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वस्तुनः सर्वथानित्यानित्यत्वादिनिषेधः
तत्त्वं प्रतिक्षणभवत्त्वदतत्स्वरूपमाद्यन्तहीनमखिलं च तथा यकम् ॥१७३
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अप्रतिहतप्रतिभासरोधात् अबाध्यमानप्रतिभासाभावात् । यदि ईदृशं तन्न भवति हि कीदृशं तदित्याह --- तस्वं जीवादि क्स्तु । प्रतिक्षणं प्रतिसमय भवन्ति जायमानानि तत्स्वरूपाणि नित्यानित्यादिस्वरूपाणि ) यस्य 1
सम्बन्ध नहीं है । बौद्ध दर्शन में पूर्वोत्तर पर्यायोंमें अभ्वयस्वरूप से प्रतिभासमान सामान्यको वस्तुभूत नहीं स्वीकार किया गया है, किन्तु वहां स्वलक्षणस्वरूप विशेषको ही वस्तुभूत माना गया है । इसे बौद्धाभिप्रायको असंगत बतलाते हुए यहां यह निर्देश किया है कि तत्त्व सर्वयो क्षणनश्वर भी नहीं है, क्योंकि उक्त वस्तु जैसे सर्वया नित्य प्रतिभासितं नहीं होती है वैसे ही वह सर्वथा (पुद्गलस्वरूप से भी ) भिन्न ही हों तो विना दुधके भी दहीकी उत्पत्ति होनी चाहिये थी । परन्तु ऐसा नहीं है, जो पूर्व में किसी न किसी स्वरूपसे सत् है वही उत्तर काल में दूसरी पर्यायस्वरूपसे परिणत होता है । यदि पूर्वोतर पर्यायोंको सर्वथा भिन्न ही माना जायगा तो मिट्टी से ही घढकी उत्पत्ति हो और तन्तुओंसे ही पटकी उत्पत्ति हो, ऐसा कुछ भी उपादानका नियम नहीं रह सकेगा - वैसी अवस्था में तो कोई भी वस्तु किसी भी उपादान से उत्पन्न हो सकेगी 1 परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, भिन्न भिन्न कार्योंकी उत्पत्तिके लिये बुद्धिमान् मनुष्य भिन्न भिन्न कारणों ( उपादन) का ही अन्वेषण करते देखे जाते हैं - बालुसे तेल निकालनेका प्रयत्न कोई भी बुद्धिमान् नहीं करता है । इसके अतिरिक्त बस्तुको सर्वथा अनित्य माननेपर ' यह वही देवदत्तं है जिसे कि दस वर्ष पूर्व में देखा था ' ऐसा अनुभवसिद्ध प्रत्यभिज्ञान भी
1 जसं यथा तथैकं ।