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आत्मानुशासनम्__
यशो मारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः ।
[ श्लो० २२०
मित्यादिश्लोकत्रयमाह - यश इत्यादि । मरीचेरिदं मारीचीयम् । प्रणयिलघुः प्रणयिन ।
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समय दशरथने रामचन्द्रको राजपद और लक्ष्मणको युवराजपद प्रदान किया । वे दोनों वहां जाकर न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए उसके स्नेहभाजन बन गये । उधर लंकामें प्रतापी रावण राज्य कर रहा था । उसे तीन खण्डोंके अधिपति होनेका बडा अभिमान था । उसके पास एक दिन नारदजी जा पहुंचे। रावण द्वारा आगमनका कारण पूछनेपर वे बोले कि मैं आज वाराणसीसे आ रहा हूं। वहां दशरथ राजाका पुत्र रामचन्द्र राज्य करता है । उसे मिथिलाके स्वामी राजा जनकने यज्ञ के बहाने वहां बुलाकर अपनी रूपवती सौभाग्यशालिनी कन्या दी है । वह आपके योग्य थी। राजा जनकने आप जैसे तीन खण्डोंके अधिपतिके होते हुए भी रामचन्द्रको कन्या देकर आपका अपमान किया है। यह मुझे सहन नहीं हुआ । इसीलिये स्नेहवश इधर चला आया । यह सुनकर रावण कामसे संतप्त हो उठा । तब उसने अपने मारीच नामक मंत्रीको बुलाकर उससे कहा कि दशरथ राजाके पुत्र राम और लक्ष्मण बहुत अभिमानी हो गये हैं, वे मेरे पदको प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव उन दोनोंको मारकर रामचन्द्रकी पत्नी सीताके हरणका कोई उपाय सोचो । इसपर मारीचने रावणको बहुत कुछ समझाया। पर जब वह न माना तो सीताकी इच्छा जाननेके लिये उसके पास सूर्पणखाको भेजा गया । उस समय वसन्त ऋतुका समय होनेसे रामचन्द्र सीताके साथ चित्रकूट नामके उद्यान में जाकर क्रीडा कर रहे थे । वहां जब वह सूर्पणखा स्त्रीका रूप धारण कर सीताके पास पहुंची तब अन्य रानियां उसकी हंसी करने लगी । यह देखकर वह उनसे बोली कि आप सब बहुत सौभाग्यशालिनी