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वस्तुनो ध्रौव्योत्पादव्ययात्मकत्वसिद्धिः
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अबाधितेत्यादि । अबाधिती च तो अन्यतत्प्रत्ययौ च भेदाभेदप्रत्ययौ तयोः अन्यथानुपपत्तितः । उक्तं च-- " भेदज्ञानात् प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि । अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित् ॥" ॥१७२।। ननु ध्रौव्यादित्रितयात्मकत्वं वस्तुनोऽनुपपन्नम् सर्वथानित्यायेकक
समय रहती हैं। कारण यह कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है, अतएव जहां विशेषरूपसे वस्तु (घट) का उत्पाद होता है वहीं उसका (मृत्पिण्डका) नाश भी होता है। परन्तु सामान्य (पौद्गलिकत्व) स्वरूपसे न वस्तुका उत्पाद होता है और न नाश भी- वह सामान्य (पुद्गल) स्वरूपसे दोनों (घट और मृत्पिड) ही अवस्थाओंमें विद्यमान रहती है । इस बातका समर्थन स्वामी समन्तभद्राचार्यने निम्न दृष्टान्तके द्वारा किया है- घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ अर्थात् किसी सुनारने सुवर्णके घटको तोडकर उससे मुकुटको बनाया। इसको देखकर जो व्यक्ति घटको चाहता था वह तो पश्चात्ताप करता है, जो मुकुटको चाहता था वह हर्षित होता है, और जो सुवर्ण मात्रको चाहता था वह हर्ष-विषाद दोनोंसे रहित होकर मध्यस्थ ही रहता है ॥ आ. मी. ५९. इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक् समयमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप है । ऐसा माननेपर ही उसके विषयमें होनेवाली भेदबुद्धि और अभेदबुद्धि संगत होती है, अन्यथा वह घटित नहीं हो सकती है; और वैसी बुद्धि होती अवश्य है। तभी तो भेदबुद्धिके कारण घटको टूटा हुआ देखकर उसका अभिलाषी दुखी और मुकुटका अभिलाषी हर्षित होता है। किन्तु उन दोनों ही अवस्थाओंमें अभेदबुद्धिके रहनेसे सुवर्णका अभिलाषी न दुखी होता है और न हर्षित भी। इसलिये प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है; ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ १७२॥ जीव-अजीव आदि
प नित्यायेक।