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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० १०४
श्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं सात्त्विकः स ताम् । करोति तत्त्वविच्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥ १०४ ॥
करोतीत्याह -- श्रियमित्यादि । जडः शोकम् - महता कष्टेन मयोपार्जितेयम् एवमेवं कथं त्यक्तेति श्रियं त्यजन् जडः शोकं करोति । स ताम् - स जड: प्रसिद्धो वा । सात्विक: अक्लीब: । तां श्रियं त्यजन् । विस्मयं विशिष्टः स्मयो गर्व : विस्मय: तं करोति - अहमेवेत्थंभूतां लक्ष्मीं त्यक्तुं समर्थो नान्यः इति । तत्त्ववित् हेयापादेय वस्तुस्वरूपपरिज्ञानी ॥ १०४ ॥ यथा च
उसका परित्याग करनेमें किसी प्रकारका क्लेश नहीं होता, प्रत्युत उन्हें इससे अपूर्व आनन्दका ही अनुभव होता है । उसके परित्यागमें कष्ट उन्हींको होता है जो उसे हितकारी मानकर उसमें अतिशय अनुरक्त रहते हैं ।। १०३ ।। मूर्ख पुरुष लक्ष्मीको छोडता हुआ शोक करता है, तथा पुरुषार्थी मनुष्य उस लक्ष्मीको छोडता हुआ विशेष अभिमान करता है, परन्तु तत्त्वका जानकार उसके परित्यागमें न तो शोक करता है और न विशिष्ट अभिमान ही करता है । विशेषार्थ -- नो मूर्ख जन पुरुषार्थसे रहित होते हैं उनकी सम्पत्ति यदि दुर्भाग्यसे नष्ट हो जाती है तो वे इससे बहुत दुखी होते हैं । वे पश्चात्ताप करते हैं कि बडे परिश्रमसे यह धन कमाया था, वह कैसे नष्ट हो गया, हाय अब उसके बिना कैसे जीवन बीतेगा आदि । इसके विपरीत जो पुरुषार्थी मनुष्य होते हैं वे जैसे धनको कमाते हैं वैसे ही उसका दानादिमें सदुपयोग भी करते हैं । इस प्रकारके त्यागमें उन्हें एक प्रकारका स्वाभिमान ही होता है । वे विचार किया करते हैं कि जब मैंने इसे कमाया है तो उसे सत्कार्यमें खर्च भी करना हीं चाहिये । इससे वह कुछ कम होनेवाला नहीं
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है । मैं अपने पुरुषार्थ से फिर भी उसे कमा सकता हूं आदि । यदि कदाचित् वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है तो भी अपने पुरुषार्थके बलपर उन्हें इसमें किसी प्रकारका खेद नहीं होता है । परन्तु इन दोनोंके विपरीत जो तत्त्वज्ञानी हैं वे विचार करते हैं कि ये सब धन-सम्पत्ति आदि पर पदार्थ