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आत्मानुशासनम् ...... श्लो० ३२इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलभिग्नः परः सङ्गरे
तद्वयक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्या पौरुषम् ॥ ३२॥ इति इकग् । अनुग्रहः सहायत्वं वरो वा। हरेविष्णोः । वारणः हस्ती। इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि एवंविधः सातिशयबलयुक्तोऽपि । बलमिदिन्द्रः । भग्नः पराजितः परैः। कैः। रावगादिशत्रुभिः। सङ्ग्रे सग्रामे। तद् व्यक्त सर्वप्रसिद्धमेतत् । अथवा ततस्मात् व्यक्तं स्फुटम् । ननु अहो पौरुषवादिन् । तथापि दैवमेव शरणम् । धिक् धिक् अतिशयेन निन्द्यं पौरुषम् । अतो देवरहितं वृथा विफलं पौरुषम् । ३२ ॥ ननु हिंसादिविरतिप्रभवस्य अदृष्टस्य इदानीम् प्रधान बतलाकर उसको उपजित करनेकी प्रेरणा की गई है । इसपर शंका उपस्थित हो सकती थी कि शत्रु आदिके द्वारा जो उपद्रव आरम्भ किया जाता है उसे पुरुषार्थके बलपर ही नष्ट किया जा सकता है, न कि दैवके ऊपर निर्भर रहते हुए अकर्मण्य बनकर । इसलिये अनुभवसिद्ध पुरुषार्थको छोडकर अदृष्ट दैवके ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। इस आशंकाको ध्यानमें रखकर यहां इन्द्रका उदाहरण देते हुए यह बतलाया है कि देखो जो इन्द्र बृहस्पति आदिरूप असाधारण साधन सामग्रीसे सम्पन्न था वह भी मनुष्य कहे जानेवाले रावण आदिके द्वारा पराजित किया गया है (प. च. पर्व १२) । यदि पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धका कारण होता तो वह देवोंका अधीश्वर कहा जानेवाला इन्द्र रावण आदि पुरुर्षोके द्वारा कभी पराजित नहीं हो सकता था, क्योंकि, उसका पुरुषार्थ असाधारण था । परन्तु वह पराजित अवश्य हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि देवके आगे पुरुषार्थ कुछ कार्यकारी नहीं है। यह उन लोगोंको लक्ष्य करके कथन किया गया है जो सर्वथा देवकी उपेक्षा करके केवल पुरुषार्थक बलपर ही कार्यसिद्धि करना चाहते हैं । वास्तवमें यदि विचार किया जाय तो सर्वथा पुरुषार्थके द्वारा कार्यको सम्भावना नहीं दिखती । कारण कि हम देखते हैं कि समानरूपसे पुरुषार्थ करनेवाले अनेक व्यक्तियोंमें कुछ यदि सफलताको प्राप्त करते हैं तो कुछ विफलताको भी। एक ही कक्षामें अध्ययन करनेवाले विद्यार्थियोंमें कुछ तो गुरुके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वको शीघ्रतासे ही ग्रहण करते हैं, कुछ उसे धीरे धीरे