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विरक्तिः संपदां त्यागः . ९९ विरज्य संपदः सन्तस्त्यजन्ति किमिहाद्भुतम् । मा वमीत् किं जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥ १०३॥ .
किंचिदाश्चर्यमस्तीति दर्शयन्नाह-- विरज्येत्यादि । विरज्य वैराग्यं गत्वा । मा वमीत् मा छद्दि करोत् । जुगुप्सावान् विचिकित्सावान् ।। १०३ ॥ श्रियं त्यजन् कश्चित् कि
है। इन्होंने यद्यपि आत्महितका तो ध्यान रक्खा है, किन्तु जिनके लिये वह दी गई है उनके हितका उन्होंने अनुरागवश ध्यान नहीं रक्खा । (२) दूसरे प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने उसे पापजनक और तृष्णाको बढानेवाली जानकर स्वयं छोड दिया है तथा दूसरोंको भी नहीं दिया है । ऐसे त्यागी अपने समान दूसरोंके भी हितका ध्यान रखनेके कारण पूर्वोक्त त्यागियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हैं। (३) तीसरे प्रकारके त्यागी वे हैं कि जिन्होंने अकल्याणकारी समझकर उसे प्रारम्भमें ही नहीं ग्रहण किया । ऐसे त्यागी सर्वोत्कृष्ट त्यागी माने जाते हैं । इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त दोनों प्रकारके त्यागियोंने तो भोगनेके पश्चात् उसे छोडा है, किन्तु इन्हें उसके स्वरूपको जानकर ही इतनी विरक्ति हुई कि जिससे उन्होंने उसे स्वीकार ही नहीं किया ॥ १०२॥ यदि सज्जन पुरुष विरक्त हो करके उन सम्पत्तियोंको छोड देते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कुछ भी नहीं । ठीक ही है- जिस पुरुषको घृणा उत्पन्न हुई है वह क्या भले प्रकार खाये गये भोजनका भी वमन (उलटी) नहीं करता है ? अर्थात् करता ही है ॥ विशेषार्थ-किसी व्यक्तिने भोजन तो बडे आनन्दके साथ किया है, किन्तु यदि पीछे उसे उसमें विषादिकी आशंकासे घृणा उत्पन्न हो गई है तो इससे या तो उसे स्वयं का हो जाता है; अन्यथा वह प्रयत्नपूर्वक वमन करके उस मुक्त भोजनको निकाल देता है । इसमें वह कष्टका अनुभव न करके विशेष आनन्द ही मानता है । ठीक इसी प्रकारसे जिन विवेकी जनोंको परिणाममें अहितकारक जानकर उस सम्पत्तिसे घृणा उत्पन्न हो गई है उन्हें