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बुधाः शरीरमपि सानन्दं त्यजन्ति
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विमृश्योच्चैर्गर्भात् प्रभृति मृतिपर्यन्तमखिलं मुधाप्येतत्क्लेशाशुचिभयनिकाराद्यबहुलम् । बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्तिश्च जडधीः स कस्त्यक्तुं नालं खलजनसमायोगसदृशम् ॥१०५॥ कुबोधरागादिविचेष्टितैः फलं स्वयापि भूयो जननादिलक्षणम् ।।
श्रीस्त्यजते विवेकिभिस्तथा शरीरमपीति दर्शयन्नाह- विमृश्येत्यादि । विमृश्य उच्चैः पर्यालोच्य महाप्रयत्नेन । गर्भात्प्रभृतिमृतिपर्यन्तम् अखिलम् एतत् आचरणं शरीरादिस्वरूपं वा । कथंभूतमित्याह मुधेत्यादि । मुधा एवमेव क्लेशाशुचिभयनिकाराद्यबहुलम् अपि । निकारो वञ्चना पराभवो वा । स कः । स जडधीः । नालं न समयः। खलेत्यादि । खलजनानां समायोगो मेलापक : तेन सदृशम् अनेकानर्थकारित्वेन ॥१०५।। यथा च श्रीः शरीरं च त्याज्यं तथा रागादयोऽपीत्याह-कुबोधेत्यादि । कुत्सितबोधरागादिभिः जनितः विविधचेष्टितैः । त्वयापि स्वया प्राप्तम् । प्रतीहि पूर्वमुत्तरम् उभयमपि जानीहि । प्रतिलोमवृत्तिभिः कुबोधा
हैं, ये न मेरे और न मै इनका स्वामी हूं। कर्मके उदयसे उनका संयोग
और वियोग हुआ ही करता है । ऐसा विचार करते हुए उन्हें सम्पत्तिके परित्यागमें न तो शोक होता है और न अभिमान भी ॥१०४।। गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त यह जो समस्त शरीरसम्बन्धित आचरण है वह व्यर्थ में प्रचुर क्लेश, अपवित्रता, भय और तिरस्कार आदिसे परिपूर्ण हैं; ऐसा जानकर विद्वानोंको उसका परित्याग करना चाहिये । उसके त्यागसे यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर वह कौन-सा मूर्ख है जो दुष्ट जनकी संगतिके समान उसे छोडनेके लिये समर्थ न हो? अर्थात् विवेकी प्राणी उसे छोडते ही हैं ॥ १०५ ॥ हे भव्य ! तूने बार बार मिथ्याज्ञान एवं राग-द्वेषादि जनित प्रवृत्तियोंसे जो जन्म-मरणादिरूप फल प्राप्त किया है उसके विरुद्ध प्रवृत्तियों- सम्यग्ज्ञान एवं वैराग्यजनित आचरणों के द्वारा तू
1 मु (जै. नि.) निकाराद्य ।