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कठोरा अपि गुरूक्तयः प्रमोदजनकाः
विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः ।। रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥१४२॥
षेधार्थम् आचार्या दोषं प्रच्छाद्य गच्छन्तीत्याशङक्याह-- विकाशयन्तीत्यादि । मन एव मुकुलं बोण्डिका तत् । विकाशयन्ति प्रल्हादयन्ति प्रबोधयन्ति वा का: । गुरूक्तयः गुरुवचनानि । किविशिष्टाः कठोराश्च विषयप्रवृत्तिनिषेधोपवासप्रायश्चित्तादिविधायकत्वेन कठोरा कर्कशा अपि के इव
और उन्हें अतिशय महान् बना करके स्पष्टतासे कहता है वह यह दुष्ट ही मेरा समीचीन गुरु है । विशेषार्थ-गुरु वास्तव में वह होता है जो कि शिष्यके दोषोंको दूर करके उसे उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित करता है। इस कार्यमें यदि उसे कुछ कठोरताका भी व्यवहार करना पडे, जो कि उस समय शिष्यको प्रतिकूल भी दिखता हो तो भी उसे इसको चिन्ता नहीं करना चाहिये । कारण कि ऐसा करने से उस शिष्य का भविष्य कल्याण ही होनेवाला है। परंतु इसके विपरीत जो गुरु शिष्यका दोषोंको देखता हुला भी यह सोचता है कि यदि अभी इन दोनोंको दूर कराने का प्रयत्न करूंगा तो शायद वह अभी उन्हें दूर न कर सके या क्रुद्र होकर संघसे अलग हो जावे, ऐसी अवस्थामें संघकी प्रवृत्ति नहीं चल सकेगी; इसी विचारसे जो उसके दोषोंको प्रकाशमें नही लाता है वह गुरु वास्त. वमें गुरु पदके योग्य नहीं है। कारण यह कि मृत्युका समय कुछ निश्चित नहीं है, ऐसी भवस्थामें यदि इस बीच में उन दोषोंके रहते हुए शिष्यका मरण हो गया तो वह दुर्गतिमें जाकर दुःखी होगा। इसीलिये ऐसे गुरुकी अपेक्षा उस दुष्टको ही अच्छा बतलाया है जो कि भले ही दुष्ट अभि-- प्रायसे भी दूसरेके सूक्ष्म भी दोषोंको बढ़ा-चढाकर प्रगट करता है । कारण यह कि ऐसा करनेसे जो आत्महितका अभिलाषी है वह उन दोषोंको दूर करके आत्मकल्याण कर लेता है ॥१४१॥ कठोर भी गुरुके वचन भव्य जीवके मनको इस प्रकारले प्रफुल्लित (आनन्दित) करते हैं जिस प्रकार कि सूर्यको कठोर (सन्तापजनक) भी किरणें कमलकी