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पाद्धिरतानां निर्दयत्वम्
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भीतमूर्तीगतत्राणा निर्दोषा देहवित्तकाः। दन्तलग्नतृणा घ्नन्ति मृगीरन्येषु का कथा ॥२९॥
भीतमर्तीः भयकम्पितगात्राः । गतत्राणा. रक्षणरहिताः । निर्दोषा: दोषरहिताः । देहवित्तका: देह एव वित्तं धनं यासाम् । घ्नन्ति मारयन्ति ॥ २९ ॥ हिंसाविरतिव्रते दाढयं विधाय अनृतस्तेयविरतिव्रते तद्विधातुमाह-पैशुन्येत्यादि । पैशुन्यं परपरिवादः ।
उसी प्रकार कोई भी बाह्य पदार्थ स्वरूपसे इष्ट और अनिष्ट नहीं हो सकता है । उन्हें केवल कल्पनासे ही प्राणी इष्ट व अनिष्ट समझने लगते हैं। प्रकृतमें जिन शिकार आदि दुष्कृत्योंमें प्रत्यक्षमें ही प्राणिवियोगादिजन्य दुख देखा जाता है उनके सम्पन्न होनेपर शिकारी जन सुखको कल्पना करते हैं । पर भला विचार तो कोजिये कि दूसरे दीन प्राणियोंको कष्ट पहुंचानेवाले वे कार्य क्या यथार्थमें सुख कारक हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब सुख और दुख कल्पनाके ऊपर ही निर्भर हैं तब विवेकी जनको उभय लोकोंमें कष्ट देनेवाले उन प्राणिवधादिरूप दुष्कार्यों में सुखको कल्पना न करके जो अहिंसा एवं सत्य संभाषणादि उत्तम कार्य उभय लोकोंमें सुखदायक हैं तथा जिनकी सबके द्वारा प्रशंसा की जाती है उनमें ही सुखको कल्पना करके प्रवृत्त होना चाहिये ।।२८। जिन हिरणियोंका शरीर सदा भयसे कांपता रहता है, जिनका वनमें कोई रक्षक नहीं है, जो किसीका अपराध (अनिष्ट) नहीं करती हैं, जिनके एक मात्र अपने शरीरको छोडकर दूसरा कोई धन नहीं है, तथा जो दांतोके बीचमें अटके हुए तृणोंको धारण करती हैं; ऐसी हिरणियोंका भी घात करनेसे जब शिकारी जन नहीं चूकते हैं तब भला दूसरे (सापराध) प्राणियोंके विषयम क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् उनका घात तो वे करेंगे ही ।। विशेषार्थ- यह प्रायः लोकमें प्रसिद्ध ही है कि सच्चे शूर-वीर युद्धनीतिके अनुसार ऐसे किसी भी प्राणीके ऊपर शस्त्रका प्रहार नहीं करते हैं जो कि कायरताको प्रगट कर रहा हो, अरक्षित हो, निरपराध हो