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पुण्यस्य सुखप्रदत्वम्
संतापयञ्जयदशेषमशीतरश्मिः पद्येषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम् ॥३१॥ नेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुखः सैनिकाः स्वयं दुर्धमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारणः ।
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अद्वितीयो । उपद्रवो नाभिभवति न अभिभयं कुर्यात् । स प्रभवेच्च संपद्यते च ॥ भूत्यै विभूतिनिमित्तम् । ननुपसर्गस्थापकारकत्वात्कथं विभूतिहेतुत्वम्, न हि विषं
तहेतुर्भवतीत्याशङ्क्याह संतापयन्नित्यादि । अयमर्गः यथा अशीतं रश्मेरादित्यस्व संतापो जगत्यपकारं कुर्वन्नपि पद्येषूपकारहेतुर्भवति तथा अपुण्यवति उपद्रवोऽपकाराय प्रवृत्तोऽपि पुण्यवति उपकारनिमित्तं भवतीति ॥ ३१॥ अथोच्यते पौरुषादेव शत्रूनभिभू उपसर्गस्य निवारयितुं शक्यत्वात् अलं पुण्येन इत्याशङ्क्याह- नेता यत्रेत्यादि । नेता मंत्री । सैनिकाः भृत्याः सेनायां समवेताः सैनिकाः सेवग्या वा" जैनेन्द्रस्, ३।३।१६६
उपद्रव भी उसके लिये सम्पत्त्विका साधन बन जाता है । देखो, समस्त संसारको संतप्त करनेवाला भी सूर्य कमलोंमें विकासरूप लक्ष्मीको ही करता है ॥ विशेषार्थ जिस प्रकार सूर्य दूसरों को संतापकारक भले ही हो, किन्तु वह कमलों को तो प्रफुल्लित ही करता है, उसी प्रकार जो उपद्रव अन्य पापी प्राणियोंके लिये कष्टदायक होता है वही पुण्यात्मा
rain लिये सुखका साधन बन जाता है । देखो, अग्नि प्राणघातक है यह सब ही अनुभव करते हैं, परन्तु वह प्रज्वलित भयानक अग्नि भी सीता महासती के लिये जलरूप परिणत हो गई थी । यह सब उस पुण्येका ही प्रभाव है । इसीलिये सुखकी अभिलाषा करनेवाले मव्य जीवोंके लिये पाप कार्योंको छोड़कर सदा पुण्य कार्योंमें प्रवृत्त होना चाहिये ॥३१॥ जिसका मंत्री बृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग (किला) स्वर्ग था, हाथी ऐरावण था, तथा जिसके ऊपर विष्णुका अनुग्रह (सहायता) भा; इसप्रकार अद्भुत बलसे संयुक्त भी वह इन्द्र युद्ध में दैत्यों (अथवा रावण आदि) द्वारा पराजित हुआ है । इसीलिये यह स्पष्ट है कि निश्चयसे दैव (भाग्य) ही प्राणीका रक्षक है । पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसके लिये वारंवार धिक्कार हो । विशेषार्थ इससे पूर्वके श्लोकमें पुण्यको