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[श्लो० १७३
आत्मानुशासनम् न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमानं नाभावमप्रतिहतप्रतिभासरोधात् ।
रूपत्वात्तस्येत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह-- नेत्यादि । न स्थास्नु न सर्वथा नित्यकरूपं सांख्यादिकल्पितं जीवादितत्त्वम् । न क्षणविनाशि न सर्वथा क्षणिकरूपं बौद्धकल्पितम् । न बोधमात्रं ज्ञानाद्वैतवादिकल्पितम् । नाभावं न अभावमात्रं सकलशून्यवादिकल्पितं तत्त्वम् । कुतः ।
कोई भी वस्तु न सर्वथा स्थिर रहनेवाली (नित्य) है, न क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाली (अनित्य) है, न ज्ञानमात्र है, और न आत्मस्वरूप ही है; क्योंकि वैसा निर्बाध प्रतिभास नहीं होता है। जैसा कि निर्बाध प्रतिभास होता है, तदनुसार वह वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाले तदतत्. स्वरूप अर्थात् नित्य-अनित्यादिस्वरूपसे संयुक्त व अनादिनिधन है । जिस प्रकार एक तत्त्वं नित्यानित्य, एक-अनेक एवं भेदाभेद स्वरूपवाला है उसी प्रकार समस्त तत्त्वोंका भी स्वरूप समझना चाहिये ॥ विशेषार्थ---- (१) सांख्य दर्शनमें वस्तुको सर्वथा नित्य स्वीकार किया गया है। उसका निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया है कि वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है। यदि वस्तु सर्वथा नित्य ही होती तो वह सदा एक स्वरूपमें ही देखनेमें आना चाहिये थी, परन्तु ऐसा है नहींसमयानुसार वह परिवर्तित रूपमें ही देखी जाती है । जो पूर्वमें दूध था वह कारण पाकर दहीके रूपमें परिणत देखा जाता है तथा जो पूर्वमें बालक था वह समयानुसार कुमार, युवा एवं वृद्ध भी देखा जाता है । यह अनुभूयमान परिवर्तन कूटस्थ नित्य अवस्थामें सम्भव नहीं है । वैसी अवस्थामें तो जो वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार जितने प्रमाणमें हैं उतने ही प्रमाणमें सदा उपलब्ध होनी चाहिये, सो वैसा है नहीं । अतएव वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है । (२) बौद्ध प्रत्येक वस्तुको क्षणनश्वर स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि वस्तु प्रत्येक क्षणमें भिन्न ही होती है, पूर्व पर्यायसे उत्तर पर्यायका कुछ भी