________________
२८
आत्मानुशासनम् ... [दलो० २८संकल्पं तमनुज्झितेन्द्रियसुखैरासेविते धीधनः धर्म्य कर्मणि किं करोति न भवॉल्लोकद्वयश्रेयसि ॥२८॥
आस्पदं स्थानम् । तथा पापैराचरितमपि पापिष्ठः पुरुषः अनुष्टितम् । पुरा अतिभयदमपि भवान्तरे प्रचुरदुःखदायित्वात् अतिभयदम् । इत्यंभूतं मृगय दिकमपि यदि तव सौख्याय सौख्यनिमित्तं भवति । कस्मात् । संकल्पत: चित्तोल्लासात् । तदा धर्म्य कर्मणि धर्मादन पेते कर्मणि हिंसादिविरतिदानदेवपूज दिलक्षणे । तं प्रसिद्धं सौख्यहेतुभूतं संकल्पं किं करोति न भवात् ( किं न करोति भवन् ) । कथंभूते तस्मिन् धर्म्य कर्मणि । आसेविते अनुष्टिते । कैः । धीधन: विवेकिभिः । किविशिष्टः । अनुज्झितेन्द्रियसुखैः विषयसुखमनुभवद्भिः गृहस्थैः अपि अनुष्ठीयमाने । पुनरपि कथभूते । लोकद्वयश्रेयसि इहलोके परलोके च उपकारकत्वेन प्रशस्ते ॥२८॥ पापद्धिक्रीडारतानां अतिनिःकरुणत्वं दर्शयन्नाह - भीतेत्यादि ।
करते हैं तथा जो दोनों ही लोकोंमें कल्याणकारक है उस धर्ममय आचरणमें तू उक्त संकल्पको क्यों नहीं करता है ? अर्थात् उसमें ही तुझे सुखकी कल्पना करना चाहिये । विशेषार्थ- सुख और दुख वास्तवमें अपने मनकी कल्पनाके ऊपर निर्भर हैं। इस कल्पनाके अनुसार प्राणी जिन पदार्थोंको इष्ट समझता है उनकी प्राप्तिमें वह सुख तथा उनकी अप्राप्तिमें दुखका अनुभव करता है। उसी प्रकार जिन पदार्थोंको उसने अनिष्ट समझ रक्खा है उनके संयोगमें वह दुखी तथा वियोगमें सुखी होता है । परन्तु यथार्थ में यदि विचार किया जाय तो कोई भी वस्तु न तो सर्वथा इष्ट है और न सर्वथा अनिष्ट भी। उदाहरणके रूपमें एक ही समयमें जहाँ किसी एकके घरपर इष्ट सम्बन्धीका मरण होता है वहीं दूसरेके घरपर पुत्रविवाहादिका उत्सव भी संपन्न होता है। अब जिसके यहां इष्टवियोग हुआ है वह उस एक ही मुहूर्तको अनिष्ट कहकर रुदन करता है और दूसरा उसे ही शुभ घडी मानकर अतिशय
आनन्दका अनुभव करता है । इससे निश्चित प्रतीत होता है कि जिस प्रकार वह घडी (मुहूर्त) वास्तवमें इष्ट और अनिष्ट नहीं है
न निःकरुणात्वं।