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मानस्य अकरणीयत्वप्रदर्शनम्
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वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यः उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य । तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु ॥ २१९॥
वहति करोति धरति वा ।। २१९ ॥ मायाकषायादपकारं दर्शयन् यशो मारीचीय
पथिवी और उन वातवलयोंसे भी महान् आकाश है जो उन सबको भी अपने भीतर धारण करता है । तथा इस आकाशसे भी महान् प्रमाणवाला सर्वज्ञका ज्ञान है जो उस अनन्त आकाशको भी अपने विषय स्वरूपसे ग्रहण करता है। इस प्रकार सर्वत्र ही जब उत्कर्षको तरतमता पायी जाती है तब कोई भी किसी विषयमें पूर्णताका अभिमान नहीं कर सकता है । २१९॥ यह मरीचिकी कीर्ति सूवर्णमगके कपटसे मलिन की गई है, 'अश्वत्थामा हतः' इस वचनसे यधिष्ठिर स्नेही जनोंके बीचमें हीनताको प्राप्त हुए, तथा कृष्ण वामनावतारमें कपटपूर्ण बालकके वेषसे श्यामवर्ण हुए- अपयशरूप कालिमासे कलंकित हुए । ठीक है- थोडा-सा भी वह कपटव्यवहार महान् दूधमें मिले हुए विषके समान घातक होता है । विशेषार्थ-- मायाव्यवहारके कारण प्राणियोंको किस प्रकारका दुख सहना पडता है यह बतलाते हुए यहां मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्णके उदाहरण दिये गये हैं । इनमें इन्हीं गुणभद्राचार्यके द्वारा विरचित उत्तरपुराणमें (देखिए पर्व ६८) मरीचिका वह कथानक इस प्रकार पाया जाता है- अयोध्यापुरीमें महाराज दशरथ राजा राज्य करते थे। किसी समय अवसर पाकर रामचन्द्र और लक्ष्मणने प्रार्थना की कि वाराणसी पुरी पूर्वमें हमारे आधीन रही है । इस समय उसका कोई शासक नहीं है। अतएव यदि आप आज्ञा दे तो हम दोनों उसे वैभवसे परिपूर्ण कर दें। इस प्रकार उनके अतिशय आग्रहको देखकर दशरथ राजाने कष्टपूर्वक उन्हें वाराणसी जानेकी आज्ञा दे दी। वाराणसी जाते