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भव-समुद्रतस्तरणोपायनिरूपणम्
स्वातन्त्र्यं व्रज यासि तीरमचिरान्नो चेद् दुरन्तान्तकग्राहव्यात्तगभीरवक्त्रविषमे मध्ये भवान्धर्भवेः ॥ ४९ ॥ आस्वाद्याद्य यदुज्झितं विषयिभिर्व्यावृत्तकौतूहलस्तद्भूयोऽप्यवि कुत्सयन्नभिलषस्य प्राप्तपूर्वं यथा ।
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अन्तकश्च यमः स एव ग्राहो जलचर: तेन व्यातं प्रसारितं गम्भीरं महत् तच्च तद्वक्त्रं च तेन विषमे रौद्रे ।। ४९ ।। विषयाकांक्षया अभिभूतश्च भवान् (न) भोग्यमपि भुङ्क्ते इत्याह-- आस्वाद्येत्यादि । आस्वाद्य भुक्त्वा । यत् स्त्र्यादि । उज्झितं त्यक्तम् । विषयिभिः । कथंभूतैः । व्यावृत्तकौतूहल: विनष्टस्त्र्यादिरागरसैः । हे जन्तो । अद्य इदानीम् । तत् स्त्र्यादिकं पुनरपि अभिलषसि भोक्तुं वाञ्छसि । कथम् । अप्राप्तपूर्वं यथा भवत्येवं न प्राप्तं
लिये मुखको फाडकर हिंस्र जलजन्तु ( मगर व घडयाल आदि) तत्पर रहेंगे । ठीक इसी प्रकारसे अज्ञानी प्राणी नदीके समान भयावह विषयोंकी तृष्णामें फंसकर उसके कारण मोक्षमार्गसे बहुत दूर हो जाता है । वह यदि यह विचार करे कि मैं स्वयं ही इस विषयतृष्णा में फंसा हूं, अतः इससे छुटकारा पानेमें भी मैं पूर्णतया स्वतन्त्र हूं, मुझे दूसरा कोई परतन्त्र करनेवाला नहीं है; तो वह उक्त विषयतृष्णाको छोडकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हो सकता है । परन्तु यदि वह अपनी ही अज्ञानतासे ऐसा नहीं करता है तो यह निश्चित है कि इससे वह समुद्र के समान अथाह और अपरिमित उस संसार (निगोदादि पर्याय) के मध्य में जा पहुंचेगा कि जहां से उसका निकलना अशक्य होगा और जहां उसे अनन्त वार जन्ममरणके दुखको सहना पडेगा ।। ४९ ।। जिन स्त्री आदि भोगोंको विषयी जनोंने भोग करके अनुरागके हट जाने से छोड दिया है उनको ( उच्छिष्टको) तू घृणासे रहित होकर फिरसे भी इस प्रकारसे भोगनेकी इच्छा करता है जैसे कि मानों वे कभी पूर्वमें प्राप्त ही न हुए हो । हे क्षुद्रप्राणी ! जबतक तू पापसमूहरूप वीर शत्रूकी सेनाकी फहराती हुई ध्वजाके समान इस दुष्ट विषयतृष्णाको नष्ट नहीं कर देता है तबतक क्या तुझे शान्ति
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