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इष्टवियोगे शोको न कर्तव्यः १७७ सुहृदः सुखयन्तः स्युर्दुःखयन्तो यदि द्विषः । सुहृदोऽपि कथं शोच्या द्विषो दुःखयितुं मृताः ॥ १८४॥
कर्तव्य इत्याह-- सुहृद इत्यादि । सुहृदः मित्राणि । सुखयन्तः सुखं कुर्वन्तः । दुःखयन्तः दुःखं कुर्वन्तः । द्विषः शत्रवः । द्विषो दुःखयितुं मृताः दु:खं कर्तु मृताः सन्तो द्विषः ॥ १८४ ।। सुहृदां मरणे चोत्पन्नदुःखो भवान् किं करोतीत्याह--
वाला, परिग्रहके ग्रहणरूप दोषसे उत्पन्न हुआ, गम्भीर (महान्), नरकादि दुर्गतिका कारण और आकुलतारूप रोगसे सहित ऐसा वह घावके समान कष्टदायक मोह भी उक्त परिग्रहके परित्यागरूप मलहमसे शुद्ध होकर (नष्ट होकर) ऊर्ध्वगमन (मुक्तिप्राप्ति) में सहायक होता है ॥ १८३ ॥ यदि सुखको उत्पन्न करनेवाले मित्र और दुखको उत्पन्न करनेवाले शत्रु माने जाते हैं तो फिर जब मित्र भी मर करके वियोगजन्य दुखको करनेवाले हैं तब वे भी शत्रु ही हुए। फिर उनके लिये शोक क्यों करना चाहिये? नहीं करना चाहिये ॥ विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि जो प्राणोको सुख देता है वह मित्र माना जाता है और जो दुख देता है वह शत्रु माना जाता है। यह लोकप्रसिद्ध बात है । अब यदि विचार करें तो प्राणी जिन पिता, पुत्र एवं बन्धु आदिको मित्रके समान सुखदायक मानता है वे भी सदा सुख देनेवाले नहीं होते । कारण कि जब उनका मरण होता है तब उनके वियोगमें वह अत्यधिक दुखी होता है । ऐसी अवस्थामें वे मित्र कैसे रहे- दुखदायक होनेसे वे भी शत्रु ही हुए। फिर उनके निमित्त जो यह प्राणी शोकसंतप्त होता है वह अपनी अज्ञानताके कारण ही होता है । अतएव अज्ञानताके कारणभूत उस मोहको ही नष्ट करना चाहिये ॥ १८४ ॥ जो जडबुद्धि जीव दूसरे स्त्री, पुत्र एवं मित्र आदिके अपरिहार्य मरणके होनेपर उन्हें अपना समझ करके रोता हुआ अतिशय विलाप करता है तथा अपने मरणके भी उपस्थित होनेपर जो उसी प्रकारसे विलाप करता है
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