________________
१६६
आत्मानुशासनम्
[श्लो० १७३
कृतस्तदित्थंभूतं सिद्धमित्याह-- अप्रतिहतप्रतिभासरोधात् अबाध्यमानानुभव - स्वीकारात् । किं कदाचित्ततादृशमित्याह-- आद्यन्तहीनम् । अनाद्यन्तरूपतया जीवादिरूपं तादृशम् । अस्तु नाम एकं किंचित्तत्त्वं 2 न तु सर्वमित्याह --
नहीं हो सकेगा । परन्तु वह होता अवश्य है अतएव वस्तु जिस प्रकार सर्वथा नित्य नहीं है उसी प्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं है । किन्तु द्रव्य ( सामान्य ) की अपेक्षासे वह कथंचित् नित्य और पर्याय (विशेष) की अपेक्षासे कथंचित् अनित्य भी है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । कारण कि ऐसी ही निर्बाध प्रतीति भी होती हैं । ( ३ ) विद्वानाद्वैतवादी एक मात्र विज्ञानको ही स्वीकार करते हैं - विज्ञान को छोड़कर अन्य कोई. पदार्थ उनके यहां वस्तुभूत नहीं माने गये हैं । उनका अभिप्राय है कि घटपटादि जो भी पदार्थ देखने में आते हैं वे काल्पनिक हैं - अवस्तुभूत हैं । इस कल्पनाका कारण बनादि अविद्यावासना है । उनके इस अभिप्रायका निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया है कि वस्तुतत्त्व केवल ज्ञानमात्र ही नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नहीं होती है । इसके अतिरिक्त एक मात्र विज्ञानको ही वस्तुभूत स्वीकार करनेपर कारक और क्रिया आदिका जो भेद देखा जाता है वह विरोधको प्राप्त होगा। जो भी उत्पन्न होते हुए कार्य देखे जाते हैं, कोई भी कार्य अपने आपसे नहीं उत्पन्न हो सकता है । दूसरे, जिस अविद्याकी वासनासे अनुभूयमान पदार्थोंको अवस्तुभूत माना जाता है वह अविद्या भी यदि अवस्तुभूत है तब तो उसके निमित्तसे उक्त पदार्थोंको अवस्तुभूत नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, अवस्तुभूत गधेके सींग किसीको कष्ट देते हुए नहीं देखे जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त अद्वैतको कल्पनामें पुण्य - पाप, सुख-दुःख, लोक-परलोक, विद्या अविद्या और बन्ध - मोक्ष आदिकी व्यवस्था न बन सकनेसे समस्त लोकव्यवहार ही समाप्त हो जाता है । अतएव विज्ञानाद्वैतके समान [ पुरुषाद्वैत,
1 ज स नित्यानित्यादिस्वरूपाणि ' इति नास्ति । 2 प नामैकं चित्तत्त्वम् ।