वलेशस्यापि अवस्थानं न श्रेष्ठम् । तदवस्थाने वा तन्मयतै ब श्रेष्ठेत्यन्योक्त्या दर्शयन्नाह--- हे चन्द्रम इत्यादि । लाञ्छनवान् लाञ्छत मलिनतादोषः तद्युक्तः अभूः संजातः । तद्वान् लाञ्छनवान् । तन्मय एव । किं ज्योत्स्नया पदार्थप्रकाशरूपतया । न किमपि तया तव प्रयोजनम् । किं कुर्वत्या । घोषयन्त्या । किम् । मलं काञ्छनरूपं मलिनताम् । अलम् अत्यर्थेन । कस्य । तव 1 तथा सति तन्मयत्वे सति । मासि लक्ष्य: न भवसि कस्यचिदपि ग्राह्यः । किंवत् । स्वर्भानुवत् राहुवत् || १४०|| विद्यमाने दोषे
सहित क्यों हुआ ? यदि तुझे मलिनतासे सहित ही होना था तो फिर पूर्णरूपसे उस मलिनतास्वरूप ही क्यों नहीं हुआ ? तेरी उस मलिनताको अतिशय प्रगट करनेवाली चांदनीसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं । यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होता तो वैसी अवस्थामें राहुके समान देखने में तो नहीं आता || विशेषार्थ - यहां चन्द्रको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुकी निन्दा की गई है जो कि साधुके वेषमें रहकर उसको (साधुत्वको ) मलिन करता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमें आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुणोंके होनेपर भी उसमें जो थोडी-सी कालिमा दृष्टिगोचर होती है वह उसके अन्य गुणों की प्रतिष्ठा नहीं होने देती है । इतना ही नहीं, बल्कि वह उस थोडे-से दोष के कारण कलङ्की कहा जाता है ! यदि वह कदाचित् राहुके समान पूर्णरूपसे काला होता तो फिर उसकी ओर किसीका ध्यान भी नहीं जाता। उसकी इस मलिनताको प्रगट करनेवाली उसकी ही वह निर्मल चांदनी है । ठीक इसी प्रकारसे जो साधु व्रत-संयमादिक पालन करते हुए भी यदि उस सावुत्व को मलिन करनेवाले किसी दोषसे संयुक्त होता है तो फिर वह उक्त चन्द्रमाके समान कलंकी (निन्द्य) हो जाता है । इससे ती यदि कहीं वह