________________
१६२
[ श्लो० १७२
आत्मानुशासनम्
एकमेकक्षणे सिद्धं प्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकम् । अबाधितान्यतत्प्रत्ययान्यथानुपपत्तितः ॥ १७२ ॥
भविष्यतीत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह-- एकमित्यादि । एकं जीवादि वस्तु । एकक्षणे एकस्मिन् समये । ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकं सिद्धम् - सिद्धं निर्णीतं धौव्यात्मकं द्रव्यापेक्षया, उत्पाद-व्ययात्मकं पर्यायापेक्षया । कुतस्तदात्मकं तत्सिद्धम् इत्याह
नित्य माना जाता है उसी द्रव्यकी अपेक्षा यदि कोई उसे अनित्य समझले तो उसके समझने में अवश्य ही विरोध रहेगा । परन्तु एक ही वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य माननेमें किसी प्रकार के भी विरोधकी सम्भावना नहीं रहती। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुको अपेक्षाभेदसे सत् और असत्, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न आदि स्वरूपों के माननेमें किसी प्रकारका विरोध नहीं होता; बल्कि इसके विपरीत उसे दुराग्रहवश एक ही स्वरूप माननेमें अवश्य विरोध होता है । इस प्रकार साधुको श्रुतके चिन्तन में- वस्तुस्वरूप के विचार में - अपने मनको लगाना चाहिये। ऐसा करनेस वह साथ निठल्ले 'मनके द्वारा उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषमय प्रवृत्तिसे अवश्य ही रहित होगा ।। १७१ ।। एक ही वस्तु विवक्षित एक ही समय में ध्रौव्य, उत्पाद और नाशस्वरूप सिद्ध है; क्योंकि इसके बिना उक्त बस्तुमें जो भेद और अदरूप निर्बाध ज्ञान होता है वह घटित नहीं हो सकता है ॥ विशेषार्थबाह्य और आभ्यन्तर निमित्तको पाकर जीव और अजीव द्रव्य अपनी जातिको न छोडते हुए जो अवस्थान्तरको प्राप्त होते हैं, इसका नाम उत्पाद है- जैसे अपनी पुद्गल जातिको न छोडकर मिट्टीकै पिण्डक घट पर्यायको `प्राप्त करना । उक्त दोनों ही कारणोंसे द्रव्यकी जो पूर्व अवस्थाका नाश होता है इसे व्यय ( नाश) कहा जाता है - जैसे उस घटकी उत्पत्ति में उसी मिट्टी के पिण्डकी पिण्डरूप पूर्व पर्यायका नाश । अनादि पारिणामिक स्वभावसे वस्तुका उत्पाद और नाशसे रहित होकर स्थिर रहनेका नाम धौव्य है । ये तीनों ही अवस्थायें प्रत्येक वस्तुमें प्रति