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[इलो ३०
आत्मानुशासनम् पैशुन्यदन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात। लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयश सुखमयार्थम् ॥३०॥ पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनोदशोऽमि. नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै ।
दैन्यं क्लीबता दम्भो कञ्चना ।स्तेयं चौर्यम् । अनृतम् ऋतं सत्यं न ऋतम् अनृतमा असत्यम् । तेभ्यः पातकानि तान्येक पातकानि(वा)। आदिशब्दात् स्तेनप्रयोगतदाह: तादानादयो गृह्यन्ते तेषां परिहारात अनृतविरतिव्रते पैशुन्यदैन्यपरिहारयोरन्तर्भाव: स्तेयविरतिव्रते दम्भपरिहारस्यान्तर्भाव: । लोकद्वयहितम् इहलोके परलोके हितका रकम्। अर्जय उपार्जय॥३०॥ननु वतीनममध्युपसर्गे समयाते आत्मरक्षार्थ हिंसानृतादिः क्वचित्स्यादित्यत्राह- पुण्यमित्यादि । कृतपुण्वं पुण्यवन्तं प्राणिनम् । अन्नदृशाऽफि
सैन्य व शस्त्रादिंसे रहित हो, अथवा दातोंमें तृणोंको धारण करके अपने पराजयको प्रकट कर रहा हो। इसके अतिरिक्त वे स्त्रियों और बालकोंका घात तो किसी भी अवस्थामें नहीं करते हैं। परंतु खेद है कि शिकारी जनका बह कार्य इससे सर्वथा विपरीत होता है-जहां वीर पुरुष उपयुक्त अवस्थाओंमेंसे किसी एक ही अवस्थाके होनेपर प्राणीका घात नहीं करते हैं. वहां शिकारोजन हिरणियोंमें उन सभी अवस्थाओं (कायरता, अरक्षितता, निरपराधता,शस्त्रादिहीनता, दन्तस्थतृणता और स्त्रीत्व) के रहनेपर. उनका निर्दयतासे घात करते हैं । ऐसी अवस्थामें वे अन्य सापराधा प्राणियोंका घात किये विना भला कैसे रह सकते हैं? अतएव उनका कार्य सर्वथा निन्दनीय तो है ही, साथमें वह उभय लोकोंमें उन्हे दुःख देनेवाला भी है ॥२९॥ हे भव्य जीव ! तूपरनिन्दा दीनता, छल-कपट, चोरी और असत्य भाषण आदि पापोंको छोडकर उनके प्रतिपक्षभूत सत्यसंभाषण एवं अचौर्य व्रतोंको-जो दोनों ही लोकमें हितकारक हैं-धारण कर । कारण कि ये सबके लिये धर्म, धान, कीर्ति और सुखके कारणभूत हैं ॥३०॥ हे भव्य जीव ! तू पुण्य कार्यको कर, क्योंकि पुण्यवान् प्राणीके ऊपर असाधारण भी उपद्र कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता है। इतना ही नहीं बल्कि वह