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वस्तुनः
सर्वेथानित्यानित्यत्वादिनिषेधः
ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावमेज्ज्ञानभावनाम् ॥१७४॥
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अखिलं च यथा एकं जीवादितत्त्वं श्रीव्योत्पादव्ययात्मकं तथा अखिलें च अखिलमपि ॥ १७३ ।। यद्येवंविधं सर्व वस्तु साधारण स्वरूपं तदात्मनः कीदृशम साधारणं स्वरूपं यद्भाव्यमानें तस्य मुक्ति
चित्राद्वैत एवं शब्दाद्वैत आदि कोई भी अद्वैत युक्तिसंगत नहीं है; ऐसा समझना चाहिये । (४) माध्यमिक (शून्यैकान्तवादी ) चराचर जगत्को शून्य या अभावस्वरूप मानते हैं । उनका कहना है कि जिस प्रकार स्वप्न में विविध प्रकारकी वस्तुएँ एवं कार्य आदि देखने में आते हैं, किन्तु निद्राभंग होते ही वे सब विलीन हो जाते हैं - अवस्तुभूत प्रतिभासित होने लगते हैं, उसी प्रकार घटपटादिस्वरूपसे प्रतिभासित होनेवाले समस्त ही पदार्थ स्वप्न में देखे हुए पदार्थों के ही समान अवस्तुभूत हैं । उनका वैसा प्रतिभास अज्ञानतासे होता है । इस मतका खण्डन करते हुए यहां यह कहा है कि तत्त्व अभावस्वरूप भी नहीं है, क्योंकि वैसी निर्बाध प्रतीति नही होती है । किंतु वह प्रतीति उसके विपरीत ही होती है - प्रत्यक्ष में देखे जानेवाले समस्त पदार्थ और उनके निमित्तसे होनेवाला सारा लोकब्यवहार यथार्थ ही प्रतीत होता है, न कि स्वप्न के समान अयथार्थ । यदि जगत्को सर्वथा शून्य ही माना जावे तो फिर शून्यैकान्तवादी न तो अपनेही अस्तित्वको सिद्ध कर सकेंगे और न अन्य श्रोताओं के भी । ऐसी अवस्थामें जगत्की उस शून्यताको कौन और किसके प्रति सिद्ध करेगा, यह सब ही सोचनीय हो जाता है । इस प्रकार मुक्तिसे विचार करनेपर तत्त्वको सर्वथा आभावस्वरूप स्वीकार करना भी उचित नहीं प्रतीत होता । तत्त्वकी यथार्थ व्यवस्था तो अनेकान्त के आश्रय से विवक्षा भेदके अनुसार- ही हो सकती है, न कि सर्वथा एकान्तस्वरूपसे ॥१७३॥ आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है और उस अनंतज्ञानादि स्वभावकी जो प्राप्ति है, यही उस आत्माकी अच्युति अर्थात् मुक्ति है । इसलिये मुक्तिकी