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आत्मानुशासनम्
चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहु संस्थ यत्त्राव्रजन्ननु तदेव स तेन मुञ्चेत्' । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हति महतीं करोति ॥ २१७॥
[ श्लो० २१६
मानोदयेऽपकारं दर्शयन्नाह - - (चक्रं) विहायेत्यादि । विहान त्यक्त्वा । स तेन स बाहुबली, तेन प्रव्रजनेन तपसा वा । मुञ्चेत् मुक्तो भवेत् । चिराय
कार्य की हानि होती है ॥ विशेषार्थ - जब महादेव तपस्या कर रहे थे तब उनको प्रसन्न करनेके लिये पार्वती कामदेवके साथ वहां पहुंची और नृत्यादिके द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करने लगी, इधर कामदेवने भी वसन्त ऋतुका निर्माण कर उनके ऊपर पुष्पबाणों को छोडना प्रारम्भ कर दिया । इससे क्रोधित होकर महादेवने तीसरे नेत्र से अग्निको प्रगट कर उक्त कामदेवको भस्म ही कर दिया । ऐसी कथा महाकवि कालिदासकृत कुमारसम्भव आदिमें प्रसिद्ध है । इसी कथाको लक्ष्य रखकर यहां बतलाया है कि महादेवने जिस कामदेवको क्रोध के वश होकर भस्म किया था वह तो वास्तवमें कामदेव नहीं था, सच्चा कामदेव तो उनके हृदय में स्थित था जिसे उन्होंने जाना ही नहीं । इसीलिये उस कामदेवने पीछे पार्वतीके साथ विवाह हो जानेपर उनकी वह दुरवस्था की थी । यह सब अनर्थ एक क्रोध के कारण हुआ । अतएव ऐसे अनर्थ कारी क्रोधका परित्याग ही करना चाहिये ॥ २१६ ॥ अपनी दाहिनी भुजाके ऊपर स्थित चक्रको छोडकर जिस समय बाहुबलीने दीक्षा ग्रहण की थी उसी समय उन्हें उस तपके द्वारा मुक्त हो जाना चाहिये था । परन्तु वे चिरकाल तक उस क्लेशको प्राप्त हुए । ठीक है - थोडा-सा भी मान बड़ी भारी हानिको करता है ।। विशेषार्थ भरत चक्रवर्ती जब भरत क्षेत्रके छहों खण्डोंको जीतकर वापिस अयोध्या आये तब उनका चक्ररत्न अयोध्या नगरीके मुख्य द्वारपर ही रुक गया वह उसके भीतर प्रविष्ट न हो सका । कारणका पता लगानेपर भरतको यह ज्ञात हुआ कि मेरा
1 मु (जै. नि.) मुक्तः ।