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आत्मानुशासनम् [श्लो० १८२मोहबीजाद्रतिद्ववौ बीजान्मूलाङ्कुराविव । तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतो निर्दिधिक्षणा ॥१९॥ पुराण ग्रहदोषोत्यो गम्भीरः सगतिः सरुक ।
त्यागजात्यादिना मोहवणः शुद्धयति रोहति ॥१८॥ बन्धहेतुत्वं तदा कुतस्तयोः प्रादुर्भाव इत्याह-मोह इत्यादि । मोह एव बीजं कारणं तस्मात् । तत् मोहबीज। एतौ रति-द्वेषौ। निर्दिधिक्षुणा दग्धमिच्छना ।।१८२॥ स च अनयो/जभूतो मोहः कीदृशः किं च तद्विनाशे कारणमित्याह-पुराण इत्यादि। मोह एव व्रणो मोहवणः । कीदृश: । पुराण: अनादिकालीनो बहुकालीनश्च । ब्रहदोषोत्थ:-मोहपक्षे परिग्रहग्रहणलक्षणदोषादुत्थानं यस्य व्रणपक्षे तु ग्रहदोष, उत्था उत्थानं प्रादुर्भाको यस्य । गम्भीरः महान् । सगति: नरकादिगतियुक्तः, अन्यत्र नाडीयुक्तः । सरुक् पीडायुक्तः । त्यागः सर्वसंगपरित्यागः स एव जात्यादि घृतं तेन मोहवणः शुद्धयति रोहति, व्रणस्तु जात्यादिघृतेन ।। १८३॥ मोहव्रणं शोधयितुं चेच्छता विपन्नेष्वपि बन्धुषु शोको न अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोहरूप बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । इसलिये जो इन दोनों (राग-द्वेष) को जलाना चाहता है उसे ज्ञानरूप अग्निके द्वारा उस मोहरूप बोजको जला देना चाहिये । विशेषार्थ- जिस प्रकार वृक्षकी जड और अंकुरका कारण बीज है उसी प्रकार राग और द्वेषकी उत्पत्तिका कारण मोह (अविवेक) है अतएव जो वृक्षके अंकुर और जडको नहीं उत्पन्न होने देना चाहता है वह जिस प्रकार उक्त वृक्षके बीजको ही जला देता है। उसी प्रकार जो आत्महितैषी उन राग और द्वेषको नहीं उत्पन्न होने देना चाहता है उसे उनके कारण भूत उस मोहको ही सम्यग्ज्ञानरूप अग्निके द्वारा जलाकर नष्ट कर देना चाहिये । इस प्रकारसे वे राग-द्वेष फिर न उत्पन्न हो सकेंगे ॥१८२॥ मोह एक प्रकारका घाव है, क्योंकि वह घावके समान ही पीडाकारक है । जिस प्रकार पुराना (बहुत समयका), शनि आदि ग्रहके दोषसे उत्पन्न हुमा, गहरा, नससे सहित और पीडा देनेवाला घाव औषधयुक्त पी (मलहम) आदिसे शुद्ध होकर-- पीव आदिसे रहित होकर-- भर जाता है उसी प्रकार पुराना अर्थात् अनादिकालसे जीवके साथ रहने14 तस्माद् मोहबीज।