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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० २१८
सत्यं वाचमतौ श्रुतं हृदि दया शौर्यं भुजे विक्रमे । लक्ष्मीर्दानमवूनर्मार्थनिचये मार्गो गतौ निर्वृतेः ३ । येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहंकाराः श्रुतेर्गोचराः चित्रं संप्रति लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ॥ २१८ ॥ कर्तुमुचित इति दर्शयन् सत्यमित्यादिश्लोकद्वयमाह -- अनूनं 4 परिपूर्णम् । अर्थिनिचये याचकसंघाते । मार्गः सम्यग्दर्शनादिः । गतौ गत्यर्थः । प्रागजनि एतत्सर्वं पूर्व संजातम् । चित्रम् आश्चर्यम् । तेषां प्रागुक्तानाम् । संबन्धिनो गुणाः उद्धता गर्विताः ।। २१८ ॥ वसतीत्यादि । अन्येर्धनवातादिभिः । साच भूः । ते च वायवः | अपरस्य आकाशस्य । तदपि आकाशमपि । पूर्व में यहां जिन महापुरुषोंके वचनमें सत्यता, बुद्धिमें आगम, हृदयमें दया, बाहुमें शूरवीरता, पराक्रममें लक्ष्मी, प्रार्थी जनों के समूहको परिपूर्ण दान तथा मुक्ति मार्ग में गमन; ये सब गुण रहे हैं वे भी अभिमान रहित थे; ऐसा आगम ( पुराणों) से जाना जाता है । परन्तु आश्चर्य है कि इस समय उपर्युक्त गुणोंका लेश मात्र भी न रहनेपर मनुष्य अतिशय गर्वको प्राप्त होते हैं ।। २१८ || जिस पृथिवी के ऊपर सब ही पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरोंके द्वारा - घनोदधि, घन और तनु वातवलयोंके द्वारा -- धारण की गई है। वह पृथिवी और वे तीनों ही वातवलय भी आकाशके मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञानके एक कोने में विलीन है । ऐसी अवस्था में यहां दूसरा अपने से अधिक गुणवालों के विषयमें कैसे गर्व धारण करता है ? ॥ विशेषार्थ -- व्यक्ति जिस विषय में अभिमान करता है उस विषय में उसका अभिमान तभी उचित कहा जा सकता है जब कि वह प्रकृत विषय में परिपूर्णताको प्राप्त हो । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि लोकमें प्रत्येक विषय में एक से दूसरा और दूसरे से तीसरा इस क्रमसे अधिकाधिक पाया जाता है । जैसेपृथिवी महाप्रमाणवाली है, उसमें जगत्की सब ही वस्तुएं समायी हुई हैं । परन्तु वह विशाल पृथिवी भी वातवलयोंके आश्रित है । उस
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1 मु (जै. नि.) विक्रमो । 2 ज मु (जै. नि.) मार्गे । 3मु (जै. नि. ) गतिर्निर्वृते । 4 ज अन्यूनं ।