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-१७१] मनोनियन्त्रणार्थ तत्त्वं विचारणीयम्
तदेव तदतद्रूपं प्राप्नुवन्न विरंस्यति ।
इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित् सदा ॥ १७१॥ श्रुतस्कन्धे मनो रमयन् इत्थं तत्त्वं भावयेत् इत्याह-- तदेवेत्यादि । तदेव जीवादिलक्षणं वस्तु । तदतद्रूपं नित्यानित्यरूपं सदसदादिरूपं वा । प्राप्नुवन् न विरंस्यति सावधि न भविष्यति न2 विनश्यति वा। इति एवं । विश्वं जीवादिवस्तुप्रपञ्च:3 । अनाद्यन्तम् आद्यन्तविहीनम् ।। १७१ ॥ म्रान्तमिदं ज्ञानं आगममें वर्णित जीवजीवादि पदार्थों से प्रत्येक विवक्षाभेदसे भिन्न भिन्न स्वरूपवाला है । जैसे- एक ही आत्मा जहां द्रव्यकी प्रधानतासे नित्य है वहां वह पर्यायकी प्रधानतासे अनित्य भी है। कारण यह कि आत्माका जो चैतन्य द्रव्य है उसका कभी नाश सम्भव नहीं है, वह उसकी समस्त पर्यायमें विद्यमान रहता है। जैसे-सुवर्णसे उत्तरोत्तर उत्पन्न होनेवाली कडा, कुण्डल एवं सांकल आदि पर्यायोंमे सुवर्णसामान्य विद्यमान रहता है। अतएव वह द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे नित्य कहा जाता है। परन्तु वही चूंकि पर्यायकी अपेक्षा अनेक अवस्थाओंमें भी परिणत होता है- एक रूप नहीं रहता, इसीलिये पर्यार्थिक नयको अपेक्षा उक्त आत्माको अनित्य भी कहा जाता है । लोकव्यवहारमें भी कहा जाता है कि अमुक मनुष्य मर गया है, अमुकके यहां पुत्रजन्म हुआ है, आदि । यद्यपि नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों ही धर्म परस्पर विरुद्ध अवश्य दिखते हैं तो भी विवक्षाभेदसे उनके मानने में कोई विरोध नहीं आता । जैसे- एक ही देवदत्त नामका व्यक्ति अपने पुत्रकी अपेक्षा जिस प्रकार पिता कहा जाता है उसी प्रकार वह अपने पिताको अपेक्षा पुत्र भी कहा जाता है। इस प्रकारका व्यवहार लोकमें स्पष्टतया देखा जाता है, इसमें किसीको भी विरोध प्रतीत नहीं होता। परन्तु हां, यदि कोई जिस पुत्रकी अपेक्षा किसोको पिता कहता है उसी पुत्रकी ही अपेक्षासे यदि उसे पुत्र भी कहता है तो उसका वैसा कहना निश्चित ही विरुद्ध होगा और इसीलिये वह निन्दाका पात्र होगा ही। इसी प्रकार जिस द्रव्यको अपेक्षा वस्तुको
1 प तदतद्रूपं नित्यानित्यस्वरूपं वा । 2 प 'न' इत्येतन्नास्ति । 3 प प्रपंचं । आ. ११