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आत्मानुशासनम् [श्लो० १७६ - शास्त्राग्नौ मणिवद्भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः। अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ॥ १७६ ॥
स्यादित्याह- शास्त्रेत्यादि । शास्त्रमेव अग्निः यथावद्वस्तुस्वरूपप्रकाशकत्वात् संसाराटवीदाहहेतुत्वाच्च । मणिवत् पुष्परागादिरत्नवत् । विशुद्धो निर्मलो। भाति शोभते । निर्वृतः सुखीभूतो मुक्तो वा सन् । खल: अभव्य: । दीप्त: शास्त्राग्निना प्रकाशमानः । मली मिथ्याज्ञानेन मलिनः । उभयत्र वा-शब्द: परस्परसमुच्चये । भस्म दर्शनमोहोदये(न) अनन्तानुबन्धि क्रोधाद्युदयेन च भस्म वा भवेत् पदार्थप्रकाशशून्यो भवेदित्यर्थः ॥ १७६ ॥ ध्यानसामग्री दर्शयन्नाह-- मुहुरित्यादि । मुहुः प्रसार्य पुन: विस्तीर्य। प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । अध्यात्मवित्
शास्त्ररूप अग्निमें प्रविष्ट हुआ भव्य जीव तो मणिके समान विशुद्ध होकर मुक्तिको प्राप्त करता हुआ शोभायमान होता है। किन्तु दुष्ट जीव (अभव्य) उस शास्त्ररूप अग्निमें प्रदीप्त होकर मलिन व भस्मस्वरूप हो जाता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार पद्मरागादि मणिको अग्निमें रखनेपर वह मलसे रहित होकर अतिशय निर्मल हो जाता है और सदा वैसा ही रहता है उसी प्रकार श्रुतभावनाका विचार करनेपर भव्य जीव भी राग-द्वेषादिरूप मलसे रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है और सदा उसी अवस्थामें प्रकाशमान रहता है। इसके विपरीत जिस प्रकार अग्निके मध्यमें स्थित अंगार यद्यपि उस समय अतिशय दैदीप्यमान होता हैं तो भी पीछे वह मलिन कोयला अथवा भस्म बन जाता है उसी प्रकार उक्त श्रुतभावनाके विवारसे अभव्य जीव भी यद्यपि उस समय ज्ञानादिके प्रभावसे प्रकाशमान होता है तो भी वह मिथ्याज्ञानसे पदार्थोंको जान करके मलिन तथा मिथ्यादर्शन व अनन्तानुबन्धीके प्रभावमें उनमें राग-द्वेषबुद्धिको प्राप्त होकर भस्मके समान पदार्थज्ञानसे रहित हो जाता है । यहां शास्त्रमें जो अग्निका आरोप किया गया है वह इसलिये किया गया है कि जिस प्रकार अग्नि वस्तुको प्रकाशित करती है और इन्धनको जलाती भी है उसी प्रकार शास्त्र भी वस्तुस्वरूपको
1प विस्तार्य ।