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-२०५] आमये निष्प्रतीकारे शरीरं त्यजनीयम् १९३
अपि रोगादिभिवृद्धर्न यतिः1 खेदमृच्छति । उडुपस्थस्य कः क्षोभः प्रवृद्धेऽपि नदीजले ॥२०४॥ जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा मो चेतनुं त्यजतु वा द्वितयी गतिः स्यात् । लग्नाग्निमावसति वन्हिममोह्य गेहं
निर्याय2 वा व्रजति तत्र सुधी किमास्ते ॥ २०५॥ ननु अस्तु कायेऽशुचिविज्ञानम् उचितम्, तथा प्रबलरोगाद्युदयाचितविक्षेपो भविष्यतीत्याशक्य अपीत्यादिश्लोकद्वयमाह-- अपीत्यादि । वृद्धरपि महद्भिः अपि । उडुपस्थस्य नावि स्थितस्य ज्ञानस्थस्य च ।। २०४ ॥ जातामय इत्यादि । जात: उत्पन्न: आमयो व्याधिः यस्य । प्रतिविधाय औषधादिना रोगप्रतीकारं कृत्वा । नो चेत् औषधादिना रोगाप्रतीकारे । २०५॥ प्रेक्षावतामुद्वेगः द्वारा खेदको नहीं प्राप्त होता है। ठीक है- नावमें स्थित प्राणीको नदीके जलमें अधिक वृद्धि होनेपर भी कौन-सा भय होता है ? अर्थात् उसे किसी प्रकारका भी भय नहीं होता है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार स्थिर नावमें बैठे हुए मनुष्यको नदीमें जलके बढ जानेपर भी किसी प्रकारका खेद नहीं होता है। कारण कि वह यह समझता है कि नदीके जलमें वृद्धि होनेपर भी मैं इस नावके सहारेसे उसके पार जा पहुँचूंगा । ठीक उसी प्रकारसे जिसको शरीरका स्वभाव ज्ञात हो चुका है कि वह अपवित्र, रोगादिका घर तथा नश्वर है; वह विवेकी साध उक्त शरीरके कठिन रोगसे व्याप्त हो जानेपर भी किसी प्रकारसे खेदको नहीं प्राप्त होता है ॥ २०४ ॥ रोगके उत्पन्न होनेपर उसका औषधादिके द्वारा प्रतीकार करके उस शरीरमें स्थित रहना चाहिये । परन्तु यदि रोग असाध्य हो और उसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता हो तो फिर उस शरीरको छोड देना चाहिये, यह दूसरी अवस्था है। जैसे- यदि घर अग्निसे व्याप्त हो चुका है तो यथासम्भव उस अग्निको बुझाकर प्राणी उसी घरमें रहता है। परन्तु यदि वह अग्नि नहीं बुझाई जा सकती है तो फिर उसमें रहनेवाला प्राणी उस घरसे निकलकर चला जाता है। क्या कोई
1 म मुनिः। 2 मु निर्हाय। भा. १३