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पाप-पुण्ययोस्तन्मोक्षे च कारणम् १०५ द्वेषानुरागबुद्धिर्गुणदोषकृता करोति खलु पापम् ।
तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहितं तयोर्मोक्षम् ॥१८१॥ पापरूपः पुण्यरूपश्च, स च कुतो जायते कुतो वा तदुभयाभावः इत्याशझ्याह-- द्वेषेत्यादि । मुणे सम्यग्दर्शनादौ द्वेषबुद्धिः त्यामबुद्धिः कृता, मिथ्य'दर्शनादौ अनुरागबुद्धिः उपादानबुद्धिः कृता । तद्विपरीता गुणेऽनुरामबुद्धिः दोषे द्वेषवुद्धिः । तदुभयरहिता राग--द्वेषरहिता । तयोः पुण्यपापयोः । मोक्षम् आस्रवनिरोधं निर्जरां च ॥ १८१ ।। यदि राम--द्वेषयोः उक्तप्रकार-. बुद्धि और द्वेषबुद्धि के विना-उन दोनों (पाप-पुण्य) का मोक्ष अर्थात् संवरपूर्वक निर्जरा होती है ॥ विशेषार्थ--जीवकी प्रवृत्ति तीन प्रकारको होती है-अशुभ, शुभ और शुद्ध । इनमें अशुभ प्रवृत्ति व्रत-संयमादिसे द्वेष रखकर दुर्व्यसनादिमें अनुराग रखनेसे होती है और वह पापबंधनकी कारण होती है । इसके विपरीत शुभ प्रवृत्ति उन दुर्व्यसनादिको अनिष्ट समझकर व्रत-संयमादिमें अनुराग रखनेसे होती है और वह पुण्यबन्धको कारण होती है । इनके अतिरिक्त राग और द्वेष इन दोनोंसे ही रहित होकर जो आत्मध्यानरूप जीवकी प्रवृत्ति होती है वह है उसको शुद्ध प्रवृत्ति और वह उपर्युक्त पाप और पुण्य दोनों के ही नाशका कारण होती है । यह अन्तिम प्रवृत्ति (शुद्धोपयोग) ही जीवको उपादेय है । परंतु जबतक वह शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति सम्भव नहीं है तबतक जीवके लिये उस अशुभ प्रवृत्तिको छोडकर शुभप्रवृत्तिको अपनाना भी योग्य है । परंतु अशुभ प्रवृत्ति तो सर्वथा और सर्वदा हेय ही है। उदाहरणके रूपमें जैसे ब्रह्मचर्य सर्वदा और सर्वथा ही उपादेय है। परंतु जो उसका सर्वथा पालन नहीं कर सकता है उसके लिये यह भी अच्छा है कि किसी योग्य कन्याको सहधर्मिणीके रूपमें स्वीकार करके अन्य स्त्रियोंकी ओरसे विरक्त होता हुआ केवल उसीके साथ अनासक्तिपूर्वक विषयसु. खका अनुभव करे । इसके विपरीत स्वस्त्री और परस्त्री आदिका भेद न करके स्वेच्छाचारितासे आसक्तिके साथ विषयभोग करना, यह सर्वथा निन्द्य ही समझा जाता है-उसकी प्रशंसा कभी भी किसीके द्वारा नहीं की जाती है । यही भाव यहां अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगके भी विषयमें समझना चाहिये ३१८१॥ जिस प्रकार बीजसे जड और