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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० १४१
दोषान् कांश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं साधं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात्करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरु गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लधूंश्च स्फुटं ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥ १४१ ॥
प्रकाशकप्रच्छादकयोर्दुर्जनाचार्ययोः उपकारकापकारत्वाभ्याम् आराध्यानाराध्यत्वे दर्शयन्नाह--- दोषानित्यादि । तान् चारित्राद्य तिचाररूपान् । प्रवर्तकतय अविवेकतया । प्रच्छाद्य अप्रकाश्य । गच्छति प्रवर्तते । अयं गुरुः । सार्धं सह । तैः दोषः । न गुरु: गुरु: आचार्य: न गुरु: आराध्यः । लघुरच लघूनपि दोषान् । गुरुतरान् अतिशयेन महतः कृत्वा । सद्गुरुः शोभनगुरुः परदया ( ? ) दोष विशुद्धिहेतुत्वात् ॥ १४१ ॥ ननुः शिष्यस्य चिन्ता (त्ता) प्रसत्तिप्रति --
गृहस्थ होता तो अच्छा था वैसी अवस्थामें उसकी ओर किसीकी दृष्टि भी नहीं जाती । कारण इसका यह है कि बहुत से गुणोंके होनेपर यदि कोई दोष होता है वह लोगों की दृष्टिमें अवश्य आ जाता है । जैसे कि यदि किसी स्वच्छ कपडेपर कहीं से काला धब्वा पड जाता है तो वह अवश्य ही देखने में आ जाता है, किन्तु वैसा ही धब्बा यदि किसी मलिन वस्त्रपर पड जाता है तो न तो प्रातः वह देखने में ही आता है और न कोई उसके ऊपर किसी प्रकारकी टीका-टिप्पणी भी करता है । तात्पर्य यह है कि साधुको अपने निर्मल मुनिधर्मको सुरक्षित रखनेके लिये छोटे-से भी छोटे दोष से बचना चाहिये, अन्यथा उसे इस लोकमें निन्दा और परलोक में दुर्गतिका पात्र बनना ही पडेगा ।। १४० ।। यदि यह गुरु शिष्यके उन किन्हीं दोषोंको प्रवृत्ति कराने की इच्छासे अथवा अज्ञानता से आच्छादित करके - प्रकाशित न करके-चलता है और इस बीच में यदि वह शिष्य उक्त दोषोंके साथ मरणको प्राप्त हो जाता है तो फिर यह गुरु पोछे क्या कर सकता है ? कुछ भी उसका भला नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में वह शिष्य विचार करता है कि मेरे दोषों को आच्छादित करनेवाला वह गुरु वास्तव में मेरा गुरु ( हितैषी आचार्य) नहीं है । किन्तु जो दुष्ट मेरे क्षुद्र भी दोषोंको निरन्तर सूक्ष्मतासे देख करके