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-१२८] मोक्षमार्गे बाधका सामग्री
१२१ एतामुत्तमनायिकामभिजनावा जगत्प्रेयसी मुक्तिश्रीललनां गुणप्रणयिनीं गन्तुं तवेच्छा यदि । तां त्वं संस्कुर वर्जयान्यवनितावार्तामपि प्रस्फुट
तस्यामेव रति तनुष्व नितरां प्रायेण सेाः स्त्रियः ॥१२८॥ वर्जनीयाम् । जगत्प्रेयसीं लोकस्य अतिशयेन प्रियाम् । मुक्तिश्रीललनां मोक्षलक्ष्मीमहिलाम्2 । गुणप्रणयिनी 3 गुणेषु प्रणय: स्नेहः सोऽस्या अस्तीति । संस्कुरु रत्नत्रयाद्युपायेन संभूषय । तनुष्व विस्तारय ।। १२८ ॥ वचनेत्यादि । हैं उसे कामसे संतप्त करती हैं और जिसकी ओर वे न भी देखें, पर जो उनकी ओर देखता है उसे भी वे कामसे संतप्त करती हैं । इसके अतिरिक्त सर्पके विषसे मूछित हुए प्राणीके विषको दूर करनेवाली औषधियां भी उपलब्ध हैं, पर स्त्रीविषसे मूर्छित (कामासक्त) प्राणीको उससे मुक्त करानेवाली कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार जब स्त्रियां सर्पसे भी अधिक दुख देनेवाली हैं तब आत्महितैषियोंको उनकी ओरसे विरक्त ही रहना चाहिये ।। १२७ ॥ हे भव्य ! जो यह मुक्तिरूप सुन्दर महिला उत्तम नायिका है, कुलीन जनोंको ही प्राप्त हो सकती है, विश्वकी प्रियतमा है, तथा गणोंसे प्रेम करनेवाली है; उसको प्राप्त करनेकी यदि तेरी इच्छा है तो तू उसको संस्कृत कर- रत्नत्रयरूप अलंकारोंसे विभूषित कर- और दूसरी (लोक प्रसिद्ध) स्त्रीकी बात भी न कर । केवल तू उसके विषयमें ही अतिशय अनुराग कर; क्योंकि, स्त्रियां प्रायः ईर्ष्यालु होती हैं । विशेषार्थ-- एक ओर लोकप्रसिद्ध स्त्री है और दूसरी ओर मुक्तिरूपी अपूर्व स्त्री है। इनमें लोकप्रसिद्ध स्त्री जहां कुलीन एवं अकुलीन सब ही जनोंको प्राप्त हो सकती है वहां मुक्ति ललना केवल कुलीन जनको ही प्राप्त हो सकती हैवह नीच एवं दुराचारी जनोंको दुर्लभ है । लौकिक स्त्री केवल कामी जनोंको ही प्यारी होती है, परन्तु मुक्ति-कान्ता समस्त विश्वको ही प्यारी
। ज स सुतरां । 2 प मोहलक्ष्मीस्वीकरणीयां महिलां । 3 प 'गुणप्रणयिनी' इति नास्ति । 4 ज स सोऽस्यास्तीति ।