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आत्मानुशासनम्
(श्लो० १८०
रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोबंन्धः प्रवृत्त्यवृत्तिभ्याम्। तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ॥१८॥
रागेत्यादि । प्रवृत्त्यवृत्तिभ्यां प्रवृत्तिः स्त्र्यादौ व्रतग्रहणादौ वा रागेण,अप्रवृत्ति तक भोजनादौ च द्वेषेण । तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्याम् एव प्रवृत्त्यवृत्तिभ्यामेव । तत्कृता हि प्रवृत्ति: व्रतसमितिगृप्त्यादौ अप्रवृत्तिः पुनः अव्रतादौ ।।१८०॥ ननु बन्धो भवति
विशेषार्थ-जीव जबतक बाह्य पर पदार्थों में इष्ट और अनिष्टकी कल्पना करता है तबतक उसके जिस प्रकार इस पदार्थ के संयोगमें हर्ष और उसके वियोगमें विषाद होता है उसी प्रकार अनिष्ट पदार्थके संयोगम द्वेष और उसके क्यिोगमें हर्ष भी होता है। इस प्रकारसे जबतक उसकी इष्ट वस्तुके ग्रहणादिमें प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तुके विषयमें निवृत्ति होती है तबतक उसके कर्मोका बन्ध भी अवश्य होता है । इसके विपरीत जब कह तत्त्वज्ञानपूर्वक अनिष्ट हिंसा आदिके परिहार और इष्ट (तप-संयम आदि) के ग्रहण में प्रक्त होता है तब उसके नवीन कर्मोके बन्धका अभाव (संवर) और पूर्वसंचित कर्मोकी निर्जरा होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है । इसलिये यह ठीक ही कहा गया है कि 'रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते ।' अर्थात् रागी जीव तो कर्मको बांधता है और वीतराग उससे मुक्त होता है-निर्जरा करता है। इसी प्रकार पुरुषार्थसिद्धयुपाय (२१२-२१४) में भी रागको बन्धका कारण
और रत्नत्रयको बन्धाभावका कारण बतलाया गया है ॥ १८० ॥ गुणके निमित्तसे की गई द्वेषबुद्धि तथा दोषके निमित्तसे की गई अनुरागबुद्धि, इनसे पापका उपार्जन होता है। इसके विपरीत गुणके निमित्तने होनेवाली अनुरागबुद्धि और दोषके निमित्तसे होनेवाली द्वेषबुद्धिसे पुण्यका उपार्जन होता है । तथा उन दोनोंसे रहित-अनुराग
1जस प्रवृत्त्यप्रवृत्तिभ्यां ।