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मानात् कीदृशी हानिर्गवति
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बहुतरकालम् ॥ २१७॥ गुणमहत्त्वपरंपरां पश्यतां च विवेकिनां न मानो मनागपि छोटा भाई बाहुबली मेरी अधीनता स्वीकार नहीं करता है । एतदर्थ भरतने अपने दूतको भेजकर बाहुबलीको समझानेका प्रयत्न किया, किन्तु वह निष्फल हुआ- बाहुबलीने भरतकी अधीनता स्वीकार नहीं की । अन्तमें युद्ध में निरर्थक होनेवाले प्राणिसंहारसे डरकर उन दोनोंके बुद्धिमान् मंत्रियों द्वारा भरत और बाहुबलीके बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध ये जो तीन युद्ध निर्धारित किये गये थे, उन तीनों ही युद्धोंमें भरत तो पराजित हुए और बाहुबली विजयी हुए। इस अपमानके कारण क्रोधित होकर भरतने चक्ररत्नका स्मरण कर उसे बाहुबलीके ऊपर चला दिया । परन्तु वह उनका घात न करके उनके हाथमें आकर स्थित हो गया। इस घटनासे बाहुबलीको विरक्ति हुई । तब उन्होंने समस्त परिग्रहको छोडकर जिनदीक्षा धारण कर ली। उस समय उन्होंने एक वर्षका प्रतिमायोग धारण किया । तबतक वे भोजनादिका त्याग करके एक ही आसनसे स्थित होते हुए ध्यान करते रहे। इस प्रतिमायोगके समाप्त होनेपर भरत चक्रवर्तीने आकर उनकी पूजा की और तब उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। इसके पूर्व उनके हृदयमें कुछ थोडी-सी ऐसी चिन्ता रही कि मेरे द्वारा भरत चक्रवर्ती संक्लेशको प्राप्त हुआ है । इसीलिये सम्भवतः तबतक उन्हें केवलज्ञान नहीं प्राप्त हुआ और भरतचक्रवर्तीके द्वारा पूजित होनेपर वह केवलज्ञान उन्हें तत्काल प्राप्त हो गया (देखिए महापुराण पव ३६) । पउमचरिउ (५, १३, १९) के अनुसार ‘में भरतके क्षेत्र (भूमि) में स्थित हूं' ऐसी थोडी-सी कषायके विद्यमान रहनेसे तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई । बाहुबलीका हृदय मानकषायसे कलुषित रहा, ऐसा उल्लेख 'देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥' इस भावप्राभृतको गाथामें भी पाया जाता है। इस प्रकार देखिये कि थोडा-सा भी अभिमान कितनी भारी हानिको प्राप्त कराता है ।। २१७॥
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