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आत्मानुशासनम्
[श्लो० २०६ -
शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः । शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥ २०६॥ यावदस्ति प्रतीकारस्तावत्कुर्यात्प्रतिक्रियाम् । तथाप्यनुपशान्तानामनुद्वेगः प्रतिक्रिया ॥२०७॥
कर्तुमनुचित इत्याह-- ॥२०६ ।। तदेवाह-- यावदित्यादि । अनुपशान्तानां व्याधीनाम् । अनुद्वेगः शरीरे उदासीनता ।।२०७॥ कुतस्तत्रोदासीनता
बुद्धिमान् प्राणी उस जलते हुए घरमें रहता है ? अर्थात् नहीं रहता है ॥२०५॥ शिरके ऊपर स्थित भारको उतारकर और उसे प्रयत्नपूर्वक कन्धेके ऊपर करके अज्ञानी प्राणी उस शरीरस्थ भारसे सुखकी कल्पना करता है ॥ विशेषार्थ-- जिस प्रकार कोई मनुष्य शिरके ऊपर रखे हुए बोझसे पीडित होता हुआ उसे प्रयत्नपूर्वक शिरसे उतारकर कन्धेके ऊपर रखता है और उस अवस्थामें अपनेको सुखी मानता है । परन्तु वह अज्ञानी प्राणी यह नहीं सोचता कि वह बोझा तो अभी भी शरीरके ही ऊपर स्थित है। भेद इतना ही हुआ है कि उसे शिरसे उतारकर कन्धेपर रख लिया है और ऐसा करनेसे उसके कष्टमें कुछ थोडी-सी कमी अवश्य हुई है । परन्तु वास्तवमें इससे उसे सुखका लेश भी नहीं प्राप्त हुआ है। ठीक इसी प्रकारसे यह अविवेकी प्राणो भी शरीरमें उत्पन्न हुए रोगको यथायोग्य औषधि आदिसे नष्ट करके अपनेको सुखी मानता है। परन्तु वह यह नहीं विचार करता कि रोगोंका घर जो शरीर है उसका संयोग तो अभी भी बना है, ऐसी अवस्थामें सुख भला कैसे प्राप्त हो सकता है ? सच्चा सुख तो तब ही प्राप्त हो सकेगा जब कि उसका शरीरके साथ सदाके लिये सम्बन्ध छूट जायगा । उसकी उपर्युक्त सुखकी कल्पना तो ऐसी है जैसे कि शिरसे बोझको उतारकर उसे कन्धेके ऊपर रखनेवाला मनुष्य सुख की कल्पना करता है ।। २०६ ।। जबतक रोगोंका प्रतीकार हो सकता है तबतक उसे करना चाहिये। परन्तु फिर भी यदि वे नष्ट नहीं होते हैं तो इससे खेदको प्राप्त नहीं होना चाहिये । यही वास्तवमें उन रोगोंका प्रतीकार है ॥ २०७।।