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आत्मानुशासनम् [श्लो० १०२मयिभ्यस्तुणवद्विचिन्त्य विषयान् कश्चिच्छ्यिं दत्तवान् पापां तामवितर्पिणीं विगणयन्नादात् परस्त्यक्तवान् । प्रागेवाकुशलां विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत् एते ते विदितोत्तरोत्तरवराः सर्वोत्तमारत्यागिनः ॥ १०२॥
अथिभ्य इत्यादि । पापां पापबहुलाम् । तां श्रियम् । अवितपिणीम् अतृप्तिकरीम् । विगणयन् मन्यमानः । अपरा (परो) विवेकी। नादात् न दत्तवान् अथिभ्यः । एवमेव त्यक्तवान् । प्रागेव प्रथमत एव । न पर्यग्रहीत् न परिगृहीतवान् । सुभग. सुविवेकी। एते प्रदर्शितस्वरूपास्ते कामदहनोद्यताः। विदितेत्यादि- विदित उत्तरोत्तरो वरो येषां ते । सर्वोत्तमः सर्वेभ्यः त्यागिभ्यः उत्कृष्टास्त्यागिनः ।। १०२॥ न च विशिष्टाः संपदः प्राप्य परित्यजता सतां
शिरच्छेद करनेके लिये उद्यत होता है । परन्तु कामीजनकी दशा इससे विपरीत है, क्योंकि काम तो उनका खण्डन करता है- उनके सुखको नष्ट करता है, परन्तु उसका खण्डन करनेके लिये वे स्वयं उद्यत नहीं होते। इतना ही नहीं, किन्तु उस घातकको भी वे अपना मित्र मानकर अनुराग ही करते हैं ॥ १०१॥ कोई विद्वान् मनुष्य विषयोंको तृणके समान तुच्छ समझकर लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) को याचकोंके लिये दे देता है; दूसरा कोई विवेकी जीव उक्त लक्ष्मीको पापका कारण और असन्तोषजनक जानकर किसी दूसरेके लिये नहीं देता है, किन्तु उसे यों ही छोड़ देता है । तीसरा कोई महाविवेकी जीव उसको पहिले ही अहितकारक मानकर ग्रहण नहीं करता है । इस प्रकार वे ये त्यागी उत्तरोत्तर त्यागकी उत्कृष्टताके जाननेवाले हैं- उत्तरोत्तर उत्कृष्टताको प्राप्त हैं। विशेषार्थ-विषयतृष्णाका कारण धन-सम्पत्ति है। कारण यह कि उसके होनेपर वह विषयभोगाकांक्षा और भी अधिक बढती है । इसीलिये विवेकी जन विषयतृष्णाकी मूलभूत उस सम्पत्तिका ही परित्याग करते हैं। प्रकृत श्लोकमें उसका परित्याग करनेवाले तीन प्रकारके बतलाये गये हैं- (१) पहिले प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने उस लक्ष्मीको तुच्छ समझते हुए दूसरों (पुत्रादि) को दे करके छोडा